Wednesday, 21 October 2015

रावण का प्रतीक एक मनोवैज्ञानिक सत्य(Rawan's Symbol Is A Psychological Truth)!

घनश्याम डी रामावत
हर वर्ष दशहरा आता हैं और हम रावण व उसके परिजनों के पुतलों को जलाते हैं। यह रावण वास्तव में क्या हैं और उसे जलाकर हम क्या साबित करते हैं? इसका पौराणिक संदर्भ हटा दे तो रावण का प्रतीक एक मनोवैज्ञानिक सत्य हैं। पश्चिम में मनोविज्ञान ने कई मनोरोगों की खोज की हैं, जिनमें एक हैं स्किजोफ्रेनिया। इसका मतलब हैं खंडित व्यक्तित्व। जब व्यक्तित्व अत्यधिक जटिल हो तो उसके दो नहीं, अनेक टुकड़े हो जाते हैं। हमारा सामाजिक जीवन एक दिखावा होता हैं। हम जैसे हैं, वैसे बाहर दिखा नहीं सकते, इसलिए हमें नकली चेहरे ओढऩे पड़ते हैं। ओशो ने रावण की अवस्था का विश्लेषण करते हुए कहा हैं-‘पाखण्ड का अर्थ हैं जो हम नहीं हैं, वैसा स्वयं को दिखाना। जो हमारा वास्तविक चेहरा नहीं हैं, उस चेहरे को प्रकट करना। हम सबके मुखौटे हैं, जरूरत होने पर हम इन्हें बदल लेते हैं। सुबह से सांझ तक बहुत बार हमे नये-नये चेहरों का उपयोग करना पड़ता हैं। जैसी जरूरत होती हैं, वैसा चेहरा हम लगा लेते हैं। धीरे-धीरे यह भी हो सकता हैं कि इस पाखण्ड में चलते-चलते हम यह भी भूल जाएं कि वास्तव में हम हैं कौन?’ यह परीलक्षित भी होने लगा हैं।

आज जब इंसान स्वयं से पूछता हैं कि वह कौन हैं तो सचमुच कोई उत्तर नहीं आता, क्योंकि इंसान इतने चेहरे प्रकट कर चुका हैं, इतने रूप धर लिए हैं और स्वयं को इतनी सारी भ्रांतियों के साथ प्रचारित कर दिया हैं कि वह अब खुद ही भ्रम में पड़ गया हैं कि वह कौन हैं? क्या हैं उसका सच! कोई सच्चाई हैं भी या बस सब धोखा ही धोखा हैं! सुबह से सांझ तक, हम जो नहीं हैं, वह हम अपने को प्रचारित कर रहे हैं। हम रावण की कथा पढ़ते हैं, लेकिन शायद हमें उसका अर्थ पकड़ में नहीं आ रहा हैं या फिर हम उसके अर्थ को समझना ही नहीं चाहते कि रावण दशानन हैं और उसके दस चेहरे हैं। राम ‘ऑथेंटिक’ हैं, प्रामाणिक हैं। उन्हें हम पहचान सकते हैं, क्योंकि कोई धोखा अथवा फरेब नहीं हैं। रावण को पहचानना मुश्किल हैं। उसके अनेक चेहरे हैं। दस का मतलब, बहुत सारे। चूंकि दस आखिरी संख्या हैं। दस से बड़ी कोई संख्या हैं भी नहीं, दस के ऊपर सब संख्याएं जोड़ हैं। दस चेहरे का तात्पर्य हैं, बस आखिरी। उसका असली चेहरा कौनसा हैं, पहचानना वाकई मुश्किल हैं।

रावण असुर हैं और हमारे चित्त की दशा जब तक आसुरी रहती हैं, तब तक हमारे भी बहुत सारे चेहरे होते हैं। हम भी दशानन होते हैं। इससे हम दूसरों को धोखा देते हैं वह तो ठीक हैं, किन्तु तकलीफ की बात यह कि इससे हम खुद भी धोखा खाते हैं। क्योंकि हम खुद ही भूल जाते हैं कि हमारा स्वरूप क्या हैं? अब यक्ष प्रश्र यह कि हमारे अंदर विराजमान दशानन को हम कैसे जलाएं? हम उसके प्रति बिल्कुल भी जागरूक नहीं हैं। इसे यूं भी कह सकते हैं कि बेहोश हैं। लेकिन कोई हर्ज नहीं, बेहोशी टूट भी सकती हैं। जब जागो, तभी सवेरा! हमारे यह दस चेहरे दशानन और उसके परिजनों के पुतले जलाकर तो हर्गिज नहीं जल सकते। इन चेहरों को ध्यान व आत्मचिंतन से ही समझा जा सकता हैं। ध्यान अर्थात सजगता। सजगता व पूरी ईमानदारी से स्वयं के एक-एक चेहरे को देखना होगा। जब हम मुखौटा अर्थात आवरण धारण करते हैं तो सबसे पहले हमें ही पता चलता हैं। यहीं वो वक्त हैं जहां हमें सजग होने के साथ स्वयं से सवाल करने की आवश्यकता हैं, ‘यह फिर ओढ़ लिया झूठ? क्या आवश्यकता थी इसकी? यदि हम इस मुखौटे को पहचानने में कामयाब हो जाते हैं तो उसे रोकना व हटाना मुश्किल नहीं।

