घनश्याम डी रामावत
रंग-बिरंगी संस्कृति वाले भारत देश में शुरू से ही कला का विशेष सम्मान रहा हैं। विभिन्न प्रदेशों की मिली जुली संस्कृति ने हमेशा ही देश को नायाब रंग दिया हैं। इसमें खासतौर से भारत की प्रर्दश्य कला और लोक नाट्यों का विशेष योगदान रहा हैं। अन्य प्रदेशों के अनुपात में शायद राजस्थान इस मामले में अग्रणी रहा हैं और यह प्रदेश अपनी वीरता के साथ अपने आर्ट व उसके प्रदर्शन को लेकर सदैव अन्य प्रदेशों के सरताज के रूप में जाना जाता रहा हैं। यहां की रंगमंच की परम्पराओं/लोक गाथाओं व लोक वार्ताओं की बात ही निराली हैं। बगड़ावत(देवनारायण) की महागाथा, पाबूजी, गोगाजी, तेजाजी, ढ़ोला-मारु, सैणी-बीजानन्द, रामू-चनणा, जेठवा-ऊजली, मूमल-महेन्द्र, बाघो-भारमली तथा दुरपदावतार जैसी अनेक लोक कथाएं हैं.. जिनके नामों के उच्चारण से ही जेहन में एक अद्भुत सिहरन सी दौड़ पड़ती हैं। सभी लोक कथाएं/आख्यान, प्रेम/सौन्दर्य/शौर्य व जीवटता से भरी पड़ी हैं। इसकी महत्ता को कुछ इस रूप में भी समझा जा सकता हैं कि असाधारण व्यवहारिक बुद्धि की धरोहर लिए सर्वसाधारण, इन लोक नाट्यों के माध्यम से सार्वजनिक चेतना के तौर पर उभरने वाली तस्वीर और महान विचारों प्राणवान/संस्कृति मानकर सहज ही ग्रहण/आत्मसात कर लेता हैं। हकीकत में यह लोक नाट्यों और उन्हें सम्पन्न करने वाली लोक मंडलियों में निहित वास्तविक शक्ति हैं। इन सब के बीच इस समय जिस आर्ट/लोक अभिव्यक्ति का जिक्र किया जा रहा हैं.. वह हैं ‘फड़’ अर्थात राजस्थान की सर्वाधिक रोमांचकारी/अद्भुत/अप्रतीम/लाजवाब/निराली परम्परा। अभिव्यक्ति और विचारों के साथ परिस्थितियों का ऐसा चित्रण/प्रदर्शन, जो आम जनमानस का समझाने में/उनके मन-मस्तिष्क में उतारने का अनूठा/अत्यधिक प्रभावशाली माध्यम समझा जाता हैं।
विशालकाय परदे पर लोक गाथाओं/नायकों का चित्रण
राजस्थान की जीवन शैली में लोक कलाकारों का बड़ा महत्व हैं। लोक कलाकार कटपुतली के खेल के जरिये जहां लोक गाथाओं का सजीव नाट्य रूपांतरण करते हुए लोगों का मन मोह लेते हैं वहीं भोपा(फड़ संचालक) कहे जाने वाले लोगों द्वारा फड़ बांचने की परम्परा सदियों से चली आ रही हैं। ‘फड़’ बांचने के अंतर्गत मूल रूप से भोपा लोग एक विशालकाय कपड़े के परदे पर जिस पर राजस्थान के लोक गाथाओं के नायको व पात्रों की कथाओं का चित्रण होता हैं.. एक ऐसे स्थान पर जहां लोगों का समूह बैठकर फड़ बांचने/प्रदर्शन का लुत्फ उठा सके, के सामने दीवार पर रखकर काव्य के रूप में लोक कथाओं के पात्रों के जीवन, संघर्ष, वीरता, बलिदान व जनहित में किए कार्यों का प्रस्तुतिकरण करते हैं। इस प्रस्तुतिकरण में भोपाओं द्वारा प्रस्तुत नृत्य व गायन का समावेश, इसे और अधिक लोकप्रिय बना देते हैं। आधुनिकता की आड़ में समय के साथ आज भले ही यह परम्परा पहले की भांति अधिक चलन/प्रचलन में नहीं हैं किन्तु राजस्थान के गांवों में लोगों के बीच/उनकी जीवन शैली में फड़ बंचवाने की परम्परा की गहरी छाप रही हैं। ज्यादातर गांवों में लोक देवता पाबू जी राठौड़ की फड़ बंचवाई जाती हैं। पाबू