Monday, 30 November 2015

जोधपुर का मेहरानगढ़ दुर्ग: बारीक नक्काशी और विशाल प्रांगण के लिए दुनियाभर में खास पहचान

घनश्याम डी रामावत
अपनी बेहतरीन संस्कृति व अपणायत के लिए देश ही नहीं विदेश तक में खास पहचान रखने वाला पश्चिमी राजस्थान का प्रमुख शहर जोधपुर अपने दुर्ग को लेकर भी विशेष तौर पर जाना जाता हैं। ‘मेहरानगढ़’ दुर्ग की भव्यता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता हैं कि यह जोधपुर शहर के धरातल से 112 मीटर की ऊंचाई पर हैं। यह दुर्ग चारों ओर से अभेद्य प्राचीरों से घिरा हुआ हैं। यह दुर्ग बारीक नक्काशी और विशाल प्रांगण के लिए दुनियाभर में जाना जाता हैं। इस विशाल दुर्ग के भीतरी परिसर में अनेक महल और मंदिर हैं। एक घुमावदार घाटी और सडक़ से यह दुर्ग जोधपुर शहर से जुड़ता हैं। दुर्ग की प्राचीरों पर अब भी जोधपुर के महाराजा और जयपुर की सेना के बीच हुए युद्धों के प्रतीक तोप के गोलों के निशान के रूप में अंकित हैं। किले के बायीं ओर कीरतसिंह सोढ़ा की छतरी हैं। यह एक योद्धा था जिसने किले की रक्षा के लिए अपनी जान न्योछावर की थी। यहां के राजा मानसिंह ने अपनी विजयों की स्मृति में सात दरवाजे बनवाए थे। जयपुर और बीकानेर के शासकों को हराने के उपलक्ष में जयपोल बनवाया गया। इसके अलावा फतेहपोल द्वारा का निर्माण महाराजा अजीत सिंह ने मुगलों पर फतेह पाने के बाद कराया था। इन द्वारा पर आज भी तब के युद्धों के निशान बाकी हैं, जिन्हें देखना अद्भुत हैं।
मेहरानगढ़ का संग्रहालय देश के सबसे बेहतरीन संग्रहालयों में से एक हैं। इस संग्रहालय में अतीत की महत्वपूर्ण वस्तुओं का संग्रह किया गया हैं। इनमें 1730 में गुजरात के शासक से लड़ाई में जीती विशाल पालकी भी हैं, इसके अलावा हथियार, वेशभूषा, पेंटिंग और ऐतिहासिक विरासतों की लंबी श्रंखला यहां संग्रहित की गई हैं। कामयाब अंग्रेजी फिल्म ’डार्क नाइट’ के कुछ हिस्से भी मेहरानगढ़ में फिल्माए जाने के बाद यह हॉलीवुड के लिए भी एक शानदार डेस्टीनेशन बन गया। यहां ब्रूस वेन को कैद करने, जेल पर हमला करने आदि के दृश्य फिल्माए गए थे।
राव जोधा ने बसाया था जोधपुर
जोधपुर नगर राव जोधा ने बसाया था। उन्होंने यहां 1438 से 1488 तक लंबे समय तक शासन किया। वे रावल के 24 पुत्रों में से एक थे। चारों ओर शत्रुओं से घिरे होने के कारण उन्होंने जोधपुर की राजधानी को किसी सुरक्षित स्थान पर स्थानांतरित करने की योजना बनाई। वे मानते थे कि मंडोर का किला जोधपुर की सुरक्षा करने के लिए पर्याप्त नहीं है। राव सामरा के बाद उनके पुत्र राव नारा ने जोधपुर की कमान संभाली और पूरे मेवाड़ को मंडोर के छत्र के नीचे सुरक्षित किया। राव जोधा ने राव नारा को दीवान का खिताब दिया था। राव नारा की मदद से जोधा ने 12 मई 1459 को मेहरानगढ़ की नींव रखी। यह दुर्ग मंडोर से 9 किमी की दूरी पर दक्षिण में भौरचिरैया पहाड़ी पर बनाया गया। कहा जाता हैं उस पहाड़ी पर पक्षियों के स्वामी चिरैया का राज था। महल की नींव पड़ जाने के बाद चिरैया को यहां से विस्थापित होना पड़ा। इस पर चिरैया ने यहां हमेशा सूखा पडऩे का श्राप दिया। कहा जाता है उसके बाद कई बरसों तक यहां सूखा पड़ा। तब राव ने एक मंदिर बनाकर श्राप से मुक्ति पाई। इस दुर्ग के बारे में यह भी कहा जाता है कि यहां एक व्यक्ति राजाराम मेघवाल की समाधि थी। राव जोधा ने राजाराम के परिजनों से दुर्ग के एक हिस्से पर राजाराम के परिजनों के हक का वादा किया था। यह हक आज भी अदा किया जा रहा है और दुर्ग के एक हिस्से ’राजाराम मेघवाल गार्डन’ में आज भी उसके वंशज निवास करते हैं।

