Sunday, 22 November 2015

सुख-समृद्धि के साथ मंगल कामना की प्रतीक ‘रंगोली’

घनश्याम डी रामावत
प्राय: उत्सवों/त्यौहारों के समय किसी के घर के बाहर विभिन्न रंगों से बनी डिजाइन देखकर हम विचार में पड़ जाते हैं कि यह आखिर क्यों बनाई गई हैं? त्यौहारों के समय में और खासकर दीपावली के समय में घर का लीपने-पोतने का, सजाने-संवारने का कार्य किया जाता हैं। आधुनिक समय में दीवारों को सजाने का कार्य पेंटिग्स, पोट्रेट ने ले लिया हैं, वहीं घर के बाहर बनी-बनाई रंगोली के स्टीकर भी अब बाजार में मिलने लगे हैं। कई स्थानों पर तो रंगोली बनाने के लिए विभिन्न डिजाइन के साधन भी मिलने लगे हैं। जिसमें चावल का आटा भर कर जमीन पर चलाना मात्र होता हैं। ग्रामीण परिवेश अभी भी आधुनिकता से अछूता हैं। वहां, घर के बाहर की दीवारों पर, आंगन में व मुख्य द्वार के बाहर अनेक रंगों की अद्भुत रंगोली देखने को मिल जाती हैं। अन्याय पर न्याय की जीत के पर्व दीपावली पर रंगोली सजाकर स्त्रियां संपूर्ण वातावरण को वाकई रंग-बिरंगा बना देती हैं। यह रंगोली प्रसन्नता का विषय हैं कि आधुनिक और पढ़ी-लिखी स्त्रियों में भी के प्रति गहरा आकर्षण दिखाई देता हैं।
रंगोली सामाजिक जीवन का एक बहुत ही अभिन्न अंग हैं। देश के अनेक हिस्सों में रंगोली सजाने का अपना अलग-अलग अंदाज हैं और अपना-अपना अलग महत्व भी। दक्षिण भारत में स्त्रियां प्रात:काल जल्दी उठते ही अपने-अपने घरों के मुख्य द्वारों को विभिन्न रंगों की रंगोली से सजाती हैं। उत्तर भारत में रंगोली को अल्पना या चौक पूरना भी कहा जाता हैं। त्यौहार/उत्सव तो जैसे रंगोली के बिना अधूरे ही लगते हैं। प्रतीकोपासना हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग हैं। यही कारण हैं कि प्राचीन काल से अब तक इष्ट प्राप्ति और अनिष्ट परिहार के लिए विविध प्रतीकों के पूजन की प्रथा अनवरत रूप से प्रचलित हैं। मौजूदा पाश्चात्य प्रभाव की पर्याप्त पैठ शहरों में होने के कारण हमारे लोक संस्कृति के प्रतीक शहरी इलाकों की अपेक्षा गांवों में अधिक लोकप्रिय हैं, जिन्हें हम रंगोली, अल्पना, चौक पूरना, मांडणे मांडना, कोलम व साथिया आदि नामों से पुकारते हैं। इन प्रतीकों में असीम आस्था, श्रद्धा तथा कल्याण की कामना समाई हुई हैं। तभी तो पर्व/त्यौहारों, सांस्कृतिक समारोहों व मांगलिक अवसरों पर उक्त प्रतीक बनाए जाने की लोक परम्परा और प्रचलन हैं।