आखिर यह हमारा अपना खेल हैं जो हम स्वयं अपने ही साथ खेलते हैं। हम ही इसे बंद कर सकते हैं। इन सभी चेहरों के पीछे हमारा अपना असली चेहरा हैं, जो हमेशा अनबदला रहता हैं। यहीं चेहरा मूल चेहरा हैं। थोड़ा रूख बदलने की आवश्यकता हैं। एक बार रूख बदल लिया तो फिर अपने आप नकाब उतरने लगेंगे, वक्त हैं आगे बढक़र अंदर सोये श्रीराम का जगाने का। आइए! हम सभी एक सुनहरे संकल्प के साथ कदम बढ़े और दृढ़ता से दस चेहरों का हनन करें। सही मायने में इसके बाद ही हम वास्तविक दशहरा मना पाएंगे.. या यूं कहे, यही हमारे लिए असली दशहरा होगा।

धार्मिक दृष्टि से दशहरे का महत्व
आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को दशहरा मनाया जाता हैं। सम्पूर्ण भारत में यह त्यौहार उत्साह और धार्मिक निष्ठा के साथ मनाया जाता हैं। भगवान विष्णु के अवतार भगवान श्रीराम के द्वारा अधर्मी रावण को मारे जाने की घटना को याद करते हुए हर साल यह त्यौहार मनाया जाता हैं। इस वर्ष दशहरा 22 अक्टूबर गुरूवार को मनाया जा रहा हैं एवं विजयदशमी विजय मुहूर्त दोपहर एक बजकर 57 मिनट से लेकर दो बजकर 42 मिनट तक का हैं। मान्यता हैं कि विजय मुहूर्त के दौरान शुरु किए गए कार्य का फल सदैव शुभ होता हैं। मान्यता हैं कि इस दिन भगवान श्रीराम ने लंकाधिपति रावण को मारकर असत्य पर सत्य की जीत प्राप्त की थी, तभी से यह दिन विजयदशमी अर्थात दशहरे के रूप में प्रसिद्ध हो गया। दशहरे के दिन जगह-जगह रावण-कुंभकर्ण और मेघनाथ के पुतले जलाए जाते हैं। देवी भागवत के अनुसार इस दिन मां दुर्गा ने महिषासुर नामक राक्षस को परास्त कर देवताओं को मुक्ति दिलाई थी इसलिए दशमी के दिन जगह-जगह देवी दुर्गा की मूर्तियों की विशेष पूजा की जाती हैं। पुराणों और शास्त्रों में दशहरे से जुड़ी कई अन्य कथाओं का वर्णन भी मिलता हैं। लेकिन सबका सार यही हैं कि यह त्यौहार असत्य पर सत्य की जीत का प्रतीक हैं।

कई जगह किया जाता हैं अस्त्र पूजन
दशहरे के दिन कई जगह अस्त्र पूजन किया जाता हैं। वैदिक हिन्दू रीति के अनुसार इस दिन भगवान श्रीराम के साथ ही लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न की भी पूजा करनी चाहिए। इस दिन सुबह घर के आंगन में गोबर के चार पिण्ड मण्डलाकर(गोल बर्तन जैसे) बनाएं। इन्हें श्रीराम समेत उनके अनुजों की छवि मानना चाहिए। गोबर से बने हुए चार बर्तनों में भीगा हुआ धान और चांदी रखकर उसे वस्त्र से ढक दें। फिर उनकी गंध, पुष्प और द्रव्य आदि से पूजा करनी चाहिए। पूजा के पश्चात ब्राह्मणों को भोजन कराकर स्वयं भोजन करना चाहिए। धारणा हैं कि ऐसा करने से मनुष्य वर्ष भर सुखी रहता हैं।

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