Saturday, 14 November 2015

श्री सुंधा माता तीर्थ: आस्था और प्राकृतिक सौन्दर्य का अनूठा संगम(Shri Sundha Mata Holy Spot: Unique Confluence of Faith & Natural Beauty)

घनश्याम डी रामावत
वीर भूमि के रूप में अपनी खास पहचान रखने वाले राजस्थान में तीर्थों व दर्शनीय स्थलों की कमी नहीं हैं। इसका एक-एक स्थान अपनी एक अलग ही छटा बिखेरता हैं। इन्हीं में से एक हैं मरू भूमि की हृदय रेखा कही जाने वाली अरावली पर्वतमाला के पश्चिम में सुंधा पर्वत पर आबाद श्री सुंधा माता तीर्थ स्थल। जालोर जिले की भीनमाल तहसील अंतर्गत जसवन्तपुरा पंचायत समिति परिक्षेत्र में आबाद यह ऐतिहासिक व प्राचीन तीर्थ चामुण्डा माता का पावन मंदिर तो हैं ही, एक अति-विशिष्ट दर्शनीय स्थल के रूप में भी इसकी अपनी राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर खास पहचान हैं। इसकी प्राकृतिक छटा, मनोरम वातावरण, पहाडिय़ों पर बिखरी हरियाली, कल-कल बहते झरने और बन्दरों का उछलना-कूदना..सब कुछ एक अलग ही तस्वीर बयां करते हैं।

सुंधा तीर्थ के रूप में विख्यात चामुण्डा माता के दर्शनार्थ यहां देश के कोने-कोने से श्रद्धालु पहुंचते हैं। अब तो विदेशी भी यहां पहुंचने लगे  हैं.. ऐसे में इस तीर्थ स्थल की पहचान अन्तर्राष्टीय स्तर पर भी बन चुकी हैं। स्थानीय बोल चाल की भाषा में इसे सुंधा रो भाखर और सुंधा रो पहाड़ के नाम से जाना व पुकारा जाता हैं। ऐतिहासिक व पौराणिक ग्रंथों के अलावा शिलालेखों में इसके अनेक नाम मिलते हैं। यह पर्वत सागी, चन्दोई व धाणा नदियों का उद्गम स्थल रहा हैं। वर्षा के समय सारा पर्वत नयनाभिराम दृश्यों से सराबोर हो उठता हैं। भार विहीन बादल मानों आकाश से नीचे उतरकर इस पावन तीर्थ की परिक्रमा करते से जान पड़ते हैं। इस पर्वत पर अनेक प्रकार की जड़ी-बूटियां भी मिलती हैं। यहां के पर्वत चट्टानी क्रम से ग्रेनाइट व रायोलाइट का मिश्रण हैं। सुंधा पर्वत पर अति पवित्र बिल वृक्ष भी सर्वत्र विद्यमान हैं।
 ट्रस्ट की ओर से बेहतरीन व्यवस्थाएं
यह तीर्थ स्थल/मंदिर काफी प्राचीन हैं। जालोर के तत्कालीन शासक चाचिगदेव ने संवत् 1319 में अक्षय तृतीया को इस मंदिर की स्थापना की थी। शुरूआत में यहां मां चामुण्डा को शराब अर्पित करने के साथ ही बलि का भी चलन था किन्तु 1976 में मालवाड़ा के शासक अर्जुनसिंह ने एक ट्रस्ट की स्थापना कर शराब अर्पण व बलि का निषेध करवाकर सात्विक पूजा पद्धति को लागू करवा दिया। श्री चामुण्डा माताजी सेवा संस्थान(ट्रस्ट) के नाम से बनी इस संस्था ने इस तीर्थ क्षेत्र का संरक्षण कर मंदिर की व्यवस्थाओं को न केवल सुचारू तरीके से संभाला अपितु इस तीर्थ का समग्र विकास भी किया। सुंधा माता के दर्शनार्थ यहां पहुंचने वाले यात्रियों के लिए अनेक धर्मशालाएं बनी वहीं उनके भोजन इत्यादि की व्यवस्था के लिए भोजनशाला, पेयजल की उत्तम व्यवस्था, राजपुरा से प्रवेश द्वार तक बेहतर आवागमन प्रयोजनार्थ सडक़ का निर्माण सहित रोशनी की बेहतरीन व्यवस्थाएं ट्रस्ट की ओर से सुनिश्चित की गई। भोजनशाला में सामान्य शुल्क पर भोजन सुविधा उपलब्ध हैं।

