घनश्याम डी रामावत
यूपी में जिस तरह से दो धुर विरोधी कहे जाने वाले समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी में चुनावी गठबंधन हुआ हैं, उससे राजनीतिज्ञों व राजनीति को लेकर कहे जाने वाले सदाबहार वाक्य ‘राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं’ को ही बल मिला हैं। राजनीति वाकई राजनीति हैं। राजनीतिक मजबूरियां कई बार दुश्मनी को भूलने और चाहत बदलने को मजबूर कर देती हैं, उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में यही हुआ हैं। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने लोकसभा के दो उपचुनावों के लिए परस्पर हाथ मिलाया हैं ताकि भाजपा को टक्कर दी जा सके। इस राजनीतिक मिलन को भाजपा चुनौती मानती हैं अथवा नहीं/यह अलग विषय हैं लेकिन इतना तय हैं कि उसे गोरखपुर व फूलपुर संसदीय सीटें बचाने में कुछ अधिक जोर लगाना पड़ सकता हैं।
पहले भी रहा हैं दोनों दलों के बीच गठबंधन
गोरखपुर की सीट मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ व फूलपुर की सीट उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य की प्रतिष्ठा से जुड़ी हैं। इन सीटों के चुनाव परिणामों का भारतीय राजनीति पर गहरा असर पड़े बिना नहीं रहेगा। अगर सपा-बसपा ने भाजपा को पटखनी दे दी तो फिर उनके बीच आगे गठबंधन की संभावना बनेगी और दूसरे राज्यों में कई दल अगले विधानसभा चुनावों व फिर लोकसभा चुनावों में गठबंधन की तरफ आगे बढ़ेंगे। अगर उप चुनावों में भाजपा ने अपने दम पर बाजी मार ली तो फिर गठबंधन की राजनीतिक को झटका लगेगा और संदेश यही जाएगा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के प्रभाव व रणनीति से टक्कर लेना आसान नहीं हैं। इससे विपक्षी दलों में और निराशा बढ़ेगी। वैसे भी देखें तो बसपा की नीति उप चुनाव लडऩे की कभी नहीं रही हैं। सपा को समर्थन देकर इस हाथ ले, उस हाथ दे की नई नीति पर काम कर रही हैं। बसपा प्रमुख मायावती ने दोनों संसदीय क्षेत्रों में सपा के उम्मीदवारों को समर्थन देने की घोषणा कर दी हैं। अपने समर्थकों को सपा को वोट दिलाने की अपील की गई हैं। इसके बदले में बसपा ने सपा के सामने मांग रखी हैं उसे राज्यसभा चुनावों में सपा अपने अतिरिक्त वोट दिलवाएगी। क्योंकि आगामी राज्यसभा चुनाव में बसपा की हैसियत अपने दम पर एक भी सीट जीतने की नहीं हैं। ऐसे ही सपा भी अपने स्तर पर दो उम्मीदवारों को भी राज्यसभा नहीं भेज सकती। यही वजह है कि सपा से सबसे अधिक दुश्मनी रखने वाली मायावती ने सपा के साथ कुछ आगे बढ़ाया है, यह सिर्फ मजबूरी का कारण है। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव वैसे कई बार बसपा से गठबंधन की पेशकश सामने रख चुके हैं, लेकिन बसपा ने कभी उसका सकारात्मक उत्तर नहीं दिया। आज भी मायावती ने साफ कहा हैं कि भविष्य में गठबंधन की कोई संभावना नहीं हैं। स्पष्ट हैं कि यह तात्कालिक मिलन एक परीक्षण मात्र हैं। यदि यह सफल रहता हैं तो भविष्य की चिंता दोनों दलों को नजदीक ला भी सकती हैं। वैसे भी दोनों सपा-बसपा में पहले भी गठबंधन रहा हैं। 1993 में दोनों दलों ने गठबंधन करके चुनाव लड़ा था और भाजपा को हार का सामना करना पड़ा था। मुलायम सिंह के नेतृत्व में सरकार बनी, लेकिन दो साल बाद यह गठबंधन टूट गया। बसपा ने समर्थन वापस ले लिया तो मुलायम सरकार गिर गई। यह अलगाव गेस्ट हाउस कांड के कारण दुश्मनी में बदल गया। तब से 22 साल गुजर गए और बसपा ने सपा से दूरी बनाए रखी।
उप चुनाव परिणाम तय करेंगे भविष्य की तस्वीर
अब सपा का नेतृत्व अखिलेश कर रहे हैं तो मायावती अवसर देखकर राजनीतिक दुश्मनी को शायद भुला भी सकती हैं। वैसे 2014 के लोकसभा चुनाव व पिछले विधानसभा चुनाव ने दोनों दलों को अच्छी तरह अहसास करा दिया हैं वे अलग-अलग भाजपा का सामना नहीं कर सकते। लोकसभा चुनाव में तो बसपा को एक भी सीट नहीं मिली थी। विधानसभा चुनाव में मायावती को लग रहा था वे अकेले भाजपा से बाजी मार लेंगी, लेकिन उनकी पार्टी तीसरे नंबर पर सिमट कर रह गई। अब भी सपा-बसपा के बीच जो छोटा समझौता हुआ हैं उससे ज्यादा उम्मीद तो नहीं जगती। हालांकि कुछ लोग इसे काफी महत्वपूर्ण मानकर चल रहे हैं। लेकिन यक्ष प्रश्र यह कि क्या मात्र इस समझौते से भाजपा इन दोनों सीटों को हार जाएगी? ऐसा लगता तो नहीं हैं। क्योंकि पिछले चुनाव में इन सीटों पर भाजपा को 51 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिले थे जबकि दोनों सीटों पर सपा और बसपा को मिलाकर 37-38 प्रतिशत से ज्यादा वोट नहीं मिले। बहरहाल, अब समझौता महत्वपूर्ण नहीं रह गया हैं, बल्कि उप चुनाव के नतीजों का इंतजार महत्वपूर्ण बन गया हैं। इस अनूठे गठबंधन की सही समीक्षा व भविष्य की तस्वीर से रूबरू होने के लिए उप चुनाव नतीजों के इंतजार से बेहतर अन्य कोई विकल्प नहीं।
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