Friday, 11 August 2017

कजली तीज : पति की दीर्घायु का पर्व

घनश्याम डी रामावत
कर्म के साथ धर्म व मान्यताओं को अत्यधित तवज्जों देने वाले भारत देश में हिन्दू कैलेंडर के हिसाब से पांचवें माह अर्थात भाद्रपद में कृष्ण पक्ष की तृतीया को ‘कजली तीज’ के रूप में मनाया जाता हैं। यह पर्व रक्षाबंधन के तीसरे दिन और जन्माष्टमी के पांच दिन पहले मनाया जाता हैं। इस बार अर्थात वर्ष 2017 में यह पर्व राजस्थान सहित देश भर में 10 अगस्त/गुरूवार को विधि विधान से मनाया गया। ‘कजली तीज’ का धार्मिक लिहाज से खास महत्व  हैं। पति-पत्नी के रिश्ते को मजबूत बनाने के लिए महिलाएं इस व्रत को रखती हैं। मान्यता के अनुसार यह प्रत्येक सुहागन के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण  हैं। इस दिन पत्नी अपने पति की लम्बी उम्र के लिए व्रत रखती हैं, वहीं कुंआरी लडक़ी अच्छा वर पाने के लिए यह व्रत रखती हैं।

पूरे दिन निर्जला व्रत रखती हैं महिलाएं
महिलाएं ‘कजली तीज’ धूमधाम से मनाती हैं। उत्साह और उमंग से भरी महिलाएं पूरे दिन निर्जला व्रत रखती हैं और पति की दीर्घायु की कामना करती हैं। सुबह से ही उत्साह में डूबी महिलाएं सूर्योदय के साथ भक्ति के रंग में डूब जाती हैं। मन ईश्वर की आराधना में लीन हो जाता है। शाम होते ही चंद्रमा के उगने की प्रतीक्षा शुरू हो जाती हैं। घरों में नीम की डाली लाकर उसे एक वृक्ष का रूप दिया जाता  हैं। उसके समक्ष चने का सत्तू, खीरा, नींबू रखा जाता  हैं और दीपक जलाया जाता  हैं। तीज माता की कथा सुनाई जाती  हैं। कजरी तीज के लोक गीतों से वातावरण गूंज उठता हैं। चंद्रमा के उदय होने पर अर्ध्य दिया जाता हैं। सभी के कल्याण की कामना की जाती  हैं। बुजुर्गो के चरण स्पर्श करके उनका आशीर्वाद लिया जाता  हैं। उसके बाद उपवासी महिलाएं सत्तू का सेवन करती हैं। अविवाहित युवतियां भी अपने उत्तम पति की कामना से इस व्रत, पूजन को करती हैं।

‘कजली तीज’ का पुराणों में खास उल्लेख
पुराणों के अनुसार मध्य भारत में कजली नाम का एक वन था। इस जगह का राजा दादुरै था। इस जगह में रहने वाले लोग अपने स्थान कजली के नाम पर गीत गाते थे जिससे उनकी इस जगह का नाम चारों और फैले और
सब इसे जाने। कुछ समय बाद राजा की म्रत्यु हो गई और उनकी रानी नागमती सती हो गई। जिससे वहां के लोग बहुत दु:खी हुए और इसके बाद से कजली गाने पति पत्नी के जन्म जन्म के साथ के लिए गाए जाने लगे। इसके अलावा एक और कथा भी इस पर्व से जुड़ी  हुई हैं। माता पार्वती भगवान शिव से शादी करना चाहती थी लेकिन शिव ने उनके सामने शर्त रख दी और बोला कि अपनी भक्ति और मेरे प्रति अनुराग को सिद्ध कर के दिखाओ। तब पार्वती ने 108 साल तक कठिन तपस्या की और भोलेनाथ को प्रसन्न किया। शिव ने पार्वती से खुश होकर इसी तीज को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकारा था। इसलिए इसे ‘कजली तीज’ कहते  हैं। एक मान्यता के अनुसार बड़ी तीज को सभी देवी देवता शिव पार्वती की पूजा करते हैं। तीज के दिन औरतें अपने आप को अच्छे से सजाती है और पारंपरिक गाने में नाचती हैं।  इस दिन वे हाथों में मेहंदी भी लगाती हैं। ‘कजली तीज’ के दिन घर में बहुत से पकवान बनते हैं जिसमें खीर-पूरी, घेवर, गुजिया, बादाम का हलवा, काजू कतली, बेसन का लड्डू, नारियल का लड्डू, दाल बाटी चूरमा प्रमुख हैं।

