Wednesday, 21 October 2015

मातृ-शक्ति और नारी-सशक्तिकरण का प्रतीक ‘नवरात्र’(Maternal & Female Empowerment Symbol 'Nav-Ratra')...

घनश्याम डी रामावत
नवरात्र के नौ दिनों में माता के नौ रूपों की पूजा करने का विशेष विधि विधान हैं। साथ ही इन दिनों में जप-पाठ, व्रत- अनुष्ठान, यज्ञ-दानादि शुभ कार्य करने से व्यक्ति को पुण्य फलों की प्राप्ति होती हैं। देवी दुर्गा को संसार की शक्ति का आधार माना गया हैं। वेदों और पुराणों में देवी दुर्गा का वर्णन देवी भगवती, आदि शक्ति, महागौरी आदि नामों से किया गया हैं। देवी भागवत में वर्णन किया गया हैं कि आश्विन मास में मां भगवती की पूजा करने से मनुष्य का कल्याण होता हैं। नवरात्र के पहले दिन मां शैलपुत्री की पूजा की जाती हैं तथा इसी दिन शुभ घटस्थापना की भी परम्परा हैं। नवरात्र के दूसरे दिन देवी ब्रह्मचारिणी की पूजा और नवरात्र के तीसरे दिन देवी दुर्गा के चन्द्रघंटा रूप की आराधना की जाती हैं। इसी प्रकार नवरात्र पर्व के चौथे दिन मां भगवती के देवी कूष्मांडा स्वरूप की उपासना के साथ पांचवे दिन भगवान कार्तिकेय की माता स्कंदमाता तथा आश्विन शुक्ल षष्ठी यानि शारदीय नवरात्र के छठे दिन मां कात्यायनी की पूजा(नारदपुराण के अनुसार) का प्रावधान हैं। नवरात्र के सातवें दिन मां कालरात्रि की व आठवें दिन मां महागौरी की पूजा की जाती हैं। इस दिन कई लोग कन्या पूजन भी करते हैं। अंतिम दिन अर्थात नौवें दिन भगवती के देवी सिद्धदात्री स्वरूप का पूजन किया जाता हैं। इस सिद्धिदात्री पूजा के साथ ही नवरात्र में नवदुर्गा पूजा का अनुष्ठान पूर्ण हो जाता हैं।

मां दुर्गा की आराधना का यह पर्व अर्थात नवरात्र हर वर्ष आता हैं। धार्मिक दृष्टि से अत्यधिक पावन इस पर्व के जरिये हमारे सामाजिक जीवन में हर बार अनेक नवीन घटनाओं व परिकल्पनाओं का जन्म होता हैं। हम अंतर्मन से बेहतरीन संकल्पों के साथ नौ दिन लगातार मातृ शक्ति की आराधना करते हैं। पौराणिक दृष्टि से नवरात्र मातृ-शक्ति और नारी-सशक्तिकरण का प्रतीक हैं। आदिशक्ति को पूजने वाले भारत में नारी को शक्तिपुंज के रूप में जाना जाता हैं। यहीं नहीं, नारी सृजन की प्रतीक हैं और हमारे यहां साहित्य और कला में नारी के ‘कोमल’ रूप की कल्पना की गई हैं। कभी उसे ‘कनक-कामिनी’ तो कभी ‘अबला’ कहकर उसके रूपों को प्रकट किया गया हैं। पर आज की नारी इससे आगे हैं.. वह न तो सिर्फ ‘कनक-कामिनी’ हैं और न ही ‘अबला’, इससे परे वह दुष्टों की संहारिणी भी बनकर उभरी हैं। यह अलग बात हैं कि समाज उसके इस रूप को नहीं पचा पाता। आज के दौर में रोजाना जिस प्रकार की बुरी घटनाएं सामने आ रही हैं उसके अनुसार वह उसे घर की चारदीवारी में ही सिमटा हुआ देखना चाहता हैं। बेटियां कितनी भी प्रगति कर लें, तथाकथित पुरुषवादी समाज को संतोष नहीं होता। उसकी हर सफलता और ख़ुशी बेटों की सफलता और सम्मान पर ही टिकी नजर आती हैं। तभी तो आज भी गर्भवती स्त्रियों को ‘पुत्रवती भव:’ का ही आशीर्वाद दिया जाता हैं।

