घनश्याम डी रामावत
बिहार में भारतीय जनता पार्टी की हार के बाद जहां पार्टी का शीर्ष नेतृत्व लगातार यह समझाने में व्यस्त था कि चुनाव हारने का प्रमुख कारण प्रदेश में जातीय गणित का भाजपा के विरूद्ध धुवीकरण हैं, वहीं पार्टी के वरिष्ठ तथा मार्गदर्शक मण्डल के नेता लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, शांता कुमार एवं पूर्व केन्द्रीय मंत्री यशवन्त सिन्हा ने साझा बयान जारी करके प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं पार्टी अध्यक्ष अमित शाह से आग्रह किया कि दिल्ली में पराजय के बाद भी पार्टी में कोई सुधार नहीं हुआ इसीलिए बिहार में पराजय के बाद हार की जिम्मेदारी तय होनी चाहिए। इसके बाद पार्टी के तीन पूर्व अध्यक्षों राजनाथसिंह, वैंकया नायडू और नितिन गडगरी ने स्प्ष्टीकरण जारी करते हुए कहा कि हार की जिम्मेदारी सामूहिक होती हैं। उनके अनुसार ऐसी परम्परा वरिष्ठ नेता अटल बिहारी वाजपेयी तथा आडवाणी के समय से चली आ रही हैं।
प्रतीत होता हैं भाजपा में विनम्रता का युग समाप्त हो गया हैं। इनके जवाब से तो यहीं लगता हैं कि भाजपा के ये तीनों अध्यक्ष भले ही परम्परा की बात करें किन्तु परम्पराओं की परवाह अब इस पार्टी को बिल्कुल भी नहीं हैं। आखिर क्या कहा बुजुर्ग नेताओं ने? यहीं तो कि हार की जिम्मेदारी तय होनी चाहिए। इसके जवाब में उन्हें परम्परा की याद दिलाई जाती हैं। परम्परा तो यह रही हैं पार्टी मे कि 1983 में दिल्ली मेट्रोपोलिटन काउंसिल का चुनाव हार जाने के बाद तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी ने अध्यक्ष पद से त्याग पत्र दे दिया था। बाद में उस समय के पार्टी महासचिव लाल कृष्ण आडवाणी ने काफी समझाइश की तभी जाकर वाजपेयी ने त्याग पत्र वापस लिया। पार्टी की परम्परा तो यह भी हैं कि सभी पूर्व अध्यक्ष पार्टी के सर्वोच्च राजनीतिक मामलों की समिति संसदीय दल के सदस्य होते हैं। इस परम्परा को क्यों बदल दिया गया? क्या इसलिए कि पार्टी में आडवाणी और डॉ. जोशी के रहते कथित निरंकुशता पर नियन्त्रण लगने की आशंका थी।
पार्टी 1980 में बनी थी किन्तु उसकी सारी परम्पराएं भारतीय जनसंघ से ग्रहण की गई। परम्परा की बात करने वालों को इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि जनसंघ के पूर्व अध्यक्ष दिवंगत दीनदयाल उपाध्याय उत्तर प्रदेश के एक क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे थे, उनसे कुछ स्थानीय नेताओं ने कहा कि आप संबंधित क्षेत्र के कुछ ब्राह्मण नेताओं से मिल ले तो आपकी विजय निश्चित हैं। इस पर उपाध्याय जी ने कहा कि मैं जाति के आधार पर चुनाव नहीं जीतना चाहता। मुझे यदि जाति का सहारा लेना पड़ेगा तो मैं पराजय को ज्यादा अच्छा मानता हूं। बिहार में विकास से शुरूआत करके जाति के मुद्दे पर आने वाले भाजपा शीर्ष नेतृत्व को क्या यह पता नहीं था कि जिस जातिवादी राजनीति को वे जीत का आधार बना रहे हैं, उसमें लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार को महारत हासिल हैं.. ऐसे में उनसे किस प्रकार पार पाया जा सकेगा? जीत की भूमिका तो तब बनती जब पार्टी के शीर्ष नेता अर्थात चुनाव में पार्टी की ओर से फतेह का ताना-बाना बुन रहे नेता अपने अखाड़े में राजद और जेडीयू को खींचते। जरूरत विकास के परिप्रेक्ष्य में बहस की थी किंतु लालू-नीतीश को पटखनी देने के लिए उन्हीं के जातीय मुद्दे पर उलझे तो उलझकर ही रह गए।
