Sunday, 6 December 2015

श्री आई माता तीर्थ: जहां दीपक से काजल नहीं, केसर बनती हैं..!

घनश्याम डी रामावत

विश्व की बहुत बड़ी आबादी वाले भारत देश में भिन्न-भिन्न संस्कृति/धर्म/मजहब/जाति-सम्प्रदायों के बीच नागरिकों द्वारा अपने ईष्ट/ईश्वर/आराध्य के प्रति सच्ची अगाढ़ श्रद्धा/आस्था/भरोसा/इबादत का भाव रखते हुए कर्तव्य/कर्मशीलता के पथ पर आगे बढऩा.. शायद यहीं हमारी अपनी असली पहचान हैं। ‘राजस्थान’ भारत का वृहद/सांस्कृतिक राज्य हैं। वीरता के लिए विख्यात इस प्रदेश में ही एक कस्बा हैं ‘बिलाड़ा’। राजस्थान के अन्य शहरों/भागों का जिस तरह अपना एक आश्चर्यजनक/अतुल्य इतिहास हैं, बिलाड़ा का भी अपना ऐतिहासिक/धार्मिक महत्व हैं। बिलाड़ा कस्बा मुख्य रूप से अपने विविध धार्मिक स्थलों/चमत्कारों के लिए प्रसिद्ध हैं। विश्व का ये एक मात्र ऐसा स्थान हैं जहां पिछले करीब पांच सौ से भी अधिक वर्षों से अखंड ज्योत जल रही हैं एवं इस अखंड ज्योत से केसर प्रकट होता हैं.. अर्थात जल रहे दीपक से काजल नहीं, केसर बनती हैं। जी हां! मैं बात कर रहा हूं, जोधपुर जिले के बिलाड़ा में स्थित सीरवी समाज की प्रमुख आराध्य देवी ‘श्री आई माता’ तीर्थ/धार्मिक स्थल की।


सीरवी समाज के लोगों की आराध्य देवी(कुल देवी)
जोधपुर से 80 किलोमीटर दूर जोधपुर-जयपुर राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित बिलाड़ा कस्बा श्री आई माता जी की पवित्र नगरी के रूप में संपूर्ण भारत में प्रसिद्ध हैं। यहां श्री आई माता जी का विश्व विख्यात तीर्थ/मंदिर हैं, जहां अनगिनत श्रद्धालु पहुंचते हैं और अपना मस्तक झुकाते हुए अपनी खुशहाली की दुआ/मन्नत मांगते हैं। वैसे तो ‘आई माता जी’ सीरवी समाज की प्रमुख आराध्य देवी हैं किन्तु यह शायद आई माता जी के चमत्कारों/लोगों की उनके प्रति अनन्य श्रद्धा/आस्था/भक्ति भाव का ही परिणाम हैं कि यहां पूरे भारतवर्ष से छत्तीस कौम/धर्मों के लोग दर्शनों के लिए पहुंचते हैं। आई माता को नवदुर्गा(देवी) का अवतार माना गया हैं। ऐसी मान्यता हैं कि ‘आई माता जी’ ने एक नीम के वृक्ष के नीचे अपना पंथ चलाया था जो अब आईमाता का पूजा स्थल/थान/बडेर कहलाता हैं। इस स्थान पर उनकी कोई मूर्ति नहीं हैं। जैसा कि पूर्व में जिक्र किया जा चुका हैं ‘आई माता जी’ मूल रूप से सीरवी समाज/जाति के लोगों की आराध्य देवी(कुल देवी) हैं, जो क्षत्रियों से निकली एक कृषक जाति हैं। बिलाड़ा स्थित ‘आई माता जी’ के मंदिर में दीपक की ज्योति से केसर निर्माण.., ने इस तीर्थ/धार्मिक स्थल को विश्व पटल पर प्रमुख पहचान दे दी हैं। सीरवी समाज के लोग ‘आई माता जी’ के मंदिर को दरगाह कहते हैं।

