Thursday, 8 February 2018

आजादी मिलने के वर्षों बाद भी समस्याएं यथावत

घनश्याम डी रामावत
भारत ने 26 जनवरी 1950 को अपना संविधान अंगीकार किया। संविधान में भारत को एक स्वतंत्र, संप्रभु और संपन्न राष्ट्र बनाने का संकल्प लिया गया। देश की एकता और अखंडता को अक्षुण्ण रखने का ध्येय तय किया गया। धर्मनिरपेक्षता, सहअस्तित्व और भाईचारे की स्थापना, नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा, कानून का राज, भेदभाव रहित समाज व सरकार का निर्माण आदि लक्ष्य निर्धारित किए गए। विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका की भूमिका स्पष्टता से रेखांकित की गई। नागरिकों के अधिकार और कर्तव्य पारिभाषित किए गए। केंद्र और राज्य सरकारों के कामकाजों और दायित्वों का स्पष्ट विभाजन किया गया, लेकिन आज जब हमारे संविधान को लागू हुए 68 साल हो गए हैं, तो ईमानदारी से आत्ममंथन का वक्त हैं कि क्या हमने संविधान में तय किए लक्ष्यों को हासिल किया हैं?

शासन व्यवस्था पर सवालियां निशान
आज अवलोकन करने का समय हैं कि क्या हमने वैसे ही राष्ट्र का निर्माण किया हैं, जैसा हमने संविधान में संकल्पित किया था। दुर्भाग्य से हमें अपने प्रश्नों का उत्तर नकारात्मक ही मिलेगा। लाखों बलिदानों के बाद आजादी मिली थी और करीब तीन वर्षों के अथक परिश्रम के बाद देश ने अपना संविधान बनाया था। हमने दुनिया की बेहतर शासन प्रणाली लोकतंत्र को स्वीकार किया और लोकतंत्र के उच्च नैतिक मूल्य व आदर्श का मानदंड बनाया, लेकिन आज दुखद हैं कि जिन लोगों व संस्थाओं पर संविधान के लक्ष्यों को पूरा करने, अपने दायित्वों का निर्वहन करने की जिम्मेदारी हैं, वे ही उम्मीदों पर खरे नहीं उतर रहे हैं। उत्तरोत्तर कार्यपालिका कमजोर होती गई हैं, सार्वजनिक जीवन में नैतिक मूल्यों में गिरावट आती गई हैं, शासन में जवाबदेही कम होती गई हैं। केंद्र और राज्यों के संबंध में कटुता आई हैं। सरकारें संविधान के लक्ष्य अनुरूप शासन व्यवस्था और जनाकांक्षा पूरा करने में विफल रही हैं। संविधान की रक्षा का बोझ न्यायपालिका पर बढ़ा हैं। संसद और विधानसभाओं को जो काम करना चाहिए, संयोग से न्यायपालिका को करना पड़ रहा है। आज देश उस दोराहे पर खड़ा है, जहां अनेक समस्याएं हैं, वहीं सरकार समेत लगभग सभी संवैधानिक संस्थाओं पर जनता का भरोसा कम हुआ हैं। 

राजनीतिक-प्रशासनिक विफलता प्रमुख कारण
आज देश को गरीबी, बेरोजगारी, आर्थिक असमानता, भ्रष्टाचार, जातिवाद, सांप्रदायिकता, उन्माद, असहिष्णुता, क्षेत्रवाद, उग्रवाद, नक्सलवाद, अलगाववाद, आतंकवाद, सीमा पर तनाव आदि समस्याओं का सामना करना पड़ रहा हैं। ये समस्याएं देश की राजनीतिक-प्रशासनिक विफलताओं का ही परिणाम हैं। येन-केन प्रकारेण सत्ता हासिल करने की प्रवृत्ति और वोट बैंक की राजनीति के चलते देश में विभाजनकारी शक्तियां मजबूत हुई हैं। देश अपने संवैधानिक लक्ष्यों व मूल्यों से भटक गया लगता है। हाल के वर्षों में जिस तरह से लोगों ने कानून अपने हाथ में लिए हैं और सरकारें मूकदर्शक बनी रही हैं, सामाजिक-राजनीतिक-बौद्धिक असहिष्णुता बढ़ी हैं, गोरक्षा के नाम पर हिंसा हुई है, दलितों पर अत्याचार की घटनाएं सामने आई हैं, सांप्रदायिक तनाव सामने आए हैं, पत्थरबाजी देखने को मिली है, वह चिंतनीय हैं। हमारा संविधान इसकी इजाजत नहीं देता। आज देश की राजनीति और सरकार के मुख्य एजेंडे से समस्याओं के समाधान गायब हो गए हैं। एक तरफ भारत वैश्विक ताकत बनने का सपना संजोए हुए है, दूसरी तरफ वह अपनी समस्यओं का हल नहीं कर पा रहा हैं। हमें अगर एक ऊर्जावान, अखंड, विकसित और संप्रभु राष्ट्र का निर्माण करना है तो इन 68 वर्षों की गलतियों से सबक लेते हुए संवैधानिक लक्ष्यों के अनुरूप सभी सरकारों व समस्त देशवासी को मिलकर काम करना होगा। हमें संविधान की मूल भावना को समझना होगा।

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