Wednesday, 9 December 2015

मौताणा प्रथा: आदिवासियों का अंधा कानून

घनश्याम डी रामावत
आधुनिक टेक्रोलोजी और मजबूत कानून व्यवस्था के दावों के बीच निरन्तर प्रगति के पथ पर आगे बढ़ते इस देश में हमेशा से ही नागरिकों के धर्म/मजहब/रहन-सहन/आचार-विचार/कानून व्यवस्था के प्रश्र पर शत-प्रतिशत आजादी की बात की जाती रही हैं। आजाद होने के बाद देश की शिक्षा/तकनीक/कानून व्यवस्था में आमूल चूल परिवर्तन हुआ हैं, निश्चित रूप से इन सबके चलते ही न केवल नागरिकों का जीवन पहले से बेहतर हुआ.. अपितु देश के साथ खास तौर से प्रदेशों की प्रगति भी अबाध तरीके से हुई हैं। इससे राजस्थान भी अछूता नहीं हैं, इस प्रदेश ने भी सुशासन/बेहतर कानून व्यवस्था/नागरिकों को स्वछंदता के साथ जीवन जीने की आजादी के दावों के बीच तरक्की के अपने अद्भुत आयाम स्थापित किए हैं। कमोबेश इसका दंभ भी प्रदेश की सरकारों द्वारा भरा जाता रहा हैं। इन सबके बीच यह वाकई अफसोसजनक/दुखद हैं कि देश.. खास तौर से राजस्थान के कुछ इलाकों में देश/प्रदेश की कानून व्यवस्था/संवैधानिक प्रक्रियाओं का खुलेआम मजाक उड़ाया जाता हैं। इन इलाकों में रह रहे लोगों के अपने रीति-रिवाज हैं.. अपना कानून और अपनी व्यवस्थाएं हैं। सीधे-सीधे कहा जाएं तो इनका अपना अंधा कानून हैं, जहां इनकी अपनी बनाई हुई दण्ड व्यवस्था तक हैं।

देश/प्रदेश की संवैधानिक/कानून व्यवस्थाओं को वर्षों से सीधे तौर पर ठेंगा दिखाते चले आ रहे इन स्वयं-भू लोगों/इलाकों के बारे में ऐसा नहीं हैं कि प्रदेश सरकार/कानून व्यवस्था/पुलिस को मालूम नहीं हैं.. सच तो यह हैं कि मालूम होते हुए भी ये स्वयं को असहाय महसूस करते हैं। जी हां! मैं बात कर रहा हूं.. राजस्थान के उन आदिवासी इलाकों की जहां आज भी उनकी अपनी व्यवस्थाएं हैं। फिर चाहे वह सामाजिक/आर्थिक/कानूनी.. सब कुछ संचालन/नियंत्रित करने का उनका अपना तरीका हैं। इन आदिवासी इलाकों में रहने वाले आदिवासियों की जिस प्रथा ने प्रदेश सरकार व कानून व्यवस्था का जिम्मा संभाल रहे लोगों की नाक में सबसे ज्यादा दम कर रखा हैं वह हैं ‘मौताणा’ प्रथा। एक ऐसी प्रथा जिसने अब तक हजारों परिवारों को तबाह/बर्बाद कर दिया हैं। राजस्थान की अरावली पर्वतमाला के आसपास/खास तौर से उदयपुर/बांसवाड़ा/सिरोही एवं पाली क्षेत्र के आदिवासी इलाकों में रहने वाले आदिवासियों के बीच इस प्रथा का सर्वाधिक चलन हैं। तथाकथित सामाजिक न्याय के उद्देश्य से शुरू हुई यह प्रथा अब कई परिवारों को तबाह कर देने वाली कुप्रथा का रूप ले चुकी हैं।  

आदिवासी ‘मौताणा’ प्रथा एक नजर में...
मौताणा प्रथा राजस्थान में उदयपुर/बांसवाड़ा/सिरोही एवं पाली क्षेत्र के आदिवासी इलाकों में जनजातीय समुदाय में प्रचलित हैं। ऐसी धारणा हैं कि इस प्रथा की शुरुआत तो सामाजिक न्याय के उद्देश्य से हुई थी जिसमें यदि किसी ने किसी व्यक्ति की हत्या कर दी तो दोषी को दंड स्वरूप हर्जाना देना पड़ता था लेकिन अब अन्य कारण से हुई मौत पर भी आदिवासी मौताणा मांग लेते हैं। वहीं पिछले कुछ सालों में देखा गया हैं कि किसी भी वजह से हुई अपनों की मौत का दोष दूसरे पर मढ़ कर जबरन मौताणा वसूल किया जाने लगा हैं। मौताणे की रकम नहीं मिलने पर आदिवासी चढ़ोतरा करते हैं। इसमें सामने वाले कुटुंब के घर को लूटा जाता हैं और आग तक लगा दी जाती हैं। चढ़ोतरा में दोषी पक्ष के साथ ही मारपीट की जाती हैं। दरअसल जब मृतक का परिवार किसी को दोषी मानकर उसे मौताणा चुकाने के लिए मजबूर करता हैं तो आदिवासियों की अपनी अदालत लगती हैं, जहां पंच दोषी को सफाई का मौका दिए बिना ही मौताणा चुकाने का फरमान जारी कर देते हैं। भुखमरी की नौबत झेल रहे आदिवासी परिवारों को लाखों रुपए का मौताणा चुकाना पड़ता हैं। जिससे गरीब आदिवासी बर्बाद हो जाते हैं।