जी के अलावा भगवान देव नारायण जी की फड़ भी भोपा लोग बांचते आये हैं। भोपा लोगों द्वारा जागरण के रूप में नृत्य व गायन के साथ फड़ प्रस्तुत किए जाने को फड़ बांचना कहते हैं और इसके आयोजन को फड़ रोपना/फड़ बंचवाना कहते हैं। जैसा कि मैंने ऊपर जिक्र किया हैं.. मौजूदा दौर में फड़ के प्रति उदासीनता यह ‘फड़’ परम्परा सार्वजनिक रूप से कम होती जा रही हैं। संभव हैं आने वाले समय में यह परम्परा सिर्फ इतिहास के पन्नों में ही मिले। इस परम्परा में अत्यधिक लम्बाई युक्त विशाल फड़ का प्रयोग किया जाता हैं जिसमें लोक गाथा के पात्रों और घटनाओं का चित्रण होता हैं।
मान्यता के अनुसार ‘फड़’ परम्परा को देखना शुभ
विशालकाय चित्रण को सामने रख भोपागण काव्य के रुप में लोक कथा के पात्रों के जीवन, उनकी समस्याओं, प्रेम, क्रोध, संघर्ष, बलिदान, पराक्रम और उस जमाने में प्रचलित आंतरिक संघर्षों को उभारकर प्रस्तुत करते हैं। इस परम्परा में भोपें जल्दी-जल्दी एक स्थान से दूसरे स्थान तक चले जाते हैं। चित्रित फड़ को दर्शकों के सामने खड़ा तान दिया जाता हैं। भोपा गायक की पत्नी/सहयोगिनी लालटेन लेकर फड़ के पास नाचती-गाती हुई पहुंचती हैं और वह जिस अंश का गायन करती हैं, डंडी से उसे बजाती हैं। भोपा अपने प्रिय वाद्य ‘रावण हत्या’ को बजाता हुआ स्वयं भी इस दौरान नाचता-गाता रहता हैं। यह नृत्य गान समूह के रुप में होता हैं। दर्शक फड़ के दृश्यों से एवं सहवर्ती अभिनय से बहुत प्रभावित होते हैं। ‘फड़’ की इस परम्परा को देखना, इस शैली में विश्वास करने वाले परिवारों द्वारा अच्छा माना जाता हैं अर्थात इसे वर्ष की शुभ घटना माना जाता हैं। ‘फड़’ से सम्बन्धित दो लोकप्रिय चित्र गीत कथाएं ‘पाबूजी व देवनारायण जी की फड़े’ प्रसिद्ध हैं। पाबूजी राठौड़ महान लोक नायक हुए हैं। इनका जन्म आज से 700 वर्ष पूर्व का माना जाता हैं। पाबू जी की गाथा को राजस्थान में आज भी दर्शक बड़े चांव से सुनते और देखते हैं। हजारों की संख्या में उनके अनुयायी उन्हें कुटुम्ब के देवता के रूप में पूजते हैं। उनकी वीरता के गीत चारण और भाटों द्वारा गाए जाते हैं। मारवाड़ के भोपों ने पाबूजी की वीरता के सम्बन्ध में सैकड़ों लोकगीत रच डाले हैं और पाबूजी की शौर्य गाथा आज भी लोक समाज में गाई जाती हैं। पाबूजी की फड़ लगभग 30 फीट लम्बी तथा 5 फीट चौड़ी होती हैं। इसमें पाबूजी के जीवन चरित्र शैली को चित्रों में अनुपातिक तरीके से रंगों एवं रंग/फलक संयोजन के जरिए प्रस्तुत किया जाता हैं।
रावण हत्या/अपंग तथा जन्तर नामक वाद्यों का प्रयोग
फड़ को एक बांस में लपेट कर रखा जाता हैं और यह भोपा जाति के लोगों के साथ धरोहर के रुप में तथा जीविका साधन के रुप में भी चलता रहता है। पाबूजी की दैवी शक्ति में विश्वास करने वाले लोग प्राय: इन्हें निमंत्रण देकर बुलाते हैं। ऐसी मान्यता हैं कि ऐसा किए जाने से उनके बच्चें स्वस्थ रहेंगे तथा उनके परिवार पर किसी प्रकार का कोई कष्ट अथवा राक्षसी शक्तियों का प्रभाव नहीं रहेगा। पाबूजी के अलावा दूसरी लोकप्रिय फड़ ‘देवनारायण जी की