 चामुण्डा माता मंदिर के निकट भगवान विष्णु का मंदिर
तलहटी पर करोड़ों रूपयों की लागत से बना प्रवेश द्वार इस तीर्थ की भव्यता को कुछ अपने ही विशिष्ट अंदाज में बयां करता हैं। पिछले करीब चार दशकों में निरन्तर कायाकल्पों के बाद आज यह तीर्थ स्थल पूरी तरह अत्याधुनिक तीर्थ स्थल का रूप ले चुका हैं। चामुण्डा माता मंदिर के निकट भगवान विष्णु का मंदिर हैं। चामुण्डा माता मंदिर के गुम्बद पर स्वर्ण कलश सुशोभित हैं, जिसके चारों ओर कतारबद्ध करीब 180 कलश हैं। तीर्थ स्थल पर एक दर्जन से भी अधिक देव प्रतिमाओं सहित तीन मुख्य शिलालेख विद्यमान हैं। जन-जन की आस्था का केन्द्र यह तीर्थ स्थल पश्चिमी राजस्थान के जालोर जिला मुख्यालय से करीब 100 किलोमीटर, भीनमाल से 25 किमी तथा रानीवाड़ा से 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं। जसवन्तपुरा पंचायत समिति के राजपुरा गांव से दो किलोमीटर दूरी पर इसकी तलहटी हैं जहां से सुंधा पर्वत अर्थात मां चामुण्डा के दर्शनार्थ इस पवित्र तीर्थ पर चढ़ाई की जाती हैं।
 ‘रोप-वे’ का वैज्ञानिक साधन मौजूद
चढ़ाई के लिए सीढिय़ों बन जाने के बाद अब श्रद्धालुओं के लिए मां के दर्शनों की राह बहुत ही आसान हो गई हैं। झरने के साथ-साथ चलने वाले इस मार्ग पर यात्रा का आनन्द अनूठा हैं। चट्टानों और वनस्पतियों में लुकता-छिपता सर्पीला मार्ग, पास में कल-कल करता झरना प्रवाह, आजू-बाजू शस्य-श्यामल ऊंचे शिखर, उनकी स्पद्र्धा करने वाले वृक्ष, सघन झाड़ी, परिचित-अपरिचित फल-फूलदार झुरमुटों का स्पर्श लेकर बहता शीतल सुरभित पवन तथा पद-चापों से टूटती घाटी की खामोशी.. सब कुछ सुन्दर/अत्यधिक मनमोहक दृश्यावली का सृजन करते हैं। मार्ग पर पहले कडिय़ा दरा(एक जल कुण्ड), फिर योगीराज राबडऩाथजी का धूणा और बाद में पाटलियों की पाज आती हंै। इसके आगे ‘नागिणी तीर्थ’ आता हैं और फिर कुछ आगे चलकर श्री सुंधा माता का मंदिर। जो श्रद्धालु यात्री सीढ़ी मार्ग से चढऩे में असुविधा महसूस करते हैं, उनके लिए ‘रोप-वे’ का वैज्ञानिक साधन भी मौजूद हैं। इसका संचालन श्री सुंधा माता रोप-वे प्राइवेट लिमिटेड, कोलकाता(1 जनवरी 2007 से) कर रही हैं।
अशक्त और वृद्ध श्रद्धालु यात्रियों के लिए यह वाकई वरदान स्वरूप हैं। इस आकाश-मार्गीय आवागमन का आनन्द भी अद्भुत व अनूठा हैं। समदड़ी-भीलड़ी-पालनपुर रेलमार्ग पर रानीवाड़ा, मालवाड़ा तथा भीनमाल रेलवे स्टेशन पर उतरकर सडक़ मार्ग के जरिये सुंधा पर्वत पहुंचा जा सकता हैं। जालोर जिला मुख्यालय, भीनमाल व सिरोही से भी सीधी बस सेवा उपलब्ध हैं। तीर्थ स्थल पर मां सुंधा के दर्शन हेतु आने वाले श्रद्धालुओं के लिए चामुण्डा माताजी ट्रस्ट की देख रेख में आवास, बिजली, पेयजल, चिकित्सा व भोजन इत्यादि की तमाम व्यवस्थाएं उपलब्ध हैं। मंदिर परिसर के पास तथा सुंधा पर्वत की तलहटी में काफी दूकानें हैं जहां पर प्रसाद, अल्पाहार, ऑडियों कैसेट्स, मां सुंधा के फोटो, चुनरी के अलावा रेडिमेड गारमेन्ट्स व बच्चों के खिलौने इत्यादि विक्रय किए जाते हैं। ट्रस्ट द्वारा इन दूकानों पर विक्रय होने वाली सामग्री के भाव निर्धारित हैं।

