घनश्याम डी रामावत
राहुल गांधी ने 16 दिसंबर 2017 को औपचारिक रूप से दिल्ली स्थित कांग्रेस मुख्यालय, 24 अकबर रोड़ में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष के रूप में अपना कार्यभार संभाल लिया। राहुल गांधी के एआईसीसी अध्यक्ष बनने से किसी को भी कोई आश्चर्य नहीं हुआ हैं। वर्षों पूर्व ही 125 वर्ष से भी अधिक पुरानी कांग्रेस पार्टी के अगले अध्यक्ष के रूप में राहुल गांधी का चुना जाना तकरीबन तय था। इसलिए 11 दिसंबर 2017 को जब कांग्रेसी नेता मुल्लापल्ली रामचंद्रन ने विधिवत रूप से इसकी घोषणा की तो यह खबर न तो चौंकाने वाली थी और न ही रोमांचित करने वाली। मुल्लापल्ली ने घोषणा की कि नामांकन के 89 प्रस्ताव दाखिल किये गये, जो सभी वैध थे। अब चूंकि मैदान में केवल एक ही उम्मीदवार राहुल गांधी थे इसलिए 19 साल से अध्यक्ष पद पर काबिज सोनिया गांधी के स्वाभाविक उत्तराधिकारी राहुल ही बने।
राहुल गांधी का निर्विरोध रूप से चुना जाना लोकतंत्र हैं या अघोषित वंशतंत्र का उदाहरण, इस बहस को फिलहाल इसलिए भी यहीं खत्म कर दिया जाना चाहिए क्योंकि देश में कोई भी ऐसी राजनीतिक पार्टी नहीं हैं जिसमें लोकतांत्रिक प्रक्रिया अपनाकर मुखिया चुना जाता हो। ऐसे में इस पर बहस करना पानी में लाठी भांजने जैसा ही हैं। राहुल गांधी के कांग्रेस मुखिया बन जाने के बाद देश में गंभीरता से अगर किसी बात पर विचार होना चाहिए तो इस बात पर ही कि आखिर उनके नाम के आगे कांग्रेस के अध्यक्ष पद के जुट जाने का कांग्रेस के लिए और देश की राजनीति के लिए क्या मायने हैं? यह तकनीकी सच हैं कि कांग्रेस अध्यक्ष बनने से पूर्व राहुल गांधी साल 2013 से कांग्रेस के उपाध्यक्ष पद पर काबिज थे, वह एक किस्म से कांग्रेस के अघोषित मुखिया ही थे, इसलिए वह न तो अपनी पार्टी के लिए और न ही देश के लिए नई बात हैं। देश और खुद उनकी पार्टी उनकी राजनीतिक क्षमताओं से वाकिफ हैं और इस आधार पर उनको लेकर जो स्वाभाविक अनुमान लगाये जा सकते हैं, वे लगाये जा रहे हैं। लेकिन बदलाव चाहे जितना रूटीन का हो वह अपने साथ कुछ न कुछ परिवर्तन तो लेकर आता ही है। भले कांग्रेस में अघोषित रूप से राहुल गांधी की ही सुपरमेसी थी, लेकिन सब कुछ के बावजूद वह वैध नहीं थी, ऐसे में उसके फायदे भी थे और नुकसान भी। अब जबकि राहुल गांधी कांग्रेस के विधिवत मुखिया बन चुके हैं तो यह अनुमान लगाना स्वाभाविक ही नहीं बल्कि हर हालात में लाजमी हैं कि आखिर देश की राजनीति में इसका क्या असर पड़ेगा?
औपचारिक तौर पर राहुल युग का आगाज
यह वाकई राहुल गांधी की खुद की कार्य शैली पर ही निर्भर करेगा कि औपचारिक तौर पर कांग्रेस अध्यक्ष बन जाने के बाद पार्टी में राहुल युग की शुरूआत हो गई हैं या यह भी महज एक मनोवैज्ञानिक धारणा भर हैं? निश्चित रूप से होने और होने जैसा होने में फर्क होता हैं। राहुल गांधी 16 दिसंबर के पहले तक अध्यक्ष नहीं थे किंतु अध्यक्ष से कम भी नहीं थे। सारे निर्णय उनके अनुसार ही पार्टी में लिए जाते थे किंतु चूंकि वे कांग्रेस के अध्यक्ष नहीं थे, कांग्रेस की तमाम असफलताओं का ठीकरा उनके सिर पर फूटने से रह जाता था, वहीं उनकी तमाम राजनीति धारणाओं को, मूल्यों को, भी कांग्रेस की आधिकारिक नीति या मूल्य नहीं माना जाता था। अब ऐसा नहीं होगा, क्योंकि अब राहुल गांधी जो भी कहेंगे वह औपचारिक रूप से कांग्रेस के अध्यक्ष की बात होगी। सवाल हैं जिस राहुल गांधी को देश पिछले कई सालों से देख रहा हैं, सुन रहा हैं, समझ रहा हैं और जिसके बारे में पक्ष विपक्ष की तमाम धारणाओं को भी जान रहा हैं, क्या इतना सब कुछ के बाद भी राहुल गांधी में कुछ नया जानने को बचा हैं? इस सवाल का जवाब हैं हां, बिल्कुल बचा हैं। जब तक कोई शख्स औपचारिक रूप से उस पद पर नहीं होता, जिस पद की हैसियत का अनौपचारिक रूप से वह लुत्फ ले रहा होता हैं, तब तक उसका प्रभाव या अप्रभाव भी वास्तविक नहीं सिर्फ अनुमानभर होता हैं। राहुल गांधी अभी तक अध्यक्ष जैसे थे किंतु अब वास्तव में अध्यक्ष हैं। इसलिए उनके अब के होने का असर पहले से कहीं ज्यादा प्रभावशाली और निर्णायक होगा।
