घनश्याम डी रामावत
समाजसेवी अन्ना हजारे ने हाल ही में आरक्षण की उपयोगिता पर सवाल उठाया हैं। इसके पहले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने भी इस विषय पर अपनी चिंता व्यक्त की थी। भागवत के पहले कांग्रेस के पूर्व केन्द्रीय मंत्री जितिन प्रसाद ने भी इस मुद्दे पर विचार की आवश्यकता बताई थी। किन्तु सवाल यह हैं कि इतने गंभीर विषय पर लालू यादव जैसे नेताओं द्वारा बेवजह हो-हल्ला मचाने के बाद वास्तविक बहस होने की संभावना ही नहीं बन पाती।
संघ प्रमुख मोहन भागवत ने यह नहीं कहा था कि आरक्षण समाप्त होना चाहिए। उन्होंने सिर्फ दो बात कही थी, पहला यह कि आरक्षण पर विचार होना चाहिए कि इसकी वास्तव में जरूरत किसे हैं? दूसरा यह कि आरक्षण कब तक जारी रखा जाना चाहिए? समाजसेवी अन्ना हजारे ने भी यही कहा हैं कि इसका लाभ हकीकत में उन लोगों तक नहीं पहुंच पा रहा हैं जो वाकई इसके हकदार हैं। निश्चित रूप से यह अफसोसजनक हैं कि आरक्षण की ठेकेदारी करने वाले लालू यादव जैसे नेताओं को बिहार चुनाव के वक्त यह अवसर मिल गया हैं कि वे इतने गंभीर मुद्दे को इतनी हल्की प्रतिक्रिया के साथ मजाक उड़ा रहे हैं, मानों आरक्षण की उपयोगिता एवं पात्रता के औचित्य पर सवाल उठाना अपराध हैं।
सच तो यह हैं कि यह सवाल उठाते वक्त संघ प्रमुख मोहन भागवत और समाजसेवी अन्ना हजारे का अपना कोई स्वार्थ नही था, अर्थात उन्हें वोटों की परवाह नहीं थी किन्तु लालू यादव और नीतीश कुमार को इन लोगों द्वारा दिए गए बयानों की निन्दा में एक अवसर नजर आ रहा हैं। वे इन बयानों की आलोचना अपने-अपने तरीके से करके अपने मतदाताओं को अपने विरोधी भाजपा से सजग रहने के लिए चेतावनी दे रहे हैं क्योंकि वे जानते हैं कि यही चेतावनी उनके लिए वोट बटौरू साबित हो सकती हैं।
बहरहाल आरक्षण किन्हें मिलना चाहिए और आरक्षण कब तक लागू रहना चाहिए ये दोनों मुद्दे इतने ज्वलंत हैं कि गुजरात पाटीदार समुदाय का आंदोलन भी इसी के केन्द्र बिन्दु में हैं। आज भले ही इन मुद्दों का मजाक उड़ाया जाए किन्तु सच तो यह हैं कि आरक्षण से जुड़ इन दो बिन्दुओं पर गंभीरता से विचार की अत्यधिक आवश्यकता हैं क्योंकि पिछले 65 वर्षो में आरक्षण का लाभ समाज के उन वंचित वर्गों तक नहीं पहुंचा हैं जिन्हें इसकी जरूरत थी। आश्चर्य की बात तो यह हैं कि आरक्षण सुविधा के बारे में डॉ. भीमराव अंबेडकर ने स्वयं यह कहा था कि यह हमेशा के लिए नहीं हो सकती। अर्थात.. संविधान में तो आरक्षण की सुविधा महज अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के लिए ही थी और बाबा साहेब की टिप्पणी भी इन्हीं दो जातियों के आरक्षण के बारे में थी। फिर भी 1980 तक किसी ने भी एससी अथवा एसटी के आरक्षण के खिलाफ आवाज नहीं उठाई थी। आज भी इन जातियों के लिए आरक्षण पर कोई सवाल नहीं उठ रहा हैं। सवाल सिर्फ पिछड़े वर्ग के आरक्षण पर ही उठ रहा हैं। इसका कारण यह हैं कि इस वर्ग को मिलने वाली आरक्षण की सुविधा सिर्फ कुछ जातियों में ही सिमट कर रह गई हैं। वह अति-पिछड़ों तक नहीं पहुंच पाई हैं।
