Friday 11 December 2015

भगवानसिंह परिहार‘बाऊ जी’: समाजसेवा क्षेत्र के महान कर्मयोगी/उपेक्षित बच्चों के पालनहार

घनश्याम डी रामावत
भगवानसिंह परिहार जिन्हें ‘बाऊ जी’/अनाथ-उपेक्षित बच्चों के पालनहार/बेसहारों का सहारा.. न जाने कितने नामों से ताउम्र पुकारा जाता रहा और आगे भी सदियों तक इसी नाम/अंदाज से जाना जाता रहेगा। सही मायने में उनका व्यक्तित्व/कर्मशीलता ही कुछ ऐसी थी कि उनकी समग्र/पूर्ण व्याख्या कर पाना अथवा उन्हें शब्दों में बांधते हुए कलमबद्ध कर पाना शायद संभव ही नहीं। सच्चे अर्थो में वे समाजसेवा क्षेत्र के श्रेष्ठतम कर्मयोगी थे। उन्हें समाजसेवा क्षेत्र का विशालतम वट वृक्ष भी कहा जाए तो कोई अति-श्योक्ति नहीं, एक ऐसा वट वृक्ष/जन-हितकारी पेड़ जो सदियों में ही उग पाता हैं। किसी ने सच कहा हैं.. ‘समाजसेवा’ अपने आप में सुनहरा शब्द हैं, किन्तु इसका सुनहरापन तभी संभव हो पाता हैं जब कोई नेक बंदा अपनी नेक नियती/अव्वल दर्जे की कर्मशीलता/बेहतर दायित्व निर्वहन से इसमें असली रंग भरता हैं। भगवानसिंह परिहार ईश्वर के ऐसे ही एक नेक बंदे/कर्मयोगी थे जिन्होंने अपने संपूर्ण जीवन में अपने द्वारा किए गए नेक कार्यो के जरिये न केवल स्वयं के जीवन की सार्थकता/व्यक्तित्व को श्रेष्ठतम मुकाम दिया, अपितु ऊंचे दर्जे के समाजसेवी/नेक बंदे के रूप में खुद को साबित करते हुए ‘समाजसेवा’ क्षेत्र को भी इंद्रधनुषी रंग प्रदान करते हुए वास्तविक सम्मान दिया।
जोधपुर सहित समूचे मारवाड़ अंचल में ‘बाऊ जी’ के नाम से प्रख्यात भगवानसिंह परिहार का जन्म 12 अक्टूबर 1928 को पिता रामसिंह परिहार के घर मातु श्री मानीदेवी की पवित्र कोख से हुआ। बीए-एलएलबी शिक्षा प्राप्त भगवानसिंह परिहार की संपूर्ण शिक्षा-दीक्षा उनके गृह नगर जोधपुर में ही हुई। 7 दिसम्बर 2015/मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष-एकादशी को 87 वर्ष की उम्र में भले ही उन्होंने अपनी देह त्याग दी, किन्तु वे आज भी समग्र समाज के साथ खासकर उन अनाथ/अवांछित/उपेक्षित बच्चों के दिलों में.. जिनको उन्होंने अपने जीवनकाल में विपरीत परिस्थितियों में अपनाकर परवरिश की/राह दिखाई, हमेशा जिंदा रहेंगे। आम तौर पर समाजसेवा क्षेत्र में लोग सुगम रास्ता चुनते हैं, किन्तु भगवानसिंह ने ऐसा नहीं कर.. एक ऐसा मार्ग चुना जो आसान नहीं था। उनके चुने हुए इसी मार्ग ने उन्हें जीते जी ही नहीं देह त्यागने के बाद भी एक श्रेष्ठतम मुकाम के साथ लोगों के दिलों में चिर-स्थायी बना दिया। उन्होंने ऐसे बच्चों के कल्याण का मार्ग चुना जिन्हें ‘अवांछित’ करार देकर माता-पिता तो त्याग ही देते हैं, कमोबेश भगवान भी अपना मुंह मोड़ लेते हैं। लोक लाज के भय के कारण उपेक्षा के भाव से लावारिश छोड़ दिए जाने वाले इन बच्चों को धरती के भगवान/कर्मयोगी भगवानसिंह परिहार ने अपनाना चालू कर दिया। हृदय से लगाया और उनके बेहतर जीवन निर्माण हेतु अपन सर्वस्व न्यौछावर कर दिया।

ईश्वर की पवित्र रचना मानकर दिल से परवरिश
समाज जिन्हें हेय/घृणित दृष्टि से देखता हैं/ठुकराता हैं.. विधाता की परम/पावन/पवित्र रचना मानकर भगवानसिंह ने इन बच्चों को अपनाया। उनमें ईश्वर की पवित्र रचना का भाव महसूस कर उनकी दिल से परवरिश की। सचमुच! वर्षो पूर्व समाज में सोच व विचारों की विषमताओं के बीच इन बालकों को अपनाकर उन्हें अभिभावक का प्यार देना/पालन-पोषण और फिर उन्हें श्रेष्ठतम मुकाम प्रदान करना..आसान नहीं होता हैं। किन्तु ‘बाऊ जी’ को तो यही मार्ग अच्छा लगा, उन्होंने अपनी दृढ़ संकल्पशीलता के साथ न केवल जीवनभर अपने कदमों को इसी मार्ग पर आगे बढ़ाया अपितु पूरी तन्मयता से अपने दायित्वों को आत्मीयता/जिम्मेदारी से निभाया भी। उनकी इसी चिंतन पराकाष्ठा/दिव्य दृष्टि/त्याग/समर्पण ने उन्हें औरो से अलग बना दिया। उनके जीते जी व्यक्तिगत रूप से मेरा उनसे ज्यादा मिलना नहीं हुआ किन्तु 18 सितम्बर 2014 को उनके अपने कर्मक्षेत्र के निमित्त बनाई गई कर्मस्थली नवजीवन संस्थान/लव-कुश परिसर में ‘नि:शुल्क फैशन डिजायनिंग सर्टिफिकेट कोर्स’ शुभारम्भ/कार्यक्रम के दौरान हुई छोटी सी/क्षणिक मुलाकात ने मुझे उनसे/उनके चमत्कारिक व्यक्तित्व से रूबरू करा दिया। उम्र के इस पड़ाव पर भी ऊर्जा से सरोबार/सहृदयता/आत्मीयता/सौ फीसदी सेवा का भाव/ललक.. मैं तो कायल/स्तब्ध ही रह गया।

‘नवजीवन संस्थान’ के जरिये लोगों के जीवन में रोशनी
उनके द्वारा बनाई गई कर्म स्थली ‘नवजीवन संस्थान’ अंतर्गत लव कुश संस्थान/आस्था बाल शोभागृह/लव कुश बाल विकास केन्द्र/गायत्री बालिका विकास गृह.. के रूप में उनके द्वारा लगाए गए ऐसे सुनहरे वृक्ष हैं जिन्होंने अब तक न जाने कितनो के जीवन में रोशनी देते हुए उन्हें निहाल कर दिया, आगे भी वर्षो/सदियों तक ये वृक्ष उनकी प्रेरणा से अपनी छाया/वरदहस्त जरूरतमंदों को प्रदान करते रहेंगे। भगवानसिंह परिहार भले ही आज लोगों के बीच नहीं हैं, किन्तु सही अर्थों में नवजीवन संस्थान के रूप में आज भी सबके बीच मौजूद हैं। उनका जीवन सदैव लोगों के लिए, यहां तक कि समाज सेवा के क्षेत्र में कार्य कर रहे लोगों के लिए भी प्रेरणादायी रहेगा। उनका जरूरतमंद की टोह लेना/पहचानना, आवश्यकताओं का बारीकी से अध्ययन करना और सद् इच्छा/सद्भाव से उसे साकार/सार्थक रूप देना.. उस मसीहा में समाहित कुछ ऐसे गुण थे जो उन्हें सदैव आमजन के दिलों में चिर स्थायी बनाकर रखेंगे। किसी ने सही कहा हैं मान-सम्मान/उपाधि/पुरस्कार से इंसान स्वयं का धन्य बना सकता हैं किन्तु सेवा और सेवा का भाव(मय कर्मशीलता) इंसान को सही अर्थों में महान बनाती हैं। भगवानसिंह परिहार को अपने पूरे जीवन में बच्चों से प्यार/स्नेह रहा, खासकर ऐसे बच्चों से जिनके जीवन में अपने माता-पिता/अभिभावक के प्यार/दुलार की दूर-दूर तक कोई संभावना नहीं थी। सत्य तो यह हैं कि ताउम्र जागते-सोते उनके जीवन में बचपन ही हिलौरे लेते रहा जो शायद उनके इस संसार में नहीं रहते भी अनवरत रूप से जारी रहेगा।

कर्मशीलता की राजस्थान में और कोई मिसाल नहीं
दो दशक पूर्व भगवानसिंह परिहार की ओर से स्थापित लवकुश संस्थान में उन माताओं के बच्चों का लालन-पालन होता हैं जो न जाने किस मजबूरी में अपने बच्चों को सडक़ों के किनारे, निर्जन स्थल अथवा समाज की मर्यादा के डर से गंदी नालियों में फैंक देती थी। इन लावारिस बच्चों को कुत्तों द्वारा नोंचना और बीमार अपाहिज होने के समाचार पढ़ने के बाद दो दशक पूर्व परिहार ने उन बेकसूर बच्चों को संरक्षण देने की ठानी। नतीजतन उनकी ओर से स्थापित नवजीवन संस्थान में फेंके हुए और संस्थान में लाकर छोड़े गए निराश्रित 11 सौ से अधिक लावारिस बच्चों को नया जीवन मिला। उन्हीं 11 सौ बच्चों में 800 से अधिक संतानहीन दम्पित्तयों को गोद देकर बच्चों को समाज की मुख्यधारा में आने का अवसर मिला। यहीं नहीं, 100 से अधिक जरूरतमंद परिवार की बालिकाओं को शिक्षित कर उन्हें पुन: परिवार में भेजा गया। संस्थान की 11 बालिकाओं का धूमधाम से विवाह करवाया। 150 से अधिक वृद्धजन पाल रोड़(जोधपुर) स्थित ‘आस्था’ वृद्धाश्रम में सुखमय जीवन व्यतीत कर रहे हैं। जीवन में 25 हजार लोगों के नेत्र का ऑपरेशन, पांच हजार से अधिक विकलांगों को केलीपर, 65 कुष्ठ रोगियों को लिए पक्के मकान की व्यवस्था एवं 84 बाढ़ पीडि़तों के पुनर्वास के लिए पक्के मकानों की व्यवस्था उनके द्वारा की गई।

बच्चों से स्नेह/दुलार और सामाजिक सरोकार
बीए-एलएलबी भगवान सिंह की दिनचर्या ऐसी थी कि वे सुबह जल्दी ही हाउसिंग बोर्ड स्थित लव-कुश आश्रम बच्चों के पास पहुंच जाते और दिन भर वहां बिताते। शाम को पाल रोड़(जोधपुर) पर दिग्विजय नगर स्थित वृद्धाश्रम आ जाते और रात यहीं बिताते। समाजसेवा/सामाजिक सरोकारों को ही जीवन का उद्देश्य बना लेने वाले भगवानसिंह परिहार द्वारा ‘लव-कुश बाल विकास गृह’ के माध्यम से अनाथ शिशुओं का पालन-पोषण/गायत्री बालिका गृह में बालिकाओं को पढ़ाकर विवाह करवाना/आस्था वृद्धाश्रम में बुजुर्गों का संरक्षण/लॉयंस क्लब के माध्यम से अंधता निवारण में सहयोग/गांधी कुष्ठ निवारण संस्था में सहयोग/पश्चिमी राजस्थान में अकाल के दौरान सहायता/लूणी नदी में आई बाढ़ के बाद विस्थापितों का पुनर्वास/नेत्रहीन विकास संस्थान के भवन निर्माण में सहयोग तथा नशे व पोलियो के खिलाफ अभियान.. सहित किए गए जन-हितकारी कार्यो की फेहरिस्त इतनी लंबी हैं कि उसे कलमबद्ध करना शायद ही संभव हो। परिहार को बच्चों से अत्यधिक लगाव था। बच्चें स्कूल से आते हैं उन्हें घेर लेते थे। ‘बाऊजी’ भी अभिभावक की तरह रोजाना उनसे पढ़ाई के बारे में पूछते और उनकी कॉपियां चैक करते। ये बच्चे मानो परिहार के जेहन में बसे थे। अंतिम सांस लेने से पहले अस्पताल में भर्ती रहने के दौरान बाइपास सर्जरी के बाद जैसे ही उन्हें होश आया, सबसे पहले यही बोले.. मुझे बच्चों से बात कराओ। वे बच्चों से दिल से स्नेह करते थे, इसी की मिसाल हैं कि उन्होंने अपने बालगृह में पली-बढ़ीं 12 लड़कियों के लिए न केवल वर ढूंढ़े.. धूमधाम से शादी करवाई और उनके गर्भवती होने पर डिलीवरी भी अपने घर पर ही करवाई।

अनुकरणीय समाजसेवा के लिए विभिन्न सम्मान
उत्कृष्ट समाजसेवी/कर्मयोगी भगवानसिंह  परिहार को उनकी अनुकरणीय कर्मशीलता के लिए वर्ष 2008 में राजस्थान सरकार की ओर से स्वतंत्रता दिवस पर मुख्यमंत्री द्वारा सम्मानित किए जाने के साथ ही राजस्थान सरकार की ओर से ही उनकी संस्था नवजीवन को पचास हजार रुपए की सम्मानित राशि, जोधपुर के पूर्व नरेश गजसिंह द्वारा 1 लाख 8008 रुपए देकर समाजसेवा के क्षेत्र में सम्मान, जोधपुर एसोसिएशन मुंबई द्वारा समाज रत्न अवार्ड, मेहरानगढ़ म्यूजियम ट्रस्ट द्वारा 2014 में मारवाड़ रत्न पुरस्कार एवं एमलीयर एसोसिएशन राजस्थान की ओर श्रेष्ठ नियोजक पुरस्कार प्रदान कर नवाजा जाना उनके बेहतर/उत्कृष्ट/श्रेष्ठतम व्यक्तित्व को स्वत: ही परिभाषित कर देते हैं।

सच्ची श्रद्धांजली/फफक पड़ी बालिकाएं
नवजीवन संस्थान की बालिकाएं अपने पालनहार ‘बाऊजी’ की पार्थिक देह को कंधा देते फफक पड़ी तो उपस्थित लोग भी परिहार की महानता के समक्ष नतमस्तक होते नजर आए। दो दशक में करीब 11 सौ से अधिक अनाथ बच्चों के पालनहार नवजीवन संस्थान के संस्थापक भगवानसिंह परिहार की अंतिम यात्रा में जोधपुर ही नहीं मारवाड़ अंचल के दूर-दराज इलाकों से हर वर्ग/समाज के लोग शामिल हुए। लवकुश शिशु गृह/वरिष्ठ नागरिक आस्था सदन परिवार के सदस्यों ने नम आंखों, भीगी पलकों व दु:खी मन से विदाई दी। उनके अंतिम दर्शन हेतु सामाजिक/धार्मिक/औद्योगिक/राजनीति क्षेत्र से हर आम व खास पहुंचा। कोई भी कार्य समय पर पूरा करने की प्रेरणा देने वाले भगवानसिंह परिहार की अंतिम यात्रा भी निर्धारित समय पर आरंभ हुई।

शत्-शत् नमन...
मनुष्य योनि में जन्म लेकर देवताओं के माफिक कार्य करना.. प्रत्येक कर्म को निस्पृह/निरीह/कामना रहित बनाए रखना और बिना यश/नाम/मान-सम्मान की इच्छा रखे परोपकार में सतत् तरीके से जीवनभर अपने आप को लीन रखना, यहीं भगवानसिंह परिहार ‘बाऊ जी’ अपनी असली पहचान थी। इस उम्मीद के साथ कि उनके द्वारा ताउम्र किए गए निष्काम भाव से दायित्व निर्वहन को समाज सकारात्मक लेते हुए अपने जीवन में आत्मसात करेगा और सही मायने में निरीह/उपेक्षित/पीडि़त/शोषित वर्गो को लेकर समाज के लोगों के मन मे उत्पन्न होने वाला यह सेवा का भाव ही भगवानसिंह परिहार जैसे उत्तम दर्जे के कर्मयोगी को सच्ची श्रद्धांजलि होगी। कर्मशीलता के पुरौधा/अवांछित/उपेक्षित बच्चों के पालनहार/समाजसेवी के रूप में विराट व्यक्तित्व.. श्रद्धेय भगवानसिंह परिहार को शत्-शत् नमन।

Wednesday 9 December 2015

मौताणा प्रथा: आदिवासियों का अंधा कानून

घनश्याम डी रामावत
आधुनिक टेक्रोलोजी और मजबूत कानून व्यवस्था के दावों के बीच निरन्तर प्रगति के पथ पर आगे बढ़ते इस देश में हमेशा से ही नागरिकों के धर्म/मजहब/रहन-सहन/आचार-विचार/कानून व्यवस्था के प्रश्र पर शत-प्रतिशत आजादी की बात की जाती रही हैं। आजाद होने के बाद देश की शिक्षा/तकनीक/कानून व्यवस्था में आमूल चूल परिवर्तन हुआ हैं, निश्चित रूप से इन सबके चलते ही न केवल नागरिकों का जीवन पहले से बेहतर हुआ.. अपितु देश के साथ खास तौर से प्रदेशों की प्रगति भी अबाध तरीके से हुई हैं। इससे राजस्थान भी अछूता नहीं हैं, इस प्रदेश ने भी सुशासन/बेहतर कानून व्यवस्था/नागरिकों को स्वछंदता के साथ जीवन जीने की आजादी के दावों के बीच तरक्की के अपने अद्भुत आयाम स्थापित किए हैं। कमोबेश इसका दंभ भी प्रदेश की सरकारों द्वारा भरा जाता रहा हैं। इन सबके बीच यह वाकई अफसोसजनक/दुखद हैं कि देश.. खास तौर से राजस्थान के कुछ इलाकों में देश/प्रदेश की कानून व्यवस्था/संवैधानिक प्रक्रियाओं का खुलेआम मजाक उड़ाया जाता हैं। इन इलाकों में रह रहे लोगों के अपने रीति-रिवाज हैं.. अपना कानून और अपनी व्यवस्थाएं हैं। सीधे-सीधे कहा जाएं तो इनका अपना अंधा कानून हैं, जहां इनकी अपनी बनाई हुई दण्ड व्यवस्था तक हैं।

