घनश्याम डी रामावत
देश में इस समय जिस तरह का माहौल हैं अर्थात लोगों की जिस तरह की जीवन जीने की शैली हो गई हैं, कहीं न कहीं मानवीय मूल्य पीछे छूटते से प्रतीत होने लगे हैं। हर कोई अपने आप में मस्त हैं, कौन क्या कर रहा हैं/उसका अन्य से कोई वास्ता नहीं/सरोकार नहीं/हस्तक्षेप नहीं। विशुद्ध रूप से यहीं कारण हैं कि दिन प्रतिदिन अपराधों का ग्राफ तो बढ़ ही रहा हैं, संस्कारों का विकृत स्वरूप अर्थात नैतिक पतन के अनेक मामले रोजाना सामने आ रहे हैं। अब समय आ गया हैं जब मानवीय मूल्यों की संरक्षा हेतु सभी को पूरी ताकत/दिल से आगे आना होगा। अब भी नहीं संभले तो मानवीय मूल्यों/संस्कारों की अनदेखी आगे चलकर सभी को बेहद भारी पडऩे वाली हैं।
किसी भी इंसान के जीवन में मूल्यों का अहम योगदान रहता हैं क्योंकि इन्हीं के आधार पर अच्छा-बुरा या सही-गलत की परख की जाती हैं। इंसान के जीवन की सबसे पहली पाठशाला उसका अपना परिवार ही होता हैं और परिवार समाज का एक अंग हैं। उसके बाद उसका विद्यालय, जहां से उसे शिक्षा हासिल होती हैं। परिवार, समाज और विद्यालय के अनुरूप ही एक व्यक्ति में सामाजिक गुणों और मानव मूल्यों का विकास होता हैं। प्राचीन काल के भारत में पाठशालाओं में धार्मिक शिक्षा के साथ मूल्य आधारित शिक्षा भी जरूरी होती थी। लेकिन वक्त के साथ यह कम होता चला गया और आज वैश्वीकरण के इस युग में मूल्य आधारित शिक्षा की भागीदारी लगातार घटती जा रही हैं। सांप्रदायिकता, जातिवाद, हिंसा, असहिष्णुता और चोरी-डकैती आदि की बढ़ती प्रवृत्ति समाज में मूल्यों के विघटन के ही उदाहरण हैं। भारतीय संविधान का अनुच्छेद-15 किसी भी व्यक्ति के साथ जाति, धर्म, भाषा और लिंग के आधार पर भेदभाव की मुखालफत करता हैं। लेकिन सच यह हैं कि संविधान लागू होने के पैंसठ साल बाद भी हमारे विद्यालयों में जाति, धर्म, भाषा और लिंग के आधार पर भेदभाव करने वाले उदाहरण आसानी से मिल जाएंगे। आज भी अक्सर देखा जाता हैं कि विद्यालय में पानी भरने के अलावा सफाई का काम लड़कियों से ही कराया जाता है। अध्यापक पीने के लिए पानी कुछ खास जाति के बच्चों को छोड़ कर दूसरी जातियों के बच्चों से ही मंगवाते हैं। ऐसे उदाहरण भी अक्सर देखने में आ जाते हैं कि विद्यार्थी मिड-डे-मील अपनी-अपनी जाति के समूह में ही बैठ कर खाते हैं। स्कूल में कबड्डी जैसे खेल सिर्फ लडक़े खेलते हैं। इस प्रकार के अनेक उदाहरण हमारे आसपास के स्कूलों में देखने को मिल जाएंगे।
एनसीईआरटी द्वारा की गई हैं सार्थक पहल
