घनश्याम डी रामावत
विश्व की महान कवित्रियों में कृष्ण भक्ति शाखा की कवियित्री राजस्थान की मीरा बाई का जीवन समाज को अलग ही संदेश देता हैं। मीरा बाई के जीवन चरित्र को आधुनिक युग की कई फिल्मों, साहित्य और कॉमिक्स का विषय बनाया गया हैं। मीरा बाई का जीवन प्रारंभ से ही कृष्ण भक्ति से प्रेरित रहा और वे जीवन भर बावजूद विषम परिस्थितियों के कृष्ण भक्ति में लीन रहीं। कोई भी बाधा उनका मन कृष्ण भक्ति से विमुख नहीं कर सकी।
मीरा बाई कृष्ण भक्ति में रत रहकर वह अमर हो गईं और आज भी उनका नाम पूरी श्रद्धा, आदर और सम्मान के साथ स्मरण किया जाता हैं। उन्होंने न केवल पावन भावना से कृष्ण भक्ति की बल्कि अपनी भावना को कृष्ण के भजनों में पिरोकर उन्हें नृत्य संगीत के साथ अभिव्यक्ति भी प्रदान की। यही नहीं वह जहां भी गईं भक्त जैसा नहीं बल्कि देवियों जैसा सम्मान प्राप्त किया। मीरा बाई ने ‘वरसी का मायरा’, ‘गीत गोविन्द टीका’, ‘राग गोविन्द’ एवं ‘राग सोरठा के पद’ नामक ग्रन्थों की भी रचना की। मीरा बाई के भजनों व गीतों का संकलन ‘मीरा बाई की पदावली’ में किया गया।
श्रीकृष्ण को समर्पित भजन आज भी लोकप्रिय
मीरा बाई ने अपने पदों की रचना मिश्रित राजस्थानी भाषा के साथ−साथ विशुद्ध बृज भाषा साहित्य में भी की। उन्होंने भक्ति की भावना में कवियित्री के रूप में ख्याति प्राप्त की। उनके विरह गीतों में समकालीन कवियों की तुलना में अधिक स्वाभाविकता देखने को मिलती है। उन्होंने पदों में श्रृंगार और शान्त रस का विशेष रूप से प्रयोग किया। माधुरिय भाव उनकी भक्ति में प्रधान रूप से मिलता है। वह अपने इष्ट देव कृष्ण की भावना प्रियतम अथवा पति के रूप में करती थीं। वे कृष्ण की दीवानी थीं और रैदास को अपना गुरू मानती थीं। मीरा बाई मंदिरों में जाकर कृष्ण की प्रतिमा के समक्ष कृष्ण भक्तों के साथ भाव भक्ति में लीन होकर नृत्य करती थीं। मध्यकालीन हिन्दू आध्यात्मिक कवियित्री और कृष्ण भक्त मीरा बाई समकालीन भक्ति आंदोलन के सर्वाधिक लोकप्रिय भक्ति−संतों में से थीं। श्री कृष्ण को समर्पित उनके भजन आज भी लोकप्रिय हैं और विशेष रूप से उत्तर भारत में पूरी श्रद्धा के साथ गाये जाते हैं।
दादा की देखरेख में हुआ लालन−पालन
मीरा बाई का जन्म राजस्थान में मेड़ता के राजघराने में राजा रतनसिंह राठौड़ के घर 1498 में हुआ। वे अपनी माता−पिता की इकलौती संतान थीं और बचपन में ही उनकी माता का निधन हो गया। उन्हें संगीत, धर्म, राजनीति और प्रशासन विषयों में शिक्षा प्रदान की गई। उनका लालन−पालन उनके दादा की देखरेख में हुआ जो भगवान विष्णु के उपासक थे तथा एक योद्धा होने के साथ−साथ भक्तहृदय भी थे जिनके यहां साधुओं का आना जाना रहता था। इस प्रकार बचपन से ही मीरा साधु−संतों और धार्मिक लोगों के सम्पर्क में आती रहीं। मीरा का विवाह वर्ष 1516 में मैवाड़ के राजकुमार और राणासांगा के पुत्र भोजराज के साथ सम्पन्न हुआ। उनके पति भोजराज वर्ष 1518 में दिल्ली सल्तनत के शासकों से युद्ध करते हुए घायल हो गये और इस कारण वर्ष 1521 में उनकी मृत्यु हो गई। इसके कुछ दिनों के उपरान्त उनके पिता और श्वसुर भी बाबर के साथ युद्ध करते हुए मारे गये।
जहर देकर मारने का प्रयास किया गया
ऐसी धारणा हैं कि पति की मृत्यु के बाद मीरा को भी उनके पति के साथ सती करने का प्रयास किया गया परन्तु वे इसके लिए तैयार नहीं हुईं और धीरे-धीरे उनका मन संसार से विरक्त हो गया और वे साधु−संतों की संगति में भजन कीर्तन करते हुए अपना समय बिताने लगीं। पति की मृत्यु के बाद उनकी भक्ति की भावना और भी प्रबल होती गई। वे अक्सर मंदिरों में जाकर कृष्ण मूर्ति के सामने नृत्य करती थीं। मीरा बाई की कृष्ण भक्ति और उनका मंदिरों में नाचना गाना उनके पति के परिवार को अच्छा नहीं लगा और कई बार उन्हें विष देकर मारने का प्रयास भी किया गया। माना जाता हैं कि वर्ष 1533 के आस−पास राव बीरमदेव ने मीरा को मैड़ता बुला लिया और मीरा के चित्तौड़ त्याग के अगले साल ही गुजरात के बहादुरशाह ने चित्तौड़ पर कब्जा कर लिया।
इस युद्ध में चित्तौड़ के शासक विक्रमादित्य मारे गये तथा सैकड़ों महिलाओं ने जौहर कर लिया। इसके पश्चात वर्ष 1538 में जोधपुर के शासक राव मालदेव ने मेड़ता पर कब्जा कर लिया और बीरमदेव ने भागकर अजमेर में शरण ली और मीरा बाई बृज की तीर्थ यात्रा पर निकल गईं। मीरा बाई वृंदावन में रूप गोस्वामी से मिलीं तथा कुछ वर्ष निवास करने के बाद वे वर्ष 1546 के आस−पास द्वारिका चली गईं। वे अपना अधिकांश समय कृष्ण के मंदिर और साधु−संतों तथा तीर्थ यात्रियों से मिलने में तथा भक्तिपदों की रचना करने में व्यतीत करती थीं। मान्यता हैं कि द्वारिका में ही कृष्णभक्त मीरा बाई की वर्ष 1560 में मृत्यु हो गई और वे कृष्ण मूर्ति में समा गईं। राजस्थान में चित्तौड़ के किले एवं मेड़ता में मीरा बाई की स्मृति में मंदिर तथा मेड़ता में एक संग्रहालय बनाया गया हैं।
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