प्रतिमाह शुक्ल पक्ष-द्वितीया को विशेष पूजा-अर्चना
धार्मिक स्थल पर माह की शुक्ल पक्ष-द्वितीया को विशेष पूजा-अर्चना होती हैं जिसमें न केवल सीरवी समाज के लोग प्रमुखता से शामिल होतेे हैं अपितु अन्य धर्मो/समाजों के लोग भी भारी तादाद में शिरकत करते हैं। स्पष्ट रूप से तो यह किसी को भी ज्ञात नहीं अर्थात उल्लेख नहीं कि ‘आई माता जी’ मूल रूप से कहां से थी और वे किस तरह उनका बिलाड़ा आगमन हुआ? किन्तु अलग-अलग धारणाओं के अनुसार वे मुल्तान और सिंध की ओर से आबू और गौड़वाड़ क्षेत्र से होती हुई बिलाड़ा आई तथा एक नीम के वृक्ष के नीचे इन्होंने अपना पंथ चलाया। एक अन्य धारणा के अनुसार उन्होंने गुजरात के अम्बापुर में अवतार लिया था और अम्बापुर में अनेक चमत्कारों के पश्चात वे देशाटन करते हुए बिलाड़ा पधारी। यहां पर उन्होंने भक्तों को 11 गुण व सदैव सन्मार्ग पर चलने के उपदेश दिए। ऐसी मान्यता हैं कि आई माता जी द्वारा बताए हुए मार्ग पर आज भी सीरवी समाज के लोग चलते हैं एवं उनके उपदेशों का पालन करते हैं। एक दिन आई माता जी ने अपने भक्तों के समक्ष स्वयं को अखंड ज्योति में विलीन कर दिया। इसी अखंड ज्योति से केसर प्रकट होता हैं जो आज भी तीर्थ स्थल/मंदिर में उनकी उपस्थिति का साक्षात प्रमाण समझा जाता हैं।

मंदिर में प्रवेश करते ही अद्भुत संतोष/सुकून की अनुभूति
आज जिस स्थान पर ‘आई माता जी’ का भव्य मंदिर हैं, ऐसी मान्यता हैं कि इसी स्थान पर माता जी अपने इष्ट देव की पूजा-अर्चना किया करती थी। ‘आई माता जी’ के ज्योर्तिलीन होने के बाद उनकी इच्छानुसार उनकी फोटो/चित्र की स्थापना की गई। विश्व का संभवत: पहला मंदिर हैं जो केवल फोटो/चित्र की पूजा होती हैं। जैसा कि श्रद्धालु बताते हैं, ‘आई माता जी’ के आशीर्वाद से ही राजस्थान सरकार में मंत्री रहे माधवसिंह इस धार्मिक स्थल के दीवान बने। संगमरमर से बने तीर्थ स्थल/मंदिर की भव्यता देखते ही बनती हैं। मुख्य दरवाजा पार कर जैसे ही मंदिर में प्रवेश करते हैं, मन में अद्भुत संतोष/संतुष्टि/सुकून का भाव उत्पन्न होता हैं.. प्रतीत होता हैं स्वर्ग में आ गए हैं। मंदिर के मुख्य द्वार पर संगमरमर पर की गई नक्काशी वाकई देखने लायक हैं। चांदी के किवाड़, सोने के छत्र, आई माता जी की गादी(जिस पर आई माता जी विराजमान होती हैं).. अद्भुत/अप्रतीम। तीर्थ स्थल पर प्रात: चार बजे मंगला आरती और सायं सात बजे संध्या आरती होती हैं।

परिसर के एक भाग में विशाल/भव्य संग्रहालय
मंदिर परिसर के प्रथम तल पर आई माता जी की झोपड़ी को संरक्षित किया हुआ हैं। यह वही झोपड़ी हैं जहां ‘आई माता जी’ निवास करती थी। तीर्थ स्थल/मंदिर के एक भाग में आई माता जी के संपूर्ण जीवन चरित्र को दर्शाने वाली भव्य प्रदर्शनी हैं। यहां आई माता जी के जीवन वृत्त एवं विभिन्न घटनाओं को अनेक चित्रों के माध्यम से उद्धत गया हैं। प्रदर्शनी के अंतिम छोर पर परम भक्त दीवान रोहित दास की धूणी हैं, जहां वे तपस्या करते थे। तीर्थ स्थल/ मंदिर परिसर के एक भाग में विशाल एवं भव्य संग्रहालय हैं। यहां सैंकडों साल पुरानी अनेक वस्तुएं, बर्तन, वाद्य यन्त्र, पुराने दस्तावेज, फर्नीचर, धातु की मूर्तियां, कलाकृतियां एवं पुरानी तकनीकी वस्तुएं संरक्षित हैं। इसी म्यूजियम में अनेक प्रकार के हथियार जैसे तलवारें, कटार, भाले व ढ़ाल आदि भी संरक्षित किये गए हैं। श्रद्धालुओं की माने तो वर्तमान दीवान माधव सिंह द्वारा इस धार्मिक स्थल के संरक्षण पर खास ध्यान दिया गया हैं। धार्मिक स्थल के मौजूदा स्वरूप को देखकर वाकई बेहतरीन संरक्षण/प्रबंधन केे लिए दिल से धन्यवाद/आभार ज्ञापित करने का दिल करता हैं।

