Friday, 11 December 2015

भगवानसिंह परिहार‘बाऊ जी’: समाजसेवा क्षेत्र के महान कर्मयोगी/उपेक्षित बच्चों के पालनहार

घनश्याम डी रामावत
भगवानसिंह परिहार जिन्हें ‘बाऊ जी’/अनाथ-उपेक्षित बच्चों के पालनहार/बेसहारों का सहारा.. न जाने कितने नामों से ताउम्र पुकारा जाता रहा और आगे भी सदियों तक इसी नाम/अंदाज से जाना जाता रहेगा। सही मायने में उनका व्यक्तित्व/कर्मशीलता ही कुछ ऐसी थी कि उनकी समग्र/पूर्ण व्याख्या कर पाना अथवा उन्हें शब्दों में बांधते हुए कलमबद्ध कर पाना शायद संभव ही नहीं। सच्चे अर्थो में वे समाजसेवा क्षेत्र के श्रेष्ठतम कर्मयोगी थे। उन्हें समाजसेवा क्षेत्र का विशालतम वट वृक्ष भी कहा जाए तो कोई अति-श्योक्ति नहीं, एक ऐसा वट वृक्ष/जन-हितकारी पेड़ जो सदियों में ही उग पाता हैं। किसी ने सच कहा हैं.. ‘समाजसेवा’ अपने आप में सुनहरा शब्द हैं, किन्तु इसका सुनहरापन तभी संभव हो पाता हैं जब कोई नेक बंदा अपनी नेक नियती/अव्वल दर्जे की कर्मशीलता/बेहतर दायित्व निर्वहन से इसमें असली रंग भरता हैं। भगवानसिंह परिहार ईश्वर के ऐसे ही एक नेक बंदे/कर्मयोगी थे जिन्होंने अपने संपूर्ण जीवन में अपने द्वारा किए गए नेक कार्यो के जरिये न केवल स्वयं के जीवन की सार्थकता/व्यक्तित्व को श्रेष्ठतम मुकाम दिया, अपितु ऊंचे दर्जे के समाजसेवी/नेक बंदे के रूप में खुद को साबित करते हुए ‘समाजसेवा’ क्षेत्र को भी इंद्रधनुषी रंग प्रदान करते हुए वास्तविक सम्मान दिया।
जोधपुर सहित समूचे मारवाड़ अंचल में ‘बाऊ जी’ के नाम से प्रख्यात भगवानसिंह परिहार का जन्म 12 अक्टूबर 1928 को पिता रामसिंह परिहार के घर मातु श्री मानीदेवी की पवित्र कोख से हुआ। बीए-एलएलबी शिक्षा प्राप्त भगवानसिंह परिहार की संपूर्ण शिक्षा-दीक्षा उनके गृह नगर जोधपुर में ही हुई। 7 दिसम्बर 2015/मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष-एकादशी को 87 वर्ष की उम्र में भले ही उन्होंने अपनी देह त्याग दी, किन्तु वे आज भी समग्र समाज के साथ खासकर उन अनाथ/अवांछित/उपेक्षित बच्चों के दिलों में.. जिनको उन्होंने अपने जीवनकाल में विपरीत परिस्थितियों में अपनाकर परवरिश की/राह दिखाई, हमेशा जिंदा रहेंगे। आम तौर पर समाजसेवा क्षेत्र में लोग सुगम रास्ता चुनते हैं, किन्तु भगवानसिंह ने ऐसा नहीं कर.. एक ऐसा मार्ग चुना जो आसान नहीं था। उनके चुने हुए इसी मार्ग ने उन्हें जीते जी ही नहीं देह त्यागने के बाद भी एक श्रेष्ठतम मुकाम के साथ लोगों के दिलों में चिर-स्थायी बना दिया। उन्होंने ऐसे बच्चों के कल्याण का मार्ग चुना जिन्हें ‘अवांछित’ करार देकर माता-पिता तो त्याग ही देते हैं, कमोबेश भगवान भी अपना मुंह मोड़ लेते हैं। लोक लाज के भय के कारण उपेक्षा के भाव से लावारिश छोड़ दिए जाने वाले इन बच्चों को धरती के भगवान/कर्मयोगी भगवानसिंह परिहार ने अपनाना चालू कर दिया। हृदय से लगाया और उनके बेहतर जीवन निर्माण हेतु अपन सर्वस्व न्यौछावर कर दिया।

