घनश्याम डी रामावत
ऐतिहासिक दृष्टि से ‘भाद्राजून’ का महत्व
‘भाद्राजून’ के भव्य दुर्ग एवं महल
राजस्थान के अनेक प्राचीन/अति-प्राचीन दुर्ग, महल व स्मारक, वक्त के थपेड़ों को सहते-सहते.. या तो काल कवलित हो चुके हैं अथवा आज अपने अस्तित्व को बचाये रखने की जद्दोजहद में जुटे हुए हैं। इन सब के बीच कुछ ऐसे दुर्ग एवं महल भी हैं जिनके शासकों द्वारा समय-समय पर संरक्षण व सुरक्षा के साथ जीर्णोद्वार के प्रयास किए जाने से वे आज भी अपने मूल स्वरूप के लगभग अक्षुण बनाये हुए हैं। राजस्थान के ऐसे ही ऐतिहासिक तथा प्राचीन स्थलों में से एक हैं ‘भाद्राजून’। भाद्राजून एक छोटा सा गांव हैं, जो यहां के इतिहास, दुर्ग व महल के कारण अपनी एक अलग पहचान रखता हैं। पश्चिमी राजस्थान के जालोर जिले में यह प्राचीन स्थल लूणी नदी के बेसिन पर स्थित हैं। भाद्राजून पिछली शताब्दियों में हुए अनेक युद्धों व ऐतिहासिक घटनाओं का साक्षी रहा हैं। मारवाड़ राजवंश तथा मुगल साम्राज्य के शासकों के बीच यहां अनेक बाद युद्ध तथ आक्रमण हुए। यहां के शासकों की एक लम्बी फेहरिस्त हैं जिन्होंने मारवाड़ के जोधपुर राजघराने के अधीन रहकर शासन चलाया और क्षेत्र की समृद्धि के लिए व प्रजा की रक्षा के लिए काम किया।
‘भाद्राजून’ का सीधा संबंध महाभारत काल से हैं। इस लिहाज से इसकी उत्पति पांच हजार वर्ष पुरानी मानी जाती हैं। ‘भाद्राजून’.. दो शब्दों-सुभद्रा व अर्जुन को मिलाकर बना हैं। सुभद्रा भगवान श्रीकृष्ण की बहन थी तथा अर्जुन पाण्डु पुत्र थे। प्रारम्भ में यह स्थान ‘सुभद्रा-अर्जुन’ के नाम से जाना जाता था, लेकिन कालान्तर में इसमें धीरे-धीरे परिवर्तन हो गया और बोलचाल की भाषा में इसे ‘भाद्राजून’ के नाम से पुकारा जाने लगा। ‘सुभद्रा-अर्जुन’ अर्थात आज का ‘भाद्राजून’ ग्राम की बसावट पांच हजार वर्ष पुरानी मानी जाती हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार द्वापर युग में महाभारत का युद्ध हुआ था, अत: इसका सीधा ताल्लुक महाभारत काल से हैं। उस समय का महान योद्धा पाण्डु पुत्र धनुर्धर ‘अर्जुन’ भगवान श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा के प्रेम में आबद्ध हो गया था। उन दिनों पाण्डव वनवास पर थे, इस दौरान पांचों पाण्डु पुत्रों को बारह वर्षों तक जंगलों में व एक वर्ष अज्ञातवास में रहना था। ‘सुभद्रा-अर्जुन’ का प्रसंग भी उस वक्त का ही हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन व अपनी बहन सुभद्रा को गुजरात के प्रसिद्ध तीर्थ स्थल ‘द्वारिका’ जाने का परामर्श दिया। दोनों ने प्रस्थान किया तथा लगातार तीन दिन और रात चलने के बाद वे लूणी नदी के बेसिन पर बनी इस घाटी पर पहुंचे, जहां आज ‘भाद्राजून’ गांव स्थित हैं।
उस स्थान का नाम शंखबाली पड़ गया
उन दिनों यहां किसी तरह की कोई बसावट नहीं थी अर्थात कोई नहीं रहता था। यहीं कारण था कि यह स्थान सुभद्रा और अर्जुन के लिए विश्राम करने हेतु एकांत व सुरक्षित था। यहीं पर उन्होंने एक मंदिर के पुजारी की मदद से विवाह किया। कहते हैं उसके बाद ही धीरे-धीरे इस घाटी में अन्य लोगों ने भी बसना शुरू किया और इस स्थान का नाम ‘सुभद्रा-अर्जुन’ हो गया जिसे बाद में ‘भाद्राजून’ के नाम से जाना जाने लगा। सुभद्रा-अर्जुन के विवाह की रस्म पुरी करने वाले पुजारी(पुरोहित) को अर्जुन ने एक शंख तथा सुभद्रा ने अपने नाक की बाली खोलकर भेंट स्वरूप प्रदान की। इसके पश्चात् पुरोहित द्वारा जिस स्थान पर विवाह की रस्म अदा कराई गई उस स्थान/गांव का नाम शंखबाली पड़ गया जो आज भी विद्यमान हैं। यहां पहाड़ी के पीछे सुभद्रा देवी का प्राचीन मंदिर भी हैं जिसे ‘धुमदामाता मंदिर’ के नाम से जाना जाता हैं।
ऐतिहासिक दृष्टि से ‘भाद्राजून’ का महत्व