बेहतरीन स्थापत्य कला/उत्कृष्ट नक्काशी
मंदिर परिसर के द्वार के पास ऊपर रावटी झरोखा बना हुआ हैं। यह पत्थर पर नक्काशी का सुन्दर उदाहरण हैं। इस झरोखे के अन्दर की तरफ कांच की अत्यंत सुन्दर कारीगरी की गई हैं। बेजोड़ स्थापत्य कला युक्त यह झरोखा बरबस ही सबका ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करता हैं। धार्मिक स्थल में वाड़ी महल भी अद्भुत हैं। यह महल धार्मिक स्थल के दीवान माधव सिंह का निवास स्थान हैं। इसका निर्माण लगभग तीन सौ वर्षों पहले हुआ था। इस महल की बनावट भी बेजोड़ हैं।  

सीरवी समाज का संक्षिप्त परिचय
‘सीरवी’ एक क्षत्रिय कृषक जाति हैं जो आज से लगभग 800 वर्ष पूर्व राजपूतों से अलग होकर राजस्थान के मारवाड़ व गौडवाड़ क्षेत्र में रह रही थी। कालान्तर में यह लोग मेवाड़ व मालवा सहित देश के अन्य भागों में फैल गए। वर्तमान में सीरवी समाज के लोग राजस्थान के अलावा मध्यप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, दमन दीव, पांडिचेरी सहित देश के अन्य इलाकों में बड़ी तादाद में रह रहे हैं। सीरवी समाज के इतिहास का वैसे तो बहुत कम प्रमाण उपलब्ध हैं किन्तु इतिहास के जानकारों की माने तो जालोर में खारडिय़ा राजपूतों का शासन(राजा कान्हड़देव चौहान)। उन्ही के वंश 24 गौत्रीय खारडिय़ा सीरवी कहलाए। सीरवी समाज के कुल 24 गौत्र हैं जो इस प्रकार हैं-राठौड़, सोलंकी, गहलोत, पंवार, काग, बर्फा, देवड़ा, चोयल, भायल, सैणचा, आगलेचा, पडिय़ार, हाम्बड़, सिन्दड़ा, चौहान, खण्डाला, सातपुरा, मोगरेचा, पडिय़ारिया, लचेटा, भूंभाडिय़ा, चावडिय़ा, मूलेवा और सेपटा। सीरवी समाज का जीवन मूल रूप से कृषि प्रधान ही हैं किन्तु समय के साथ अब इस समाज के बहुत बड़े वर्ग ने व्यापार/सरकारी-निजी सेवा की ओर अपना रूख अख्तियार कर लिया हैं अर्थात जीविकोपार्जन का माध्यम बना लिया हैं।

‘आई माता जी’ तीर्थ स्थल/मंदिर जोधपुर से 80 किमी दूर
बिलाडा कस्बा जोधपुर से 45 किमी दूर जोधपुर-जयपुर राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित हैं। जयपुर, अजमेर, जोधपुर से यहां आसानी से पहुंचा जा सकता हैं। ‘आई माता जी’ तीर्थ स्थल/मंदिर पहुंचने के लिए जोधपुर से बस, जीप व टैक्सियां आसानी से मिल जाती हैं। वर्ष में दो बार नवरात्रा के दौरान चैत्र माह में इस तीर्थ स्थल/मंदिर पर विशाल मेला भी लगता हैं। इस अवसर पर श्रद्धालुओं की यहां भारी तादाद रहती हैं। लोग यहां पहुंचकर ‘आई माता जी’ के समक्ष अपनी पीड़ाओं का जिक्र करते हुए अपने लिए खुशहाली/कामयाबी की दुआ करते हुए मन्नत मांगते हैं। बाहर से आने वाले श्रद्धालुओं के लिए धर्मशालाओं की यहां उत्तम व्यवस्था हैं। 

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