देश/प्रदेश की संवैधानिक/कानून व्यवस्थाओं को वर्षों से सीधे तौर पर ठेंगा दिखाते चले आ रहे इन स्वयं-भू लोगों/इलाकों के बारे में ऐसा नहीं हैं कि प्रदेश सरकार/कानून व्यवस्था/पुलिस को मालूम नहीं हैं.. सच तो यह हैं कि मालूम होते हुए भी ये स्वयं को असहाय महसूस करते हैं। जी हां! मैं बात कर रहा हूं.. राजस्थान के उन आदिवासी इलाकों की जहां आज भी उनकी अपनी व्यवस्थाएं हैं। फिर चाहे वह सामाजिक/आर्थिक/कानूनी.. सब कुछ संचालन/नियंत्रित करने का उनका अपना तरीका हैं। इन आदिवासी इलाकों में रहने वाले आदिवासियों की जिस प्रथा ने प्रदेश सरकार व कानून व्यवस्था का जिम्मा संभाल रहे लोगों की नाक में सबसे ज्यादा दम कर रखा हैं वह हैं ‘मौताणा’ प्रथा। एक ऐसी प्रथा जिसने अब तक हजारों परिवारों को तबाह/बर्बाद कर दिया हैं। राजस्थान की अरावली पर्वतमाला के आसपास/खास तौर से उदयपुर/बांसवाड़ा/सिरोही एवं पाली क्षेत्र के आदिवासी इलाकों में रहने वाले आदिवासियों के बीच इस प्रथा का सर्वाधिक चलन हैं। तथाकथित सामाजिक न्याय के उद्देश्य से शुरू हुई यह प्रथा अब कई परिवारों को तबाह कर देने वाली कुप्रथा का रूप ले चुकी हैं।  

आदिवासी ‘मौताणा’ प्रथा एक नजर में...
मौताणा प्रथा राजस्थान में उदयपुर/बांसवाड़ा/सिरोही एवं पाली क्षेत्र के आदिवासी इलाकों में जनजातीय समुदाय में प्रचलित हैं। ऐसी धारणा हैं कि इस प्रथा की शुरुआत तो सामाजिक न्याय के उद्देश्य से हुई थी जिसमें यदि किसी ने किसी व्यक्ति की हत्या कर दी तो दोषी को दंड स्वरूप हर्जाना देना पड़ता था लेकिन अब अन्य कारण से हुई मौत पर भी आदिवासी मौताणा मांग लेते हैं। वहीं पिछले कुछ सालों में देखा गया हैं कि किसी भी वजह से हुई अपनों की मौत का दोष दूसरे पर मढ़ कर जबरन मौताणा वसूल किया जाने लगा हैं। मौताणे की रकम नहीं मिलने पर आदिवासी चढ़ोतरा करते हैं। इसमें सामने वाले कुटुंब के घर को लूटा जाता हैं और आग तक लगा दी जाती हैं। चढ़ोतरा में दोषी पक्ष के साथ ही मारपीट की जाती हैं। दरअसल जब मृतक का परिवार किसी को दोषी मानकर उसे मौताणा चुकाने के लिए मजबूर करता हैं तो आदिवासियों की अपनी अदालत लगती हैं, जहां पंच दोषी को सफाई का मौका दिए बिना ही मौताणा चुकाने का फरमान जारी कर देते हैं। भुखमरी की नौबत झेल रहे आदिवासी परिवारों को लाखों रुपए का मौताणा चुकाना पड़ता हैं। जिससे गरीब आदिवासी बर्बाद हो जाते हैं।

‘मौताणा’ नहीं तो पीड़ित पक्ष को बदला लेने का हक
राजस्थान के प्रतापगढ़, भीलवाड़ा, चित्तौडगढ़, राजसमन्द और में भी मौताणा प्रथा का चलन हैं। ‘मौताणा’ नहीं चुकाने पर मृतक का परिवार दोषी परिवार के सदस्य की जान तक ले सकता हैं। राशि नहीं चुकाने पर यह हिंसक रूप लेता हैं। इसके अनुसार यदि आरोपी पक्ष पीड़ित पक्ष को मुआवजा नहीं देता हैं तो पीड़ित पक्ष को उससे बदला लेने का हक हैं। चूंकि मौताणे की रकम भारी भरकम होती हैं जिससे उनकी सारी जमीन जायदाद दांव पर लगानी पड़ जाती हैं। ऐसे में कई परिवार या तो डर कर पलायन कर जाते हैं या फिर बर्बाद हो जाते हैं। दूसरे पक्ष के इनकार करने पर पहला पक्ष दूसरे के घर में आग लगा सकता हैं या उसी तरह की वारदात को अंजाम दे सकता हैं। चाहे हादसा हो या हत्या या कुछ और आदिवासी किसी भी वजह से हुई मौत पर हर्जाना मांग लेते हैं। इसके अनेक उदाहरण हैं, मसलन.. उदयपुर के गल्दर में बाइक से हादसा हुआ तो उसे बिठाने वाले को 80 हजार देने पड़े। खाखड़ में की कउड़ी की बिजली गिरने से मौत पर पीहर ने मौताणा लिया। कुएं में शव मिला तो मालिक ने मौताणा मांगा। बाद में इसे लेकर काफी हंगामा भी हुआ। नवंबर 2005 में ढ़ेडमारिया के भैरूलाल डामोर की बीमारी से मौत हुई। चचेरे भाई से मौताणा लेने के लिए शव 35 दिनों घर में ही रखे रखा। मौताणा लेकर ही माने परिजन।

सवा साल लटका रहा शव/20 साल बाद लौटे 30 परिवार
कउचा गांव में महिला को सांप ने डसा लिया। पीहर वालों ने कहा कि सांप ससुराल का ही था। ऐसे ही महादेव नेत्रावला गांव में कुत्ते के काटने पर मालिकों से मौताणा लिया। नालीगांव में 1995 में हत्या के मामले में मौताणा ना चुकाने पर 30 परिवारों को गांव छोड़ना पड़ा था। बीस साल बाद ये घर लौट सके। गुजरात सीमा के आंजणी गांव में मौताणा नहीं मिलने पर अजमेरी का शव सवा साल तक पेड़ से लटका रहा। मांडवा के भाटा का पानी में 50 परिवार 14 साल से भटक रहे। कोर्ट ने भी आजीवन कारावास सुनाया फिर भी दूसरा पक्ष मौताणा राशि की मांग पर अड़ा हैं। कोटड़ा में 14 साल पहले हामीरा की दास्तान तो और भी अलग हैं। उसके घर के बाहर कोई शव फेंक गया। हामीरा के परिवार पर हत्या का आरोप लगा। खेत छोडक़र दूसरों के रहमो करम पर जिंदगी बसर करनी पड़ रही हैं। इसी प्रकार जोगीवड़ में अप्रैल 2014 परथा 50 देवा गरासिया की हत्या के बाद दूसरे पक्ष को झाल(अंतिम संस्कार की राशि) 90 हजार भरनी थी। इसके लिए 5 बीघा 6 बीघा जमीन गिरवी रखी। बाकी राशि ना देने पर करीब 30 परिवारों को पलायन करना पड़ा हैं। वर्ष 2010 में सुबरी के दिनेश की हत्या पर सात लाख मौताणा चुकाने के लिए एक पक्ष के झालीया ने 70, परथा ने 40, लक्ष्मण ने 20 झालीया ने 45 हजार में जमीन गिरवी रखी और मवेशी बेचे।

ताजा मामला कड़नवा(उदयपुर) का
प्रदेश का यह ताजा प्रकरण वाकई राजस्थान की तरक्की पर नाज करने वालों को बैचेन करने वाला हैं। उदयपुर जिले के कड़नवा गांव में हुई एक मौत जिन्दगी को शर्मिंदा कर रही हैं। कड़नवा के रहने वाले चालीस वर्षीय वेहता गमार की मौत दस दिन पहले हो गई हैं, किन्तु अब उसकी मौत के दस दिन बाद भी शव को सिर्फ इसलिए चिता मयस्सर नहीं हैं क्योंकि उसके गांव के पंचों को मौत का मुआवजा चाहिए। हैरानी यह हैं कि दस दिनों से सड़ रहे शव की दुर्गंध शासन-प्रशासन के फेफड़ो तक अभी तक नहीं पहुंची हैं। सचमुच जिंदगी के बाद मौत से ऐसी क्रूरता हिला देने वाली हैं। चरमराती ऐसी कानून व्यवस्था के लिए आखिर कौन जिम्मेदार हैं? क्या ये परम्पराएं अमानवीय नहीं? यह पहला मामला नहीं हैं, प्रदेश के इन आदिवासी इलाकों में इस प्रथा के चलते अनेक बार ऐसी स्थितियां बनी हैं। सवाल यह कि, आखिर प्रदेश सरकार/कानून व्यवस्था के जिम्मेदार पूरे मामले में ठोस कदम क्यों नही उठा रहे हैं? सचमुच पुलिस-प्रशासन की लाचारगी समझ से परे हैं।

Monday 7 December 2015

राजस्थान की अद्भुत/नायाब ‘फड़’ परम्परा...

घनश्याम डी रामावत
रंग-बिरंगी संस्कृति वाले भारत देश में शुरू से ही कला का विशेष सम्मान रहा हैं। विभिन्न प्रदेशों की मिली जुली संस्कृति ने हमेशा ही देश को नायाब रंग दिया हैं। इसमें खासतौर से भारत की प्रर्दश्य कला और लोक नाट्यों का विशेष योगदान रहा हैं। अन्य प्रदेशों के अनुपात में शायद राजस्थान इस मामले में अग्रणी रहा हैं और यह प्रदेश अपनी वीरता के साथ अपने आर्ट व उसके प्रदर्शन को लेकर सदैव अन्य प्रदेशों के सरताज के रूप में जाना जाता रहा हैं। यहां की रंगमंच की परम्पराओं/लोक गाथाओं व लोक वार्ताओं की बात ही निराली हैं। बगड़ावत(देवनारायण) की महागाथा, पाबूजी, गोगाजी, तेजाजी, ढ़ोला-मारु, सैणी-बीजानन्द, रामू-चनणा, जेठवा-ऊजली, मूमल-महेन्द्र, बाघो-भारमली तथा दुरपदावतार जैसी अनेक लोक कथाएं हैं.. जिनके नामों के उच्चारण से ही जेहन में एक अद्भुत सिहरन सी दौड़ पड़ती हैं। सभी लोक कथाएं/आख्यान, प्रेम/सौन्दर्य/शौर्य व जीवटता से भरी पड़ी हैं। इसकी महत्ता को कुछ इस रूप में भी समझा जा सकता हैं कि असाधारण व्यवहारिक बुद्धि की धरोहर लिए सर्वसाधारण, इन लोक नाट्यों के माध्यम से सार्वजनिक चेतना के तौर पर उभरने वाली तस्वीर और महान विचारों प्राणवान/संस्कृति मानकर सहज ही ग्रहण/आत्मसात कर लेता हैं। हकीकत में यह लोक नाट्यों और उन्हें सम्पन्न करने वाली लोक मंडलियों में निहित वास्तविक शक्ति हैं। इन सब के बीच इस समय जिस आर्ट/लोक अभिव्यक्ति का जिक्र किया जा रहा हैं.. वह हैं ‘फड़’ अर्थात राजस्थान की सर्वाधिक रोमांचकारी/अद्भुत/अप्रतीम/लाजवाब/निराली परम्परा। अभिव्यक्ति और विचारों के साथ परिस्थितियों का ऐसा चित्रण/प्रदर्शन, जो आम जनमानस का समझाने में/उनके मन-मस्तिष्क में उतारने का अनूठा/अत्यधिक प्रभावशाली माध्यम समझा जाता हैं।

विशालकाय परदे पर लोक गाथाओं/नायकों का चित्रण
राजस्थान की जीवन शैली में लोक कलाकारों का बड़ा महत्व हैं। लोक कलाकार कटपुतली के खेल के जरिये जहां लोक गाथाओं का सजीव नाट्य रूपांतरण करते हुए लोगों का मन मोह लेते हैं वहीं भोपा(फड़ संचालक) कहे जाने वाले लोगों द्वारा फड़ बांचने की परम्परा सदियों से चली आ रही हैं। ‘फड़’ बांचने के अंतर्गत मूल रूप से भोपा लोग एक विशालकाय कपड़े के परदे पर जिस पर राजस्थान के लोक गाथाओं के नायको व पात्रों की कथाओं का चित्रण होता हैं.. एक ऐसे स्थान पर जहां लोगों का समूह बैठकर फड़ बांचने/प्रदर्शन का लुत्फ उठा सके, के सामने दीवार पर रखकर काव्य के रूप में लोक कथाओं के पात्रों के जीवन, संघर्ष, वीरता, बलिदान व जनहित में किए कार्यों का प्रस्तुतिकरण करते हैं। इस प्रस्तुतिकरण में भोपाओं द्वारा प्रस्तुत नृत्य व गायन का समावेश, इसे और अधिक लोकप्रिय बना देते हैं। आधुनिकता की आड़ में समय के साथ आज भले ही यह परम्परा पहले की भांति अधिक चलन/प्रचलन में नहीं हैं किन्तु राजस्थान के गांवों में लोगों के बीच/उनकी जीवन शैली में फड़ बंचवाने की परम्परा की गहरी छाप रही हैं। ज्यादातर गांवों में लोक देवता पाबू जी राठौड़ की फड़ बंचवाई जाती हैं। पाबू जी के अलावा भगवान देव नारायण जी की फड़ भी भोपा लोग बांचते आये हैं। भोपा लोगों द्वारा जागरण के रूप में नृत्य व गायन के साथ फड़ प्रस्तुत किए जाने को फड़ बांचना कहते हैं और इसके आयोजन को फड़ रोपना/फड़ बंचवाना कहते हैं। जैसा कि मैंने ऊपर जिक्र किया हैं.. मौजूदा दौर में फड़ के प्रति उदासीनता यह ‘फड़’ परम्परा सार्वजनिक रूप से कम होती जा रही हैं। संभव हैं आने वाले समय में यह परम्परा सिर्फ इतिहास के पन्नों में ही मिले। इस परम्परा में अत्यधिक लम्बाई युक्त विशाल फड़ का प्रयोग किया जाता हैं जिसमें लोक गाथा के पात्रों और घटनाओं का चित्रण होता हैं।

मान्यता के अनुसार ‘फड़’ परम्परा को देखना शुभ
विशालकाय चित्रण को सामने रख भोपागण काव्य के रुप में लोक कथा के पात्रों के जीवन, उनकी समस्याओं, प्रेम, क्रोध, संघर्ष, बलिदान, पराक्रम और उस जमाने में प्रचलित आंतरिक संघर्षों को उभारकर प्रस्तुत करते हैं। इस परम्परा में भोपें जल्दी-जल्दी एक स्थान से दूसरे स्थान तक चले जाते हैं। चित्रित फड़ को दर्शकों के सामने खड़ा तान दिया जाता हैं। भोपा गायक की पत्नी/सहयोगिनी लालटेन लेकर फड़ के पास नाचती-गाती हुई पहुंचती हैं और वह जिस अंश का गायन करती हैं, डंडी से उसे बजाती हैं। भोपा अपने प्रिय वाद्य ‘रावण हत्या’ को बजाता हुआ स्वयं भी इस दौरान नाचता-गाता रहता हैं। यह नृत्य गान समूह के रुप में होता हैं। दर्शक फड़ के दृश्यों से एवं सहवर्ती अभिनय से बहुत प्रभावित होते हैं। ‘फड़’ की इस परम्परा को देखना, इस शैली में विश्वास करने वाले परिवारों द्वारा अच्छा माना जाता हैं अर्थात इसे वर्ष की शुभ घटना माना जाता हैं। ‘फड़’ से सम्बन्धित दो लोकप्रिय चित्र गीत कथाएं ‘पाबूजी व देवनारायण जी की फड़े’ प्रसिद्ध हैं। पाबूजी राठौड़ महान लोक नायक हुए हैं। इनका जन्म आज से 700 वर्ष पूर्व का माना जाता हैं। पाबू जी की गाथा को राजस्थान में आज भी दर्शक बड़े चांव से सुनते और देखते हैं। हजारों की संख्या में उनके अनुयायी उन्हें कुटुम्ब के देवता के रूप में पूजते हैं। उनकी वीरता के गीत चारण और भाटों द्वारा गाए जाते हैं। मारवाड़ के भोपों ने पाबूजी की वीरता के सम्बन्ध में सैकड़ों लोकगीत रच डाले हैं और पाबूजी की शौर्य गाथा आज भी लोक समाज में गाई जाती हैं। पाबूजी की फड़ लगभग 30 फीट लम्बी तथा 5 फीट चौड़ी होती हैं। इसमें पाबूजी के जीवन चरित्र शैली को चित्रों में अनुपातिक तरीके से रंगों एवं रंग/फलक संयोजन के जरिए प्रस्तुत किया जाता हैं।