तीर्थ स्थल की पौराणिक व ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि
भारतीय जन-मन की तीर्थों के प्रति अपार श्रद्धा व आस्था ने सचमुच देश को तीर्थ-देश में ही परिणीत कर डाला हैं। वाकई ये तीर्थ हमारे चेतना केन्द्र हैं, जहां हमारी सांस्कृतिक, साहित्यक, ऐतिहासिक व कलात्मक आत्मा ने अभय संरक्षण पाया हैं। देश में मौजूद असंख्य देवालय सत्प्रवृतियों का निरन्तर विकास करने वाले और सत्प्रेरणाएं प्रदान करने वाले हमारे भावनात्मक तथा पुरूषार्थ-परक प्रयत्न हैं। जन-जन की आस्था का केन्द्र पावन तीर्थ श्री सुंधा माता मंदिर व खासकर सुंधा पर्वत देश के अत्यधिक पौराणिक पुण्य स्थलों में से एक हैं। ऐसा तीर्थ जिसके साथ युग के अनेक पृष्ठ जुड़े हैं। तपस्वियों ने यहां ध्यान, साधना, तप और योग के माध्यम से दैविक शक्तियों को प्राप्त किया। यह तीर्थ प्राचीन अनेक उपासना पद्धतियों का भी संगम रहा हैं। अनेक शासक परिवार भी समय-समय पर इस तीर्थ स्थल से जुड़े। किसी ने मंदिर-मण्डप का निर्माण कराया तो किसी ने अन्य प्रकार की भेंट चढ़ाई। यहां की प्रकृति में वहीं धार्मिक, ऐतिहासिक तथा मनोरम वातावरण.. उसी गौरव के सदृश आज भी प्रतिध्वनित हैं।

 इस सुगन्धाद्रि पर्वत की उत्पति के विषय में एक छोटा सा संकेत श्रीमाल माहात्म्य के 10वें अध्याय में ऋषि वशिष्ठ के इस कथन से प्राप्त होता हैं-‘आनीतो यो मया पूर्व महाविवरपूत्र्तये। शतं सौगन्धिकादद्रेराजगाम द्विजन्मनाम्।।’ अर्थात पहले मैं (उस) बड़े गड्ढ़े को भरने के लिए जिस पर्वत को लाया गया था, (उस) सौगन्धिक नामक पर्वत से सौ ब्राह्मण आए। इस कथन के अनुसार प्राचीन समय में यहां एक विशाल गड्ढ़ा था, जिसे भरने के लिए ऋषि वशिष्ठ ने इधर पदार्पण किया। श्रीमाल माहात्म्य के अध्याय दो में एक और प्रसंग हैं। आदि देव शिव ने त्रिपुर नामक राक्षस का वध करने के लिए यहीं पर तप किया था। भृंगतुंग नामक पर्वत पर तपस्यारत गौतम मुनि को श्रीमाल क्षेत्र स्थित त्रयम्बक सरोवर की स्थिति से परिचित कराते हुए शिव कहते हैं कि जिस स्थान पर मैंने पहले योगाभ्यास में प्रवृत होकर त्रिपुर नामक राक्षस का नाश करने के लिए तप किया था, हे द्विज! उस सौगन्धिक पर्वत के उत्तर की ओर अर्बुदारण्य से वायक्य कोण में सिद्ध-गंधर्वों से सेवित(त्रयम्बक नाम का सरोवर) हैं। तीन लोकों ‘भू भुव स्व’ से साकार होकर यहीं तपस्या की थी जिससे प्रसन्न होकर भगवान शिव उनके समक्ष प्रकट हुए और वह लिंग ‘भूभुर्व स्वेश्वर’ नाम से विख्यात हुआ।

