Friday, 1 December 2017

जोधपुर की जल संस्कृति का प्रतीक ‘झालरा’

घनश्याम डी रामावत
जोधपुर के शासक रहे तत्कालीन नरेश अजीतसिंह के जमाने में विद्याशाला से मेहरानगढ़ किला मार्ग पर स्थित सुखदेव तिवाड़ी की ओर से जनहितार्थ बनवाया गया कलात्मक झालरा जोधपुर की जल संस्कृति का प्रतीक हैं। वर्ष 1828 में 50 गुणा 50 क्षेत्रफल में निर्मित झालरे के चारो तरफ कलात्मक पत्थर लगे हैं। तीन तरफ से नीचे उतरने के लिए कलात्मक सीढिय़ां भी हैं। एक तरफ पानी ऊपर खींचने के लिए बरामदा हैं, जिसकी गहराई 50 फुट हैं। इस झालरे की खुदाई का कार्य 1718 में माघ सुदी एकम को शुरू हुआ था तथा प्रतिष्ठा माघ शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को पुष्य नक्षत्र के दिन 1828 में की गई। झालने के निकट ही एक कीर्ति स्तम्भ लगा हैं। इस पर एक शिलालेख पर चारो दिशाओं में मूर्तियां बनी हैं। 

सारा ही विप्रो सिरे, एक भयो सुखदेव...
स्तम्भ के पूर्व में सूर्य, दक्षिण में सिंह वाहिनी चतुर्भुज दुर्गा, पश्चिम भाग में वृषभवाही गंगाधारी शिव और उत्तर भाग में परशु, कमल, माला मोदकधारी गणेश विराजमान हैं। तत्कालीन शासक जसवन्त सिंह और अजीतसिंह के समय शालीहोत्र के जानकार सुखदेव के संबंध में स्वयं अजीतसिंह ने कहा था कि ‘सारा ही विप्रो सिरे, एक भयो सुखदेव। सुर बुध हैं सामरी, झाली सबमें सेव।।’ जोधपुर में मृत्यपरांत राजा महाराजाओं के देवल का उल्लेख मिलता हैं लेकिन सुखदेव अकेले ऐसे ब्राह्मण हैं, जिनका झालरे के पास ही देवल बना हुआ हैं। वर्तमान में यह कलात्मक झालरा गंदगी, मलबों और अतिक्रमण से घिर चुका हैं, जिसकी सुध लेने की अत्यधिक जरूरत हैं। 

विद्याशाला और किले के बीच मुख्य सडक़ पर होने से कलात्मक झालरा देशी-विदेशी पर्यटकों के लिए दर्शनीय हो सकता हैं और पर्यटकों को जोधपुर के प्राचीन जल संस्कृति से भी रूबरू होने का लाभ मिल सकता हैं।

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