रावण हत्या/अपंग तथा जन्तर नामक वाद्यों का प्रयोग
फड़ को एक बांस में लपेट कर रखा जाता हैं और यह भोपा जाति के लोगों के साथ धरोहर के रुप में तथा जीविका साधन के रुप में भी चलता रहता है। पाबूजी की दैवी शक्ति में विश्वास करने वाले लोग प्राय: इन्हें निमंत्रण देकर बुलाते हैं। ऐसी मान्यता हैं कि ऐसा किए जाने से उनके बच्चें स्वस्थ रहेंगे तथा उनके परिवार पर किसी प्रकार का कोई कष्ट अथवा राक्षसी शक्तियों का प्रभाव नहीं रहेगा। पाबूजी के अलावा दूसरी लोकप्रिय फड़ ‘देवनारायण जी की फड़’ हैं। देवनारायण जी भी सोलंकी राजपूतों के पाबूजी की तरह वीर नायक थे। देवनारायण जी की फड़ के गीत, देवनारायण जी के भोपों द्वारा गाएं जातें हैं। ये भोपे गूजर जाति के हैं। ‘जन्तर’ नामक प्रसिद्ध लोकवाद्य पर भोपे इस फड़ की धुन बजाते हैं। राजस्थान में भोपों के कई प्रकार हैं। वे प्राय: ‘रावण हत्या’, ‘अपंग’ तथा ‘जन्तर’ नामक वाद्यों का प्रयोग करते हैं। ये भोपे भूमिहीन होतें है और अपनी जीविका के लिए उन्हें फड़ों के प्रदर्शन पर ही निर्भर रहना पड़ता हैं। प्रतिवर्ष विजय दशमी(दशहरा) के मौके पर रूणिचा के पास कोड़मदे गांव में एक बड़ा मेला लगता हैं। यह पाबूजी का मूल स्थान हैं। यहां आकर भक्तगण हजारों की संख्या में उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। इस दौरान फड़ गायक भी एकत्र हो जाते हैं और सब मिलकर सामूहिक रुप से पाबूजी के गीत गाते हैं। भोपाओं द्वारा गाए जाने वाले गीतों में ‘बिणजारी ए हंस-हंस बोल, डांडो थारौ लद ज्यासी..’ आज भी लोगों में अत्यधिक लोकप्रिय हैं। ‘फड़’ आयोजन को सांस्कृतिक आयोजन बताते हुए कवियों द्वारा.. ‘परस्यों रात गुवाड़ी में पाबू जी की फडु रोपी, सारंगी पर नाच देखकर टोर बांधली गोपी। के ओले छाने सेण कर ही देकर आडी टोपी, के अब तो खुश होजा रूपियो लेज्या प्यारी भोपी।।’.. पंक्तियों के माध्यम से व्याख्या की गई हैं।

कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष के 11वें दिन से शुरूआत
कवियों द्वारा ‘इकतारो अर गीतड़ा जोगी री जागीर। घिरता फिरता पावणा घर-घर थारो सीर॥’ की रचना कर भोपाओं का भी बखान किया गया हैं। भोपागण जागरण के रूप में नृत्य और गान के साथ फड़ को बांचते हैं। यह प्रस्तुति प्रत्येक वर्ष कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष के 11वें दिन से शुरु की जाती हैं। इसके बाद साल भर तक भोपागण अलग-अलग जगहों पर जाकर फड़ कथा बांचते हैं। वर्षभर में केवल चौमासे(बरसात का महीना) में इस प्रस्तुति को रोक दिया जाता है। ऐसी धारणा हैं कि चौमासे में देवनारायण एवं अन्य देवतागण सो जाते हैं। इस महीने में फड़ों को खोलना भी वर्जित माना गया हैं। भोपाओं द्वारा केवल भक्तगणों के घरों में, देवनारायण/सवाई भोज के मन्दिर के प्रांगण में और जन समुदाय/सभा स्थल के सामने  ही ‘फड़’ की प्रस्तुति की जा सकती हैं। मोटे तौर पर कहा जा सकता हैं कि ‘फड़’ परम्परा राजस्थान की अति लोक परम्पराओं में से एक हैं जिसे आज वास्तव में वर्तमान पीढ़ी द्वारा तव्वजों दिए जाने की दरकार तो हैं ही प्रदेश सरकार के साथ केन्द्र की सरकार द्वारा भी प्रश्रय की अत्यधिक जरूरत हैं। अति प्राचीनतम ‘फड़’ एवं इसकी तरह की अनेक परम्पराएं जो आज इसकी जैसी स्थिति में हैं, वाकई सरकारी स्तर पर इनकी बेहतरी के लिए उठाए जाने वाले कदम न केवल इन परम्पराओं को जिंदा रखने/लोकप्रिय बनाने मे अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेंगे अपितु यह भारत की विविध/गंगा जमुनी संस्कृति का भी श्रेष्ठतम सम्मान होगा।

Sunday 6 December 2015

श्री आई माता तीर्थ: जहां दीपक से काजल नहीं, केसर बनती हैं..!

घनश्याम डी रामावत

विश्व की बहुत बड़ी आबादी वाले भारत देश में भिन्न-भिन्न संस्कृति/धर्म/मजहब/जाति-सम्प्रदायों के बीच नागरिकों द्वारा अपने ईष्ट/ईश्वर/आराध्य के प्रति सच्ची अगाढ़ श्रद्धा/आस्था/भरोसा/इबादत का भाव रखते हुए कर्तव्य/कर्मशीलता के पथ पर आगे बढऩा.. शायद यहीं हमारी अपनी असली पहचान हैं। ‘राजस्थान’ भारत का वृहद/सांस्कृतिक राज्य हैं। वीरता के लिए विख्यात इस प्रदेश में ही एक कस्बा हैं ‘बिलाड़ा’। राजस्थान के अन्य शहरों/भागों का जिस तरह अपना एक आश्चर्यजनक/अतुल्य इतिहास हैं, बिलाड़ा का भी अपना ऐतिहासिक/धार्मिक महत्व हैं। बिलाड़ा कस्बा मुख्य रूप से अपने विविध धार्मिक स्थलों/चमत्कारों के लिए प्रसिद्ध हैं। विश्व का ये एक मात्र ऐसा स्थान हैं जहां पिछले करीब पांच सौ से भी अधिक वर्षों से अखंड ज्योत जल रही हैं एवं इस अखंड ज्योत से केसर प्रकट होता हैं.. अर्थात जल रहे दीपक से काजल नहीं, केसर बनती हैं। जी हां! मैं बात कर रहा हूं, जोधपुर जिले के बिलाड़ा में स्थित सीरवी समाज की प्रमुख आराध्य देवी ‘श्री आई माता’ तीर्थ/धार्मिक स्थल की।


सीरवी समाज के लोगों की आराध्य देवी(कुल देवी)
जोधपुर से 80 किलोमीटर दूर जोधपुर-जयपुर राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित बिलाड़ा कस्बा श्री आई माता जी की पवित्र नगरी के रूप में संपूर्ण भारत में प्रसिद्ध हैं। यहां श्री आई माता जी का विश्व विख्यात तीर्थ/मंदिर हैं, जहां अनगिनत श्रद्धालु पहुंचते हैं और अपना मस्तक झुकाते हुए अपनी खुशहाली की दुआ/मन्नत मांगते हैं। वैसे तो ‘आई माता जी’ सीरवी समाज की प्रमुख आराध्य देवी हैं किन्तु यह शायद आई माता जी के चमत्कारों/लोगों की उनके प्रति अनन्य श्रद्धा/आस्था/भक्ति भाव का ही परिणाम हैं कि यहां पूरे भारतवर्ष से छत्तीस कौम/धर्मों के लोग दर्शनों के लिए पहुंचते हैं। आई माता को नवदुर्गा(देवी) का अवतार माना गया हैं। ऐसी मान्यता हैं कि ‘आई माता जी’ ने एक नीम के वृक्ष के नीचे अपना पंथ चलाया था जो अब आईमाता का पूजा स्थल/थान/बडेर कहलाता हैं। इस स्थान पर उनकी कोई मूर्ति नहीं हैं। जैसा कि पूर्व में जिक्र किया जा चुका हैं ‘आई माता जी’ मूल रूप से सीरवी समाज/जाति के लोगों की आराध्य देवी(कुल देवी) हैं, जो क्षत्रियों से निकली एक कृषक जाति हैं। बिलाड़ा स्थित ‘आई माता जी’ के मंदिर में दीपक की ज्योति से केसर निर्माण.., ने इस तीर्थ/धार्मिक स्थल को विश्व पटल पर प्रमुख पहचान दे दी हैं। सीरवी समाज के लोग ‘आई माता जी’ के मंदिर को दरगाह कहते हैं।

प्रतिमाह शुक्ल पक्ष-द्वितीया को विशेष पूजा-अर्चना
धार्मिक स्थल पर माह की शुक्ल पक्ष-द्वितीया को विशेष पूजा-अर्चना होती हैं जिसमें न केवल सीरवी समाज के लोग प्रमुखता से शामिल होतेे हैं अपितु अन्य धर्मो/समाजों के लोग भी भारी तादाद में शिरकत करते हैं। स्पष्ट रूप से तो यह किसी को भी ज्ञात नहीं अर्थात उल्लेख नहीं कि ‘आई माता जी’ मूल रूप से कहां से थी और वे किस तरह उनका बिलाड़ा आगमन हुआ? किन्तु अलग-अलग धारणाओं के अनुसार वे मुल्तान और सिंध की ओर से आबू और गौड़वाड़ क्षेत्र से होती हुई बिलाड़ा आई तथा एक नीम के वृक्ष के नीचे इन्होंने अपना पंथ चलाया। एक अन्य धारणा के अनुसार उन्होंने गुजरात के अम्बापुर में अवतार लिया था और अम्बापुर में अनेक चमत्कारों के पश्चात वे देशाटन करते हुए बिलाड़ा पधारी। यहां पर उन्होंने भक्तों को 11 गुण व सदैव सन्मार्ग पर चलने के उपदेश दिए। ऐसी मान्यता हैं कि आई माता जी द्वारा बताए हुए मार्ग पर आज भी सीरवी समाज के लोग चलते हैं एवं उनके उपदेशों का पालन करते हैं। एक दिन आई माता जी ने अपने भक्तों के समक्ष स्वयं को अखंड ज्योति में विलीन कर दिया। इसी अखंड ज्योति से केसर प्रकट होता हैं जो आज भी तीर्थ स्थल/मंदिर में उनकी उपस्थिति का साक्षात प्रमाण समझा जाता हैं।

मंदिर में प्रवेश करते ही अद्भुत संतोष/सुकून की अनुभूति
आज जिस स्थान पर ‘आई माता जी’ का भव्य मंदिर हैं, ऐसी मान्यता हैं कि इसी स्थान पर माता जी अपने इष्ट देव की पूजा-अर्चना किया करती थी। ‘आई माता जी’ के ज्योर्तिलीन होने के बाद उनकी इच्छानुसार उनकी फोटो/चित्र की स्थापना की गई। विश्व का संभवत: पहला मंदिर हैं जो केवल फोटो/चित्र की पूजा होती हैं। जैसा कि श्रद्धालु बताते हैं, ‘आई माता जी’ के आशीर्वाद से ही राजस्थान सरकार में मंत्री रहे माधवसिंह इस धार्मिक स्थल के दीवान बने। संगमरमर से बने तीर्थ स्थल/मंदिर की भव्यता देखते ही बनती हैं। मुख्य दरवाजा पार कर जैसे ही मंदिर में प्रवेश करते हैं, मन में अद्भुत संतोष/संतुष्टि/सुकून का भाव उत्पन्न होता हैं.. प्रतीत होता हैं स्वर्ग में आ गए हैं। मंदिर के मुख्य द्वार पर संगमरमर पर की गई नक्काशी वाकई देखने लायक हैं। चांदी के किवाड़, सोने के छत्र, आई माता जी की गादी(जिस पर आई माता जी विराजमान होती हैं).. अद्भुत/अप्रतीम। तीर्थ स्थल पर प्रात: चार बजे मंगला आरती और सायं सात बजे संध्या आरती होती हैं।

परिसर के एक भाग में विशाल/भव्य संग्रहालय
मंदिर परिसर के प्रथम तल पर आई माता जी की झोपड़ी को संरक्षित किया हुआ हैं। यह वही झोपड़ी हैं जहां ‘आई माता जी’ निवास करती थी। तीर्थ स्थल/मंदिर के एक भाग में आई माता जी के संपूर्ण जीवन चरित्र को दर्शाने वाली भव्य प्रदर्शनी हैं। यहां आई माता जी के जीवन वृत्त एवं विभिन्न घटनाओं को अनेक चित्रों के माध्यम से उद्धत गया हैं। प्रदर्शनी के अंतिम छोर पर परम भक्त दीवान रोहित दास की धूणी हैं, जहां वे तपस्या करते थे। तीर्थ स्थल/ मंदिर परिसर के एक भाग में विशाल एवं भव्य संग्रहालय हैं। यहां सैंकडों साल पुरानी अनेक वस्तुएं, बर्तन, वाद्य यन्त्र, पुराने दस्तावेज, फर्नीचर, धातु की मूर्तियां, कलाकृतियां एवं पुरानी तकनीकी वस्तुएं संरक्षित हैं। इसी म्यूजियम में अनेक प्रकार के हथियार जैसे तलवारें, कटार, भाले व ढ़ाल आदि भी संरक्षित किये गए हैं। श्रद्धालुओं की माने तो वर्तमान दीवान माधव सिंह द्वारा इस धार्मिक स्थल के संरक्षण पर खास ध्यान दिया गया हैं। धार्मिक स्थल के मौजूदा स्वरूप को देखकर वाकई बेहतरीन संरक्षण/प्रबंधन केे लिए दिल से धन्यवाद/आभार ज्ञापित करने का दिल करता हैं।

बेहतरीन स्थापत्य कला/उत्कृष्ट नक्काशी
मंदिर परिसर के द्वार के पास ऊपर रावटी झरोखा बना हुआ हैं। यह पत्थर पर नक्काशी का सुन्दर उदाहरण हैं। इस झरोखे के अन्दर की तरफ कांच की अत्यंत सुन्दर कारीगरी की गई हैं। बेजोड़ स्थापत्य कला युक्त यह झरोखा बरबस ही सबका ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करता हैं। धार्मिक स्थल में वाड़ी महल भी अद्भुत हैं। यह महल धार्मिक स्थल के दीवान माधव सिंह का निवास स्थान हैं। इसका निर्माण लगभग तीन सौ वर्षों पहले हुआ था। इस महल की बनावट भी बेजोड़ हैं।  

सीरवी समाज का संक्षिप्त परिचय
‘सीरवी’ एक क्षत्रिय कृषक जाति हैं जो आज से लगभग 800 वर्ष पूर्व राजपूतों से अलग होकर राजस्थान के मारवाड़ व गौडवाड़ क्षेत्र में रह रही थी। कालान्तर में यह लोग मेवाड़ व मालवा सहित देश के अन्य भागों में फैल गए। वर्तमान में सीरवी समाज के लोग राजस्थान के अलावा मध्यप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, दमन दीव, पांडिचेरी सहित देश के अन्य इलाकों में बड़ी तादाद में रह रहे हैं। सीरवी समाज के इतिहास का वैसे तो बहुत कम प्रमाण उपलब्ध हैं किन्तु इतिहास के जानकारों की माने तो जालोर में खारडिय़ा राजपूतों का शासन(राजा कान्हड़देव चौहान)। उन्ही के वंश 24 गौत्रीय खारडिय़ा सीरवी कहलाए। सीरवी समाज के कुल 24 गौत्र हैं जो इस प्रकार हैं-राठौड़, सोलंकी, गहलोत, पंवार, काग, बर्फा, देवड़ा, चोयल, भायल, सैणचा, आगलेचा, पडिय़ार, हाम्बड़, सिन्दड़ा, चौहान, खण्डाला, सातपुरा, मोगरेचा, पडिय़ारिया, लचेटा, भूंभाडिय़ा, चावडिय़ा, मूलेवा और सेपटा। सीरवी समाज का जीवन मूल रूप से कृषि प्रधान ही हैं किन्तु समय के साथ अब इस समाज के बहुत बड़े वर्ग ने व्यापार/सरकारी-निजी सेवा की ओर अपना रूख अख्तियार कर लिया हैं अर्थात जीविकोपार्जन का माध्यम बना लिया हैं।

‘आई माता जी’ तीर्थ स्थल/मंदिर जोधपुर से 80 किमी दूर
बिलाडा कस्बा जोधपुर से 45 किमी दूर जोधपुर-जयपुर राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित हैं। जयपुर, अजमेर, जोधपुर से यहां आसानी से पहुंचा जा सकता हैं। ‘आई माता जी’ तीर्थ स्थल/मंदिर पहुंचने के लिए जोधपुर से बस, जीप व टैक्सियां आसानी से मिल जाती हैं। वर्ष में दो बार नवरात्रा के दौरान चैत्र माह में इस तीर्थ स्थल/मंदिर पर विशाल मेला भी लगता हैं। इस अवसर पर श्रद्धालुओं की यहां भारी तादाद रहती हैं। लोग यहां पहुंचकर ‘आई माता जी’ के समक्ष अपनी पीड़ाओं का जिक्र करते हुए अपने लिए खुशहाली/कामयाबी की दुआ करते हुए मन्नत मांगते हैं। बाहर से आने वाले श्रद्धालुओं के लिए धर्मशालाओं की यहां उत्तम व्यवस्था हैं। 

उज्जैन का ‘अखंड ज्योति’ मंदिर: हनुमान जी की सिंदूरी प्रतिमा भक्तों के आकर्षण का केन्द्र