तीर्थ परिसर में ही ‘नागिणी माता’ का मंदिर
यह लिंग चामुण्डा माता की प्रतिमा के पास कुछ ही दूरी पर स्थित हैं, जिसकी नित्य पूजा की जाती हैं। तीर्थ परिसर में ही ‘नागिणी माता’ का मंदिर हैं। अनेक ऋषियों  के चरण कमलों से यह स्थान पवित्र हुआ। बताया जाता हैं कि यहीं पर कभी भारद्वाज ऋषि का आश्रम था। श्रीमाल माहात्म्य के प्रथम अध्याय में ऋषि वशिष्ठ मांधता से कहते हैं कि, हे राजन! उनके ‘सप्त ऋषियों’ के साथ अर्बुदाचल के सब तीर्थों में स्नान करने के पश्चात् शेष तीर्थों में स्नान करने के लिए मुझे भी कहा गया। तब वेदों को जानने वाले सप्त ऋषियों तथा उनकी पत्नि अरूंधति के साथ सौगन्धिक पर्वत की तरफ गया। उपनिषत्काल के उतराई में लवकीश नामक एक संप्रदाय का जन्म हुआ। मथुरा से प्राप्त शैव स्तम्भ पर खुदे शिलालेख के अनुसार लकुलीश का समय विक्रम के दो सौ वर्षों के बाद ठहरता हैं। इस सुंधा तीर्थ में लकुलीश की एक मूर्ति तथा एक मुखी शिवलिंग हैं। इसके अलावा भगवान शिव की दो ऐसी मूर्तियां हैं जिनके कानों में कुण्डल हैं। नाथ-पंथी योगियों की ‘रावल शाखा’ इस लकुलीश पाशुपत संप्रदाय की उत्तराधिकारी रही हैं। अत: स्पष्ट हैं कि इस स्थान का लकुलीश संप्रदाय से संबंध रहा हैं।

चाचिगदेव ने संवत् 1312 में मंदिर का निर्माण करवाया
इस पर्वतीय क्षेत्र पर सुदूर प्राचीन समय में कब किसका अधिकार रहा, इस संबंध में इतिहास गं्रथों में कोई स्पष्ट संकेत तो नहीं मिलता किंतु भीनमाल और जालोर यहां के निकट दो प्रमुख शासन केन्द्र रहे हैं और इन स्थानों में हुए शासन परिवर्तनों और यहां उपलब्ध चौहान वंशीय शिलालेखों से कुछ जानकारियां अवश्य परिलक्षित होती हैं। इस क्षेत्र पर चाप वंशीय राजा वर्मलात ‘चावड़ा’, प्रतिहारों, परमारों और चौहानों का शासन रहा हैं। 13वीं शताब्दी के शुरूआती वर्षों में भीनमाल गुजरात के सोलंकियों के हाथ से निकलकर जालोर के चौहान शासक उदयसिंह के अधिकार में आ गया। इन चौहान राजाओं की जालोर शाखा का इस सुंधा माता के मंदिर के प्रति विशेष श्रद्धा व आदर का भाव रहा। तत्कालीन शासक उदयसिंह के पुत्र चाचिगदेव ने इस चामुण्डा मंदिर का निर्माण संवत् 1312 में करवाया। उन्होंने ही इस पावन तीर्थ के मण्डप का निर्माण कराया और संवत् 1319 में अक्षय तृतीया के दिन ब्राह्मणों द्वारा देवी की प्रतिष्ठा करवाई गई। 1310 में मुगल शासक अलाउद्दीन खिलजी ने जालोर के राजा कान्हड़देव पर आक्रमण कर चौहान शासन का अंत कर दिया। उसके बाद यह क्षेत्र मुगलों, बिहारी पठानों और गुजरात के सुल्तानों के अधीन रहा। इस तीर्थ के दक्षिण-पूर्व में बाव के पास घोड़ों की पायगा आदि के अवशेष आज भी मौजूद हैं।