ईश्वर की पवित्र रचना मानकर दिल से परवरिश
समाज जिन्हें हेय/घृणित दृष्टि से देखता हैं/ठुकराता हैं.. विधाता की परम/पावन/पवित्र रचना मानकर भगवानसिंह ने इन बच्चों को अपनाया। उनमें ईश्वर की पवित्र रचना का भाव महसूस कर उनकी दिल से परवरिश की। सचमुच! वर्षो पूर्व समाज में सोच व विचारों की विषमताओं के बीच इन बालकों को अपनाकर उन्हें अभिभावक का प्यार देना/पालन-पोषण और फिर उन्हें श्रेष्ठतम मुकाम प्रदान करना..आसान नहीं होता हैं। किन्तु ‘बाऊ जी’ को तो यही मार्ग अच्छा लगा, उन्होंने अपनी दृढ़ संकल्पशीलता के साथ न केवल जीवनभर अपने कदमों को इसी मार्ग पर आगे बढ़ाया अपितु पूरी तन्मयता से अपने दायित्वों को आत्मीयता/जिम्मेदारी से निभाया भी। उनकी इसी चिंतन पराकाष्ठा/दिव्य दृष्टि/त्याग/समर्पण ने उन्हें औरो से अलग बना दिया। उनके जीते जी व्यक्तिगत रूप से मेरा उनसे ज्यादा मिलना नहीं हुआ किन्तु 18 सितम्बर 2014 को उनके अपने कर्मक्षेत्र के निमित्त बनाई गई कर्मस्थली नवजीवन संस्थान/लव-कुश परिसर में ‘नि:शुल्क फैशन डिजायनिंग सर्टिफिकेट कोर्स’ शुभारम्भ/कार्यक्रम के दौरान हुई छोटी सी/क्षणिक मुलाकात ने मुझे उनसे/उनके चमत्कारिक व्यक्तित्व से रूबरू करा दिया। उम्र के इस पड़ाव पर भी ऊर्जा से सरोबार/सहृदयता/आत्मीयता/सौ फीसदी सेवा का भाव/ललक.. मैं तो कायल/स्तब्ध ही रह गया।

‘नवजीवन संस्थान’ के जरिये लोगों के जीवन में रोशनी
उनके द्वारा बनाई गई कर्म स्थली ‘नवजीवन संस्थान’ अंतर्गत लव कुश संस्थान/आस्था बाल शोभागृह/लव कुश बाल विकास केन्द्र/गायत्री बालिका विकास गृह.. के रूप में उनके द्वारा लगाए गए ऐसे सुनहरे वृक्ष हैं जिन्होंने अब तक न जाने कितनो के जीवन में रोशनी देते हुए उन्हें निहाल कर दिया, आगे भी वर्षो/सदियों तक ये वृक्ष उनकी प्रेरणा से अपनी छाया/वरदहस्त जरूरतमंदों को प्रदान करते रहेंगे। भगवानसिंह परिहार भले ही आज लोगों के बीच नहीं हैं, किन्तु सही अर्थों में नवजीवन संस्थान के रूप में आज भी सबके बीच मौजूद हैं। उनका जीवन सदैव लोगों के लिए, यहां तक कि समाज सेवा के क्षेत्र में कार्य कर रहे लोगों के लिए भी प्रेरणादायी रहेगा। उनका जरूरतमंद की टोह लेना/पहचानना, आवश्यकताओं का बारीकी से अध्ययन करना और सद् इच्छा/सद्भाव से उसे साकार/सार्थक रूप देना.. उस मसीहा में समाहित कुछ ऐसे गुण थे जो उन्हें सदैव आमजन के दिलों में चिर स्थायी बनाकर रखेंगे। किसी ने सही कहा हैं मान-सम्मान/उपाधि/पुरस्कार से इंसान स्वयं का धन्य बना सकता हैं किन्तु सेवा और सेवा का भाव(मय कर्मशीलता) इंसान को सही अर्थों में महान बनाती हैं। भगवानसिंह परिहार को अपने पूरे जीवन में बच्चों से प्यार/स्नेह रहा, खासकर ऐसे बच्चों से जिनके जीवन में अपने माता-पिता/अभिभावक के प्यार/दुलार की दूर-दूर तक कोई संभावना नहीं थी। सत्य तो यह हैं कि ताउम्र जागते-सोते उनके जीवन में बचपन ही हिलौरे लेते रहा जो शायद उनके इस संसार में नहीं रहते भी अनवरत रूप से जारी रहेगा।

