Friday, 20 November 2015

तुलसी विवाह: शालिग्राम और तुलसी के मिलन का पर्व

घनश्याम डी रामावत
धार्मिक लिहाज से खासकर हिन्दू धर्म में तुलसी के पौधे को पवित्र माना गया हैं। ऐसी मान्यता हैं कि जिस घर में तुलसी का पौधा होता हैं उस घर में हमेशा बरक्कत होती हैं तथा वह घर दु:ख, दरिद्रता और कलह से परे होता हैं। धर्म ग्रंथों में इसे हरिप्रिया कहा गया हैं। पुराणों में भी भगवान विष्णु और तुलसी के विवाह का वर्णन मिलता हैं। तुलसी दैवीय शक्ति के रूप में घर-घर पूजी जाती हैं। आयुर्वेद के अनुसार भी तुलसी का अपना विशेष महत्व हैं और इसे संजीवनी बूटी की संज्ञा दी हुई हैं, क्योंकि तुलसी के पौधे में अनेकों औषधीय गुण विद्यमान हैं। भगवान विष्णु के स्वरूप शालिग्राम और माता तुलसी के मिलन का पर्व ‘तुलसी विवाह’ हिन्दू पंचाग के अनुसार कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाया जाता हैं। इस दिन को देव प्रबोधनी एकादशी के नाम से भी जाना जाता हैं, इस बार यह पर्व 22 नवम्बर रविवार को हैं।
इस मांगलिक पर्व के सुअवसर पर सायंकाल के समय तुलसी चौरा के पास गन्ने का भव्य मण्डप बनाकर उसमें साक्षात् नारायण स्वरूप शालिग्राम की मूर्ति रखी जाती हैं तथा फिर विधि-विधान से उनके विवाह को संपन्न कराया जाता हैं। देवोत्थान एकादशी के दिन मनाया जाने वाला ‘तुलसी विवाह’ मांगलिक और आध्यात्मिक प्रसंग हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भगवान विष्णु को चार मास की योग निद्रा से जगाने के लिए घंटा, शंख और मृदंग जैसे वाद्यों की मांगलिक ध्वनि के साथ ‘उत्तिष्ठोत्तिठ गोविंद त्यजनिद्रांजगत्पते, त्वयिसुप्तेजगन्नाथ जगत् सुप्तमिंदभवेत्। उत्तिष्ठोत्तिठवाराह दंष्ट वेद्वत वसुन्धरे, हिरण्याक्षप्राणघातिन्त्रैलोक्येमंगलम्कुरू..।।’ श्लोक का वाचन कर जगाया जाता हैं। यदि संस्कृत में इस श्लोक को पढऩे में कोई कठिनाई होती हैं तो ‘उठो देवा.. बैठो देवा कहकर श्रीनारायण को उठाया जाता हैं।

‘तुलसी’ के माध्यम से भगवान का आह्वान
तुलसी विवाह का सीधा अर्थ हैं ‘तुलसी’ के माध्यम से भगवान का आह्वान। वैसे तो तुलसी विवाह के लिए कार्तिक शुक्ल पक्ष की नवमीं की तिथि ठीक मानी गई हैं, किन्तु अधिकतर लोग एकादशी से पूर्णिमा तक तुलसी पूजन कर पांचवें दिन ‘तुलसी विवाह’ करते हैं। मण्डप, वरपूजा, कन्यादान, हवन और फिर प्रीतिभोज सब कुछ पारंपरिक हिन्दू रीति-रिवाजों के साथ किया और निभाया जाता हैं। इस विवाह में शालिग्राम वर तथा तुलसी कन्या की भूमिका में होती हैं। तुलसी विवाह में सोलह श्रृंगार के सभी सामान चढ़ाने के लिए रखे जाते हैं। इस दिन तुलसी के पौधे का लाल चुनरी ओढ़ाई जाती हैं। ‘तुलसी विवाह’ के पश्चात् प्रीतिभोज आयोजित किया जाता हैं। कार्तिक मास में स्नान करने वाली स्त्रियां भी कार्तिक शुक्ल एकादशी काके शालिग्राम व तुलसी का विवाह रचाती हैं। विवाह के अवसर पर महिलाएं तुलसी विवाह से संबंधित गीत व भजन भी गाती हैं। 

