घनश्याम डी रामावत
सूर्यनगरी के मेहरानगढ़ दुर्ग में स्थित जन-जन की आस्था व श्रद्धा की प्रतीक मां चामुण्डा की मूर्ति जोधपुर के संस्थापक राव जोधा ने 556 वर्ष पूर्व विक्रम संवत् 1517 में मण्डोर से लाकर स्थापित की थी। चामुण्डा मूल रूप से परिहारों की कुल देवी हैं। राव जोधा ने जब मण्डोर छोड़ा, तब चामुण्डा को अपनी ईष्टदेवी के रूप में स्वीकार किया था। जोधपुर के वाशिंदों में मां चामुण्डा के प्रति जबरदस्त आस्था हैं। मां को लेकर उनकी धारणा यह भी कि सन् 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान गिरने वालों बमों को मां चामुण्डा ने अपने आंचल का कवच पहना दिया था। लोक मान्यता के अनुसार मेहरानगढ़ दुर्ग व जोधपुर के कुछ हिस्सों पर कई बम गिराए गए किन्तु कोई जनहानि अथवा नुकसान नहीं हुआ। जोधपुर के वाशिंदें आज भी इसे मां चामुण्डा की कृपा ही मानते हैं।
अतीत का भी एक उदाहरण भी बड़ा दिलचस्प हैं जब 9 अगस्त 1857 को दुर्ग में गोपाल पोल के निकट बारूद के ढ़ेर पर बिजली गिरने से चामुण्डा मन्दिर कण-कण होकर उड़ गया, किन्तु मां चामुण्डा की मूर्ति अडिग रही/सुरक्षित रही। तबाही इतनी अधिक थी कि इसमें करीब तीन सौ लोग मारे गए थे। मुख्य द्वार का विधिवत निर्माण महाराजा अजीतसिंह ने करवाया था। मन्दिर में मां लक्ष्मी, महा-सरस्वती व बैछराज जी की मूर्तिया स्थापित हैं। मां चामुण्डा के मन्दिर में प्रतिवर्ष भादवा माह की शुक्ल पक्ष की तेरस को मन्दिर जीर्णाेद्वार दिवस मनाया जाता हैं।
मण्डोर से लाई गई थी मां की प्रतिमा
राव जोधा ने मां चामण्डा की मूर्ति को मण्डोर से लाकर मेहरानगढ़ दुर्ग में स्थापित किया था। जोधपुर की रक्षक आद्य शक्ति मां चामुण्डा से ‘गढ़ जोधाणे ऊपरे बैठी पंख पसार, अम्बा थ्हारों आसरो तूं हीज हैं रखवार..’ एवं ‘चावण्ड थ्हारी गोद में खेल रयो जोधाण,निगे राखजै, थ्हारा टाबर जाण..’ पंक्तियों के माध्यम से स्तुति की गई हैं कि जोधपुर के किले पर पंख फैलाने वाली माता तू ही हमारी रक्षक हैं। मारवाड़ के राठौड़ वंशज श्येन(चील) पक्षी को मां दुर्गा/चामुण्डा का दूसरा स्वरूप मानते हैं। यहीं कारण हैं कि मारवाड़ के राजकीय झण्डे पर भी मां चामुण्डा/दुर्गा स्वरूप चील का चिन्ह ही अंकित रहा हैं। ऐसी मान्यता हैं कि मेहरानगढ़ दुर्ग के निर्माता जोधपुर के संस्थापक राव जोधा के राज्य छिन जाने के 15 वर्ष बाद मां चामुण्डा/दुर्गा ने स्वप्र में आकर उन्हें चील के रूप में दर्शन दिए और कामयाबी का आशीर्वाद दिया। राव जोधा ने स्वप्र में मिले दिशा-निर्देशों का अनुसरण किया और देखते ही देखते उनका राज्य पुन: कायम हो गया। करीब 556 वर्ष पहले मेहरानगढ़ दुर्ग निर्माण के समय से ही मां चामुण्डा/दुर्गा रूप में चीलों को चुज्गा देने की परम्परा शुरू की, जो सदियों बाद भी उनके वंशज अनवरत रूप से जारी रखे हुए हैं। कहा जाता हैं कि राव जोधा को मां चामुण्डा ने आशीर्वाद में कहा था कि जब तक मेहरानगढ़ दुर्ग पर चीलें मंडराती रहेंगी, तब तक दुर्ग पर किसी भी प्रकार की कोई विपत्ति नहीं आएगी।
बदल चुकी हैं अनेक परम्पराएं
करीब सात वर्ष पूर्व वर्ष 2008 में मेहरानगढ़ दुर्ग में हुई दुखांतिका के बाद मन्दिर में अनेक परम्पराएं बदल जा चुकी हैं। दुखांतिका में करीब 250 लोग काल कवलित हुए थे। खुद के आशियाने की कामना रखने वाले श्रद्धालु चामुण्डा के दर्शन के बाद बसंत सागर में पड़े पत्थरों से छोटा घर बनाते थे, लेकिन अब ऐसी कोई परम्परा नजर नहीं आती हैं। सालमकोट मैदान में लगने वाला नवरात्रा मेला व मन्दिर की परिक्रमा भी बंद हो चुकी हैं। यहां नवरात्रा की प्रतिपदा को महिषासुर के प्रतीक भैंसे की बलि देने की परम्परा थी, जो रियासतों के भारत गणराज्य में विलय और पशु क्रूरता अधिनियम लागू होने के बाद बंद कर दी गई।
No comments:
Post a Comment