घनश्याम डी रामावत
महाकाल की नगरी उज्जैन अर्थात मध्य प्रदेश का ऐसा शहर जो अपनी विविधताओं के लिए देश ही नहीं विश्वभर में अपनी विशेष पहचान रखता हैं। यहां के अखंड ज्योति मंदिर में राम भक्त हनुमान जी की मूर्ति से लेकर उनको पूजने का विधि-विधान.. सब कुछ ही निराला हैं। जहां एक तरफ हनुमान जी की सिंदूरी प्रतिमा भक्तों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं, वहीं पांव के नीचे दबी लंकिनी राक्षसी उनके पराक्रम की कहानी सुनाती हैं। ऐसी धारणा हैं कि श्रीराम अनुज लक्ष्मण जी को बचाने के लिए जब हनुमान जी संजीवनी लेकर आ रहे थे तो लंकिनी नाम की राक्षसी ने उनका रास्ता रोक कर उन्हें जाने से रोका, जिसके बाद हनुमान जी लंकिनी को अपने पैरों के नीचे दबाकर आगे बढ़ गए थे। इस मंदिर में राम भक्त हनुमान/महावीर/बजरंग बली के उसी रूप के दर्शन होते हैं, जहां आज भी हनुमान जी के पैरों तले लंकिनी विराजमान हैं।

अखंड दीये में चमत्कारी शक्तियां समाहित
अखंड ज्योति मंदिर में खास साज श्रृंगार के साथ बाल ब्रह्मचारी हनुमान जी का ये रूप वाकई मनमोहक हैं। दक्षिणामुखी हनुमान जी की इस प्रतिमा में उनके एक हाथ में संजीवनी तो कंधे पर गदा सुशोभित हैं। ऐसी मान्यता हैं कि हाथों में बाजू-बंद, पांव में पायजेब और कलाई में कड़े पहने हुए बजरंग बली के दिव्य रूप के दर्शन मात्र से भक्तों के सभी कष्ट दूर हो जाते हैं। मंदिर के नाम के अनुरूप ही यहां जलता अखंड दिया भक्तों को बजरंग बली के चमत्कार की कहानी सुनाता हैं। वैसे तो देखने में ये मंदिर हनुमान जी के अन्य मंदिरों की तरह ही हैं लेकिन मंदिर में सालों से जल रहे अखंड दीये में बजरंग बली की चमत्कारी शक्तियां समाहित हैं। कहते हैं साढ़े साती से परेशान भक्त अगर इस मंदिर में आकर इस अखंड दीये के दर्शन कर लें और मंदिर में आटे का एक दीया जला दें तो शनि के प्रकोप से मुक्ति मिलते देर नहीं लगती।

यहां लगाया जाता हैं अखरोट के प्रसाद का भोग
भक्त हनुमान जी को यहां कई तरह के प्रसाद चढ़ाते हैं। जन-जन की श्रद्धा/आस्था के केंद्र इस मंदिर में भक्त अपनी मनोकामना प्रसाद के माध्यम से लेकर आते हैं। अगर किसी को झगड़े, मकदमों से छुटकारा चाहिए तो एक नारियल के अर्पण मात्र से उसके तमाम कष्टों का निवारण हो जाता हैं। ठीक उसी तरह जिन भक्तों को संतान की कामना हैं वो अपनी शक्ति और भक्ति के अनुसार एक, दो या पांच किलो तेल अखंड ज्योति में चढ़ाने का संकल्प लेते हैं। चना-चिरौंजी से प्रसन्न होने वाले हनुमान जी को यहां विशेष तौर से अखरोट के प्रसाद का भोग लगाया जाता हैं। ऐसी धारणा हैं कि जिन भक्तों की मन्नत पूरी होती हैं वो यहां आकर आटे में गुड़ मिलाकर रोट का प्रसाद तैयार करते हैं और बजरंग बली को भोग लगाते हैं। मंदिर में प्रतिदिन होने वाली आरती का गवाह बनने के लिए बड़ी संख्या में भक्तों का सैलाब उमड़ता हैं।

मंगलवार और शनिवार को पूजा से विशेष लाभ
मान्यता हैं कि इस मंदिर में हनुमान जी की प्रतिमा संग उनकी दायीं ओर रखी हुई चंदन की गदा के दर्शन करने से बल, विद्या और बुद्धि का वरदान प्राप्त होता हैं। विश्व पटल पर अपनी गंगा-जमुनी संस्कृति/अनेकों विविधताओं को समाहित करते हुए विशेष मुकाम रखने वाले भारत के प्रमुख राज्य मध्यप्रदेश के इस मंदिर ने निश्चित रूप से अपनी धार्मिक/पौराणिक मान्यताओं के चलते उज्जैन ही नहीं देश को भी खास पहचान दी हैं। मंदिर में देशभर से उमड़ते भक्तों के सैलाब को देखकर यह कहा जा सकता हैं कि इस मंदिर के प्रति लोगों की जबरदस्त आस्था हैं। यहां अनंत आस्था से श्रद्धालु पवन पुत्र से विनती करते हैं और जैसा कि उनकी मान्यता हैं, हनुमान जी उनकी पुकार को सुनते हुए कल्याण करते हैं। धारणा के अनुसार मंगलवार और शनिवार को अखंड ज्योति मंदिर में पूजा करने से विशेष लाभ प्राप्त होता हैं।

Saturday 5 December 2015

मेहरानगढ़ दुर्ग में विराजित जोधपुर की रक्षक ‘मां चामुण्डा’

घनश्याम डी रामावत
सूर्यनगरी के मेहरानगढ़ दुर्ग में स्थित जन-जन की आस्था व श्रद्धा की प्रतीक मां चामुण्डा की मूर्ति जोधपुर के संस्थापक राव जोधा ने 556 वर्ष पूर्व विक्रम संवत् 1517 में मण्डोर से लाकर स्थापित की थी। चामुण्डा मूल रूप से परिहारों की कुल देवी हैं। राव जोधा ने जब मण्डोर छोड़ा, तब चामुण्डा को अपनी ईष्टदेवी के रूप में स्वीकार किया था। जोधपुर के वाशिंदों में मां चामुण्डा के प्रति जबरदस्त आस्था हैं। मां को लेकर उनकी धारणा यह भी कि सन् 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान गिरने वालों बमों को मां चामुण्डा ने अपने आंचल का कवच पहना दिया था। लोक मान्यता के अनुसार मेहरानगढ़ दुर्ग व जोधपुर के कुछ हिस्सों पर कई बम गिराए गए किन्तु कोई जनहानि अथवा नुकसान नहीं हुआ। जोधपुर के वाशिंदें आज भी इसे मां चामुण्डा की कृपा ही मानते हैं।

अतीत का भी एक उदाहरण भी बड़ा दिलचस्प हैं जब 9 अगस्त 1857 को दुर्ग में गोपाल पोल के निकट बारूद के ढ़ेर पर बिजली गिरने से चामुण्डा मन्दिर कण-कण होकर उड़ गया, किन्तु मां चामुण्डा की मूर्ति अडिग रही/सुरक्षित रही। तबाही इतनी अधिक थी कि इसमें करीब तीन सौ लोग मारे गए थे। मुख्य द्वार का विधिवत निर्माण महाराजा अजीतसिंह ने करवाया था। मन्दिर में मां लक्ष्मी, महा-सरस्वती व बैछराज जी की मूर्तिया स्थापित हैं। मां चामुण्डा के मन्दिर में प्रतिवर्ष भादवा माह की शुक्ल पक्ष की तेरस को मन्दिर जीर्णाेद्वार दिवस मनाया जाता हैं।

मण्डोर से लाई गई थी मां की प्रतिमा
राव जोधा ने मां चामण्डा की मूर्ति को मण्डोर से लाकर मेहरानगढ़ दुर्ग में स्थापित किया था। जोधपुर की रक्षक आद्य शक्ति मां चामुण्डा से ‘गढ़ जोधाणे ऊपरे बैठी पंख पसार, अम्बा थ्हारों आसरो तूं हीज हैं रखवार..’ एवं ‘चावण्ड थ्हारी गोद में खेल रयो जोधाण,निगे राखजै, थ्हारा टाबर जाण..’ पंक्तियों के माध्यम से स्तुति की गई हैं कि जोधपुर के किले पर पंख फैलाने वाली माता तू ही हमारी रक्षक हैं। मारवाड़ के राठौड़ वंशज श्येन(चील) पक्षी को मां दुर्गा/चामुण्डा का दूसरा स्वरूप मानते हैं। यहीं कारण हैं कि मारवाड़ के राजकीय झण्डे पर भी मां चामुण्डा/दुर्गा स्वरूप चील का चिन्ह ही अंकित रहा हैं। ऐसी मान्यता हैं कि मेहरानगढ़ दुर्ग के निर्माता जोधपुर के संस्थापक राव जोधा के राज्य छिन जाने के 15 वर्ष बाद मां चामुण्डा/दुर्गा ने स्वप्र में आकर उन्हें चील के रूप में दर्शन दिए और कामयाबी का आशीर्वाद दिया। राव जोधा ने स्वप्र में मिले दिशा-निर्देशों का अनुसरण किया और देखते ही देखते उनका राज्य पुन: कायम हो गया। करीब 556 वर्ष पहले मेहरानगढ़ दुर्ग निर्माण के समय से ही मां चामुण्डा/दुर्गा रूप में चीलों को चुज्गा देने की परम्परा शुरू की, जो सदियों बाद भी उनके वंशज अनवरत रूप से जारी रखे हुए हैं। कहा जाता हैं कि राव जोधा को मां चामुण्डा ने आशीर्वाद में कहा था कि जब तक मेहरानगढ़ दुर्ग पर चीलें मंडराती रहेंगी, तब तक दुर्ग पर किसी भी प्रकार की कोई विपत्ति नहीं आएगी।

बदल चुकी हैं अनेक परम्पराएं
करीब सात वर्ष पूर्व वर्ष 2008 में मेहरानगढ़ दुर्ग में हुई दुखांतिका के बाद मन्दिर में अनेक परम्पराएं बदल जा चुकी हैं। दुखांतिका में करीब 250 लोग काल कवलित हुए थे। खुद के आशियाने की कामना रखने वाले श्रद्धालु चामुण्डा के दर्शन के बाद बसंत सागर में पड़े पत्थरों से छोटा घर बनाते थे, लेकिन अब ऐसी कोई परम्परा नजर नहीं आती हैं। सालमकोट मैदान में लगने वाला नवरात्रा मेला व मन्दिर की परिक्रमा भी बंद हो चुकी हैं। यहां नवरात्रा की प्रतिपदा को महिषासुर के प्रतीक भैंसे की बलि देने की परम्परा थी, जो रियासतों के भारत गणराज्य में विलय और पशु क्रूरता अधिनियम लागू होने के बाद बंद कर दी गई।

ओम बन्ना का थान: मोटर साईकिल के समक्ष पीड़ाओं का इजहार

घनश्याम डी रामावत
फूल मालाओं से लदी एक मोटरसाईकिल और उसके पास रखी एक तस्वीर के सामने जल रही सुगंधित धूप अगरबत्तियों के बीच नारियल की ज्योत प्रज्जवलित कर अपना मस्तक झुकाकर अपनी पीड़ाओं का इजहार करते/मन्नत मांगते लोगों का भारी जमावड़ा.. सचमुच! श्रद्धा व आस्था के अद्भुत मिश्रण के साथ अत्यधिक रोमांचकारी और कोतुहलभरा दृश्य। एक साथ अनगिनत जिज्ञासाओं का जन्म और अनेक सवालों का खड़ा हो जाना लाजमी। जी हां! मैं बात कर रहा हूं, जोधपुर-अहमदाबाद राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित ‘ओम बन्ना का थान’ धार्मिक स्थल की। एक ऐसा स्थान जो पौराणिक दृष्टि अथवा वेद-पुराणों के अनुसार निर्धारित किसी देवता अथवा देवी का नहीं हैं, अपितु एक ऐसी शख्सियत का हैं जिसकी करीब दो दशक पूर्व इसी स्थान पर दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी। जोधपुर से पाली जाते वक्त पाली से लगभग 20 किमी पहले रोहट पुलिस थाने का ‘दुर्घटना संभावित’ क्षेत्र का बोर्ड लगा नजर आता हैं और उससे कुछ दूर पहुंचते ही सडक़ के किनारे वीरान स्थान पर लगभग 30 से 40 प्रसाद/पूजा अर्चना के सामान से सजी दुकानें दिखाई देती हैं और यहीं पर नजर आता हैं भीड़ से घिरा एक चबूतरा जिस पर एक बड़ी सी फोटो लगी हुई और हर वक्त जल रही ज्योत.. चबूतरे के पास ही नजर आती हैं एक फूल मालाओं से लदी बुलेट मोटर साईकिल।
अपने जिज्ञासा को शांत करने हेतु शीघ्र ही मैंने वहां मौजूद लोगों से संपर्क साधना शुरू किया तो ज्ञात हुआ कि करीब 27 वर्ष पूर्व पाली जिले के निकटवर्ती चोटिला गांव(रोहट तहसील) के ठाकुर जोग सिंह राठौड़ के पुत्र ओमसिंह राठौड़ का इसी स्थान पर अपनी इसी बुलेट मोटर साईकिल पर जाते हुए वर्ष 1988 में एक दुर्घटना में निधन हो गया था। स्थानीय लोगों के अनुसार इस स्थान पर हर रोज कोई न कोई वाहन दुर्घटना का शिकार हो जाया करता था। हालांकि जिस स्थान पर/पेड़ के पास ओमसिंह राठौड़ की दुर्घटना घटी वहीं पर अक्सर वाहन क्यों दुर्घटना का शिकार हो जाते थे, यह रहस्य आज भी यथावत रूप से बना हुआ हैं। इन सडक़ दुर्घटनाओं में कई लोग अपनी जान गंवा चुके थे। ओमसिंह राठौड़ की दुर्घटना में मृत्यु के बाद पुलिस अपनी कार्यवाही के तहत उनकी मोटर साईकिल(बुलेट) को पाली पुलिस थाने लेकर चली गई किन्तु अप्रत्याशित तरीके से अगले दिन सुबह मोटर साईकिल को पुलिस थाने में नहीं पाकर पुलिस थाने का पूरा स्टॉफ हैरान रह गया। आखिर तलाश करने पर मोटर साईकिल दुर्घटना स्थल पर ही पाई गई। पुलिस कर्मी एक बार फिर मोटर साईकिल को थाने लेकर गए लेकिन एक बार फिर रात वाली घटना का ही दोहरान हुआ। पुलिस थाने से रात्रि के समय मोटर साईकिल का गायब हो जाना और उसका दुर्घटना स्थल पर अपने आप पहुंच जाने के अनवरत घटनाक्रम के बाद आखिर पुलिस स्टॉफ व दिवंगत ओमसिंह राठौड़ के पिता ने इसे ओमसिंह की मृत आत्मा की इच्छा समझ इस बुलेट मोटर साईकिल को दुर्घटना स्थल/पेड़ के पास छाया की व्यवस्था कर रख दिया।

धार्मिक स्थल पर पूजा-अर्चना करने वालों का तांता
जैसा कि धार्मिक स्थल पर मौजूद/स्थानीय लोग बताते हैं.. मोटर साईकिल के दुर्घटना वाले स्थल पर स्थापित कर दिए जाने के बाद ओमसिंह राठौड़ को रात्रि में अक्सर वाहन चालको को दुर्घटना से बचाने के उपाय करते व चालकों को रात्रि में दुर्घटना से सावधान करते देखा गया। उनके अनुसार ओमसिंह दुर्घटना संभावित जगह तक पहुंचने वाले वाहन को किसी ने किसी तरीके से रोक देते अथवा संबंधित वाहन की गति को धीमे कर देते ताकि फिर कोई उनकी तरह असामयिक मौत का शिकार न बने। धीरे-धीरे इस स्थान ने एक धार्मिक स्थल का रूप ले लिया और लोग ओमसिंह राठौड़ की ‘ओम बन्ना’ के रूप में पूजा करने लगे। जैसी की मान्यता हैं, इसके बाद आज तक इस स्थान पर दुबारा कोई दुर्घटना नहीं घटी। ओमसिंह राठौड़ के देवलोक हो जाने के बाद भी उनकी आत्मा द्वारा इस तरह का नेक काम करते देख/चमत्कारिक किस्सों को सुनकर इस राजमार्ग से गुजरने वाले वाहन चालकों व धार्मिक स्थल के आसपास के लोगों में उनके प्रति आस्था व श्रद्धा बढ़ती गई। इसी के परिणामस्वरूप इस धार्मिक स्थल हर वक्त पूजा-अर्चना करने वालों का तांता लगा रहता हैं।

पीड़ा/कष्ट के निस्तारण की उम्मीद के साथ सजदा
अब तो आलम यह हैं कि लोग अपने सांसारिक जीवन से ताल्लुक रखने वाली हर पीड़ा/कष्ट के निस्तारण की उम्मीद के साथ अपनी मनचाही मुराद के पूरा हो जाने की कामना लिए यहां पहंचने लगे हैं। ‘ओम बन्ना’ की तस्वीर/उनकी मोटर साईकिल पर फूल माला अर्पित करने के साथ ही धूप/अगरबत्ती के साथ नारियल की ज्योत कर नमन करते हुए मन में मुरादों के पूरा हो जाने की उम्मीद के साथ श्रद्धालु अपने घर लौट पड़ते हैं। इस राजमार्ग से गुजरने वाला हर वाहन यहां रुक कर व धार्मिक स्थल को नमन कर ही आगे बढ़ता हैं। स्थानीय लोग ही नहीं पुलिस थाने से इस तरह मोटर साईकिल द्वारा अपना स्थान छोडक़र दुर्घटना स्थल पर पहुंच जाने की घटना के बाद पुलिसकर्मी भी आश्चर्यचकित हैं। इस घटना के 27 वर्ष बीत जाने के बाद भी पुलिसकर्मियों के जेहन में ओमसिंह राठौड़ का चमत्कार/उनके प्रति आस्था का भाव बरकरार हैं, संभवत: यहीं कारण हैं कि आज भी इस थाने में नई नियुक्ति पर आने वाला हर पुलिस कर्मी ड्यूटी ज्वाइन करने से पहले यहां दर्शन करने जरूर पहुंचता हैं।