रंगोली/अल्पना के बारे में पौराणिक कथा

रंगोली के बारे में एक पौराणिक कथा भी प्रचलित हैं। एक बार भगवान शिव ने हिमालय की ओर प्रस्थान करते हुए माता पार्वती से कहा कि जब मैं लौटू, तुम्हारा घर-आंगन जगमगाता हुआ मिलना चाहिए.. अन्यथा मैं पुन: हिमालय लौट जाऊंगा। भगवान शिव तो चले गए, पर माता पार्वती चिंता में पड़ गई। उन्होंने घर को झाड़ा-बुहारा फिर गाय के गोबर से लीपा। घर सूख भी न पाया था कि भगवान शिव ने अपनी वापसी की सूचना की आवाज लगा दी। पार्वती जी हड़बड़ा कर दौड़ी और उनका पांव गीले आंगन में फिसल गया। भगवान शिव ने देखा तो चकित रह गए। पार्वती के पांवों की कलात्मक छाप, पांवों में लगे हुए महावार के लाल रंग का अंकन तथा उस पर गिरे हुए फूल.. सब एक मनोरम दृश्य उत्पन्न कर रहे थे। इस रंगीन आकृति पर प्रसन्न होकर भगवान शिव ने वरदान दिया कि आज से जिन घरों में यह रंगोली सजाई जाएगी, वहां शिव का वास होगा। घर-आंगन, धन-धान्य से भरा रहेगा और तभी से घरों में रंगोली बनाने की प्रथा चल पड़ी।

मांगलिक प्रतीक कल्याण की कामना के द्योतक
अल्पना-अलंकरण अत्यधिक पुराना प्रतीत होता हैं, क्योंकि पुरातत्वीय खोजों से जो सामग्री प्राप्त हुई हैं उसमें अद्भुत रेखांकन देखने को मिले हैं। विशेषज्ञों का इस विषय में मत हैं कि ये रेखांकन, जो प्राय: अल्पना में पाए जाते हैं.. वे भगवान शिव के प्रतीक हैं तथा अद्र्धवृत का प्रयोग आदि शक्ति के प्रतीक हैं। इस प्रकार शिव-शक्ति के प्रतीक रूप में अल्पना/रंगोली का अंकन हमारे देश के एक छोर से दूसरे छोर तक मांगलिक अवसरों पर अवश्य किया जाता हैं। विशेष अवसरों पर उकेरे जाने वाले ये मांगलिक प्रतीक कल्याण की कामना के द्योतक हैं। प्रत्येक घर में इनके बनाने, उकेरने का दायित्व प्राय: महिलाओं पर रहता हैं। इसकी महत्ता के बारे में मान्यता है कि बिना इन अलंकरणों के घर कल्याणकारी/मंगलकारी नहीं प्रतीत होता। मांगलिक अवसरों पर घर में बनाए जाने वाले चित्रांकन प्राय: कुंवारी कन्याओं अथवा स्त्रियों द्वारा किए जाते हैं, जिसमें रंगोली/मांडने/अल्पना.. अपने-अपने क्षेत्रों के अनुसार उकेरे जाते हैं। शुरूआत में गाय के गोबर से उस स्थान को लीपा जाता हैं, फिर सींक, सलाई, रूई, ब्रश अथवा उंगली की मदद से रंगोली/अल्पना/लोक चित्रकारी बनाने का कार्य किया जाता हैं।

भगवान शिव और शक्ति के समन्वय की कल्पना
अधिकांशत: लक्ष्मी, कमल का फूल, स्वास्तिक, चिडिय़ां, हाथी, शेर, मोर व फूल बड़ी श्रद्धा के साथ बनाए जाते हैं। यहीं नहीं, गांवों में तो जो लोक गीत इस अवसर पर गाए जाते हैं, उन्हें सुनकर श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। इन चित्रांकनों एवं गीतों में लोकमंगल के इतने भाव भर दिये जाते हैं कि भारतीय संस्कृति मानो स्तोत्रवाहिनी के रूप में प्रवाहित होने लगती हैं। इनमें जो विविध आकृतियां उकेरी जाती हैं, उनके प्रति असीम भक्ति-भावना का भाव उड़ेला जाता हैं जिसे विशेष नजरों से ही परखा जा सकता हैं। अल्पना आलेखन में नारी हृदय की कोमल भावनाओं का जो भाव उड़ेला जाता हैं उसकी उत्कृष्टता को आंकना आसान नहीं हैं। भगवान शिव और शक्ति के समन्वय की कल्पना को अल्पना में आड़ी-तिरछी रेखाओं और अद्र्धवृतों में साकार करने की परम्परा भी हैं। उत्तर भारत के ग्रामीण इलाकों में जहां पाश्चात्य प्रभाव नहीं पड़ा हैं, वहां चौक पूरने की प्रथा हैं जो रंगोली/अल्पना आदि का ही रूप हैं। अनुष्ठान किए जाने वाले स्थान को पहले गाय के गोबर से लीपते हैं, उसके बाद सूप में गेहूं, जौ अथवा चावल(जो सुलभ हो) का आटा लेकर बड़ी आकर्षक आकृति का चौक पूरा जाता हैं, जिसमें उंगलियों के सहारे आड़ी-तिरछी रेखाओं से मांगलिक प्रतीक बनाए जाते हैं।