हकीकत में आरक्षण की अवधारणा संविधान निर्माताओं ने सामाजिक संरक्षण के उद्देश्य से की थी किन्तु आज विशुद्ध रूप से वोट की राजनीति तक सिमट गया हैं। राजस्थान में सत्तारूढ़ भाजपा सरकार ने भी गुर्जरों और पिछड़े सवर्णों को आरक्षण देने के लिए कोटा 50 प्रतिशत से बढ़ाकर 69 प्रतिशत कर दिया हैं। यद्यपि राज्य सरकार को पता हैं कि अदालत उनकी इस व्यवस्था को निरस्त कर देगी। इसी तरह उत्तर प्रदेश और हरियाणा मेें जाट, महाराष्ट्र में मराठा तथा गुजरात में पटेल आरक्षण की मांग कर रहे हैं।
राजद नेता लालू यादव हमेशा संघ प्रमुख मोहन भागवत, समाजसेवी अन्ना हजारे और भाजपा नेताओं पर आरोप लगाते हैं कि ये लोग डॉ. भीमराव अंबेडकर का अपमान कर रहे हैं। ऐसा वह इसलिए बोलते हैं कि इससे पिछड़े वर्ग की कुछ जातियां तो एकजुट होगी ही, साथ ही दलित वर्ग में भी उनकी धाक जमेगी। किन्तु उनकी राजनीति गुमराह करने वाली हैं। वे डॉ. अंबेडकर और संविधान निर्मात्री सभा के मानदंडों पर बहस करने के लिए तैयार ही नहीं हो सकते। सच तो यह हैं कि संविधान मेें आरक्षण का एक ही मापदंड निर्धारित किया गया था और वह था अस्पृश्यता का शिकार रही जातियों को ही आरक्षण की सुविधा मिलनी चाहिए। जिस वक्त संविधान निर्माण हो रहा था उस वक्त तो मुश्किल से दस प्रतिशत लोग ही देश में संपन्न थे। शेष नब्बे प्रतिशत की हालत तो विपन्नता से घिरी थी। भूखमरी, अशिक्षा एवं बेराजगारी का तो पूरे देश पर साम्राज्य था। किन्तु बाद में राजनीतिक सुविधा को ध्यान में रखते हुए सामाजिक, आर्थिक तथा शैक्षणिक रूप से अच्छी स्थिति वाली जातियों को भी आरक्षण सुविधा देने की व्यवस्था की गई। जो लोग संघ प्रमुख मोहन भागवत और अन्ना हजारे का मजाक उड़ा रहे हैं उनको इस बात का अहसास नहीं हो रहा हैं कि संपन्न वर्ग के लोग आए दिन जब पिछड़ें वर्ग में शामिल हो रहे हैं तो अति-पिछड़े लोग भी सक्रिय हो रहे हैं और वे खुद को अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति को मिलने वाले कोटे में शामिल कराना चाहते हैं।
वाकई यह गंभीर चिंता का विषय हैं कि वोटों के लिए हमारे राजनेता आरक्षण के संरक्षण और नई जातियों को आरक्षण दिलाने का वादा तो कर लेते हैं किन्तु वे यह महसूस करने के लिए तैयार नहीं हैं कि जो आरक्षण सामाजिक समस्या के समाधान हेतु व्यवस्था के तौर पर बनाई गई थी वहीं अब समस्या का मूल कारण बनती जा रही हैं। यदि एक तरफ नई-नई जातियां पिछड़े वर्ग में शामिल होने के लिए प्रयासरत हैं तो दूसरी ओर यह सवाल उठना लाजमी हैं कि सरकारी नौकरियों में आरक्षण और सरकारी शैक्षणिक संस्थाओं में प्रवेश हेतु आरक्षण किसे मिले और कब मिले? सवाल सिर्फ संघ प्रमुख मोहन भागवत और समाजसेवी अन्ना हजारे की खिल्ली उड़ाने से हल नहीं होगा। चिंता की बात तो यह हैं कि अब धीरे-धीरे आरक्षण की राजनीति करने वालों के फरेब का घड़ा भरता दिख रहा हैं, कहीं समाज में विद्रोह की स्थिति न उत्पन्न हो जाए और आरक्षण समाज को बांटने का अनियंत्रित घातक हथियार बन जाए।
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