मार्ग शीर्ष कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मेले का आयोजन
विविधताओं से भरे हमारे देश में देवताओं, इंसानों, पशुओं, पक्षियों व पेड़ों की पूजा-अर्चना तो आम बात हैं किंतु एक मोटर साईकिल पर पुष्प हार चढ़ाकर सजदा करते हुए उससे मन्नत मांगना/मन्नत के पूरी होने की उम्मीद पालना वाकई अंतर्मन को झकझौर कर रख देता हैं। किसी ने सच कहा हैं आस्था व श्रद्धा को किसी रूप में मापा/तौला अथवा परखा नहीं जा सकता.. इसका तो सीधा संबंध दिल/आत्मा से हैं, जब किसी के प्रति भरोसा जाग उठता हैं तो फिर इंसान बस उसी का होकर रह जाता हैं, ‘ओम बन्ना का थान’ धार्मिक स्थल का भी यहीं आलम हैं। संभवत: यह दिवंगत ओमसिंह राठौड़ के चमत्कारों/नेक कार्यो का ही परिणाम हैं कि इस स्थल पर प्रतिदिन सैंकड़ों की तादाद में लोग दर्शनार्थ पहुंचते हैं। धार्मिक स्थल पर प्रतिवर्ष मार्ग शीर्ष कृष्ण पक्ष की अष्टमी को दिवंगत ओमसिंह राठौड़ की पुण्य तिथि पर मेले का आयोजन होता हैं। इसको लेकर व्यवस्थाओं संबंधी संपूर्ण जिम्मेदारियों का निर्वहन दिवंगत ओमसिंह राठौड़ के परिवारजनों(चोटिला गांव) द्वारा ही किया जाता हैं। इस दिन हजारों की भीड़ के चलते माहौल पूरी तरह मेले का सा बन जाता हैं।

पुण्य तिथि से एक दिन पूर्व बकायदा धार्मिक स्थल पर भजन संध्या भी आयोजित होती हैं जिसमें जाने माने कलाकार अपनी प्रस्तुतियां देते हैं। पुण्य तिथि वाले दिन धार्मिक स्थल पर आयोजित मेले में शरीक होने क्षेत्र के निर्वाचित जन-प्रतिनिधि/गणमान्य नागरिक/स्थानीय वाशिंदों के अलावा राजस्थान के विभिन्न जिलों से व गुजरात-हरियाणा से भी बड़ी तादाद में श्रद्धालु पहुंचते हैं।  

(ब्लॉगर का उद्देश्य स्थान विशेष के बारे में अवगत कराना मात्र हैं। इसमें उद्धत किया गया सब कुछ सुनी-सुनाई जानकारी के आधार पर हैं(अर्थात अंधविश्वास को बढ़ावा देना कतई मकसद नहीं हैं)। संदर्भ में विश्वास करना/अंधविश्वास मानना अध्ययन करने वालो/पाठकों के स्वविवेक पर हैं।

Friday 4 December 2015

हजरत गरीब शाह दातार: हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रतीक ‘ईश्वर के नेक प्रतिनिधि’

घनश्याम डी रामावत
नेक दिल इंसानों को नवाजने का ईश्वर का सचमुच अपना एक अलग ही अंदाज हैं। निश्चित रूप से खास नजर और खास मापदंड भी.. अपने नेक बंदों का चुनाव और उन्हें उचित समय पर अपनी असीम कृपा से नवाजना तो और भी अद्भुत। कई मर्तबा वह अपने इन नेक नियत बंदों पर ऐसी मेहरबानी भी कर देते हैं अर्थात उन्हें ऐसी शक्तियां प्रदान कर देते हैं कि उनमें किसी के भी जीवन में परिवर्तन/खुशहाली ला पाने का माद्दा समाहित हो जाता हैं। ईश्वर के ऐसे ही बंदे/करिश्माई व्यक्तित्व थे हजरत गरीब शाह दातार।

पश्चिमी राजस्थान के जालोर जिला अंतर्गत आहोर तहसील की भाद्राजून पं.स. के चारों और फैले ऊंचे पहाड़ी
 क्षेत्र के बीच स्थित हैं किशनगढ़ गांव। कुल एक हजार घरों वाले इस गांव में मात्र दस मकान मुसलमानों के हैं, अन्य कुम्हार, चौधरी तथा राजपुरोहित जाति के लोग यहां निवास करते हैं। सैंकड़ों वर्ष पहले हजरत गरीब शाह दातार के रूप में काले घने लम्बे बाल, दुबला-पतला बदन, मेले फटे कपड़े और बढ़ी खिचड़ी दाढ़ी वाली एक करिश्माई शख्सियत ने गांव की सरजमी पर अपने पाक कदम रखे। यह वो वक्त था जब गांव के लोग प्राकृतिक आपदाओं, अकाल की विभीषिका तथा खेती के अभाव में विपदापूर्ण संघर्ष के दिन व्यतीत कर रहे थे। लोग कभी नीले आसमान को देखते तो कभी अपने गांव की बंजर जमीन को। सचमुच गांव के लोगों की हालत बिल्कुल परकटे परिन्दें के माफिक थी जिनके लिए शायद अपने दर्द को बयां करना सम्भव ही नहीं। और अपना दुखड़ा रोए भी तो किसके सामने? हजरत गरीब शाह ने गांव के लोगों के चेहरो को देखा तो वे अत्यधिक भावुक हो उठे। गरीब शाह अपना ठिकाना किशनगढ़ को बनाना सुनिश्चित कर चुके थे।

रहमो-करम का नूर सभी पर बराबरी से बरसा
हजरत गरीब शाह दातार ने एक-एक करके लोगों की समस्याओं का अपने तरीके से निदान करना शुरू किया तो जल्दी ही सभी को उनके करिश्माई/चमत्कारी व्यक्तित्व का भान हो गया। गांव के लोग अब हजरत गरीब शाह के अनवरत चमत्कारों के किस्से एक-दूसरे को सुनाने लगे और बल्कि ईश्वर के प्रतिनिधि के तौर पर उनकी पूजा भी करने लगे। सही मायने में हजरत गरीब शाह दातार के पास जो भी पहुंचा वह बस उन्हीं का होकर रह गया। उनके पास और उनकी चौखट पर दीन-ओ-धर्म, अमीर-गरीब अथवा बड़े-छोटे के रूप में किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं था। सभी पर उनके रहमो-करम का नूर बराबरी से बरसा। तब से लेकर आज तक एक दशक से ज्यादा का समय हो गया किंतु राजा हो या रंग, हिंदू हो या मुसलमान.. जिसने भी उनकी चौखट चूमी वह खाली नहीं जाता हैं। गरीब शाह दातार के नाम से आम लोगों के दिलों में जगह बनाने वाले इस करिश्माई फकीर ने केवल मात्र किशनगढ़ गांव में ही नही अपितु जालोर जिले और कमोबेश जोधपुर संभाग में सर्वधर्म सद्भाव की एक ऐसी अनूठी मिसाल पेश की जिसका कोई सानी नहीं हैं। पूरी उम्र हिंदू-मुस्लिम एकता का संदेश देने वाले इस लाजवाब चमत्कारिक फकीर की स्मृति को यादगार बनाने के उद्देश्य से किशनगढ़ व आसपास के क्षेत्र के श्रद्धालुजन बाबा(हजरत गरीब शाह दातार) की चौखट पर प्रतिवर्ष जलसा(मेला) का आयोजन करते हैं।

सालाना उर्स में पहुंचते हैं छत्तीस कौम के लोग
हजरत गरीब शाह दातार की दरगाह पर सालाना रूप से मनाये जाने वाले मेले को लेकर जायरीनों में जोरदार उत्साह देखने को मिलता हैं। उर्स में शामिल होने के लिए राजस्थान के विभिन्न जिलों से बड़ी तादाद में जायरीन किशनगढ़ पहुंचते हैं और दरगाह में अपनी हाजिरी देते हैं। यहां पहुंचने वाले जायरीनों में मुसलमानों के अतिरिक्त अन्य मजहबों के लोग भी होते हैं। दीपावली के ठीक पखवाड़े बाद किशनगढ़ गांव में हर वर्ष गरीब शाह दातार क उर्स भरा जाता हैं। उर्स के दिनों में यहां के महफिल खाने में जाने माने कव्वाल अपनी कव्वालियां पेश करते हैं। इस मौके चादर चढ़ाने वालो की संख्या भी अधिक रहती हैं। अमन-चैन व खुशहाली की कामना से हजारों लोगों द्वारा सजदे में झुकाए जाने वालो मस्तकों को देखकर गरीब शाह की चौखट की तस्वीर उस वक्त देखते ही बनती हैं। सचमुच! दरगाह व इसके आसपास का पूरा इलाका धूप व अगरबत्ती की सुगंध से महक उठता हैं। यह इस पवित्र धाम/दरगाह/चौखट का ही कमाल हैं कि जो भी यहां आता हैं, अपने दु:खों/तकलीफों को भूल जाता हैं। यहां आने वाला हर इंसान जाते वक्त अपने साथ झोली में खुशियां भरकर ले जाता हैं।

बचपन से ही रूहानी दुनियां से जुड़ाव
ऐसी मान्यता हैं कि हजरत गरीब शाह दातार का मन बचपन से ही सांसारिक चीजों में नहीं लगता था और वह परिवार से हटकर अपनी एक अलग ही रूहानी दुनियां में खोये रहते थे। वह केवल मात्र जगत की सेवा को ही अपने जीवन का एक मात्र धर्म मानते थे। सैंकड़ों वर्ष पहले जब वह किशनगढ़ गांव पहुंचे तो उनका मन बस यहीं पर रम गया और वे यहीं के होकर रह गए। पूरे जीवन वे अपने भक्तों का दु:ख-दर्द दूर करने तथा उनकी झोली खुंशियों से भरने की ही दुआ मांगते रहे। उनके पास छत्तीस कौम के लोग अपनी परेशानियां लेकर पहुंचते थे। जो भी आता, वापस अपने साथ सुकून व खुंशियां लेकर लौटता। यहीं कारण हैं उनके उर्स में केवल मात्र मुसलमान श्रद्धालुओं की ही भीड़ नहीं रहती अन्य जाति-वर्गों की भी बड़ी संख्या रहती हैं। 

धर्म के नाम पर जिस तरह मौजूदा दौर में कट्टरपंथी ताकतें इंसानियत को बांटने में जुटी हैं। मंदिर, मस्जिद, चर्च व गुरूद्वारे ईश्वर की इबादत वाले पवित्र स्थान की जगह सियासी दांव-पेंच के अखाड़ों में तब्दील हो रहे हैं, यह स्थान वाकई सुकून का अहसास कराता हैं जहां सभी धर्म व मजहबों के लोग एक साथ सर्वे: भवंतु सुखिन:, सर्वे: सन्तु निरामया.. की भावना के साथ अमन, चैन, प्रेम, सद्भाव व खुशहाली के लिए सजदा व दुआ करते हैं। विभिन्न धर्मों के बीच की दूरियों को पाटने के साथ ही तमाम धार्मिक पाबंदियों का दरकिनार करते हुए इंसानियत का भाव जागृत करने वाले इस पावन/पवित्र धाम/स्थल/दरगाह को दिल से नमन।

Thursday 3 December 2015

श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ: आस्था के साथ प्राचीन स्थापत्य एवं शिल्पकला कृतियों से परिपूर्ण विश्वविख्यात जैन तीर्थ

घनश्याम डी रामावत
श्वेतांबर जैन परम्परा का यह पावन तीर्थ पश्चिमी राजस्थान के बाड़मेर जिले में बालोतरा औद्योगिक कस्बे से महज 12 किलोमीटर दूर पर्वतीय श्रृंखलाओं के मध्य स्थित हैं। प्राकृतिक नयनाभिराम दृश्यों, प्राचीन स्थापत्य एवं शिल्पकला कृतियों के बेजोड़ नमूनों को समेटे आधुनिक साज सज्जा से परिपूर्ण विश्वविख्यात इस जैन तीर्थ ‘श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ’ का देश ही नहीं विश्व के धार्मिक स्थलों में अपना प्रमुख स्थान हैं। नाकोडा तीर्थ स्थल के विश्वविख्यात होने मे श्रद्धालुओं की अपार श्रद्धा/आस्था के साथ प्रमुख दो कारण हैं। पहला-श्वेताम्बर जैन समाज के 23वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ की दसवीं शताब्दी की प्राचीनतम मूर्ति का मिलना और 500-600 वर्षों पूर्व इस चमत्कारी मूर्ति का जिनालय में स्थापित होना(मुख्य मंदिर की भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा चूंकि सिन्दरी के पास नाकोड़ा ग्राम से आई थी, यह तीर्थ नाकोड़ा पार्श्वनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ) तथा दूसरा अधियक देव श्री भैरव देव की स्थापना श्री पार्श्वनाथ मंदिर के परिसर में होना(इनके देवी चमत्कारों के कारण हजारों लोग प्रतिवर्ष श्री नाकोड़ा भैरव के दर्शन करने यहां पहुंचते है और मनवांछित फल पाते हैं)। यह क्षेत्र लगभग दो हजार वर्ष से जैन आध्यात्मिक गतिविधियों का केंद्र रहा हैं।
 त्याग, बलिदान, देशभक्ति एवं शूरवीरता के लिए देश ही नहीं विश्वभर में अपना विशेष पहचान रखने वाला राजस्थान अपने यहां की बेहतरीन गंगा-जमुनी संस्कृति, कला व विभिन्न धर्म-संप्रदायों से ताल्लुक रखने वाले अनगिनत धार्मिक स्थलों के लिए भी जाना जाता हैं।  राजस्थान प्रदेश के साहित्य, शिल्प एवं स्थापत्य क्षेत्र में जैन धर्मावलंबियों का विशेष योगदान रहा हैं। सूक्ष्म शिल्पकला-कृतियों व गगनचुंबी इमारतों के रूप में राजस्थान के प्रत्येक हिस्से में अनेक जैन तीर्थ स्थल मौजूद हैं। श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ जैन तीर्थ भी एक ऐसा ही तीर्थ हैं जो न केवल जैन परम्परा के लोगों के लिए आस्था का प्रमुख केन्द्र हैं अपितु एक अनुकरणीय गौरव के रूप में वर्षों से राजस्थान का मस्तक शान से ऊंचा किए हुए हैं। प्राचीन वैभव, सुंदर शिल्पकला, दानदाताओं की उदारता, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, त्याग, मुनिवरों का प्रेरणा केंद्र, तपस्वियों की साधना भूमि, पुरातत्व विशेषज्ञों के लिए जिज्ञासा स्थल, जैनाचार्यों द्वारा दिए गए उपदेशों के पश्चात निर्मित अनेक जैन बिम्ब, सेकड़ों प्राचीन एवं नवनिर्मित जिन प्रतिमाओं का संग्रहालय, श्री पार्श्वनाथ प्रभु के जन्म कल्याणक मेले की पुण्य भूमि के तौर पर इस तीर्थ की दुनियाभर में अपनी विशेष पहचान हैं।

धार्मिक स्थल का प्राचीन इतिहास से गहरा संबंध
इस धार्मिक स्थल का प्राचीन इतिहास से गहरा संबंध है। श्री जैन श्वेताम्बर नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ का प्राचीनतम उल्लेख महाभारत काल अर्थात भगवान श्री नेमिनाथ के समय/काल से प्रतीत होता हैं किन्तु आधारभूत ऐतिहासिक प्रमाण के अभाव में इसकी प्राचीनता 2000-2300 वर्ष पूर्व की मानी जा रही हैं। कहा जा सकता हैं कि श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ राजस्थान के उन प्राचीनतम जैन तीर्थो में से एक हैं जो 2000 वर्षों से भी अधिक समय से आबाद हैं एवं इस क्षेत्र की खेड़पटन एवं मेवानगर की ऐतिहासिक समृद्ध तथा सांस्कृतिक धरोहर का श्रेष्ठतम प्रतीक हैं। मेवानगर के पूर्व में वीरमपुर नगर के नाम से प्रसिद्ध था। वीरमसेन ने वीरमपुर तथा नाकोरसेन ने नाकोड़ा नगर बसाया था। आज भी बालोतरा-सिणधरी मुख्य मार्ग पर नाकोड़ा ग्राम लूनी नदी के तट पर बसा हुआ हैं, जिसके पास से ही इस तीर्थ के मूल नायक भगवान की प्रतिमा की पुन: प्रतिष्ठा तीर्थ के संस्थापक आचार्य श्री कीर्तिरत्न सुरीजी म.सा. द्वारा किए जाने का उल्लेख मिलता हैं। यद्यपि संदर्भ में प्रत्यक्ष प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं, फिर भी कुछ प्राचीन गीतों, भजनों एवं इस बारे में जानकारी रखने वालो के अनुसार वीरमदेव एवं नाकोरसेन ने ही वीरमपुर, वीरपुर एवं नाकार नगरों की स्थापना की थी, ऐसा ज्ञात होता हैं।