‘धड़’ रहित देवी जिसका केवल सिर ही पूजा जाता हैं
मारवाड़ रियासत का अंग बनने के बाद जोधपुर राजवंश की ओर से इस तीर्थ को सुंधा की ढ़ाणी, मेगलवा और चितरोड़ी गांव भेंट किए गए। मेगलवा में पीठाधीश आईजी महाराज का मठ था और यहां इस मंदिर के पश्चिम में सटे हुए भवन थे। ट्रस्ट बनने से पूर्व अर्थात वर्ष 1976 तक इस तीर्थ के पीठाधीश आईजी कहलाते थे। चामुण्डा माता की प्रतिमा के पास वाले स्थान ‘भूभुर्व स्वेश्वर’ महादेव के गुफानुमा कक्ष में दक्षिण दिशा वाली दीवार के पूर्वी कोने में एक में विवर मुख ‘भोयरें का मुंह’ हैं जो एक लम्बी सुरंग हैं जो पूर्व दिशा में काफी दूर चली गई हैं। सर्प व अन्य वन्य जीवों के भय के कारण इसे बंद कर दिया गया। प्रमाणिक तो नहीं फिर भी ऐसा माना जाता हैं कि यह सुरंग आबू पर्वत तक जाती हैं तथा प्राचीन समय में वहां के शासक परिवार इसी में होकर मां चामुण्डा के दर्शनार्थ पहुंचते थे। यह चामुण्डा चौहानों की कुलदेवी हैं और चाचिगदेव के शिलालेख के अनुसार यह उस समय ‘अघटेश्वरी’ नाम से इस सुगंधगिरी पर लोक प्रसिद्ध व लोकपूजित थी। ‘अघटेश्वरी’ से अभिप्राय हैं वह घट ‘धड़’ रहित देवी जिसका केवल सिर ही पूजा जाता हैं। इसकी साक्षी में कवि सूजा विरचित यह छंद भी प्रचलित हैं-‘सिर सुंधे, धर कोरटे, पग सुंदरला पाल। आप चामुण्डा इसरी, गले फुंला री माल।।’
विशाल और ऊंचा बालू स्तूप आकर्षण का केन्द्र
भूगर्भिक दृष्टि से यह पर्वत प्राचीन क्रमों तथा नवीन अवसादों का एक बेजोड़ सम्मिश्रण हैं। इसकी चट्टानें चतुर्थ युगीन हैं तथा अभिनूतन कालीन जमाव के साथ वायु-परिवाहित बालू रेत यहां दृष्टिकोचर होती हैं। सुंधा पर्वत चट्टानी क्रम से ग्रेनाइट व मालानी ज्वालामुखी ‘रायोलाइट’ का सम्मिश्रण हैं और आबू जैसा भी प्राचीन हैं। भूगोलवेत्ताओं के अनुसार आबू की चट्टानें हिमालय से भी प्राचीन हैं तथा सुंधा पर्वत आबू का ही विस्तार हैं। तीर्थ स्थल के ही सामने पूर्व की ओर विशाल और ऊंचा बालू स्तूप हैं। इससे नीचे उतरने का अलग ही आनन्द हैं, जो यहां आने वाले अनेक श्रद्धालु यात्री उठाते हैं। यहां बालू रेत और ग्रेनाइट पत्थर की इतनी ऊंची साथ-साथ उपस्थिति धरती की कोमलता-कठोरता की विरल दृश्यावली प्रस्तुत करती हैं। श्री चामुण्डा माताजी सेवा संस्थान(ट्रस्ट) के मैनेजर देवेन्द्रसिंह चौहान के अनुसार तीर्थ स्थल एवं यहां आने वाले श्रद्धालुओं की सुरक्षा को लेकर ट्रस्ट की ओर से तो निजी स्तर पर बेहतरीन सुरक्षा प्रबंध हैं ही सरकारी स्तर पर भी स्थायी रूप से पुलिस चौकी मौजूद हैं। तीर्थ स्थल पर पिछले करीब 45 वर्षों से फैंसी स्टोर संचालित कर रहे व्यापारी सोमा भारती गोस्वामी(राजिकावास) के अनुसार शुक्ल पक्ष में श्रद्धालुओं की आवाजाही अच्छी रहती हैं। हालांकि अब श्री सुंधा माता तीर्थ स्थल पर देशभर से एवं बाहर से भी श्रद्धालु दर्शनार्थ पहुंचने लगे हैं, बावजूद यहां आने वाले श्रद्धालुओं में अधिक तादाद गुजरात से आने वाले श्रद्धालुओं की रहती हैं।

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