कर्मशीलता की राजस्थान में और कोई मिसाल नहीं
दो दशक पूर्व भगवानसिंह परिहार की ओर से स्थापित लवकुश संस्थान में उन माताओं के बच्चों का लालन-पालन होता हैं जो न जाने किस मजबूरी में अपने बच्चों को सडक़ों के किनारे, निर्जन स्थल अथवा समाज की मर्यादा के डर से गंदी नालियों में फैंक देती थी। इन लावारिस बच्चों को कुत्तों द्वारा नोंचना और बीमार अपाहिज होने के समाचार पढ़ने के बाद दो दशक पूर्व परिहार ने उन बेकसूर बच्चों को संरक्षण देने की ठानी। नतीजतन उनकी ओर से स्थापित नवजीवन संस्थान में फेंके हुए और संस्थान में लाकर छोड़े गए निराश्रित 11 सौ से अधिक लावारिस बच्चों को नया जीवन मिला। उन्हीं 11 सौ बच्चों में 800 से अधिक संतानहीन दम्पित्तयों को गोद देकर बच्चों को समाज की मुख्यधारा में आने का अवसर मिला। यहीं नहीं, 100 से अधिक जरूरतमंद परिवार की बालिकाओं को शिक्षित कर उन्हें पुन: परिवार में भेजा गया। संस्थान की 11 बालिकाओं का धूमधाम से विवाह करवाया। 150 से अधिक वृद्धजन पाल रोड़(जोधपुर) स्थित ‘आस्था’ वृद्धाश्रम में सुखमय जीवन व्यतीत कर रहे हैं। जीवन में 25 हजार लोगों के नेत्र का ऑपरेशन, पांच हजार से अधिक विकलांगों को केलीपर, 65 कुष्ठ रोगियों को लिए पक्के मकान की व्यवस्था एवं 84 बाढ़ पीडि़तों के पुनर्वास के लिए पक्के मकानों की व्यवस्था उनके द्वारा की गई।

बच्चों से स्नेह/दुलार और सामाजिक सरोकार
बीए-एलएलबी भगवान सिंह की दिनचर्या ऐसी थी कि वे सुबह जल्दी ही हाउसिंग बोर्ड स्थित लव-कुश आश्रम बच्चों के पास पहुंच जाते और दिन भर वहां बिताते। शाम को पाल रोड़(जोधपुर) पर दिग्विजय नगर स्थित वृद्धाश्रम आ जाते और रात यहीं बिताते। समाजसेवा/सामाजिक सरोकारों को ही जीवन का उद्देश्य बना लेने वाले भगवानसिंह परिहार द्वारा ‘लव-कुश बाल विकास गृह’ के माध्यम से अनाथ शिशुओं का पालन-पोषण/गायत्री बालिका गृह में बालिकाओं को पढ़ाकर विवाह करवाना/आस्था वृद्धाश्रम में बुजुर्गों का संरक्षण/लॉयंस क्लब के माध्यम से अंधता निवारण में सहयोग/गांधी कुष्ठ निवारण संस्था में सहयोग/पश्चिमी राजस्थान में अकाल के दौरान सहायता/लूणी नदी में आई बाढ़ के बाद विस्थापितों का पुनर्वास/नेत्रहीन विकास संस्थान के भवन निर्माण में सहयोग तथा नशे व पोलियो के खिलाफ अभियान.. सहित किए गए जन-हितकारी कार्यो की फेहरिस्त इतनी लंबी हैं कि उसे कलमबद्ध करना शायद ही संभव हो। परिहार को बच्चों से अत्यधिक लगाव था। बच्चें स्कूल से आते हैं उन्हें घेर लेते थे। ‘बाऊजी’ भी अभिभावक की तरह रोजाना उनसे पढ़ाई के बारे में पूछते और उनकी कॉपियां चैक करते। ये बच्चे मानो परिहार के जेहन में बसे थे। अंतिम सांस लेने से पहले अस्पताल में भर्ती रहने के दौरान बाइपास सर्जरी के बाद जैसे ही उन्हें होश आया, सबसे पहले यही बोले.. मुझे बच्चों से बात कराओ। वे बच्चों से दिल से स्नेह करते थे, इसी की मिसाल हैं कि उन्होंने अपने बालगृह में पली-बढ़ीं 12 लड़कियों के लिए न केवल वर ढूंढ़े.. धूमधाम से शादी करवाई और उनके गर्भवती होने पर डिलीवरी भी अपने घर पर ही करवाई।