हाल ही में नई दिल्ली स्थित एनसीईआरटी ने वर्तमान संदर्भ में प्रासंगिक मूल्यों की सूची तैयार की हैं। इसका बदलाव संदर्भित प्राथमिक स्तर की पाठ्यपुस्तकों में भी देखा जा सकता हैं। कुछ साल पहले तक पाठ्य पुस्तकों में भी भेदभाव करने वाले चित्र नजर आते थे, मसलन, झाड़ू लगाती हुई लडक़ी, खाना बनाती औरतें, हल चलाते हुए किसान और उपदेश देते गुरू आदि। लेकिन पाठ्य पुस्तकों में बदलाव के बाद इन चित्रों में गुणात्मक बदलाव देखने को मिलता हैं। मसलन, सफाई करते हुए लडक़े और खेलती हुई लड़कियां आदि। पाठ्य-पुस्तकों में जाति, धर्म और लिंग आधारित चित्रों में जो रूढि़बद्ध जड़ता थी, उससे आगे बढ़ कर अब तस्वीर का दूसरा पहलू भी सामने आ रहा हैं। यह बदलाव केवल चित्र के स्तर पर नहीं, बल्कि विषय-वस्तु और निर्देशों के स्तर पर भी देखा जा सकता हैं। लेकिन यहां ध्यान देने योग्य बात यह हैं कि जिन मूल्यों की बात पाठ्य-पुस्तक करती हैं, उनका उपयोग शिक्षक विद्यालय में कैसे कर रहा हैं? यह एक अजीब विडंबना हैं कि पाठ्यपुस्तकों से शिक्षाविदों ने सामाजिक और मानवीय भेदभाव को अभिव्यक्त करने वाले चित्रों को तो बदल दिया, मगर विद्यालयी वातावरण में वह आज भी उसी शक्ल में मौजूद हैं। आमतौर पर शिक्षक बच्चों को पाठ पढ़ाना और नैतिक सीख देना ही काफी समझते हैं और विद्यार्थी के व्यवहार में मूल्यगत बदलाव पर कम ध्यान देते हैं, क्योंकि जिस जाति या समाज से शिक्षक संबंध रखता हैं, उसके मुताबिक उसकी अपनी कुछ मान्यताएं होती हैं।
सभी को मिल-जुल कर कार्य करने की जरूरत
सभी को मिल-जुल कर कार्य करने की जरूरत
उन अतार्किक जड़बद्ध सामाजिक-धार्मिक पूर्वाग्रहों की वजह से शिक्षक तर्कशील होकर नहीं सोच पाता हैं, क्योंकि उस पर जाति, धर्म और समाज विशेष की पहले से बनी धारणाएं हावी रहती हैं। उन्हीं रूढि़बद्ध मान्यताओं के अनुसार वह चलना चाहता हैं। लेकिन जब तक शिक्षक अपने आपको तर्क की कसौटी पर रख कर नहीं सोचेगा, तब तक वह न तो अपने व्यवहार में परिवर्तन ला सकता हैं और न ही विद्यार्थियों में मूल्यों के प्रति आस्था विकसित कर सकता हैं। एक शिक्षक का फर्ज बनता हैं कि वह पाठ्य-पुस्तकों में दिए गए ‘मूल्यों’ का महत्व समझे, उन्हें अपने जीवन व्यवहार का हिस्सा बनाए, फिर बच्चों के दैनिक व्यवहार में लाने का प्रयास करें। स्कूलों से समाज की अपेक्षा होती हैं कि वह तर्कशील मनुष्य प्रदान करे। इसलिए स्कूलों में ही जरूरी मानव मूल्यों की शिक्षा नहीं दी गई तो कहीं न कहीं राष्ट्र के प्रति अपनी नैतिक जिम्मेदारी निभाने से हम चूक जाएंगे। लिहाजा, जरूरी हैं कि पाठ्य-पुस्तकों में उल्लेखित मूल्यों के प्रति शिक्षक समाज चिंतनशील हो, उन्हें बच्चों के दैनिक जीवन में लेकर आए। मेरा तो यह मानना हैं कि इस मामले में समाज के सभी तबकों को/अभिभावकों को भी पूरे मन से आगे आना होगा और मानवीय मूल्यों की रक्षा/सुदृढ़ स्थापना हेतु कार्य करना होगा, तभी जाकर अपेक्षित सफलता हाथ लग सकेगी और एक सुखी, समृद्ध/संस्कारी समाज की स्थापना हो सकेगी।
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