घनश्याम डी रामावत
‘होली’ भारत के प्राचीनतम त्यौहारों में से एक हैं। यह विडम्बना ही हैं कि परसों ‘होली’ हैं और वातावरण में इसका कोई खास मजबूत अहसास तक नहीं हैं। शायद यही बात इंगित करती हैं कि समाज में तेजी से बदलते परिवेश के बीच इस पर्व ने भी अपने नये स्वरूप को अख्तियार कर लिया हैं अर्थात लोगों का इस पर्व को मनाने को लेकर तौर तरीकों व मिजाज में विशेष बदलाव हुआ हैं। सीधे-सीधे कहे तो अब ‘होली’ को लेकर वह खुशी/उल्लास/उमंग लोगों में नजर नहीं आता। न डंफ/चंग की थाप न बाजारों में वह रौनक।
बुराईयों का दहन कर अच्छाई को बचाना, प्रेम, सौहार्द की भावना उत्पन्न करने वाली ‘होली’ आज फूहड़ता, शराब का सेवन, गाली-गलौच, झगड़ों के बीच में कहीं उलझ कर रह गई हैं। ‘होली’ के रंग नैसर्गिक न होकर रासायनिक हैं, पकवानों में आत्मीयता व प्रेम के मिश्रण की जगह मिलावट ने ले ली हैं। सामाजिक दृष्टि से अत्यधिम महत्वपूण यह पर्व असामाजिक तत्वों की चपेट में हैं। बीते वर्षों के ‘होली’ पर नजर डाले तो, होलिका दहन न होकर मर्यादा, संस्कार, नैतिकता का दहन अनवरत रूप से हो रहा हैं। हकीकत में आज ‘होली’ बाजारवाद की चपेट में आ चुकी हैं। प्रत्येक त्यौहार की भांति इस पर्व पर भी पूंजीपतियों की नजर गड़ चुकी हैं। ऐसी कई घटनाएं प्रकाश में आती हैं जब लोग आपसी रंजिश इस त्यौहार में निकालते हैं। नवयुवक ‘होली’ के पर्व को मस्ती व शराब का पर्व मानने लगे हैं। परम्परागत तरीके बदल रहे हैं। फिल्मी गानों के बोल ही अब होली के बोल रह गए हैं। शहरों से गांवों की ओर इस पर्व में लोगों का आना अचानक बंद सा हो गया हैं, जो साफ दर्शाता हैं कि इस पर्व के मायने बदल चुके हैं।
समय के साथ हाईटेक हुई ‘होली’/अंदाज बदला
एक जमाना था कि बसंत के आगमन के साथ ही ‘होली’ से संबद्ध परांपरागत व द्विअर्थी गीत गांवों की गलियों, चौपालों व सार्वजनिक स्थानों पर गूंजने लगते थे। सूरज ढ़लने के बाद ‘होली’ की गीतों का जो सिलसिला शुरू होता था वह देर रात तक जारी रहता था। डंफ/चंग व झाल की ध्वनि दूर-दूर सुनाई देती थे। लेकिन अब होली भी हाईटेक हो गई हैं। अधिसंख्य लोग रंग व गुलाल से भी परहेज करने लगे हैं। एक समय था कि रंग और अबीर से तो लोग एक दूसरे को सराबोर करते ही थे। कीचड़ व गोबर के घोल से भी परहेज नहीं था। रिश्तों की मधुरता को ‘होली’ और बढ़ा देती थी। शादी के बाद लोग पहली ‘होली’ में ससुराल जाने से नहीं चूकते थे। महीनों पूर्व से ही लोगों को ‘होली’ आने का इंतजार रहता था। होलिका दहन में पूरे गांव के लोग एक जगह जुटते थे। लेकिन, अब यह सब कुछ तेजी से बदल रहा हैं। नए साल पर तो रात के 12 बजे जैसे ही अंग्रेजी कलेंडर करबट ले लेता हैं। मोबाइल पर एसएमएस और कॉल आने लगते हैं। फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्सएप जैसे सभी माध्यमों पर बधाई संदेश का सिलसिला शुरू होता हैं। इंटरनेट तकनीकी के मामले इतना रंगीन हैं कि घर, मोहल्लें ही नहीं विदेशों में बैठे अपनों से आप ‘होली’ खेल सकते हैं। वह भी बिना कपड़े व चेहरे को गंदा किए हुए। मैसेज भेजने वाले शुभेक्षुओं में होड़ लगी हैं। यहां तक मैसेज दिया जाता हैं कि कोई और आपकों मैसेज करें उससे पहले पहला मैसेज मेरे ही द्वारा भेजा जा रहा हैं।