अधिष्ठायक देव प्रभू भैरवनाथ की आकर्षक प्रतिमा
श्री नाकोड़ा तीर्थ में प्रमुख आराध्य देव भगवान पार्श्वनाथ मंदिर का विशाल शिखर हैं तथा आजू-बाजू दो छोटे शिखर हैं। मंदिर में मूल गंभारा, गूढ़ मंडप, सभा मंडप, नवचौकी, श्रृंगार चौकी और झरोखे बने हुए हैं जो देखने में साधारण से लगते हैं.. वास्तव में संगमरमर पाषाणों की बारीक शिल्प-कलाकृतियों से इन्हें सुसज्जित किया हुआ हैं। मंदिर में तीर्थोंद्धारक खतरगच्छ आचार्य कीर्तिरत्न सुरी म.सा. की पित्त पाषाण प्रतिमा विराजमान हैं, जिस पर संवत् 1356 का शिलालेख विद्यमान हैं। इनके ठीक सामने इस पावन तीर्थ के अधिष्ठायक देव प्रभू भैरवनाथ की मनमोहक आकर्षक प्रतिमा हैं। इन्हीं के चमत्कारों से इस तीर्थ की ख्याति वर्षों से बढ़ती चली आ रही हैं जो आज भी यथावत रूप से जारी हैं। मंदिर में निर्माण संबंधित शिलालेख सं. 1638, 1667, 1682, 1864 एवं 1865 के भी मौजूद हैं। मुख्य मंदिर के पीछे ऊंचाई पर प्रथम तीर्थंकर आदेश्वर भगवान का शिल्पकला कृतियों का खजाना लिए हुए मंदिर विद्यमान हैं। इस मंदिर का निर्माण वीरमपुर के सेठ मालाशाह की बहिन लाछीबाई ने करवाकर इसकी प्रतिष्ठा सं. 1512 में करवाई। उस समय इस मंदिर में विमलनाथ स्वामी की प्रतिमा थी, लेकिन अब मूलनायक के रूप में श्वेत पाषाण की ऋ षभदेव भगवान की प्रतिमा भी विराजमान हैं।

खंभों पर आबू व देलवाड़ा के मंदिरों की कारीगरी
श्री नाकोड़ा तीर्थ/श्री पार्श्वनाथ मंदिर के विशाल शिखर व खंभों पर विभिन्न आकृतियों की सुंदर प्रतिमाएं शिल्पकला के बेजोड़ नमूने को प्रदर्शित करती हैं। यहीं कारण हैं कि यहां आने वाले श्रद्धालु घंटों तक निहारने के बाद भी थकान महसूस नहीं करते। इसके समीप ही भारत पाक विभाजन के समय सिंधु प्रदेश के हानानगर से आई प्रतिमाओं का भव्य चौमुखा मंदिर कांच की कारीगरी का बेजोड़ नमूना हैं। इस पावन तीर्थ का तीसरा मुख्य मंदिर 16वें तीर्थंकर भगवान शांतिनाथजी का हैं, जिसका निर्माण सुखमालीसी गांव के सेठ मालाशाह संखलेचा ने अपनी माता की इच्छा पर करवाया। मंदिर के खंभों पर आबू व देलवाड़ा के मंदिरों की कारीगरी परिलक्षित होती हैं। सूरजपोल में प्रवेश करते ही बाईं ओर सफेद संगमरमर की बारीक नक्काशीदार सीढिय़ों से मंदिर का मुख्य मार्ग हैं तथा मंदिर के मुख्य मार्ग पर कलात्मक पटवों की हवेली जैसलमेर जैसे झरोखे बनाए हुए हैं। इस मंदिर की प्रतिष्ठा वि.स. 1518 में गुरुदेव श्री जिनदत्त सूरी म.सा. ने एक बड़े महोत्सव में करवाई। मंदिर के प्रवेश द्वार बारीक नक्काशीदार के ठीक ऊपर श्रृंगार चौकी बनी हुई हैं जहां पीत पाषाण से निर्मित देव पुतलिकाएं विभिन्न वाद्य यंत्रों, नृत्य मुद्राओं के साथ संगीतमय उत्सव की झांकी प्रस्तुत करती हैं।

भगवान श्री शांतिनाथ के 12 भवों को कलात्मक चित्रण
नवचौकी के नीचे ही एक पीत पाषाण पर बारीकी कलाकृतियों के बीच लक्ष्मीदेवी की मूर्ति उत्कीर्ण हैं। मूल गंभारे के बाईं ओर गोखले(आलेय) में दादा जिनदत्त सूरी जी विराजमान हैं, जिनकी निश्रा में इस मंदिर की प्रतिष्ठा हुई थी। यशस्वी गुरुदेव के पावन पगलिये बाईं ओर के गोखले में सफेद संगमरमर पर स्वर्ण निर्मित हैं। इन प्रतिमाओं एवं पगलियों की प्रतिष्ठा 2008 में दादा जिनदत्त सूरी जी म.सा. ने करवाई थी। मंदिर के पिछवाड़े में श्रीपाल मेयनासुंदरी भव्य अनुपम चौमुखा मंदिर हैं। इसके आगे चलने पर श्रृंखलाबद्ध खंभों की कतार के मध्य विविध चित्रों के माध्यम से भगवान श्री शांतिनाथ के बारह भवों को कलात्मक चित्रों के जरिये उल्लेखित किया गया हैं। सूरजपोल के बाहर एक ओर महावीर स्मृति भवन स्थित हैं। वर्ष 1975 में भगवान श्री महावीर स्वामी का 2500वां निर्वाण महोत्सव मनाया गया था तब ट्रस्ट मंडल द्वारा इस भव्य मंदिर का निर्माण करवाया था। इसके भीतर श्री महावीर स्वामी की आदमकद प्रतिमा विराजमान हैं। यहां आधुनिक भवन निर्माण कला और सुसज्जित विशाल एक हॉल में आकर्षक चित्रों के माध्यम से भगवान श्री महावीर स्वामी के जीवन काल की घटनाओं का चित्रण किया गया हैं।

संगमरमर के पाषाण का कलात्मक तोरण द्वार
सूरजपोल के ठीक सामने टेकरी पर पूर्व की ओर दादा श्री जिनदत्त सूरी जी म.सा. की दादावाड़ी हैं। दादावाड़ी की सीढय़ों पर चढऩे से पूर्व सफेद संगमरमर के पाषाण का कलात्मक तोरण द्वार हैं जिसे शिल्पकारों ने अपने अथक कला एवं श्रम से सजाया एवं संवारा हैं। दादावाड़ी में श्री जिनदत्त सूरी जी, मणिधारी श्री जिनचंद्रसूरी जी, श्री जिनकुशल सूरीजी व युगप्रधान श्री चंद्र सूरी जी के छोटे चरण प्रतिष्ठित हैं। दादावाड़ी से नीचे उतरते समय एक ओर सफेद संगमरमर का श्रृंखलाबद्ध भव्य नवनिर्मित मंगल कलश दिखाई देता हैं। दादावाड़ी के पीछे आचार्य लक्ष्मी सूरी जी का भव्य सफेद संगमरमर का बना गुरु मंदिर श्रद्धालुओं के लिए आकर्षण का प्रमुख केंद्र हैं। मुख्य मंदिर के पीछे 1200 फीट की ऊंची पहाड़ी पर सफेद रंग की आभा से सुशोभित श्री जिन कुशल सूरी जी की दादावाड़ी स्थित हैं। तीर्थ के विकास में आचार्य हिमाचल सूरी जी एवं आचार्य जिन कांति सागर सूरिश्वर जी म.सा. के सहयोग को भुलाया नहीं जा सकता। मुख्य मंदिर के समीप सफेद संगमरमर के पाषाण की पेढ़ी एवं सभागार हैं, जहां पौष दशमी मेले एवं अन्य बैठकों का आयोजन के साथ ट्रस्ट मंडल द्वारा विभिन्न समारोह इसी प्रांगण में आयोजित किए जाते हैं।

‘श्री जैन श्वेतांबर नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ ट्रस्ट’
तीर्थ की सुरक्षा, रख-रखाव, नवनिर्माण, यात्रियों को पूर्ण सुविधाओं के साथ साधु-साध्वियों को पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध करवाने के लिए बकायदा ‘श्री जैन श्वेतांबर नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ ट्रस्ट’ बना हुआ हैं। ट्रस्ट मंडल हर समय पूरी तरह सक्रिय रहकर अपने दायित्वों का निर्वहन करता हैं। संभवत: यह भी एक प्रमुख कारण हैं कि यहां आने वाले श्रद्धालु पूरी तरह संतुष्ट होकर लौटते हैं एवं तीर्थ की प्रतिष्ठा अनवरत रूप से बढ़ती जा रही हैं। इस पावन तीर्थ पर दर्शनार्थ जैन धर्मावलंबियों के अतिरिक्त अन्य धर्म-संप्रदायों के लोग भी पहुंचते हैं। यात्रियों की सुविधा के लिए तीर्थ पर कमरों की लंबी श्रृंखला हैं। अनेक विशाल धर्मशालाएं बनी हुई हैं। यहीं नहीं, यात्रियों की बढ़ती संख्या को देखते हुए ट्रस्ट मंडल की ओर से और धर्मशालाएं बनाया जाना प्रस्तावित हैं। तीर्थ पर विशाल भैरव भोजनशाला हैं तथा मेले के समय विशाल भू-भाग में फैले नवकारसी भवन का उपयोग किया जाता हैं।

जोधपुर मुख्यालय से 116 किमी/बालोतरा से 12 किमी
जैन तीर्थ ‘श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ’ जोधपुर से 116 किमी तथा बालोतरा से 12 किमी दूरी पर  होने के साथ ही जोधपुर-बाड़मेर मुख्य रेल मार्ग पर स्थित हैं। जोधपुर-बाड़मेर सहित आसपास के लगभग सभी स्थानों से सडक़ मार्ग से तीर्थ स्थल पर सुगमता से पहुंचा जा सकता हैं। मंदिर के खुलने का समय गर्मी(चैत्र सुदी एकम् से कार्तिक वदी अमावस तक) में प्रात: 5.30 बजे से रात्रि 10 बजे तक एवं सर्दी(कार्तिक सुदी एकम. से चैत्र वदी अमावस तक) प्रात: 6 बजे से रात्रि 9.30 बजे तक रहता हैं।

Wednesday 2 December 2015

डॉ. नगेन्द्र शर्मा: ‘मिर्गी रोग’ को जड़-मूल से खत्म करने को संकल्पित शख्सियत (Dr. Nagendra Sharma: A Personality Dedicated to Eradicate Epilepsy Disease)

घनश्याम डी रामावत
डॉ. नगेन्द्र शर्मा अर्थात एक ऐसा नाम/शख्सियत जो आज किसी परिचय का मोहताज नहीं हैं। सार्वजनिक जीवन में वैसे तो डॉक्टर को भगवान का ही दर्जा प्राप्त हैं, किन्तु बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो इसे अपनी कर्मशीलता के माध्यम से असल में अमली जामा पहना पाते हैं। जोधपुर के वरिष्ठ न्यूरोसर्जन डॉ. नगेन्द्र शर्मा ऐसा ही व्यक्तित्व हैं जिन्होंने सही मायने में अपने आप को इस रूप में साबित किया हैं। मर्ज की दुनियां से ‘मिर्गी रोग’ को जड़-मूल से खत्म करने को संकल्पित डॉ. शर्मा आज इस बीमारी से ग्रस्त रोगियों के लिए वाकई भगवान बन चुके हैं। जोधपुर के जाने-माने मिर्गी रोग विशेषज्ञ/वरिष्ठ न्यूरो सर्जन डॉ. नगेन्द्र शर्मा पिछले 17 वर्षो से लगातार प्रत्येक माह की 30 तारीख को राठी अस्पताल में मिर्गी रोगियों के इलाज के लिए नि:शुल्क शिविर आयोजित करते चले आ रहे हैं। डॉ. शर्मा की ओर से 30 नवम्बर 2015 को 203वां शिविर आयोजित किया गया, जिसमें उनके द्वारा मरीजों की जांच कर उन्हें विधिवत रूप से दवाईयां उपलब्ध कराई गई।

डॉ. शर्मा के मिर्गी रोग को खत्म करने और खासकर मिर्गी रोगियों को इस बीमारी की जकडऩ से मुक्त कराने के संकल्प के चलते मेरे जेहन में भी डॉ. शर्मा को लेकर कुछ जिज्ञासाओं ने जन्म लिया.. और मैं पहुंच गया उनसे मिलने उनके पंचवटी कॉलोनी स्थित आवास पर। डॉ. शर्मा को जानने-समझने बैठा तो मालूम हुआ कि पश्चिमी राजस्थान/मारवाड़ में आज भी अनगिनत मिर्गी रोगी हैं। डॉ. शर्मा हर माह की 30 तारीख को न केवल शिविर में नि:शुल्क जांच और इलाज करते हैं अपितु पूरी तन्मयता से जागरूकता फैलाने का काम भी कर रहे हैं। पश्चिमी राजस्थान में डॉ. शर्मा से अब तक करीब 52500 मिर्गी रोगी लाभान्वित हो चुके हैं। डॉ. शर्मा से जानने को मिला कि मिर्गी रोगियों के बढऩे में 60 प्रतिशत भूमिका सडक़ दुर्घटनाओं की हैं। उनके अनुसार सडक़ दुर्घटना के दौरान सिर में लगने के बाद अधिकांश मामलों में मरीज मिर्गी रोग का शिकार हो जाता हैं। डॉ. शर्मा ने कहा कि अब समय आ गया हैं जब मिर्गी रोग के साथ-साथ लोगों को विशेष रूप से सडक़ सुरक्षा को लेकर जागरूक होना होगा।

अब मिशन ‘सडक़ सुरक्षा के प्रति जागरूकता’
डॉ. शर्मा का मानना हैं कि मिर्गी रोग और बढ़ती सडक़ दुर्घटनाओं को देखते हुए इन दोनों विषयों को कॉलेज और विद्यालयों में शिक्षा की पुस्तकों में शामिल करने की नितान्त आवश्यकता हैं। डॉ. शर्मा के अनुसार मिर्गी रोग पर नियंत्रण के साथ अब उनका मिशन सडक़ सुरक्षा के प्रति जागरूकता को लेकर रहेगा। इसके तहत वे अपना पहला व्याख्यान सितम्बर 2015 में जोधपुर के सरदार पटेल पुलिस महाविद्यालय में राज्य सरकार की ओर से पुलिस महाविद्यालय, परिवहन विभाग और ट्रैफिक पुलिस के संयुक्त देखरेख में आयोजित कार्यक्रम में दे चुके हैं। यहीं नहीं, इस संदर्भ में उन्होंने बकायदा राजस्थान पुलिस के महानिदेशक मनोज भट्ट और प्रदेश के परिवहन विभाग को खास तौर से सुझाव भी भेजे हैं। डॉ. शर्मा के अनुसार उनके द्वारा वर्षो से किए जा रहे मिर्गी के इलाज व जागरूकता के प्रयासों के बावजूद मारवाड़ में मिर्गी रोगियों की बढ़ती तादाद चिंताजनक हैं। विश्व की आबादी का एक प्रतिशत हिस्सा, भारत का तीन प्रतिशत तथा पश्चिमी राजस्थान का करीब 4.5 प्रतिशत व्यक्ति इस बीमारी का शिकार हैं।

'एक सफर उम्मीद का..’ से हुई थी शुरूआत
वरिष्ठ न्यूरोसर्जन डॉ. नगेन्द्र शर्मा मिर्गी रोग में इजाफे का कारण अंधविश्वास, अज्ञानता, पिछड़ापन और अशिक्षा के साथ जागरूकता के अभाव को मानते हैं। 17 वर्ष पूर्व मिर्गी रोगियों के लिए ‘एक सफर उम्मीद का..’ से अपना सफर शुरू करने वाले डॉ. शर्मा से ज्ञात हुआ कि इस वर्ष अब तक करीब 3200 मरीज सामने आए हैं जिसमें मारवाड़ के विभिन्न जिलों के अलावा गुजरात, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश के मरीज इलाज कराने जोधपुर पहुंचे हैं। डॉ. शर्मा का मानना हैं कि शिविरों के माध्यम से लोगों में जागरूकता आई हैं किन्तु अभी भी खासतौर से सडक़ सुरक्षा को लेकर लोगों का जागरूक होना बेहद जरूरी हैं। दुपहिया वाहन चालकों को खासतौर से वे संदेश देते हैं कि हेलमेट अनिवार्य रूप से लगाए क्योंकि सिर में चोट लगने के बाद मिर्गी की संभावना सर्वाधिक रहती हैं। डॉ. शर्मा के अनुसार मिर्गी रोगियों की चिकित्सा/इस रोग को लेकर आम आदमी को जागरूक करना सहित इस रोग को जड़ मूल से खात्मे हेतु वे संकल्पित हैं तथा इसको लेकर उनका अभियान अनवरत रूप से जारी रहेगा।

‘मिर्गी रोग’ सही मायने में मस्तिष्क की बीमारी
मिर्गी रोग सही मायने में मस्तिष्क की बीमारी हैं। मस्तिष्क में 8 बिलियन न्यूरोन होते हैं। न्यूरोन में इलेक्ट्रिसिटी पैदा होती हैं। इलेक्ट्रिसिटी का प्रभाव बाहर नहीं निकले इसलिए हर न्यूरो के चारों और माइलिन शीट होती हैं। मिर्गी के रोगियों में कुछेक न्यूरोन की माइलिन शीट टूट जाती हैं, जिससे करंट बाहर आकर अन्य न्यूरोन को झटके देता हैं। यही झटके ताणे कहलाती हैं। मिर्गी रोग का पता ईईजी जांच से चलता हैं। वरिष्ठ न्यूरोसर्जन/मिर्गी रोग विशेषज्ञ डॉ. नगेन्द्र शर्मा के अनुसार ‘मिर्गी’ का दौरा 15 से लेकर 45 सैकेण्ड तक आता है। इसके बाद 2 से 3 मिनट रोगी के कोशिकाओं को सामान्य होने में लगता हैं। 10 से 15 मिनट में रोगी पूरी तरीके से सामान्य हो जाता हैं। गांव वाले भोपे और देवी देवताओं का हाथों-हाथ स्मरण व ध्यान करवाते हैं। दस मिनट में रोगी वैसे ही सामान्य होने वाला होता हैं। ऐसे में भोपों की चल पड़ती हैं। डॉ. शर्मा के अनुसार यही मूल बात लोगों के लिए समझने वाली हैं कि जाड़-फूक/तंत्र-मंत्र अथवा देवी-देवताओं का ध्यान करवाने से कुछ देर बाद सामान्य अवस्था में आ जाना रोगी का इलाज नहीं हैं अपितु वह एक सामान्य प्रक्रिया हैं। रोगी का सही व स्थायी इलाज उसकी समयबद्ध चिकित्सा ही हैं। डॉ. शर्मा के अनुसार मिर्गी आने पर रोगी को तुरन्त लेटा देना चाहिए।

