Wednesday, 4 April 2018

हिंसा समस्या का समाधान नहीं

घनश्याम डी रामावत
दलितों, आदिवासियों का उत्पीडऩ एक सामाजिक सच्चाई हैं जिससे कोई इंकार नहीं कर सकता और इसे दूर करने की भी सख्त आवश्यकता हैं पर जो तरीका इसको करने में अपनाया गया, उसे सही नहीं माना जा सकता। हिंसा की न तो गुंजाइश हैं और न ही इसके बूते किसी भी समस्या का समाधान संभव हैं। 2 अप्रैल को भारत बंद भले ही न हुआ हो, लेकिन हिल जरूर गया हैं। एससी-एसटी एक्ट के बारे में सुप्रीम कोर्ट का जो फैसला पिछले दिनों आया, उसे लेकर दलित समुदाय में काफी आक्रोश हैं। सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया था कि इस कानून में महज प्राथमिकी के आधार पर जो गिरफ्तारी होती हैं, वह गलत हैं। आदर्श स्थिति तो शायद यह होती हैं कि सुप्रीम कोर्ट अगर किसी मसले पर कोई फैसला दे दे तो या तो उसे मान लिया जाए और नहीं तो उसके खिलाफ पुनर्विचार याचिका डाली जाए। केन्द्र सरकार की ओर से इस पर पुनर्विचार याचिका डाल भी दी गई हैं और इस पर भी सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्टीकरण दे दिया हैं/यह अलग मुद्दा हैं। 

सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को समझना जरूरी 
ऐसा नहीं कि सुप्रीम कोर्ट के किसी फैसले के खिलाफ जनता पहली बार सडक़ों पर उतरी हो। लोकतंत्र में हिंसा के लिए कोई जगह नहीं है, क्योंकि यह न तो लाठी और बल से चलता हैं और न ही अनैतिक क्रियाकलापों से। लोकतंत्र की संचालन शक्ति सामाजिक और आर्थिक न्याय हैं और उसे अदालती स्तर पर ही नहीं बल्कि अन्य संस्थाओं के स्तर पर सुनिश्चित किया जाना चाहिए। इसके साथ ही हमें सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को भी समझने की कोशिश करनी होगी। दुनियाभर के नागरिक अधिकार संगठन, मानवाधिकार संस्थाएं हमेशा से यह कहती हैं कि अगर किसी भी गैर-नृशंस अपराध में महज एफआईआर के आधार पर गिरफ्तारी का प्रावधान हैं तो उसका दुरुपयोग होगा। ऐसा हमने दहेज विरोधी कानून में भी देखा हैं। मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार की रिव्यू पिटीशन पर टिप्पणी की कि हमने एससी/एसटी एक्ट को कमजोर नहीं किया हैं। जो लोग इसका विरोध कर रहे हैं उन्होंने फैसले को सही से पढ़ा ही नहीं या फिर निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा उन्हें गुमराह कर दिया गया हैं। हमने यही कहा हैं कि निर्दोष व्यक्तियों को सजा नहीं मिलनी चाहिए। भारत बंद में 15 राज्यों में प्रदर्शन हुए। इस दौरान हिन्दी बेल्ट के 10 राज्यों में उपद्रव के दौरान 13 लोगों की जानें गईं। दरअसल राजनीतिक दल दलित वोटों के लिए कुछ भी कर सकते हैं। देश में 17 प्रतिशत दलित वोट हैं और 150 से अधिक लोकसभा सीटों पर दलितों का प्रभाव है। इसलिए आंदोलन के साथ सभी राजनीतिक दल खड़े हैं। जिन 12 राज्यों में हिंसा हुई वहां एससी/एसटी वर्ग से 80 सांसद हैं। दलितों को अपनी राय प्रकट करने का पूरा अधिकार हैं पर यह तरीका सही नहीं माना जा सकता। 

अखिल भारतीय जीनगर महासभा ने की भत्र्सना
बहरहाल! यह प्रसन्नता का विषय हैं कि 2 अप्रैल को भारत बंद के दौरान हुई हिंसा व आगजनी के खिलाफ अब कुछ प्रमुख दलित संगठन स्वयं आगे आकर इसकी भत्र्सना करने लगे हैं। अखिल भारतीय जीनगर महासभा के राजस्थान प्रदेशाध्यक्ष गोपाल जादूगर ने मंगलवार को देशभर में हुई हिंसा, तोडफ़ोड़ व आगजनी को गलत बताते हुए कहा कि लोकतंत्र में विरोध का यह तरीका ठीक नहीं हैं। जादूगर ने कहा कि कुछ शरारती तत्वों की वजह से समूचे एससी-एसटी वर्ग की बदनामी होती हैं/विरोध सार्थक व गांधीवादी होना चाहिए। भविष्य में किसी भी रूप में इसकी पुनरावृति नहीं हो, आंदोलन के रणनीतिकारों का इसका विशेष ध्यान रखना होगा। गोपाल जादूगर ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व केन्द्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद को पत्र लिखकर सुप्रीम कोर्ट द्वारा एससी-एसटी एक्ट में हालिया किए गए बदलाव मामले में केन्द्र सरकार की ओर से दाखिल की गई पुनर्विचार याचिका के लिए आभार व्यक्त करते हुए मजबूत पैरवी की अपील की हैं। जादूगर ने एक्ट में बदलाव को गैर जरूरी बताते हुए कहा कि इससे इस अधिनियम के कमजोर होने की संभावना हैं तथा एक्ट का मूल उद्देश्य भी निष्प्रभावी होगा। 

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