पार्टी में एक वर्ग खुलकर इस बात पर चर्चा कर रहा हैं कि कुछ वरिष्ठ नेता जो मंत्री भी हैं, चाहते थे कि पार्टी बिहार में हारे ताकि पार्टी में लगातार ताकतवर होकर उभर रहे नरेन्द्र मोदी और अमित शाह अनियंत्रित होकर नहीं रह सके। यदि यह सही हैं तो लोग स्पष्टीकरण जारी करके बुजुर्ग पार्टी नेताओं को परम्परा स्मरण याद दिला रहे हैं। उनसे पूछा जाना चाहिए कि क्या पार्टी में यहीं परम्परा रही हैं कि सारी रणनीति खुद ही बैठकर कमरे में तैयार कर ली जाए और कामयाबी मिले तो खुद श्रेय ले लिया जाए और उसमें किसी और को शामिल न किया जाए, लेकिन असफलता मिले तो कह दिया जाए कि यह तो परम्परागत ‘सामूहिक’ हैं। निश्चित रूप से यह ऐसा वक्त हैं जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को हस्तक्षेप करना चाहिए और सिर के बल खड़ी भाजपा को पैर के बल करने का दिल से प्रयास करना चाहिए। भारतीय जनता पार्टी का मतलब केवल दो लोग कदापि नहीं हो सकते। जिन्हें बर्फखाने में रखने के लिए मार्गदर्शक मण्डल में रखा गया हैं उनके अनुभव व क्षमता का उपयोग करने के लिए एक सिस्टम अख्तियार करना जरूरी हैं। वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी तथा डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने केवल दिल्ली के चुनाव में पार्टी के लिए उपयोगी साबित होते अपितु बिहार चुनाव में भी उनकी मदद ली जाती तो शायद ऐसी दुगर्ति नहीं होती।
परम्पराओं की बात करने वालों को इतना याद रखना होगा कि इस पार्टी में कभी अपने बुजुर्गो को चिढ़ाने की परम्परा नहीं रही हैं जैसा कि अब किया जा रहा हैं। बहरहाल परम्पराओं की बात करने से ज्यादा जरूरी हैं परम्पराओं को निभाने की तथा हर स्तर पर परम्पराओं से छुटकारा पाने वालों के मुंह से बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता कि वे परम्पराओं का स्मरण उन्हें कराए जिन्होंने खुद पार्टी के नैतिक मानदंडों का निर्धारण किया था। आडवाणी ने परम्पराओं व इन्हीं नैतिक मानदंडों का सम्मान करते हुए प्रधानमंत्री पद के लिए स्वयं को पीछे कर दिया था और अटल बिहारी वाजपेयी को आगे कर दिया था जबकि उस समय आडवाणी द्वारा किए गए इस व्यवहार से आरएसएस खुद सहमत नहीं था। संघ के उस समय के नेता चाहते थे कि पार्टी जब भी सरकार बनाने की स्थिति में आए तो प्रधानमंत्री का पद लाल कृष्ण आडवाणी को ही संभालना चाहिए। किंतु आडवाणी ने एक आदर्श परम्परा निभाई और जिसके मार्गदर्शन में उन्होंने दशकों तक कार्य किया था उसे ही अपना नेता माना। यह वाकई अजीब विडम्बना हैं.. आडवाणी के साथ कैसी परम्परा निभाई गई एवं निभाई जा रही हैं, इसकी चर्चा करने की आवश्यकता नहीं हैं। बेहतर यहीं होगा परम्पराओं की चर्चा नहीं कर पार्टी का शीर्ष नेतृत्व पूरे मामले में गंभीरता से चिंतन-मनन करें।
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