‘मौताणा’ नहीं तो पीड़ित पक्ष को बदला लेने का हक
राजस्थान के प्रतापगढ़, भीलवाड़ा, चित्तौडगढ़, राजसमन्द और में भी मौताणा प्रथा का चलन हैं। ‘मौताणा’ नहीं चुकाने पर मृतक का परिवार दोषी परिवार के सदस्य की जान तक ले सकता हैं। राशि नहीं चुकाने पर यह हिंसक रूप लेता हैं। इसके अनुसार यदि आरोपी पक्ष पीड़ित पक्ष को मुआवजा नहीं देता हैं तो पीड़ित पक्ष को उससे बदला लेने का हक हैं। चूंकि मौताणे की रकम भारी भरकम होती हैं जिससे उनकी सारी जमीन जायदाद दांव पर लगानी पड़ जाती हैं। ऐसे में कई परिवार या तो डर कर पलायन कर जाते हैं या फिर बर्बाद हो जाते हैं। दूसरे पक्ष के इनकार करने पर पहला पक्ष दूसरे के घर में आग लगा सकता हैं या उसी तरह की वारदात को अंजाम दे सकता हैं। चाहे हादसा हो या हत्या या कुछ और आदिवासी किसी भी वजह से हुई मौत पर हर्जाना मांग लेते हैं। इसके अनेक उदाहरण हैं, मसलन.. उदयपुर के गल्दर में बाइक से हादसा हुआ तो उसे बिठाने वाले को 80 हजार देने पड़े। खाखड़ में की कउड़ी की बिजली गिरने से मौत पर पीहर ने मौताणा लिया। कुएं में शव मिला तो मालिक ने मौताणा मांगा। बाद में इसे लेकर काफी हंगामा भी हुआ। नवंबर 2005 में ढ़ेडमारिया के भैरूलाल डामोर की बीमारी से मौत हुई। चचेरे भाई से मौताणा लेने के लिए शव 35 दिनों घर में ही रखे रखा। मौताणा लेकर ही माने परिजन।

सवा साल लटका रहा शव/20 साल बाद लौटे 30 परिवार
कउचा गांव में महिला को सांप ने डसा लिया। पीहर वालों ने कहा कि सांप ससुराल का ही था। ऐसे ही महादेव नेत्रावला गांव में कुत्ते के काटने पर मालिकों से मौताणा लिया। नालीगांव में 1995 में हत्या के मामले में मौताणा ना चुकाने पर 30 परिवारों को गांव छोड़ना पड़ा था। बीस साल बाद ये घर लौट सके। गुजरात सीमा के आंजणी गांव में मौताणा नहीं मिलने पर अजमेरी का शव सवा साल तक पेड़ से लटका रहा। मांडवा के भाटा का पानी में 50 परिवार 14 साल से भटक रहे। कोर्ट ने भी आजीवन कारावास सुनाया फिर भी दूसरा पक्ष मौताणा राशि की मांग पर अड़ा हैं। कोटड़ा में 14 साल पहले हामीरा की दास्तान तो और भी अलग हैं। उसके घर के बाहर कोई शव फेंक गया। हामीरा के परिवार पर हत्या का आरोप लगा। खेत छोडक़र दूसरों के रहमो करम पर जिंदगी बसर करनी पड़ रही हैं। इसी प्रकार जोगीवड़ में अप्रैल 2014 परथा 50 देवा गरासिया की हत्या के बाद दूसरे पक्ष को झाल(अंतिम संस्कार की राशि) 90 हजार भरनी थी। इसके लिए 5 बीघा 6 बीघा जमीन गिरवी रखी। बाकी राशि ना देने पर करीब 30 परिवारों को पलायन करना पड़ा हैं। वर्ष 2010 में सुबरी के दिनेश की हत्या पर सात लाख मौताणा चुकाने के लिए एक पक्ष के झालीया ने 70, परथा ने 40, लक्ष्मण ने 20 झालीया ने 45 हजार में जमीन गिरवी रखी और मवेशी बेचे।

ताजा मामला कड़नवा(उदयपुर) का
प्रदेश का यह ताजा प्रकरण वाकई राजस्थान की तरक्की पर नाज करने वालों को बैचेन करने वाला हैं। उदयपुर जिले के कड़नवा गांव में हुई एक मौत जिन्दगी को शर्मिंदा कर रही हैं। कड़नवा के रहने वाले चालीस वर्षीय वेहता गमार की मौत दस दिन पहले हो गई हैं, किन्तु अब उसकी मौत के दस दिन बाद भी शव को सिर्फ इसलिए चिता मयस्सर नहीं हैं क्योंकि उसके गांव के पंचों को मौत का मुआवजा चाहिए। हैरानी यह हैं कि दस दिनों से सड़ रहे शव की दुर्गंध शासन-प्रशासन के फेफड़ो तक अभी तक नहीं पहुंची हैं। सचमुच जिंदगी के बाद मौत से ऐसी क्रूरता हिला देने वाली हैं। चरमराती ऐसी कानून व्यवस्था के लिए आखिर कौन जिम्मेदार हैं? क्या ये परम्पराएं अमानवीय नहीं? यह पहला मामला नहीं हैं, प्रदेश के इन आदिवासी इलाकों में इस प्रथा के चलते अनेक बार ऐसी स्थितियां बनी हैं। सवाल यह कि, आखिर प्रदेश सरकार/कानून व्यवस्था के जिम्मेदार पूरे मामले में ठोस कदम क्यों नही उठा रहे हैं? सचमुच पुलिस-प्रशासन की लाचारगी समझ से परे हैं।

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