12 हजार रोगी स्वस्थ होकर जी रहे हैं सामान्य जीवन
न्यूरो सर्जन डॉ. नगेन्द्र शर्मा के अनुसार उनके इतने वर्षो के प्रयास अब वाकई रंग लाने लगे हैं, उनके अनुसार थार प्रदेश के निजी व सरकारी अस्पतालों में मिर्गी रोगियों की बढ़ती तादाद इस बात का द्योतक हैं। डॉ. शर्मा का मानना हैं कि अब लोग यह समझने व महसूस करने लगे हैं कि मिर्गी का सही इलाज चिकित्सा ही हैं, झाड़-फूंक/तंत्र-मंत्र अथवा अंधविश्वास/जादू-टोना नहीं। न्यूरो सर्जन डॉ. शर्मा के अध्ययन के अनुसार मिर्गी रोग से ग्रसित 96 फीसदी रोगी अंधविश्वास, जादू-टोना और झाड़-फूंक करने के बाद डॉक्टर के पास पहुंचते हैं तब तक मरीज का रोग बहुत ही विकृत अवस्था में पहुंच जाता हैं। डॉ. शर्मा से चिकित्सा प्राप्त रोगियों में से करीब 12 हजार मरीज पूरी तरह स्वस्थ हो चुके हैं और वे अपनी सामान्य जिंदगी जी रहे हैं।

सामाजिक सरोकारों में भी बढ़-चढ़ कर भागीदारी
वरिष्ठ न्यूरोसर्जन/मिर्गी रोग विशेषज्ञ डॉ. नगेन्द्र शर्मा अपनी चिकित्सकीय जिम्मेदारी के साथ ही सामाजिक सरोकारों में भी बढ़-चढ़ कर सहभागिता का निर्वहन करते हैं। फिर चाहे वह सामाजिक स्तर पर हो अथवा अपने चिकित्सकीय पेशे से संबंधित विभिन्न संगठनों से ताल्लुक रखने वाली अहम भूमिकाओं का हो.. डॉ. शर्मा अपने दायित्वों का बखूबी जिम्मेदारी से निर्वहन करते हैं। पिछले दिनों श्री जूना खेड़ापति बालाजी मंदिर परिसर, जोधपुर में आयोजित चातुर्मास महोत्सव के दौरान श्री सम्प्रदाय(रामावत) एवं राम भक्ति परम्परा की मूल आचार्य पीठ ‘श्री मठ’ पंच गंगा घाट-काशी के जगद्गुरू रामानन्दाचार्य पद प्रतिष्ठित रामनरेशाचार्य के हाथों अति-विशिष्ट सम्मान ‘रामभावाभिषिक महानुभाव अभिनन्दन पत्र’ से नवाजे जा चुके डॉ. शर्मा अपनी बेहतरीन कर्मशीलता के चलते अब तक कुल 19 बार सम्मानित हो चुके हैं। बोर्ड ऑफ राजस्थान हेल्थ यूनिवर्सिटी द्वारा सिंडीकेट सदस्य के रूप में नियुक्ति, राज्य सरकार द्वारा मिर्गी रोग पर हिन्दी में पुस्तक प्रकाशित किए जाने पर ‘हिन्दी सेवा सम्मान’ एवं मेहरानगढ़ म्यूजियम ट्रस्ट की ओर से ‘राव जोधा स्मृति पुरूस्कार/मारवाड़ रत्न’ जैसे अति-प्रतिष्ठित सम्मान डॉ. शर्मा प्राप्त कर चुके हैं।

एक चिकित्सक के साथ एक बेहतरीन इंसान के रूप में अपने दायित्वों को निर्वहन करने के लिए जोधपुर ईद मिल्लादुन्नबी सोसायटी द्वारा ‘समाज रत्न’, पश्चिमी राजस्थान के ग्रामीण हल्कों के साथ खासकर आर्थिक रूप से कमजोर तबकों के लिए अनुकरणीय सेवाओं के लिए ‘वीर दुर्गादास स्मृति अवार्ड’, जोधपुर म्यून्सिपल कॉर्पोरेशन की ओर से ‘जोधपुर गौरव अलंकरण’, मरूधरा पत्रकार संस्थान द्वारा ‘मरूधरा मीडिया फेलो’, अंतर्राष्ट्रीय समन्वयक परिवार की ओर से ‘मानवता के प्रति समर्पित नर नारायण सेवा सम्मान’, टाइम्स ग्रुप द्वारा ‘फूट प्रिंट्स’, वृक्षारोपण क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्यो के लिए ‘वृक्ष बंधु पुरूस्कार’, मारवाड़ ग्रुप फॉर एज्यूकेटिंग पीपल एंड फ्री सर्विस टू सोसायटी द्वारा ‘मारवाड़ रत्न’, पिछली भाजपा सरकार(राजस्थान) के स्वास्थ्य मंत्री दिगम्बरसिंह के हाथों ‘मीडिया फेलो’, स्वतंत्रता दिवस पर जिला कलेक्टर द्वारा बहुमान, हिमालय फार्मा द्वारा न्यूरोसर्जरी क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्यो के लिए  ‘हेल्थ एक्सीलेंस अवार्ड’, रोटरी क्लब द्वारा ‘के आर सिंघवी रोटरी वॉकेशनल सर्विस अवार्ड’, इंटरनेशनल लॉयन(वेस्टर्न जोधपुर क्लब जोन) द्वारा ‘विशिष्ठ जन सम्मान’ व जोधपुर स्वयं सेवी संस्थान संघ की ओर से ‘डेडिकेटेड टू ह्यूमेनिटी’ जैसे महत्वपूर्ण अवार्ड हासिल करने के साथ ही जोधाणा फोटो जर्नलिस्ट सोसायटी के हाथों डॉ. शर्मा सम्मानित हो चुके हैं।

‘मिर्गी रोग’ से संबंधित पुस्तकों का प्रकाशन
सामाजिक सरोकारों की गंभीरता से समझ रखने वाले डॉ. नगेन्द्र शर्मा अपनी चिकित्सकीय व्यस्तताओं के बावजूद संदर्भ में जिम्मेदारियों को श्रेष्ठतम तरीके से आत्मसात करते हुए अपने दायित्वों का बखूबी निर्वहन कर रहे हैं। डॉ. शर्मा वर्तमान में राजस्थान ब्राह्मण महासभा से संबद्ध होने के साथ ही अंतर्राष्ट्रीय ब्राह्मण फेडरेशन-जोधपुर इकाई(ग्रामीण अध्यक्ष), गौड़ ब्राह्मण महासभा(राजस्थान) के प्रदेश संरक्षक के तौर पर सामाजिक क्षेत्र में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। इसके अलावा प्राइवेट डॉक्टर एसोसिएशन(एम्पोज) जोधपुर-अध्यक्ष, शेखावटी समाज संस्थान-जोधपुर इकाई अध्यक्ष तथा नॉर्थ साउथ फाउण्डेशन स्कॉलरशिप जैसी अति-महत्वपूर्ण संस्था में बतौर सदस्य अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन कर रहे हैं। वरिष्ठ न्यूरोसर्जन/मिर्गी रोग विशेषज्ञ डॉ. नगेन्द्र शर्मा द्वारा लिखित ‘मानव मस्तिष्क और मिर्गी’ पुस्तक का वर्ष 2005 में प्रकाशन हो चुका हैं। डॉ. शर्मा की एक अन्य पुस्तक ‘मिर्गी : कारण और निवारण’ भी प्रकाशित हो चुकी हैं जिसका अति-जल्द विमोचन होने वाला हैं।

Tuesday 1 December 2015

जोधपुर उम्मेद भवन पैलेस: मारवाड़ का ताजमहल

घनश्याम डी रामावत
वैसे तो ताजमहल आगरा में स्थित हैं लेकिन पश्चिमी राजस्थान में भी ऐसा ही एक महल हैं जिसे लोग मारवाड़ का ताजमहल कहते हैं। यह महल हैं जोधपुर स्थित ‘उम्मेद भवन पैलेस’। उम्मेद भवन पैलेस का नाम इसके संस्थापक महाराजा उम्मेद सिंह के नाम पर रखा गया हैं। चित्तर पहाड़ी पर होने के कारण यह सुंदर महल ‘चित्तर पैलेस’ के रूप में भी जाना जाता हैं। यह भारत-औपनिवेशिक स्थापत्य शैली और डेको-कला का एक आदर्श उदाहरण हैं। डेको कला स्थापत्य शैली यहां हावी हैं और यह 1920 और 1930 के दशक के आसपास की शैली हैं। हॉल को तराशे गये बलुआ पत्थरों को जोड़ कर बनाया गया था। महल के निर्माण के दौरान पत्थरों को बांधने के लिये मसाले का उपयोग नहीं किया गया था। यह विशिष्टता बड़ी संख्या में पर्यटकों को इस महल की ओर आकर्षित करती हैं। इस सुंदर महल के वास्तुकार हेनरी वॉन, एक अंग्रेज थे। महल का एक हिस्सा हेरिटेज होटल में परिवर्तित कर दिया गया हैं, जबकि बाकी हिस्सा एक संग्रहालय के रूप में हैं।
इसके अस्तित्व में आने अर्थात निर्माण के पीछे की कहानी भी बड़ी दिलचस्प हैं। यह सही मायने में इसके संस्थापक महाराजा उम्मेदसिंह के ख्वाब की एक हसीन ताबीर हैं। यह महल अकाल से त्रस्त जनता को रोजगार देने के मकसद से बनाया गया था। जब तत्कालीन मारवाड़ रियासत की जनता भूख से मर रही थी तो महाराजा उम्मेदसिंह ने इस महल का निर्माण करने का निर्णय किया। इस भवन के निर्माण का आर.बी शिवरतन मोहता को ठेका दिया गया था। वास्तुविद व शिल्पविद जी.ए गोल्ड स्ट्रा ने वास्तु भूमिका का निर्वहन किया था। इसके लिए पत्थर लगाने, लाने, चुनाई और टांचने(तराशने) आदि तक के सारे काम मारवाड़ के मजदूरों व कारीगरों से ही करवाए गए, ताकि उन्हें रोजगार मिले। जोधपुर राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 65 से लगभग 5-6 किमी की दूरी पर स्थित ‘उम्मेद भवन पैलेस’ रियासत की कई परंपराओं का साक्षी और एक ऐसी धरोहर हैं, जिस पर सभी को नाज हैं।

शादियों व राजसी पार्टियों के लिए पहली पसन्द
उम्मेद भवन के एक हिस्से को म्यूजियम और दूसरे हिस्से को हेरिटेज होटल का रूप दिया गया हैं। उम्मेद भवन पैलेस के अली अकबर हॉल कई यादगर आयोजनों के लिए जाना जाता हैं। पहले भवन के अंदर घुसते ही अंदरूनी हिस्से में झाडियां थीं जहां पार्किग होती थी, बाद में विंटेज कारें रखी गई। ये कारें रैली के समय निकलती हैं। इसका लॉन व बरादरी बरसों से शानदार म्यूजिकल कार्यक्रमों के लिए जाने जाते हैं। मौजूदा दौर में ‘उम्मेद भवन पैलेस’ ऊंचे दर्जे की शाही शादियों व राजसी पार्टियों के लिए सर्वाधिक पसंद किया जाने वाला स्पॉट हैं। म्यूजिकल नाइट में जब यह रंग-बिरंगी रोशनी में जगमगाता हैं, इसकी आभा अत्यधिक शानदार/अद्भुत/लाजवाब नजर आती हैं। पर्यटकों द्वारा अत्यधिक पसंद किए जाने वाले इस स्पॉट ‘उम्मेद भवन पैलेस’ को देखने हेतु बकायदा शुल्क निर्धारित हैं।

रॉयल लुक करता हैं पर्यटकों को आकर्षित
लॉन सहित करीब 26 एकड़ में फैले ‘उम्मेद भवन पैलेस’ को तराशे हुए पीले और सुनहरे रंग के पत्थरों से बनाया गया हैं। उम्मेद भवन बड़े ही राजसी अंदाज में राजस्थान की धरोहर को समेटे हुए हैं। बेजोड़ कारीगरी और नक्काशी इस महल की शोभा बढ़ाती हैं। शाही शानो-शौकत से भरपूर ‘उम्मेद भवन पैलेस’ का रॉयल लुक पर्यटकों को अत्यधिक आकर्षित करता हैं। यहीं कारण हैं कि यहां हमेशा पर्यटकों को बेतहाशा भरमार रहती हैं। जो लोग जोधपुर घूमने आते हैं, वे ‘उम्मेद भवन पैलेस’ का भ्रमण किए बिना नहीं रह पाते हैं। यह वास्तुकला का बेहतरीन नमूना तो हैं ही, इसकी दीवारों पर बहुत ही सुन्दर और कलात्मक कारीगरी की गई हैं। इसका शिलान्यास 18 नवम्बर 1929 को महाराजा उम्मेदसिंह ने किया। तामीर स्थल की लंबाई 195 मीटर और चौड़ाई 103 मीटर हैं। निर्माण पर कुल एक करोड़ 9 लाख 11 हजार 228 रूपए खर्च हुए। ‘उम्मेद भवन पैलेस’ में 15 एकड़ भूमि पर बगीचा हैं। केंद्रीय गुम्बज की ऊंचाई 150 फीट हैं तथा गोलाई के लिए 15 बड़े-बड़े स्तम्भ प्रयुक्त में लिए गए।

ट्रेडिशन और लग्जरी का बेहतरीन कॉम्बिनेशन
‘उम्मेद भवन पैलेस’ में कुल 365 कमरे हैं। 40 से ज्यादा लग्जरीयस हैं, जिनको सुविधाओं के लिहाज से रूम, रायल सुईट, महाराजा सुईट और महारानी सुईट में बाटा गया हैं। इन कमरों में ट्रेडिशन और लग्जरी का बेहतरीन कॉम्बिनेशन हैं। खिडक़ी और बालकोनी से नजर दौड़ाने पर दिलकश ऩारे दिखाई देते हैं। एंटिक डिजाइन का सोफा, बेड और इंटीरियर यहां के कमरों को कलात्मक टच देते हैं। यहां स्टाइलिश फाउंटेन, पुल, स्पॉ और जिम फैसिलिटी का आनंद भी लिया जा सकता हैं। खाने के लिए शानदार रेस्टोरेंट हैं, जहां पैलेस की छत पर खुले आसमां के नीचे राजस्थानी लजीज व्यंजनो का लुत्फ़ उठाया जा सकता हैं। राजस्थान व खासकर मारवाड़ की संस्कृति से पर्यटकों को रूबरू करने के लिए शाम के वक्त यहां लोकगीत, नृत्य और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी किया जाता हैं।

आकर्षित करता हैं राजसी अंदाज वाला स्पॉट
‘उम्मेद भवन पैलेस’ शादी और निजी आयोजनों के लिए लोगों की पसंदीदा जगह हैं। इसके अतिरिक्त हनीमून कपल्स और अक्जाटिक ट्रेवलिंग का शौक रखने वालो को भी राजसी अंदाज वाला यह महल खूब लुभाता हैं। ‘उम्मेद भवन पैलेस’ में रुकना अपने आप बेहद सुकून भरा हैं। यहां ठहरने वाले पर्यटक यदि जोधपुर/सूर्यनगरी की सुन्दरता को और करीब से देखने की चाहत रखते हैं तो, मेहरानगढ़ किले का भ्रमण कर सकते हैं जो पर्यटकों के बीच काफी लोकप्रिय हैं। फूल महल, झांकी महल और राव जोधा डेजर्ट रॉक पार्क भी दर्शनीय हैं।

Monday 30 November 2015

विजय लक्ष्मी प्रजापति: जोधपुर की पहली महिला फोटोग्राफर

घनश्याम डी रामावत
भारतीय संस्कृति में महिलाओं का शुरू से ही विशेष सम्मान रहा हैं एवं खास तौर से बेटियों के बारे में अपने देश में सदियों से बहुत कुछ कहा जाता रहा हैं। बेटी जब भी गर्व भरा काम करती हैं, उसकी उपलब्धि पर न केवल उसका अपना परिवार नाज करता हैं बल्कि समूचा देश स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता हैं। और हो भी क्यों नहीं, आखिर बेटियां देश, समाज व हर परिवार की शान जो होती हैं। लेकिन इन सब के बीच.. बेटी जब बहू के रूप में भी कुछ खास कर जाएं, इस शान में चार चांद लगना लाजमी हैं। ऐसी ही एक बेटी और बहू हैं सूर्यनगरी की विजय लक्ष्मी प्रजापति। उम्र की ढ़लान पर एक गृहिणी के रूप में इन दिनों आध्यात्मिक जीवन जी रही विजय लक्ष्मी प्रजापति की पहचान जोधपुर की पहली महिला प्रोफशनल फोटोग्राफर के रूप में रही हैं। राजस्थानी में एम.ए. तक शिक्षा प्राप्त विजय लक्ष्मी ने वर्षो पहले उस समय कैमरा हाथ में पकड़ा, जब महिलाओं के व्यवसायिक तौर पर घर से बाहर निकलने को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता था। प्रोफेशनल फोटोग्राफर के तौर पर करीब तीन दशकों तक राजस्थान व खासकर सूर्यनगरी जोधपुर की सभ्यता व संस्कृति से जुड़ी हर तस्वीर को अपने कैमरे में कैद कर इसकी खूशबू को पूरे देश में फैलाने के साथ ही वर्ष 2013 में प्रदेश की राजधानी जयपुर में ऑल इंडिया वैलफेयर सोसायटी और लिविंग सोल एनजीओ की ओर से आयोजित कार्यक्रम ‘कुरजा-4’ में मशहूर ऑलम्पियन मिल्खा सिंह के हाथों ‘बेटी सृष्टि रत्न’ अवार्ड से सम्मानित विजय लक्ष्मी प्रजापति आज किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। 