अनुकरणीय समाजसेवा के लिए विभिन्न सम्मान
उत्कृष्ट समाजसेवी/कर्मयोगी भगवानसिंह  परिहार को उनकी अनुकरणीय कर्मशीलता के लिए वर्ष 2008 में राजस्थान सरकार की ओर से स्वतंत्रता दिवस पर मुख्यमंत्री द्वारा सम्मानित किए जाने के साथ ही राजस्थान सरकार की ओर से ही उनकी संस्था नवजीवन को पचास हजार रुपए की सम्मानित राशि, जोधपुर के पूर्व नरेश गजसिंह द्वारा 1 लाख 8008 रुपए देकर समाजसेवा के क्षेत्र में सम्मान, जोधपुर एसोसिएशन मुंबई द्वारा समाज रत्न अवार्ड, मेहरानगढ़ म्यूजियम ट्रस्ट द्वारा 2014 में मारवाड़ रत्न पुरस्कार एवं एमलीयर एसोसिएशन राजस्थान की ओर श्रेष्ठ नियोजक पुरस्कार प्रदान कर नवाजा जाना उनके बेहतर/उत्कृष्ट/श्रेष्ठतम व्यक्तित्व को स्वत: ही परिभाषित कर देते हैं।

सच्ची श्रद्धांजली/फफक पड़ी बालिकाएं
नवजीवन संस्थान की बालिकाएं अपने पालनहार ‘बाऊजी’ की पार्थिक देह को कंधा देते फफक पड़ी तो उपस्थित लोग भी परिहार की महानता के समक्ष नतमस्तक होते नजर आए। दो दशक में करीब 11 सौ से अधिक अनाथ बच्चों के पालनहार नवजीवन संस्थान के संस्थापक भगवानसिंह परिहार की अंतिम यात्रा में जोधपुर ही नहीं मारवाड़ अंचल के दूर-दराज इलाकों से हर वर्ग/समाज के लोग शामिल हुए। लवकुश शिशु गृह/वरिष्ठ नागरिक आस्था सदन परिवार के सदस्यों ने नम आंखों, भीगी पलकों व दु:खी मन से विदाई दी। उनके अंतिम दर्शन हेतु सामाजिक/धार्मिक/औद्योगिक/राजनीति क्षेत्र से हर आम व खास पहुंचा। कोई भी कार्य समय पर पूरा करने की प्रेरणा देने वाले भगवानसिंह परिहार की अंतिम यात्रा भी निर्धारित समय पर आरंभ हुई।

शत्-शत् नमन...
मनुष्य योनि में जन्म लेकर देवताओं के माफिक कार्य करना.. प्रत्येक कर्म को निस्पृह/निरीह/कामना रहित बनाए रखना और बिना यश/नाम/मान-सम्मान की इच्छा रखे परोपकार में सतत् तरीके से जीवनभर अपने आप को लीन रखना, यहीं भगवानसिंह परिहार ‘बाऊ जी’ अपनी असली पहचान थी। इस उम्मीद के साथ कि उनके द्वारा ताउम्र किए गए निष्काम भाव से दायित्व निर्वहन को समाज सकारात्मक लेते हुए अपने जीवन में आत्मसात करेगा और सही मायने में निरीह/उपेक्षित/पीडि़त/शोषित वर्गो को लेकर समाज के लोगों के मन मे उत्पन्न होने वाला यह सेवा का भाव ही भगवानसिंह परिहार जैसे उत्तम दर्जे के कर्मयोगी को सच्ची श्रद्धांजलि होगी। कर्मशीलता के पुरौधा/अवांछित/उपेक्षित बच्चों के पालनहार/समाजसेवी के रूप में विराट व्यक्तित्व.. श्रद्धेय भगवानसिंह परिहार को शत्-शत् नमन।

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