राव जोधा ने रखा था दुर्ग का नाम मिहिरगढ़
मेहरानगढ़ संस्कृत के ’मिहिर’ से बना हैं। जिसका अर्थ होता है सूर्य। राव जोधा सूर्य के उपासक थे इसलिए उन्होंने इस दुर्ग का नाम मिहिरगढ़ रखा। लेकिन राजस्थानी बोली में स्वर मिहिरगढ़ से मेहरानगढ़ हो गया। राठौड़ अपने आप को सूर्य के वंशज भी मानते हैं। किले के मूल भाग का निर्माण जोधपुर के संस्थापक राव जोधा ने 1459 में कराया। इसके बाद 1538 से 1578 तक शासक रहे जसवंत सिंह ने किले का विस्तार किया। किले में प्रवेश के लिए सात विशाल द्वार इसकी शोभा हैं। 1806 में महाराजा मानसिंह ने जयपुर और बीकानेर पर जीत के उपलक्ष में दुर्ग में जयपोल का निर्माण कराया। इससे पूर्व 1707 में मुगलों पर जीत के जश्न में फतेलपोल का निर्माण कराया गया था। दुर्ग परिसर में डेढ कामरापोल, लोहापोल आदि भी दुर्ग की प्रतिष्ठा बढाते हैं। दुर्ग परिसर में सती माता का मंदिर भी हैं। 1843 में महाराजा मानसिंह का निधन होने के बाद उनकी पत्नी ने चिता पर बैठकर जान दे दी थी। यह मंदिर उसी की स्मृति में बनाया गया

किले के अंदर कई शानदार महल और स्मारक बने हुए हैं। इनमें मोती महल, फूल महल, शीशमहल, सिलेहखाना और दौलतखाना उल्लेखनीय हैं। यहां स्थित संग्रहालय में जोधुपर के शासकों और राजपरिवारों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली शाही वस्तुओं के अलावा युद्ध में काम आने वाले औजार, हथियारों को भी संग्रहित किया गया हैं। संग्रहालय को देखना अपने आप में इतिहास की खिडक़ी में झांकने जैसा हैं। यह बहुत आनंद देता हैं। संग्रहित वस्तुओं में शाही पोशाके, युद्ध पोशाके, पालने, लकड़ी की वस्तुएं, चित्र, वाद्य यंत्र, फर्नीचर व पुरानी तोपें आदि उल्लेखनीय हैं।


मोती महल व शीश महल आकर्षण का केन्द्र
मेहरानगढ़ पर 1595 से 1619 के दौरान शासन करने वाले राजा शूरसिंह ने मोती महल का निर्माण कराया था। मोती महल को वर्तमान में संग्रहालय बनाया गया हैं। दुर्ग में स्थित सभी महलों में से यह सबसे बड़ा और खूबसूरत हैं। मोती महल में बने पांच झरोखे विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। कहा जाता हैं जब राजा शूरसिंह दरबार में होते थे तो कार्रवाई देखने के लिए उनकी पांच रानियां इनमें बैठा करती थीं। राजस्थान में वैसे तो कई विशाल दुर्गों में शीशमहल बने हुए हैं किंतु मेहरानगढ़ के शीशमहल को अन्य सभी महलों से सबसे अच्छा माना जाता हैं। जयपुर के शीशमहल से इसकी तुलना की जाती हैं। राजपूत शैली के स्थापत्य का यह सबसे अच्छा उदाहरण  है। शीशमहल में छोटे-छोटे शीशों के टुकड़ों को दीवार पर चिपकाकर एक भव्य आकार दिया जाता हैं। इन शीशों पर एक विशेष प्रकार का पेंट किया जाता था। जिससे शीशों की चमक आंखों में नहीं चुभती थी और ये पर्याप्त रूप से चमक भी देते थे। मेहरानगढ़ का शीश महल वाकई देखने लायक हैं।

खूबसूरत फूलमहल एवं तख्तविलास
फूल महल का निर्माण मेहरानगढ़ पर 1724 से  1749 तक राज करने वाले  महाराजा अभय सिंह ने बनवाया था। यह एक ऐसा महल था जिसमें खुशी के अवसर पर राजपरिवार एकत्र होता था और खुशियां बनाई जाती थी। खुशी जाहिर करने के काम में आने के कारण इस महल की खूबसूरती भी शानदार हैं। कई बार राजा महाराजा यहां नृत्य के कार्यक्रमों का आयोजन भी करते थे और महफिल सजाई जाती थी। महल की छत सोने और चांदी के तरल पेंट से सजाई गई हैं। महल की सुंदरता यहां खंभों और दीवारों में साफ झलकती हैं। ‘तख्तविलास’ यह महल राजा तख्तसिंह की आरामगाह थी। 1843 से 1873 तक शासन करने वाले तख्त सिंह ने इस महल का निर्माण कराया था। तख्तविलास परंपरागत शैली में बना शानदार महल हैं जिसकी को कांच के गोलों से बनाया गया था। अंग्रेज भी इस महल की खूबसूरती को देख अचंभा करते थे।

आराध्य मां चामुंडा देवी का मंदिर
जोधपुर के शासक देवी उपासक थे। इसलिए दुर्ग में देवी मंदिर भी हैं। यहां का सबसे खास देवी मंदिर हैं ‘चामुंडा माता’। राज जोधा चामुंडा देवी के विशेष उपासक थे। 1460 में पुरानी राजधानी मंडोर से यह मूर्ति यहां लाकर स्थापित की गई थी। उल्लेखनीय हैं चामुंडा देवी मंडोर के परिहार शासकों की कुल देवी थी। राव जोधा भी चामुंडा देवी को ही अपना इष्ट मानते थे और रोजाना पूजा अर्चना किया करते थे। आज भी जोधपुर के लोगों की आराध्या देवी चामुंडा माता ही हैं और बड़ी संख्या में उनके दर्शनों के लिए श्रद्धालु यहां आते हैं। गौरतलब हैं कि 2008 में मेहरानगढ के चामुंडा देवी मंदिर में भरने वाले सालाना मेले के दौरान यहां भगदड़ मच गई थी जिसमें 250 श्रद्धालुओं की मौत हो गई थी और चार सौ से अधिक घायल हो गए थे।

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