बचपन से ही अच्छे संस्कारों के बीच पली-बढ़ी
अस्सी के दशक में जब महिलाओं को व्यवसायिक दृष्टि से घरों से बाहर निकलने की पूरी आजादी नहीं थी, बचपन से ही अच्छे संस्कारों के बीच पली-बढ़ी सरल व संजीदा व्यक्तित्व की धनी विजय लक्ष्मी ने प्रोफेशनल फोटोग्राफर के तौर पर हाथों में कैमरा पकड़ कर सभी को चौका दिया। इसमें इन्हें सबसे बड़ा सहयोग मिला पति जगदीश चंद्र से। शिक्षा विभाग में सेवारत्त पति जगदीश चंद्र नौकरी के साथ फोटोग्राफी भी किया करते थे। यहीं से इन्हें फोटोग्राफी का शौक लगा और अपने पति से इन्होंने कैमरा चलाना सीखा। अपनी उम्र के 65 बसंत पार कर चुकी विजय लक्ष्मी अपने फोटो कला प्रेम और इससे जुड़े शुरूआती संस्मरणों को याद कर आज भी रोमांच से भर जाती हैं। आज अचानक मन किया तो विजय लक्ष्मी से मिलने जा पहुंचा उनके शक्ति नगर स्थित आवास पर। घर पर वे उसी अंदाज में मिली जैसी अपेक्षा थी, उम्र के इस पड़ाव पर भी वहीं जोश-वहीं ताजगी, हाथ में अखबार थामे वे देश-दुनियां के हालचाल जानने में व्यस्त थी। बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ तो वाकई बहुत कुछ जानने व समझने का मिला उनसे.. विजय लक्ष्मी के अनुसार उन्होंने 1980 में फोटोग्राफी क्षेत्र में कदम रखा। ब्लेक एंड व्हाइट से लेकर कलर फोटोग्राफी के बारे में अनुभव साझा करते हुए वे बताती हैं कि उस वक्त के संघर्ष की तुलना में मौजूदा कामयाबियां व अवार्ड बहुत छोटे प्रतीत होते हैं।

शुरूआत में बड़े-बुजुर्गों का विरोध झेलना पड़ा
अपने फोटोग्राफी शौक के चलते विजय लक्ष्मी को संयुक्त परिवार की वजह से शुरूआत में बड़े-बुजुर्गों का काफी विरोध भी झेलना पड़ा। किन्तु पति जगदीश चंद्र का उन्हें हमेशा सहयोग मिला। विजय लक्ष्मी के अनुसार एक समय ऐसा आया जब पति को बीमारी ने आंशिक रूप से जकड़ लिया, नतीजतन घर-परिवार की आर्थिक स्थिति बिगडऩे लगी। ऐसे में उनकी शौकिया फोटोग्राफी ने प्रोफेशनल रूप ले लिया और वे शादी-ब्याह, त्यौहारों व सभा-सम्मेलनों में फोटोग्राफी करने लगी। फोटो खींचने से लेकर डवलपिंग(चूंकि उन दिनों ब्लेक एंड व्हाइट का जमाना था) व प्रिंटिंग करके ग्राहकों को देना..सब कुछ खुद ही कर लेती थी। राजपूत समाज में पर्दा प्रथा का रिवाज होने के चलते विजय लक्ष्मी बतौर फोटोग्राफर हमेशा उनकी पहली पसंद रही। एक बार उदयपुर राजघराने के द्वारा खास तौर से इन्हें फोटो खींचने बुलाए जाने के बाद तो विजय लक्ष्मी राजपूत घरों की पसंदीदा फोटोग्राफर ही बन गई। राजस्थानी में एम ए विजय लक्ष्मी बताती हैं कि उन्होंने पहली बार कैमरा उपयोग में लेते हुए एक बच्चें की फोटो खींची थी। जोधपुर के पब्लिक पार्क में उन्होंने ‘वाइल्ड एनीमल्स’ की फोटोग्राफी प्रतियोगिता में हिस्सा लिया और यहीं से उनका प्रोफेशनल सफर शुरू हो गया। उनके अनुसार उन्हें असली पहचान मरूधरा फोटोग्राफी सोसायटी ने दिलाई।

‘वाइल्ड एनीमल्स’ की फोटो बेस्ट अचीवमेंट
विजय लक्ष्मी ने महानगर में होने वाली हर प्रतियोगिता में हिस्सा लिया व पुरूस्कार जीते। इसके अलावा पर्यटन, कला व संस्कृति विभाग के द्वारा भी इन्हें, वर्ष 1984 में इनके द्वारा बांध के लिए एक छायाचित्र संदर्भ में सम्मानित(द्वितीय पुरूस्कार) किया जा चुका हैं। अपने कैमरे में हजारों दृश्यों को कैद कर चुकी विजय लक्ष्मी प्रजापति जीवन का बेस्ट अचीवमेंट ‘वाइल्ड एनीमल्स’ की फोटो को मानती हैं। महिला साक्षरता को बढ़ावा देने हेतु इससे जुड़े नारे भले ही नब्बे के दशक में परवान चढ़े हो, विजय लक्ष्मी ने ‘पढ़ी लिखी जब होगी माता, घर की बनेगी भाग्य विधाता’, ‘हर महिला को शिक्षित बनाओ, परिवार में खुशहाली लाओ’ एवं ‘एक नारी पढ़ेगी, सात पीढ़ी तरेगी’ जैसे नारों को वर्षो पहले ही आत्मसात करते हुए चरित्रार्थ कर दिया। विजय लक्ष्मी ने शादी के बाद न केवल अपनी मेट्रिक से आगे की पढ़ाई करते हुए राजस्थानी में एम ए किया, अपने परिवार की शिक्षा को लेकर भी सजगता बरती। नतीजतन दोनो संताने सरकारी सेवा में हैं, बेटा इंजीनियर व बेटी अध्यापिका हैं। एक महिला के तौर पर हासिल अचीवमेंट को राज्य सरकार द्वारा गंभीरता से नहीं लिए जाने के सवाल का विजय लक्ष्मी कोई सीधा जवाब तो नहीं दे रही किन्तु यह अवश्य कहती हैं कि महिला सम्मान व प्रोत्साहन को लेकर अब वाकई सरकारों को दिल से संजीदा होने की आवश्यकता हैं। उनकी स्पष्ट मान्यता हैं कि आज की महिला किसी भी मायने में पुरूषों से कम नहीं हैं। भविष्य में गर्वनमेंट द्वारा उन्हें किसी स्तर पर सम्मानित किए जाने के सवाल पर वे बस मुस्कराकर रह जाती हैं।

जोधपुर का मेहरानगढ़ दुर्ग: बारीक नक्काशी और विशाल प्रांगण के लिए दुनियाभर में खास पहचान

घनश्याम डी रामावत
अपनी बेहतरीन संस्कृति व अपणायत के लिए देश ही नहीं विदेश तक में खास पहचान रखने वाला पश्चिमी राजस्थान का प्रमुख शहर जोधपुर अपने दुर्ग को लेकर भी विशेष तौर पर जाना जाता हैं। ‘मेहरानगढ़’ दुर्ग की भव्यता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता हैं कि यह जोधपुर शहर के धरातल से 112 मीटर की ऊंचाई पर हैं। यह दुर्ग चारों ओर से अभेद्य प्राचीरों से घिरा हुआ हैं। यह दुर्ग बारीक नक्काशी और विशाल प्रांगण के लिए दुनियाभर में जाना जाता हैं। इस विशाल दुर्ग के भीतरी परिसर में अनेक महल और मंदिर हैं। एक घुमावदार घाटी और सडक़ से यह दुर्ग जोधपुर शहर से जुड़ता हैं। दुर्ग की प्राचीरों पर अब भी जोधपुर के महाराजा और जयपुर की सेना के बीच हुए युद्धों के प्रतीक तोप के गोलों के निशान के रूप में अंकित हैं। किले के बायीं ओर कीरतसिंह सोढ़ा की छतरी हैं। यह एक योद्धा था जिसने किले की रक्षा के लिए अपनी जान न्योछावर की थी। यहां के राजा मानसिंह ने अपनी विजयों की स्मृति में सात दरवाजे बनवाए थे। जयपुर और बीकानेर के शासकों को हराने के उपलक्ष में जयपोल बनवाया गया। इसके अलावा फतेहपोल द्वारा का निर्माण महाराजा अजीत सिंह ने मुगलों पर फतेह पाने के बाद कराया था। इन द्वारा पर आज भी तब के युद्धों के निशान बाकी हैं, जिन्हें देखना अद्भुत हैं।
मेहरानगढ़ का संग्रहालय देश के सबसे बेहतरीन संग्रहालयों में से एक हैं। इस संग्रहालय में अतीत की महत्वपूर्ण वस्तुओं का संग्रह किया गया हैं। इनमें 1730 में गुजरात के शासक से लड़ाई में जीती विशाल पालकी भी हैं, इसके अलावा हथियार, वेशभूषा, पेंटिंग और ऐतिहासिक विरासतों की लंबी श्रंखला यहां संग्रहित की गई हैं। कामयाब अंग्रेजी फिल्म ’डार्क नाइट’ के कुछ हिस्से भी मेहरानगढ़ में फिल्माए जाने के बाद यह हॉलीवुड के लिए भी एक शानदार डेस्टीनेशन बन गया। यहां ब्रूस वेन को कैद करने, जेल पर हमला करने आदि के दृश्य फिल्माए गए थे।
राव जोधा ने बसाया था जोधपुर
जोधपुर नगर राव जोधा ने बसाया था। उन्होंने यहां 1438 से 1488 तक लंबे समय तक शासन किया। वे रावल के 24 पुत्रों में से एक थे। चारों ओर शत्रुओं से घिरे होने के कारण उन्होंने जोधपुर की राजधानी को किसी सुरक्षित स्थान पर स्थानांतरित करने की योजना बनाई। वे मानते थे कि मंडोर का किला जोधपुर की सुरक्षा करने के लिए पर्याप्त नहीं है। राव सामरा के बाद उनके पुत्र राव नारा ने जोधपुर की कमान संभाली और पूरे मेवाड़ को मंडोर के छत्र के नीचे सुरक्षित किया। राव जोधा ने राव नारा को दीवान का खिताब दिया था। राव नारा की मदद से जोधा ने 12 मई 1459 को मेहरानगढ़ की नींव रखी। यह दुर्ग मंडोर से 9 किमी की दूरी पर दक्षिण में भौरचिरैया पहाड़ी पर बनाया गया। कहा जाता हैं उस पहाड़ी पर पक्षियों के स्वामी चिरैया का राज था। महल की नींव पड़ जाने के बाद चिरैया को यहां से विस्थापित होना पड़ा। इस पर चिरैया ने यहां हमेशा सूखा पडऩे का श्राप दिया। कहा जाता है उसके बाद कई बरसों तक यहां सूखा पड़ा। तब राव ने एक मंदिर बनाकर श्राप से मुक्ति पाई। इस दुर्ग के बारे में यह भी कहा जाता है कि यहां एक व्यक्ति राजाराम मेघवाल की समाधि थी। राव जोधा ने राजाराम के परिजनों से दुर्ग के एक हिस्से पर राजाराम के परिजनों के हक का वादा किया था। यह हक आज भी अदा किया जा रहा है और दुर्ग के एक हिस्से ’राजाराम मेघवाल गार्डन’ में आज भी उसके वंशज निवास करते हैं।

राव जोधा ने रखा था दुर्ग का नाम मिहिरगढ़
मेहरानगढ़ संस्कृत के ’मिहिर’ से बना हैं। जिसका अर्थ होता है सूर्य। राव जोधा सूर्य के उपासक थे इसलिए उन्होंने इस दुर्ग का नाम मिहिरगढ़ रखा। लेकिन राजस्थानी बोली में स्वर मिहिरगढ़ से मेहरानगढ़ हो गया। राठौड़ अपने आप को सूर्य के वंशज भी मानते हैं। किले के मूल भाग का निर्माण जोधपुर के संस्थापक राव जोधा ने 1459 में कराया। इसके बाद 1538 से 1578 तक शासक रहे जसवंत सिंह ने किले का विस्तार किया। किले में प्रवेश के लिए सात विशाल द्वार इसकी शोभा हैं। 1806 में महाराजा मानसिंह ने जयपुर और बीकानेर पर जीत के उपलक्ष में दुर्ग में जयपोल का निर्माण कराया। इससे पूर्व 1707 में मुगलों पर जीत के जश्न में फतेलपोल का निर्माण कराया गया था। दुर्ग परिसर में डेढ कामरापोल, लोहापोल आदि भी दुर्ग की प्रतिष्ठा बढाते हैं। दुर्ग परिसर में सती माता का मंदिर भी हैं। 1843 में महाराजा मानसिंह का निधन होने के बाद उनकी पत्नी ने चिता पर बैठकर जान दे दी थी। यह मंदिर उसी की स्मृति में बनाया गया

किले के अंदर कई शानदार महल और स्मारक बने हुए हैं। इनमें मोती महल, फूल महल, शीशमहल, सिलेहखाना और दौलतखाना उल्लेखनीय हैं। यहां स्थित संग्रहालय में जोधुपर के शासकों और राजपरिवारों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली शाही वस्तुओं के अलावा युद्ध में काम आने वाले औजार, हथियारों को भी संग्रहित किया गया हैं। संग्रहालय को देखना अपने आप में इतिहास की खिडक़ी में झांकने जैसा हैं। यह बहुत आनंद देता हैं। संग्रहित वस्तुओं में शाही पोशाके, युद्ध पोशाके, पालने, लकड़ी की वस्तुएं, चित्र, वाद्य यंत्र, फर्नीचर व पुरानी तोपें आदि उल्लेखनीय हैं।


मोती महल व शीश महल आकर्षण का केन्द्र
मेहरानगढ़ पर 1595 से 1619 के दौरान शासन करने वाले राजा शूरसिंह ने मोती महल का निर्माण कराया था। मोती महल को वर्तमान में संग्रहालय बनाया गया हैं। दुर्ग में स्थित सभी महलों में से यह सबसे बड़ा और खूबसूरत हैं। मोती महल में बने पांच झरोखे विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। कहा जाता हैं जब राजा शूरसिंह दरबार में होते थे तो कार्रवाई देखने के लिए उनकी पांच रानियां इनमें बैठा करती थीं। राजस्थान में वैसे तो कई विशाल दुर्गों में शीशमहल बने हुए हैं किंतु मेहरानगढ़ के शीशमहल को अन्य सभी महलों से सबसे अच्छा माना जाता हैं। जयपुर के शीशमहल से इसकी तुलना की जाती हैं। राजपूत शैली के स्थापत्य का यह सबसे अच्छा उदाहरण  है। शीशमहल में छोटे-छोटे शीशों के टुकड़ों को दीवार पर चिपकाकर एक भव्य आकार दिया जाता हैं। इन शीशों पर एक विशेष प्रकार का पेंट किया जाता था। जिससे शीशों की चमक आंखों में नहीं चुभती थी और ये पर्याप्त रूप से चमक भी देते थे। मेहरानगढ़ का शीश महल वाकई देखने लायक हैं।

खूबसूरत फूलमहल एवं तख्तविलास
फूल महल का निर्माण मेहरानगढ़ पर 1724 से  1749 तक राज करने वाले  महाराजा अभय सिंह ने बनवाया था। यह एक ऐसा महल था जिसमें खुशी के अवसर पर राजपरिवार एकत्र होता था और खुशियां बनाई जाती थी। खुशी जाहिर करने के काम में आने के कारण इस महल की खूबसूरती भी शानदार हैं। कई बार राजा महाराजा यहां नृत्य के कार्यक्रमों का आयोजन भी करते थे और महफिल सजाई जाती थी। महल की छत सोने और चांदी के तरल पेंट से सजाई गई हैं। महल की सुंदरता यहां खंभों और दीवारों में साफ झलकती हैं। ‘तख्तविलास’ यह महल राजा तख्तसिंह की आरामगाह थी। 1843 से 1873 तक शासन करने वाले तख्त सिंह ने इस महल का निर्माण कराया था। तख्तविलास परंपरागत शैली में बना शानदार महल हैं जिसकी को कांच के गोलों से बनाया गया था। अंग्रेज भी इस महल की खूबसूरती को देख अचंभा करते थे।

आराध्य मां चामुंडा देवी का मंदिर
जोधपुर के शासक देवी उपासक थे। इसलिए दुर्ग में देवी मंदिर भी हैं। यहां का सबसे खास देवी मंदिर हैं ‘चामुंडा माता’। राज जोधा चामुंडा देवी के विशेष उपासक थे। 1460 में पुरानी राजधानी मंडोर से यह मूर्ति यहां लाकर स्थापित की गई थी। उल्लेखनीय हैं चामुंडा देवी मंडोर के परिहार शासकों की कुल देवी थी। राव जोधा भी चामुंडा देवी को ही अपना इष्ट मानते थे और रोजाना पूजा अर्चना किया करते थे। आज भी जोधपुर के लोगों की आराध्या देवी चामुंडा माता ही हैं और बड़ी संख्या में उनके दर्शनों के लिए श्रद्धालु यहां आते हैं। गौरतलब हैं कि 2008 में मेहरानगढ के चामुंडा देवी मंदिर में भरने वाले सालाना मेले के दौरान यहां भगदड़ मच गई थी जिसमें 250 श्रद्धालुओं की मौत हो गई थी और चार सौ से अधिक घायल हो गए थे।