‘भाद्राजून’ दुर्ग महल पर वर्तमान में भाद्राजून के शासकों की 17वीं पीढ़ी का स्वामित्व हैं। इनके पूर्वज ठाकुर रतनसिंह जो जोधपुर के महाराज राव मालदेव के चौथे पुत्र थे, सन् 1549 में यहां आये थे। अंतत: भाद्राजून रियासत सन् 1652 में महाराजा जोधपुर के अधीन आई। ‘भाद्राजून’ उस समय जोधपुर राज्य के दस बड़े ठिकानों में गिना जाता था। जोधपुर महाराजा और नागरिकों द्वारा यहां के ठिकाने व शासकों को पूरा आदर-सम्मान दिया जाता था। ऐसा ही आदर-सम्मान इस रियासत के राज परिवार से संबद्ध महिलाओं को भी मिलता था। अन्य रियासतों की तरह इस रियासत को भी न्यायिक शक्तियां मिली हुई थी। ये किसी भी अपराधी को अधिकतम छ: माह के लिए जेल में रहने की सजा सुना सकते थे। इनकी अपनी पुलिस व्यवस्था और जेल खाने भी थे। जोधपुर के राठौड़ों के अधीन आने से पूर्व ‘भाद्राजून’ परिहार राजपूतों, भाटी, सोनगरा, सिंहल राठौड़ तथा मण्डावर राठौड़ राजपूतों के अधीन भी रहा था। यहां के शासकों ने सामाजिक उत्थान व विकास से संबंधित अनेक कल्याणकारी गतिविधियां अपने समय में संचालित की। यहां के शासक परिवार में से स्वर्गीय राजा गोपालसिंह राजस्थान विधानसभा के अध्यक्ष रह चुके हैं।
‘भाद्राजून’ के भव्य दुर्ग एवं महल
‘भाद्राजून’ दुर्ग का निर्माण सोलहवीं शताब्दी में एक पहाड़ पर किया गया जो छोटा हैं किन्तु सामरिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण, मजबूत व सुरक्षित हैं। यह दुर्ग घोड़े के पैर(खुर) के आकार की घाटी से जुड़ा हुआ हैं जिसमें एक ही तरफ पूर्व दिशा से प्रवेश किया जा सकता हैं। दुर्ग की दीवार लगभग 20-30 फीट ऊंची तथा उसकी एक समान चौड़ाई दस फीट की हैं। दुर्ग की प्राचीर में अनेक बुर्जे बनी हुई हैं जिनका उपयोग युद्धकाल में तोप, बन्दूक व तीर चलाने में किया जाता था। चारों ओर पहाडिय़ां व घाटियां होने से दुर्ग को अत्यधिक प्राकृतिक सुरक्षा मिली हुई थी। सामरिक दृष्टि से सुरक्षित इस दुर्ग की अकबर के सेनापतियों द्वारा प्रशंसा की गई थी(ऐसा इतिहासकार बताते हैं)। अकबर की सेना जोधपुर के राव चंद्रसेन के समय यहां से गुजरी थी। दुर्ग पर अनेक प्राचीन अवशेष आज भी दिखाई पड़ते हैं। यहां तत्कालीन ठाकुर बख्तावरसिंह ने एक पक्का जलाशय बनवाया था जिसे आज ‘बख्तावर सागर’ के नाम से जाना जाता हैं।
समुद्र तट से इस दुर्ग की औसत ऊंचाई दो हजार फीट हैं। जिस उबड़-खाबड़ पथरीली पहाड़ी पर यह दुर्ग बना हुआ हैं उस पर अनेक पेड़, पौधे, वनस्पति, झाडिय़ां व चट्टानें हैं। दुर्ग के चारो ओर के जंगल में अनेक जंगली जीव विचरण करते देखे जा सकते हैं। राज परिवार का निवास स्थल, जिसे यहां की भाषा में रावला कहते हैं.. हेरीटेज होटल में परिवर्तित किया जा चुका हैं। यहां वर्ष भर देशी-विदेशी पयर्टक आते हैं जिन्हें जीप सफारी द्वारा ‘भाद्राजून’ के ग्रामीण परिवेश का अवलोकन कराया जाता हैं तथा जंगल की सैर भी कराई जाती हैं। ‘भाद्राजून’ महल में चौदह सुसज्जित कक्ष हैं जिनमें प्रमुख हैं शीष महल, गोपाल महल, हवा महल और गुमटा महल। अनेक कक्षों की दीवारों पर सुन्दर चित्रकारी एवं कांच का काम किया हुआ हैं। आकर्षक झाली-झरोखों युक्त महल का स्थापत्य देखते ही बनता हैं। इसमें ऐतिहासिक व प्राचीन साजो-सामान भी संग्रहित हैं। महल की एक खासियत यह भी हैं कि सूर्योदय की पहली किरण सभी कक्षों में सीधी पहुंचती हैं। ‘भाद्राजून’ ग्राम के बाहरी भाग में राजा-महाराजाओं की कलात्मक छतरियां बनी हुई हैं जिन्हें ‘देवल’ कहते हैं।
जालोर जिला मुख्यालय से 54 किलोमीटर
राजस्थान में जालोर जिला मुख्यालय से ‘भाद्राजून’ 54 किलोमीटर दूर, जालोर-जोधपुर मार्ग पर स्थित हैं। यह जोधपुर से 97 किमी, उदयपुर से 200 किमी, जयपुर से 356 किमी एवं दिल्ली से 618 किमी हैं। निकटतम रेलवे स्टेशन जालोर तथा पाली हैं जो यहां से लगभग पचास किमी की समान दूरी पर हैं। निकटतम हवाई अड्डा जोधपुर में हैं।
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