शालिग्राम-तुलसी विवाह की कथा
‘तुलसी विवाह’ के अवसर पर कथा भी सुनाई जाती हैं। एक धारणा के अनुसार प्राचीन काल में जालन्धर नामक राक्षस ने चारों तरफ बड़ा उत्पात मचा रखा था। वह बड़ा वीर और पराक्रमी था। उसकी वीरता का रहस्य था, उसकी पत्नी वृंदा का पतिव्रता धर्म। उसी के प्रभाव से वह सर्वजयी बना हुआ था। जालंधर के उपद्रवों से भयभीत ऋषि व देवता भगवान् विष्णु के पास गए तथा उनसे रक्षा की गुहार की। उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान विष्णु ने काफी सोच-विचार कर वृंदा का पतिव्रता धर्म भंग करने का निश्चय किया। उन्होंने योगमाया द्वारा एक मृत शरीर वृंदा के घर के आंगन में फिंकवा दिया। माया का पर्दा होने से वृंदा को वह शव अपने पति का नजर आया। अपने पति को मृत देखकर, वह उस मृत शरीर पर गिरकर विलाप करने लगी। उसी समय एक साधु उसके पास आए और कहने लगे.. बेटी! इतना विलाप मत करा। मैं इस मृत शरीर में जान डाल दूंगा। 
साधू ने मृत शरीर में जान डाल दी। भावातिरेक में वृंदा ने उस मृत शरीर का आलिंगन कर लिया। जिसके कारण उसका पतिव्रत धर्म नष्ट हो गया। बाद में वृंदा को भगवान विष्णु का यह छल-कपट मालूम हुआ। उधर.. उसका पति जालंधर जो देवताओं से युद्ध कर रहा था, वृंदा का सतीत्व नष्ट होते ही मारा गया। जब वृंदा को इस बात का पता चला तो क्रोधित होकर उसने भगवान विष्णु का शाप दे दिया कि जिस प्रकार आपने छल से मुझे पति वियोग दिया हैं, उसी प्रकार आप भी अपनी स्त्री का छलपूर्वक हरण होने पर स्त्री वियोग सहने के लिए मृत्यु लोक में जन्म लोगे। यह कहकर वृंदा अपने पति के शव के साथ सती हो गई। भगवान विष्णु अब अपने छल पर बड़े लज्जित हुए। देवताओं और ऋषियों ने उन्हें कई प्रकार से समझाया तथा वृंदा की चिता-भस्म में आंवला, मालती और तुलसी के पौधे लगाए।

तुलसी दल के बिना ‘विष्णु-शिला’ पूजा अधूरी
भगवान विष्णु ने तुलसी को ही वृंदा समझा किन्तु सर्वविदित हैं कालान्तर में रामावतार के समय भगवान श्रीराम को माता सीता का वियोग सहना पड़ा। कहीं-कहीं पर ऐसा भी उल्लेख हैं कि वृंदा ने भगवान विष्णु को यह शाप दिया था कि आपने मेरा सतीत्व भंग किया हैं, अब आप भी पत्थर बनोगे। विष्णु बोले-वृंदा! आप मुझे लक्ष्मी से भी अधिक प्रिय हो। यह तुम्हारे सतीत्व का ही फल हैं कि तुम तुलसी बनकर मेरे साथ रहोगी। जो मनुष्य तुम्हारे साथ मेरा विवाह करेगा, वह परम धाम को प्राप्त होगा। इसी कारण बिना तुलसी दल के शालिग्राम अर्थांत विष्णु-शिला की पूजा अधूरी मानी जाती हैं। इसी धारणा/मान्यता के चलते आज भी तुलसी विवाह बड़ी धूमधाम से संपन्न कराएं जाते हैं। तुलसी को कन्या मानकर व्रत करने वाला व्यक्ति यथाविधि से भगवान विष्णु को कन्यादान करके तुलसी विवाह संपन्न कराता हैं।