सचमुच! मां दुर्गा के पावन पर्व नवरात्र पर नारी शक्ति के सम्मान व पूजा का दंभ भरने वाले समाज की स्त्री-शक्ति को लेकर परिलक्षित हो रही इस सोच को क्या नाम दिया जाना चाहिए? विचारणीय हैं। नवरात्र पर देवियों की पूजा करने वाले समाज में अनेक बार यह सुनने को मिलता हैं कि बेटा न होने पर बहू को प्रताडऩा किया गया। कभी लड़कियों के जल्दी ब्याह की बात तो कभी उनके पहनावे को लेकर तरह-तरह की सलाह, कभी रात्रि में बाहर न निकलने की हिदायत, कभी सह-शिक्षा को दोष तो कभी मोबाईल या फेसबुक से दूर रहने क़ी सलाह। समाज को अधिकांशत: दोष महिलाओं की जीवन-शैली में दिखता हैं, वह यह स्वीकारने को तैयार ही नहीं हैं कि दोष समाज की मानसिकता में हैं और आवश्यकता सोच को बदलने की हैं। ‘नवरात्र’ के दौरान अष्टमी के दिन नौ कन्याओं को भोजन कराने की परंपरा रही हैं। लोग कन्याओं को ढूढऩे के लिए गलियों की खाक छानते हैं, पर यह कोई नहीं सोचता कि अन्य दिनों में लड़कियों के प्रति समाज का क्या व्यवहार होता हैं।

अंतर्मन से आत्मचिंतन व सकारात्मक सोच विकसित करने की जरूरत
ताज्जुब होता हैं कि यह वही समाज हैं जहां भ्रूण-हत्या, दहेज हत्या व बलात्कार जैसे मामले रोज सुनने को मिलते हैं पर नवरात्र की बेला पर समाज नौ कन्याओं को भोजन कराकर, उनके चरण स्पर्श कर अपनी इतिश्री कर लेना चाहता हैं। आखिर यह दोहरापन क्यों? इसे समाज की संवेदनहीनता माना जाएं या कुछ और.. आज बेटियां जमीं से आसमां तक परचम फहरा रही हैं, पर उनके जन्म के नाम पर ही समाज में विचारधारा ठीक नहीं हैं। इनमें महिलाएं भी शामिल होती हैं। वे स्वयं भूल जाती हैं कि वे स्वयं एक महिला हैं। समाज बदल रहा हैं। अभी तक बेटियों द्वारा पिता की चिता को मुखाग्नि देने के वाकये सुनाई देते थे, हाल के दिनों में पत्नी द्वारा पति की चिता को मुखाग्नि देने और बेटी द्वारा पितृ पक्ष में श्राद्ध कर पिता का पिण्डदान करने जैसे मामले भी प्रकाश में आये हैं। फिर पुरूषों को यह चिन्ता क्यों हैं कि उनकी मौत के बाद मुखाग्नि कौन देगा। अब तो ऐसा कोई बिन्दु बचता भी नहीं, जहां महिलाएं पुरूषों से पीछे हैं। फिर भी समाज उनकी शक्ति को क्यों नहीं पहचानता?

समाज इस शक्ति की आराधना तो करता हैं पर वास्तविक जीवन में उसे वह दर्जा नहीं देना चाहता। नवरात्र पर नौ कन्याओं को भोजन कराने मात्र से ही क्या कर्तव्यों की इतिश्री हो जाती हैं? वाकई! नवरात्र के पावन अवसर पर मां दुर्गा स्वरूप मातृ-शक्ति और नारी-सशक्तिकरण को लेकर समाज को अंतर्मन से आत्मचिंतन करने के साथ ही सकारात्मक सोच विकसित करने की आवश्यकता हैं।

2 comments:

  1. यह सत्य है की मातृ-शक्ति, नारी-सशक्तिकरण नवरात्री का प्रतीक भी मन जाता हैं।मनीषा बापना जी एक सामाजिक कार्यकर्त्ता है जो की सदैव नारियो का नारी सशक्तिकरण करके उन्हें हर समसंभव मदद प्रदान करती है|

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