इंटरनेट ने डूबोयी ग्रीटिंग्स की लुटिया, ऑन लाईन बधाई
बदलते जमाने के साथ बहुत कुछ बदल गया है। व्हाट्सएप व फेसबुक के जरिए तो रंग-बिरंगे ग्रीटिंग्स भी भेजे जा रहे हैं। होली पर डाक के जरिए ग्रीटिंग्स भेजना या देना अब पुरानी बात हो गई। इंटरनेट ने इसे बेहद आसान बना दिया हैं। कभी लोग ‘होली’ के अवसर पर भी दूर-दराज रहने वाले अपने लोगों को डाक के जरिए ग्रीटिंग्स भेजा करते थे लेकिन अब डाक से ग्रीटिंग्स भेजने की बात बीते दिनों की हो गई। लोग अब इंटरनेट के जरिए ही रंगे बिरंगे ग्रीटिंग्स भेजे जाते हैं। बाजार में अब ‘होली’ का ग्रीटिंग्स भी मुश्किल से मिलता हैं। इसके बदले लोग व्हाट्स एप व फेस बुक मैसेंजर का उपयोग करने लगे हैं। रंगों का त्यौहार होली पूरी दुनिया में अपने अनोखे अंदाज के लिए जाना जाता हैं, इस दिन रंगों में रंग ही नहीं मिलते बल्कि दिल भी आपस में मिल जाते हैं। हिन्दू कैलेण्डर के अनुसार हर वर्ष फाल्गुन माह में ‘होली’ का त्यौहार मनाया जाता हैं, इस माह की पूर्णिमा को पूरी दुनिया में ‘होली’ पूर्णिमा के नाम से जाना जाता हैं। मान्यता के अनुसार ‘होली’ पूर्णिमा के दिन हिरणकश्यप नाम के राक्षस ने अपने पुत्र प्रहलाद को होलिका की गोद में बिठाकर आग लगा दी थी लेकिन इस आग में होलिका जलकर भस्म हो गई और भगवान विष्णु का भक्त होने के कारण प्रहलाद का बाल भी बांका नहीं हुआ जबकि होलिका को आग में न जलने का वरदान प्राप्त था। तभी से पूर्णिमा के दिन होलिका दहन की परंपरा चल निकली। होलिका दहन की इस परंपरा और कथा के बारे में सभी जानते हैं। ‘होली’ को लेकर विस्तृत उल्लेख हमारे धार्मिक ग्रंथों नारद पुराण, भविष्य पुराण में मिलता हैं। कुछ प्रसिद्ध पुस्तकों जैसे जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र और कथा गार्ह्य-सूत्र में भी होली पर्व के बारे में वर्णन किया गया हैं।
श्लील गायन के माध्यम सामाजिक संदेश
राजस्थान में ‘होली’ पर्व पर अनेक शहरो में श्लील गाली गायन का आयोजन होता हैं। श्लील गाली गायन का अर्थ हैं समाज में व्याप्त कुरीति, अव्यवस्था और मुद्दों को चिन्हित करते हुए इन्हें नाटक व गायन के द्वारा दर्शाते हुए समाज को इनके बहिष्कार हेतु प्रेरित करना व जागरूक करना। पूर्व में श्लील गाली गायन एक गैर(जुलुस) के रूप में होती थी जिसमें चंग, मंजीरा का प्रयोग होता था और यह एक मंदिर या चौक से शुरू होकर सभी इलाको में जाकर मंचन करती थी और अंत में एक विशाल चौक में आकर समस्त लोग एकत्र हो जाते थे जहां पर पूर्ण रूप से मध्य रात्रि तक श्लील गाली गायन होता था। बहरहाल! लोगों का सामाजिकता व एकजुटता का अहसास दिलाने वाला यह पर्व उदासी, अनैतिकता, असामाजिकता में बदल चुका हैं। वातावरण में अजीब-सी गंध हैं। मौजूदा दौर क्रांति का हैं, नए विचारों का हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि सभी लोग ‘होली’ पर्व की महत्ता को समझते हुए संदर्भ में अपने सामाजिक दायित्वों को समझेंगे और ‘होली’ के मूल संदेश का प्रचार-प्रसार करेंगे।