‘तुलसी विवाह’ को लेकर प्रचलित कथाओं में महाभारत युद्ध का भी जिक्र हैं। एक धारणा के अनुसार महाभारत युद्ध समाप्त होने के बाद जिस समय भीष्म पितामह सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा में शरशया पर लेटे हुए थे। उस वक्त भगवान श्रीकृष्ण पाण्डवों को लेकर उनके पास गए थे। उपयुक्त अवसर जानकर युधिष्ठिर को भीष्म पितामह ने पांच दिनों तक राज धर्म, वर्ण धर्म जैसे मोक्ष धर्म जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर उपदेश दिया था। उनका उपदेश सुनकर श्रीकृष्ण संतुष्ट हुए और बोले-पितामह! आपने शुक्ल एकादशी से पूर्णिमा तक पांच दिनों में जो धर्ममय उपदेश दिया हैं उससे मुझे अत्यधिक प्रसन्नता हुई हैं। मैं इसकी स्मृति में आपके नाम पर भीष्म पंचक व्रत स्थापित करता हूं। जो लोग इसे करेंगे वो जीवन भर विविध सुख भोगकर अंत में मोक्ष को प्राप्त करेंगे। पद्य पुराण के उत्तराखंड में वर्णित एकादशी महात्म्य के अनुसार श्री हरि प्रबोधनी अर्थात देवात्थान एकादशी का व्रत करने से एक हजार अश्वमेघ यज्ञ और सौ राजसूर्य यज्ञों का फल मिलता हैं। इस परम पुण्य प्रदा एकादशी के विधिवत व्रत से सब पाप भस्म हो जाते हैं और व्रती मरणोंपरान्त बैकुण्ठ जाता हैं, ऐसी धार्मिक मान्यता हैं।

सर्वतोभावेन प्राण त्रय के आनुपातिक सम्मेलन की शुरूआत
जोधपुर नक्षत्र लोक ज्योतिष विज्ञान शोध संस्थान एवं जोधपुर ज्योतिष परिषद के अध्यक्ष पण्डित अभिषेक जोशी के अनुसार कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी से चन्द्रमा का अनुपातिक भाग रात्रि में अधिक विचरण करने लग जाता हैं। चंद्र प्राण ही देव प्राण होते हैं अत: सर्वतोभावेन प्राण त्रय का आनुपातिक सम्मेलन इसी दिन से प्रारम्भ होता हैं। मांगलिक उत्सवों/मुहूर्तो की शुरुआत इसी दिन से होती हैं। देवोत्थान के तुरन्त बाद मार्गशीर्ष मास आता हैं जो बारह महीनो में श्रेष्ठ हैं और श्रीकृष्ण ने भी इसे अपनी विभूति बताते हुए कहा हैं ‘मासानां मार्गशीर्षोहम्’। इस माह में देव प्राण सक्रिय रहते हैं। हालांकि मार्गशीर्ष माह में हुए विवाह में युगल को प्रारम्भ में संघर्ष घुटन एवं अप्रत्यक्ष नियंत्रण के क्षेत्र से कभी-कभी गुजरना पड़ता हैं लेकिन दाम्पत्य का भविष्य उज्जवल रहता हैं।

विवाहोपरांत निरुत्साही दम्पत्ति अथवा अविवाहित कन्या या पुरुष ‘कार्तिक शुक्ल एकादशी’ का व्रत रखकर केवल पंचामृत का सेवन करे तो उन्हें उत्साहवद्र्धक लाभ एवं दाम्पत्य में प्रसन्नता मिलती हैं। देवोत्थापन में पार्थिव और सौर अर्थात विष्णु शक्ति के प्रतीक कपास, बेर, गन्ना, गुड़, मूली व हरी सब्जी को गोबर के लेप में सजाकर बांस के ढ़ोकले से ढक़कर कांसी की थाली में देवार्चन की सामग्री से पार्थिव अग्निरूप देवों का स्वागत किया जाता हैं। पौराणिक आख्यानों के अनुसार भगवान विष्णु ‘कार्तिक शुक्ल एकादशी’ को ही बली के यहां से मुक्त होकर लक्ष्मी जी के पास आए थे। अत: रौद्र शक्तियां अपनी कल्याणकारी शक्ति को पृथ्वी पर छोडक़र प्रस्थान कर जाती हैं ताकि शुभ मुहूर्त एवं लग्न में होने वाले मांगलिक कार्य शुभ परिणाम दायक हो।

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