Sunday, 18 March 2018

‘शनि’ अमावस्या विशेष : सप्तम ग्रह के रूप में मान्यता

घनश्याम डी रामावत
नवग्रहों में शनि को सप्तम ग्रह के रूप में मान्यता हैं। लिखा हैं-‘अथ खेटा रविश्चन्द्रो मंगलश्व बुधस्तथा। गुरू: शुक्र: शनि राहु: केतुश्चेते यथाक्रमम्’ रवि, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु व केतु ये क्रम से नवग्रह हैं। शनि के नाम-मंद, कोण, यम और कृष्ण हैं। शनि क्रूर ग्रह हैं। तत्र्राक शनि भूस्वुत्रा: क्षीणेन्दु-राहु-केतव:। क्रूरा:, शेषग्रहा सौम्या क्रूर: क्रूर-युतोबुध:। इन ग्रहों में रवि, शनि, मंगल, क्षीणचन्द्र, राहु-केतु को क्रूर ग्रह में लिखा गया हैं जिसमें शनि भी हैं। छाया सुनुश्चेदु:खद: से शनि को दु:खस्वरूप कहा हैं। शनि को श्रमिक या भृत्य का कारक कहा गया हैं।

शनि का जन्म ज्येष्ठ माह की अमावस्या को 
जोधपुर स्थित श्री सिद्धनाथ महादेव मंदिर दादा दरबार में आचार्य के रूप में सेवाएं दे रहे रामेश्वर महादेव मंदिर के पुजारी ज्योतिष विषारद पण्डित मुकेश त्रिवेदी के अनुसार शनि को कृष्ण वर्ण कहा गया हैं। शनि स्त्री-पुरुषादि में नपुंसक हैं और वायुतत्व हैं। शनि तमोगुणी हैं। शनि का स्वरूप दुर्बल, लंबादेह, पिंगल नेत्र, वात प्रकृति, स्थूल दंत, आलसी, पंगु, कठोर रोम वाला कहा हैं। शरीर में स्नायुओं का शनि स्वामी हैं। कसैला रस शनि का हैं। शनि पश्चिम दिशा का स्वामी हैं। शनि रात्रि बली हैं। शनि कृष्ण पक्ष में, दक्षिणायन में बली होते हैं। कुत्सित वृक्षों का शनि स्वामी हैं। नीरस वृक्षों की उत्पत्ति शनि से होती हैं। शनि शिशिर ऋ तु का स्वामी हैं। वृद्धस्वरूप हैं। शनि पुष्प, अनुराधा व उत्तरा भाद्रपदा नक्षत्र का स्वामी हैं। राशियों में मकर-कुंभ राशि का अधिपति हैं। शनि के बुध, शुक्र मित्र ग्रह हैं। सूर्य, चन्द्र व मंगल शत्रु हैं। गुरू सम हं। शनि जन्माक्षर में स्थित अपने स्थान से 3, 7, 10वें स्थान को पूर्ण दृष्टि से देखता हैं। भगवान शनिदेव का जन्म ज्येष्ठ माह की अमावस्या को हुआ था, इसलिए इस दिन का खास महत्व हैं।

गति कम/38 से 30 वर्ष में पूरा भ्रमण
ज्योतिष विषारद पण्डित त्रिवेदी के अनुसार नवग्रहों में शनि आकाश में सबसे अधिक दूरी पर होने से, उसका वृत्त मार्ग बड़ा हैं इसलिए शनि की गति कम हैं। उसको पूरा चक्र भ्रमण में लगभग 38 से 30 वर्ष लगते हैं अर्थात 12 राशि के भ्रमण में लगभग 28 से 30 वर्ष लगते हैं। एक राशि का भ्रमण काल औसत 2।। वर्ष होता हं। दूरबीन से देखने पर शनि अन्य ग्रहों की अपेक्षा सबसे सुंदर दिखाई देता हैं। उसके पिंड के चारों ओर एक सुंदर वलय दिखाई देता हैं। अति दूर पर होने के बाद भी यह दु:खकारक शनि प्राणियों को संकट देता रहता हैं। ढैय़ा और साढ़ेसाती के रूप में इसका प्रभाव मनुष्यों पर होता है। लघु कल्याणी अर्थात ढ़ैया शनि, बृहत्कल्याणी अर्थात साढ़ेसाती। अपनी राशि से शनि की स्थिति 12वीं, पहली व द्वितीय होने पर साढ़ेसाती होती हैं। शनि की चतुर्थ-अष्टम स्थिति लघु कल्याणी के रूप में मानी जाती हैं। 

दोष निवृति के लिए 23 हजार शनि जाप
शनि अपनी राशि का मित्र हो और कुंडली में उत्तम स्थान या मित्र, उच्च व स्वराशि में स्थित हो तो साढ़ेसाती का प्रभाव विशेष प्रतिकूल नहीं होता हैं। शनि दोष निवृत्ति के लिए शनि के पदार्थों का दान करें, यथा नीलम, सुवर्ण, लोहा, उड़द, काली तिल, तेल, कृष्ण वस्त्र, काले या नीले पुष्प, कस्तूरी, काली गौ, भैंस का दान करें। शनि को काले तिल, सूरमा, लोबान, धमनी, सौंफ, मुत्थरा एवं खिल्ला आदि वनस्पतियों से स्नान कराया जाता हैं। शनि दोष निवृत्ति के लिए ‘ॐ खां खीं खूं स: मंदाय नम:’ बीज मंत्र का जाप करें अथवा पुराणोक्त मंत्र का जाप (नीलांजन समाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम। छाया मार्तण्डसंभूतं तम नमामि शनैश्चरम्) करना चाहिए। इस मंत्र का जाप 23 हजार बार करना चाहिए। कलियुग चतुर्गुणित 92 हजार संख्या में करें। तेल का दीपक भी लगाएं। काली तिल से हवन करें।

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