फड़’ हैं। देवनारायण जी भी सोलंकी राजपूतों के पाबूजी की तरह वीर नायक थे। देवनारायण जी की फड़ के गीत, देवनारायण जी के भोपों द्वारा गाएं जातें हैं। ये भोपे गूजर जाति के हैं। ‘जन्तर’ नामक प्रसिद्ध लोकवाद्य पर भोपे इस फड़ की धुन बजाते हैं। राजस्थान में भोपों के कई प्रकार हैं। वे प्राय: ‘रावण हत्या’, ‘अपंग’ तथा ‘जन्तर’ नामक वाद्यों का प्रयोग करते हैं। ये भोपे भूमिहीन होतें है और अपनी जीविका के लिए उन्हें फड़ों के प्रदर्शन पर ही निर्भर रहना पड़ता हैं। प्रतिवर्ष विजय दशमी(दशहरा) के मौके पर रूणिचा के पास कोड़मदे गांव में एक बड़ा मेला लगता हैं। यह पाबूजी का मूल स्थान हैं। यहां आकर भक्तगण हजारों की संख्या में उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। इस दौरान फड़ गायक भी एकत्र हो जाते हैं और सब मिलकर सामूहिक रुप से पाबूजी के गीत गाते हैं। भोपाओं द्वारा गाए जाने वाले गीतों में ‘बिणजारी ए हंस-हंस बोल, डांडो थारौ लद ज्यासी..’ आज भी लोगों में अत्यधिक लोकप्रिय हैं। ‘फड़’ आयोजन को सांस्कृतिक आयोजन बताते हुए कवियों द्वारा.. ‘परस्यों रात गुवाड़ी में पाबू जी की फडु रोपी, सारंगी पर नाच देखकर टोर बांधली गोपी। के ओले छाने सेण कर ही देकर आडी टोपी, के अब तो खुश होजा रूपियो लेज्या प्यारी भोपी।।’.. पंक्तियों के माध्यम से व्याख्या की गई हैं।
कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष के 11वें दिन से शुरूआत
कवियों द्वारा ‘इकतारो अर गीतड़ा जोगी री जागीर। घिरता फिरता पावणा घर-घर थारो सीर॥’ की रचना कर भोपाओं का भी बखान किया गया हैं। भोपागण जागरण के रूप में नृत्य और गान के साथ फड़ को बांचते हैं। यह प्रस्तुति प्रत्येक वर्ष कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष के 11वें दिन से शुरु की जाती हैं। इसके बाद साल भर तक भोपागण अलग-अलग जगहों पर जाकर फड़ कथा बांचते हैं। वर्षभर में केवल चौमासे(बरसात का महीना) में इस प्रस्तुति को रोक दिया जाता है। ऐसी धारणा हैं कि चौमासे में देवनारायण एवं अन्य देवतागण सो जाते हैं। इस महीने में फड़ों को खोलना भी वर्जित माना गया हैं। भोपाओं द्वारा केवल भक्तगणों के घरों में, देवनारायण/सवाई भोज के मन्दिर के प्रांगण में और जन समुदाय/सभा स्थल के सामने ही ‘फड़’ की प्रस्तुति की जा सकती हैं। मोटे तौर पर कहा जा सकता हैं कि ‘फड़’ परम्परा राजस्थान की अति लोक परम्पराओं में से एक हैं जिसे आज वास्तव में वर्तमान पीढ़ी द्वारा तव्वजों दिए जाने की दरकार तो हैं ही प्रदेश सरकार के साथ केन्द्र की सरकार द्वारा भी प्रश्रय की अत्यधिक जरूरत हैं। अति प्राचीनतम ‘फड़’ एवं इसकी तरह की अनेक परम्पराएं जो आज इसकी जैसी स्थिति में हैं, वाकई सरकारी स्तर पर इनकी बेहतरी के लिए उठाए जाने वाले कदम न केवल इन परम्पराओं को जिंदा रखने/लोकप्रिय बनाने मे अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेंगे अपितु यह भारत की विविध/गंगा जमुनी संस्कृति का भी श्रेष्ठतम सम्मान होगा।
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