लोक संस्कृति की अमूल्य धरोहर
रंगोली बनाने की शुरूआत प्राय: वर्षा ऋतु खत्म होते ही होने लगती हैं। आसमान के साफ होते ही लोग कीड़े-मकोड़ों को नष्ट करने के लिए घरों की सफाई शुरू कर देते हैं। घरों की सफाई के बाद घर-आंगन रंगोली/अल्पना के लिए तैयार हो जाता हैं। स्त्रियां रोली, कुमकुम, फल, पीसे हुए चावल, रंग, लकड़ी का बुरादा, भूसी, चोकर व आटा इत्यादि वस्तुओं से जमीन पर रंगोली बनाती हैं। भगवान की पूजा के समय सबसे पहले चौक पूरने की प्रथा भी रंगोली का ही रूप हैं। स्त्रियां स्वास्तिक के चिन्ह को अंकित करना शुभ मानती हैं। स्वास्तिक चार भुजाओं का प्रतीक हैं। ये चार रेखाएं आश्रम, वर्ग, वेद और पुरूषार्थ का प्रतीक हैं। स्वास्तिक के अलावा कलश, कतल, पुष्प, मछली, पक्षी, हाथी व शंख तारा इत्यादि का अंकन करने के पीछे सुख, समृद्धि तथा ऐश्वर्य की कामना परिलक्षित होती हैं। लक्ष्मी तथा श्रीगणेश का अंकन भी इसी भावना का प्रतीक हैं। रंगोली हमारी लोक संस्कृति की एक अमूल्य धरोहर हैं।

रामचरित मानस में खास तरीके से उल्लेख

आज यह सिर्फ हमारे पूजाघरों तक सीमित नहीं हैं। पारिवारिक उत्सवों में स्त्रियां बड़े उत्साह से सुस्वागतम् की शुरूआत करके हर कमरे तथा कोने में रंगोली/अल्पना सजाती हैं। दीपावली के पर्व पर भी दीप और कलश को अलंकृत करके तथा घरों व पूजा के थाल में रंगोली सजाकर स्त्रियां संपूर्ण वातावरण को रंग-बिरंगा बना देती हैं। रामचरित मानस में इसका उल्लेख कुछ इस रूप में किया गया हैं-‘चौकें चारू सुमित्रां पूरी। मनिमय विविध भांति अति रूरी।।’ तथा लोक गीत में भी कहा गया हैं-‘घर बीच चउक पुराइला, देव बइठाइला हो।’ अर्थात घर में चौक पूर कर मांगलिक कार्य के शुभारम्भ हेतु देव-स्थापना कर सर्वांगीण विकास की कामना की जाती हैं। वास्तव में ग्रामीण जीवन का भोला-भाला, सरल-सीधा निष्कलुष स्वरूप इन सबसे झलकता हैं कि कितनी निश्छल निर्मल भावनाएं इन विविध उपास्य प्रतीकों में उभारी जाती हैं, उकेरी जाती हैं, उड़ेली जाती हैं, जिनका गुणगान करते-करते मन नहीं अघाता और देखते जी नहीं भरता।


आज के फैलते दूषित व वातावरण से ग्रामीण जीवन की ये निर्मल भावनाएं झुलस न जाएं, मलिन न हो जाएं, अत: इस ओर अत्यधिक सतर्कता एवं सावधानी बरतने की आवश्यकता हैं। लेकिन फिर भी यह प्रसन्नता की बात हैं कि आधुनिक और पढ़ी-लिखी स्त्रियों का रंगोली के प्रति आज भी गहरा आकर्षण दिखाई पड़ता हैं।

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