राजनीतिक लिहाज से व्यापक अर्थ/मायने
निश्चित रूप से यह देश की मौजूदा राजनीति में हस्तक्षेप करेगा और वही हस्तेक्षप कांग्रेस पार्टी के साथ समग्र राजनीति का राहुल युग होगा। सवाल हैं इस राहुल युग का देश के लिए, राजनीति के लिए, क्या अर्थ हैं? निश्चित रूप से इसके व्यापक अर्थ हैं। सबसे पहले तो राजनीति में औपचारिक रूप से राहुल युग शुरु होने का मतलब यह हैं कि कम से कम राजनीति में भाषाई विन्रमता का आगाज होगा और आक्रमक अलंकारों से मुक्ति मिलेगी। हो सकता हैं अब तक के वर्षो में राहुल गांधी की राजनीतिक गतिविधियां और उनके बयान बहुत परिपक्व राजनेता वाले न रहे हों लेकिन उनकी उपस्थिति ऐसी भी नहीं थी कि उनकी खिल्ली उड़ायी जाती। फिर भी लगातार ऐसा हुआ, लेकिन यह राहुल गांधी का निजी हौसला ही था कि उन्होंने आज तक इस सबके विरूद्ध कोई आाढामक प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की हैं। यहां तक कि हाल ही संपन्न गुजरात विधानसभा चुनावों के प्रचार के दौरान भी जिस तरह से भारतीय जनता पार्टी के तमाम नेता और कई बार खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उन पर टिप्पणियों को लेकर आक्रामक और बेलगाम हो जाते थे, राहुल गांधी ने अपने भाषाई नम्रता का दामन नहीं छोड़ा। वह लगातार जी और सर शब्दों से युक्त संबोधन करते रहे। राहुल गांधी नरेंद्र मोदी को मोदी जी या प्रधानमंत्री सर ही बार-बार कहते हैं। इससे एक बात तय हैं कि अगर राहुल गांधी ज्यादा कुछ भी नहीं कर सके तो भी राजनीति में फिर से एक सहज, सौम्य और विन्रम भाषा की औपचारिक वापसी तो सुनिश्चित करेंगे ही।
राजनीतिक परिपक्वता के साथ अनगिनत उम्मीदें
राहुल गांधी ने जिस तरह गुजरात चुनाव में कांग्रेस राजनीति के कद्दावर नेता राजस्थान के पूर्व सीएम अशोक गहलोत की रणनीति के अनुरूप तीन-तीन युवा आक्रामक नेताओं के साथ तालमेल का संतुलन पेश किया, वह भी उनके भविष्य के एक सफल राजनेता होने की तरफ इशारा हैं। क्योंकि पिछले आम चुनाव में भले लगा हो कि देश से क्षेत्रीय राजनीति का बोरिया बिस्तर गोल हो रहा हैं, मगर ऐसा हैं नहीं। हकीकत यही हैं और लोकतंत्र की मजबूती के लिए यह किसी हद तक जरूरी भी हैं कि राजनीति में क्षेत्रीय ताकतों की मजबूती बनी रहे यानी भविष्य की राजनीति वास्तविक रूप से गठबंधन की राजनीति होगी और राहुल गांधी ने गुजरात में गठबंधन का जो संतुलन पेश किया हैं, वह उनकी भविष्य की स्वाभाविक ताकत बन सकती हैं। इन चुनावों यानी गुजरात के विधानसभा चुनाव ने राहुल को कई मायनों में गढ़ा हैं और उनकी शाख्सित को नया मोड़ दिया हैं। ये राहुल गांधी ही हैं जिनकी सियासी सूझबूझ के चलते गुजरात के चुनाव विपक्ष की तमाम कोशिशों के बावजूद हिंदू और मुसलमानों के बीच ध्रुवीकृत नहीं हुए और कांग्रेस को गुजरात में भले ही सरकार बनाने मे कामयाबी नहीं मिली किंतु परिणाम सुखदायी रहे। गुजरात में आज पार्टी मजबूत हुई हैं तो इसका श्रेय राहुल गांधी को ही जाता हैं। गुजरात चुनाव के बाद राहुल गांधी को सोमनाथ मंदिर जाकर पूजा अर्चना करना और नेताओं के साथ हार की समीक्षा करना व आज जनता से मुखातिब होना, उनकी राजनीतिक परिपक्वता को ही परिलक्षित करता हैं। निश्चित रूप से राहुल युग न सिर्फ कांग्रेस के लिए बहुत उम्मीदों वाला हैं बल्कि देश की भी नजरें राहुल गांधी के सकारात्मक राजनीतिक हस्तक्षेप पर टिकी हुई हैं।