बूंदी(राजस्थान) में इस पर्व का विशेष महत्व
हमारे देश में हर प्रान्त में प्रत्येक त्यौहार को अलग-अलग तरह से मनाया जाता हैं। राजस्थान के अलावा उत्तर प्रदेश, बिहार व मध्य प्रदेश सहित अन्य प्रदेशों में यह त्यौहार अलग तरीके से मनाया जाता हैं। उत्तर प्रदेश व 
बिहार में लोग नाव पर चढक़र कजरी गीत गाते हैं। राजस्थान की तरह ही वाराणसी व मिर्जापुर में इसे बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता  हैं। वहां तीज के गानों को वर्षा गीत के साथ गाया जाता हैं। राजस्थान के बूंदी स्थान में इस तीज का बहुत महत्त्व  हैं, बूंदी में ‘कजली तीज’ के दिन बड़ी धूम होती है। भाद्रपद कृष्ण पक्ष की तृतीया को बूंदी में अत्यधिक हर्षोल्लास से मनाया जाता हैं। पारंपरिक नाच होता हैं। ऊंट, हाथी की सवारी की जाती  हैं। इस दिन दूर-दूर से लोग बूंदी की इस तीज देखने जाते  हैं।
‘कजली तीज’ के अवसर पर सुहागिन महिलाएं कजरी खेलने अपने मायके जाती हैं। इसके एक दिन पूर्व यानि भाद्रपद कृष्ण पक्ष द्वितीया को ‘रतजगा’ किया जाता  हैं। महिलाएं रात भर कजरी खेलती तथा गाती हैं। कजरी खेलना और गाना दोनों अलग-अलग बातें हैं। कजरी गीतों में जीवन के विविध पहलुओं का समावेश होता हैं। इसमें प्रेम, मिलन, विरह, सुख-दु:ख, समाज की कुरीतियों, विसंगतियों से लेकर जन जागरण के स्वर गुंजित होते हैं।

‘सतवा’ व ‘सातुड़ी तीज’ भी कहा जाता हैं
‘कजली तीज’ से कुछ दिन पूर्व सुहागिन महिलाएं नदी-तालाब आदि की मिट्टी लाकर उसका पिंड बनाती हैं और उसमें जौ के दाने बोती हैं। रोज इसमें पानी डालने से पौधे निकल आते हैं। इन पौधों को कजरी वाले दिन लड़कियाँ अपने भाई तथा बुजुर्गों के कान पर रखकर उनसे आशीर्वाद प्राप्त करती हैं। इस प्रक्रिया को ‘जरई खोंसना’ कहते हैं। कजरी का यह स्वरूप केवल ग्रामीण इलाकों तक सीमित हैं। यह खेल गायन करते हुए किया जाता हैं, जो देखने और सुनने में अत्यन्त मनोरम लगता हैं। कजरी-गायन की परंपरा बहुत ही प्राचीन हैं। कजरी के मनोहर गीत रचे गए हैं, जो आज भी गाए जाते हैं। ‘कजली तीज’ को ‘सतवा’ व ‘सातुड़ी तीज’ भी कहते हैं। माहेश्वरी समाज का यह विशेष पर्व हैं। जौ, गेहूं, चावल और चने के सत्तू में घी, मीठा और मेवा डाल कर पकवान बनाया जाता हैं और चंद्रोदय होने पर उसी को भोजन के रूप में ग्रहण किया जाता हैं।

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