घनश्याम डी रामावत
प्राचीन काल में भारत आर्थिक दृष्टि से पूर्णत: सम्पन्न था। तभी तो यह ‘सोने की चिडिय़ा‘ कहलाता था। कहने को तो भारत आज आर्थिक दृष्टि से विकासशील देशों की श्रेणी में हैं। किंतु यहां कुपोषण और बेरोजगारी की क्या स्थिति हैं, सभी अच्छी तरह से जानते हैं। आज हमारे देश में जो अव्यवस्था व्याप्त हैं, उसकी जड़ में बेरोजगारी की समस्या विकराल हैं। लूट-खसोट, छीना-झपटी, चोरी-डकैती, हड़ताल आदि कुव्यवस्थाएं इसी समस्या के दुष्परिणाम हैं। बेरोजगारी का अभिप्राय हैं, काम करने योग्य इच्छुक व्यक्ति को कोई काम न मिलना।
भारत में बेरोजगारी के अनेक रूप हैं । बेरोजगारी में एक वर्ग तो उन लोगों का है, जो अशिक्षित या अर्द्धशिक्षित हैं और रोजी-रोटी की तलाश में भटक रहे हैं। दूसरा वर्ग उन बेरोजगारों का है जो शिक्षित हैं, जिसके पास काम तो हैं, पर उस काम से उसे जो कुछ प्राप्त होता हैं, वह उसकी आजीविका के लिए पर्याप्त नहीं हैं। बेरोजगारी की इस समस्या से शहर और गांव दोनों आक्रांत हैं। देश के विकास और कल्याण के लिए वर्ष 1951-52 में पंचवर्षीय योजनाओं को आरंभ किया गया था। योजना आरंभ करने के अवसर पर आचार्य विनोबा भावे ने कहा था किसी भी राष्ट्रीय योजना की पहली शर्त सबको रोजगार देना हैं। यदि योजना से सबको रोजगार नहीं मिलता, तो यह एकपक्षीय होगा, राष्ट्रीय नहीं। आचार्य भावे की आशंका सत्य सिद्ध हुई। प्रथम पंचवर्षीय योजनाकाल से ही बेरोजगारी घटने के स्थान पर निरंतर बढ़ती चली गयी। आज बेरोजगारी की समस्या एक विकराल रूप धारण कर चुकी हैं।
समस्या निवारण के लिए गंभीर प्रयास जरूरी
हमारे देश में बेरोजगारी की इस भीषण समस्या के अनेक कारण हैं। उन कारणों में लॉर्ड मैकॉले की दोषपूर्ण शिक्षा पद्धति, जनसंख्या की अतिशय वृद्धि, बड़े-बड़े उद्योगों की स्थापना के कारण कुटीर उद्योगों का ह्रास आदि प्रमुख हैं। आधुनिक शिक्षा प्रणाली में रोजगारोन्मुख शिक्षा व्यवस्था का सर्वथा अभाव हैं। इस कारण आधुनिक शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों के सम्मुख भटकाव के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं रह गया हैं। बेरोजगारी की विकराल समस्या के समाधान के लिए कुछ राहें तो खोजनी ही पड़ेगी। इस समस्या के समाधान के लिए गंभीर प्रयास किए जाने चाहिए। सही मायने में यह वो वक्त हैं जहां देश में सत्तारूढ़ केन्द्र की सरकार के साथ प्रदेशों की सरकारों को इस विषय पर गंभीर चिंतन करने की आवश्यकता हैं। दूसरे शब्दों में यह समस्या सही मायने में सरकार के लिए चिंता का विषय हैं।
व्यावहारिक दृष्टिकोण भी एक मार्ग
भारत में बेरोजगारी की समस्या का हल आसान नहीं है, फिर भी प्रत्येक समस्या का समाधान तो हैं ही। इस समस्या के समाधान के लिए मनोभावना में परिवर्तन लाना आवश्यक हैं। मनोभावना में परिवर्तन का तात्पर्य हैं किसी कार्य को छोटा नहीं समझना। इसके लिए सरकारी अथवा नौकरियों की ललक छोडक़र उन धंधों को अपनाना चाहिए, जिनमें श्रम की आवश्यकता होती हैं। इस अर्थ में घरेलू उद्योग धंधों को पुनर्जीवित करना तथा उन्हें विकसित करना आवश्यक हैं। शिक्षा नीति में परिवर्तन लाकर इसे रोजगारोम्मुखी बनाने की भी आवश्यकता हैं। केवल डिग्री ले लेना ही महत्त्वपूर्ण नहीं, अधिक महत्त्वपूर्ण हैं योग्यता और कार्य कुशलता प्राप्त करना।
युवा वर्ग की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति होनी चाहिए कि वह शिक्षा प्राप्त कर स्वावलंबी बनने का प्रयास करें। सरकार को भी चाहिए कि योजनाओं में रोजगार को विशेष प्रश्रय दिया जाए। भारत सरकार इस दिशा में विशेष प्रयत्नशील हैं। परन्तु सरकार की तमाम नीतियां एवं कार्यान्वयण नाकाफी ही साबित हुए हैं। मतलब साफ हैं कि सरकार की नीतियों में कहीं न कहीं कोई व्यावहारिक कठिनाई अवश्य हैं। अत: सरकार को चाहिए कि वह इसके निराकरण हेतु एक व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाए और समस्या को और अधिक बढऩे न दें।
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