Sunday, 29 November 2015

जोधपुर का ‘राजरणछोड़ जी मंदिर’: श्रद्धा व आस्था की अनूठी मिसाल

घनश्याम डी रामावत
जोधपुर के प्रमुख श्रीकृष्ण मंदिरों में शुमार राजरणछोड़ जी का मंदिर जोधपुर के महाराजा जसवंतसिंह की द्वितीय रानी एवं जामनगर के राजा वीभा की पुत्री जाड़ेची राजकंवर ने बनवाया। सन् 1905 में बने इस मंदिर पर रानी राजकंवर ने कुल एक लाख रूपये खर्च किए। मात्र नौ वर्ष की उम्र जाड़ेची राजकंवर का विवाह जोधपुर के तत्कालीन राजकुमार जसवंतसिंह के साथ हुआ था। वर्ष 1854 में यह ‘खाण्डा’ विवाह था जिसमें जसवंतसिंह विवाह के लिए जामनगर नहीं गए बल्कि सिर्फ उनकी तलवार को वहां भेजा गया। तलवार के साथ राजकुमारी राजकंवर ने सात फेर लिए थे। विवाह की कुछ रस्में जालोर में पूरी की गई। विवाह के बाद राजकंवर जोधपुर पहुंची लेकिन चंद दिनों बाद जामनगर लौट गई। जब वह तेरह वर्ष की हुई तब पुन: ससुराल जोधपुर आई तो फिर कभी लौटकर अपने पीहर नहीं गई। एक बार मेहरानगढ़ में प्रवेश करने के बाद वह जीवन भर दुर्ग से बाहर नहीं निकली। रानी राजकंवर प्रतिवर्ष सवा लाख तुलसी दल अभिषेक के लिए द्वारिका भेजती थी। तुलसी दल को पुजारी तथा कामदार द्वारिका लेकर जाते थे।
 महाराजा जसवंतसिंह के विक्रम संवत् 1952 में देहावसान के बाद रानी राजकंवर ने वृद्धावस्था में जोधपुर में भगवान श्रीकृष्ण का भव्य मंदिर बनवाया। उस समय यह मंदिर जोधपुर परकोटे के बाहर बाई जी का तालाब के पास एक ऊंचे रेतीले टीले पर बनवाया गया। जोधपुर रेलवे स्टेशन के ठीक सामने स्थित मंदिर की जमीन को तीस फीट ऊंचा बनाया गया ताकि रानी राजकंवर मेहरानगढ़ की प्राचीर से भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन कर सकें। रानी ने अपने संपूर्ण जीवन में कभी दुर्ग की प्राचीर नहीं लांघी। मंदिर के निर्माण के बाद रानी किले की प्राचीर से ही संध्या के समय खड़ी होकर दर्शन करती थी। मंदिर का पुजारी आरती की ज्योत को मंदिर के चौक के दरवाजे के बाहर लेकर खड़ा होता था। किले की प्राचीर से रानी राजकंवर उसी ज्योत के दर्शन करती थी। स्वयं रानी राजकंवर कभी मंदिर में दर्शनार्थ नहीं पहुुंची।

यूं पड़ा मंदिर का नाम ‘राजरणछोड़’
रानी राजकंवर के आराध्य भगवान श्रीकृष्ण को रणछोड़ भी कहा जाता हैं। रानी ने अपने नाम राज के साथ अपने आराध्य भगवान श्रीकृष्ण अर्थात रणछोड़ का नाम जोडक़र मंदिर का नाम ‘राजरणछोड़ जी मंदिर’ रखा। रानी राजकंवर के पुत्र महाराजा सरदारसिंह की मौजूदगी में 12 जून 1905 के दिन मंदिर को भक्तों के दर्शनार्थ खोला गया। मंदिर के नीचे वाले भाग में कई कोटडिय़ां बनाई गई जो अब दूकानों की शक्ल अख्तियार कर चुकी हैं। बाहर से आने वाले श्रद्धालुओं को आवासीय सुविधा उपलब्ध कराने के उद्देश्य से एक सराय का निर्माण करवाया गया जो आज भी विद्यमान हैं। इस सराय को जसवंत सराय के नाम से जाना जाता हैं, यह सराय ‘राजरणछोड़ जी मंदिर’ के ठीक सामने रेलवे स्टेशन जाने वाले मुख्य मार्ग पर बायी ओर गली में स्थित हैं।

लाल पत्थर से निर्मित कलात्मक तोरण द्वार
‘राजरणछोड़ जी मंदिर’ का मुख्य द्वार कलात्मक हैं। लाल पत्थर से निर्मित दो विशाल स्तंभ से सुसज्जित स्तंभों पर बेल बूटों तथा सुंदर फूल पत्तियों की खुदाई सहित शीष से दोनों स्तंभों को जोडऩे वाले मेहराब का आकर्षण देखते ही बनता हैं। मंदिर के अग्र भाग के दोनों सिरों पर कलात्मक छतरियां और मुख्य द्वार से लगभग तीस सीढिय़ां पूरी होने के बाद एक तोरण द्वार निर्मित हैं। सीढिय़ों के दोनों ओर खुले स्थल पर बारादरियां हैं। मंदिर के गर्भ गृह में काले मकराना पत्थर को तराश कर बनाई गई भगवान श्री रणछोड़ जी की प्रतिमा स्थापित हैं।

चांदी के झूले में श्रावणोत्सव
वर्तमान में देव स्थान प्रबंधित राजकीय प्रत्यक्ष प्रभार मंदिर में जन्माष्टमी, अन्नकूट तथा श्रावण मास में झूलों का आयोजन होता हैं। श्रावण मास में विशाल चांदी से निर्मित झूले में ठाकुर जी का विराजित कर दर्शनार्थ रखा जाता हैं। मंदिर के पुजारी हरिलाल शिवलाल ठाकर के अनुसार उनके परदादा रानी राजकंवर के साथ दहेज में आए थे। मंदिर में पहले वर्ष भर में कुल 21 ठाकुर जी के उत्सव होते थे, किन्तु समय के साथ इनमें कमी आई हैं। ‘राजरणछोड़ जी मंदिर’ में भगवान श्रीकृष्ण के दर्शनार्थ मारवाड़ भर से तो श्रद्धालु पहुंचते ही हैं, देश के विभिन्न प्रदेशों के अलावा विदेश से भी भारी तादाद में लोग पहुंचते हैं। 

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