घनश्याम डी रामावत
अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के नव-निर्वाचित अध्यक्ष राहुल गांधी की अगुवाई में एकजुट होने को लेकर कुछ अनुभवी-विपक्षी क्षत्रप सहमत नहीं हैं। वे अंदरखाने एतराज जता रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन(यूपीए) अध्यक्ष सोनिया गांधी सक्रिय हो गई हैं। उन्होंने विपक्षी एकता की सूत्रधार के नए किरदार में तमाम विपक्षी दलों को एक मंच पर लाने की कवायद शुरू कर दी हैं। इसी सिलसिले में उन्होंने हाल ही में विपक्षी दलों की बैठक बुलाई। यह बैठक एनडीए सरकार की नीतियों और कामकाज के विरुद्ध विपक्ष की एकजुटता के इरादे से बुलाई गई थी। इस बैठक को लेकर कोई साफ निष्कर्ष निकालना अभी जल्दबाजी ही होगी।
विपक्ष की एकजुटता आज की प्रमुख जरूरत
बैठक में सोनिया गांधी सहित शामिल सत्रह पार्टियों के नेताओं ने महंगाई, बेरोजगारी, किसानों पर छाए संकट, कासगंज समेत देश के कई हिस्सों में नफरत की लकीर पर हुई घटनाओं का हवाला देते हुए कहा कि राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर विपक्ष की एकजुटता वक्त की जरूरत बन गई हैं। फिर राहुल गांधी और अन्य कांग्रेसी नेताओं ने भी इसी आशय की बातें कही। मगर एकता को कैसे व्यावहारिक बनाया जाए और इसका स्वरूप क्या हो, यह एक ऐसा सवाल हैं जिस पर विपक्षी दलों का व्यवहार अलग-अलग रहा हैं। ममता बनर्जी और शरद पवार जैसे विपक्षी नेताओं को लगता हैं कि वे पुराने और अनुभवी नेता रहे हैं और वही विपक्ष को एकजुट करने में सफल हो सकते हैं। विपक्ष की एकजुटता के लिए उनकी अगुवाई ही कारगर सिद्ध हो सकती हैं। पिछले दिनों शरद पंवार ने इसी मंशा को लेकर विपक्षी दलों की बैठक बुलाई थी। शरद पंवार की बैठक के बाद सोनिया गांधी की बैठक भी कुछ इसी इरादे की रही होगी कि अब कांग्रेस ही विपक्ष की एकजुटता को नेतृत्व देने में सक्षम हैं।
कांग्रेस मजबूत किंतु बीजेपी को पटखनी आसान नहीं
राहुल गांधी के पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद यह विपक्ष की पहली साझा बैठक थी। एक समय में कहा जा रहा था कि वे अपनी ही पार्टी को सफल नेतृत्व नहीं दे पा रहे हैं, तो विपक्ष को नेतृत्व कैसे दे सकते हैं? लेकिन अब गुजरात में प्रधानमंत्री मोदी के गृह राज्य गुजरात में भाजपा को कड़ी टक्कर देने के बाद अब राजस्थान के उपचुनावों के नतीजों से कांग्रेस के हौंसले बुलंदी पर हैं। अगले लोकसभा चुनाव से पहले आठ राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, उनमें राजस्थान भी शामिल हैं। यह भी सही हैं कि राजस्थान में कांग्रेस को जो सफलता मिली हैं, उसके आधार पर उसके पक्ष में कोई बड़ी तस्वीर नहीं बनाई जा सकती। और न ही यह उम्मीद की जा सकती कि अगली बार कांग्रेस को ऐसी ही कोई सफलता मिल जाएगी। लेकिन, यह जरूर माना जा सकता हैं कि कांग्रेस चुनौती देने लायक स्थिति में जरूर आ गई हैं। अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और बीजेपी इसे हल्के में नहीं ले सकती। ऐसे हालात में विपक्ष यदि एकजुट होकर राष्ट्रीय स्तर पर चुनावी मैदान में उतरे तो भाजपा के लिए बड़ी चुनौतीपूर्ण स्थिति बन सकती हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश का एक उदाहरण भी हमारे सामने हैं। इस राज्य के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस व समाजवादी पार्टी ने मिलकर चुनाव लड़ा, लेकिन अपेक्षित सफलता नहीं मिली, बल्कि भाजपा को प्रचण्ड बहुमत मिला।
सभी दलों में अपने-अपने अंतर्विरोध व हित
बहरहाल, सोनिया गांधी की बैठक में समाजवादी पार्टी शामिल हुई, लेकिन मायावती की बसपा ने दूरी बनाए रखी। फिर माकपा में कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने के लिए दो राय बनी रही। पिछले दिनों कलकत्ता में आयोजित केन्द्रीय समिति की बैठक में यह संकेत मिल चुका हैं। भाजपा की बढ़ी ताकत से सबसे ज्यादा चिंतित भी यही दल हैं मगर फिर भी यह दल कांग्रेस के साथ जाने को लेकर दुविधा में हैं। स्पष्ट हैं कि सभी दलों में अपने-अपने अंतर्विरोध हैं, अपने-अपने हित हैं। यह कांग्रेस भी जानती हैं शायद, इसीलिए कांग्रेस सोनिया गांधी ने कहा कि अलग-अलग राय होने के बावजूद राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर विपक्षी एकता जरूरी हैं। लेकिन मात्र इस राय से विपक्ष की एकजुटता संभव प्रतीत तो नहीं होती। कांग्रेस को ही आखिर कुछ सोचना होगा।
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