Thursday 26 July 2018

गुरू पूर्णिमा 2018 : महत्व/पूजन का सही विधान

घनश्याम डी रामावत
इस वर्ष गुरू पूर्णिमा 27 जुलाई 2018 को पड़ रही हैं। अर्थात कल शुक्रवार का दिन सभी गुरूभक्तों के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। गुरू पूर्णिमा के दिन सभी को अपने गुरूओं को आसन प्रदान कर के अपनी श्रद्धानुसार उनका पूजन अर्चन करके उनसे आशीर्वाद ग्रहण करना चाहिए। गुरू पूर्णिमा के दिन ही वर्ष का सबसे लंबा चंद्रग्रहण भी पड़ रहा हैं, जो रात्रि 11.54 से प्रारंभ होगा और रात्रि 3.49 तक रहेगा/जिसका सूतक 9 घंटे पूर्व दोपहर 2.54 से प्रारंभ हो जाएगा।

गुरू पूजन का मुहूर्त और पूजा का विधान
जोधपुर की जानी मानी वैदिक-वास्तु पिरामिड मर्मज्ञ/रैकी हीलर/हिप्रोथैरेपिस्ट व  एस्ट्रोलॉजर अर्चना प्रजापति के अनुसार जो छात्र विद्या अध्ययन कर रहे वो प्रात: 7 बजे से 8.30 बजे तक करे। जो नौकरी कर रहे वो 9.15 से 10.30 बजे तक करें, जो व्यापार कर रहे वो 10 से 11.15 बजे तक करें एवं 9.30 से 11 तक सभी लोग पूजन कर सकते हैं। गुरू पूर्णिमा वर्षा ऋ तु के आरंभ में आती हैं एवं इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-संत एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं। जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता और फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, ऐसे ही गुरु चरण में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शांति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती हैं। गुरू पूर्णिमा का यह दिन महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन भी है। वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और उन्होंने चारों वेदों की भी रचना की थी। इस कारण उनका एक नाम वेद व्यास भी है। उन्हें आदिगुरू कहा जाता है और उनके सम्मान में गुरू पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है। 

प्रजापति के अनुसार भक्तिकाल के संत घीसादास का भी जन्म इसी दिन हुआ था वे कबीरदास के शिष्य थे। ‘राम कृष्ण सबसे बड़ा उनहूं तो गुरु कीन्ह। तीन लोक के वे धनी गुरु आज्ञा आधीन॥’ गुरू तत्व की प्रशंसा तो सभी शास्त्रों ने की है। ईश्वर के अस्तित्व में मतभेद हो सकता है, किंतु गुरु के लिए कोई मतभेद आज तक उत्पन्न नहीं हो सका है। गुरू की महत्ता को सभी धर्मों और संप्रदायों ने माना है। प्रत्येक गुरू ने दूसरे गुरुओं को आदर-प्रशंसा और पूजा सहित पूर्ण सम्मान दिया है। भारत के बहुत से संप्रदाय तो केवल गुरुवाणी के आधार पर ही कायम हैं।

गुरू का सही अर्थ?
एस्ट्रोलॉजर प्रजापति के अनुसार भारतीय संस्कृति के वाहक शास्त्रों गुरू का अर्थ बताया गया है। गुरू में गु का अर्थ है-अंधकार या मूल अज्ञान और रू का अर्थ है-उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है। अर्थात् अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को ‘गुरू’ कहा जाता है। गुरू और देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरू के लिए भी है। बल्कि सद्गुरू की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरू की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है। गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वर:। गुरू: साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नम:॥

आषाढ़ की पूर्णिमा ही गुरू पूर्णिमा
वैदिक-वास्तु पिरामिड मर्मज्ञ/रैकी हीलर अर्चना प्रजापति की माने तो आषाढ़ की पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा के पीछे गहरा अर्थ है। अर्थ है कि गुरू तो पूर्णिमा के चंद्रमा की तरह हैं जो पूर्ण प्रकाशमान हैं और शिष्य आषाढ़ के बादलों की तरह, आषाढ़ में चंद्रमा बादलों से घिरा रहता है जैसे बादलरूपी शिष्यों से गुरू घिरे हों। शिष्य सब तरह के हो सकते हैं, जन्मों के अंधेरे को लेकर आ छाए हैं। वे अंधेरे बादल की तरह ही हैं। उसमें भी गुरू चांद की तरह चमक सके, उस अंधेरे से घिरे वातावरण में भी प्रकाश जगा सके, तो ही गुरू पद की श्रेष्ठता है। इसलिए आषाढ़ की पूर्णिमा का महत्व है, इसमें गुरू की तरफ भी इशारा है और शिष्य की तरफ भी यह इशारा तो है ही कि दोनों का मिलन जहां हो, वहीं कोई सार्थकता है।

धार्मिक/आध्यात्मिक दृष्टि से इस पर्व का महत्व
‘ज्योतिष भूषण अवार्ड 2018’ से सम्मानित हिप्रोथैरेपिस्ट व  एस्ट्रोलॉजर अर्चना प्रजापति के अनुसार जीवन में गुरू और शिक्षक के महत्व को आने वाली पीढ़ी को बताने के लिए यह पर्व आदर्श है। व्यास पूर्णिमा या गुरू पूर्णिमा अंधविश्वास के आधार पर नहीं बल्कि श्रद्धाभाव से मनाना चाहिए। गुरू का आशीर्वाद सबके लिए कल्याणकारी और ज्ञानवर्द्धक होता है, इसलिए इस दिन गुरू पूजन के उपरांत गुरू का आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए। सिख धर्म में इस पर्व का महत्व अधिक इस कारण है क्योंकि सिख इतिहास में उनके दस गुरूओं का बेहद महत्व रहा है।

Saturday 21 July 2018

कांग्रेस युवराज की नई सेना/संभावनाएं...

घनश्याम डी रामावत
टीडीपी द्वारा लाए गए अविश्वास प्रस्ताव को लेकर शुक्रवार को देर रात तक चली लोकसभा की कार्यवाही सरकार के कार्यकलापों पर चर्चा से ज्यादा कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के तेवर, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को दी गई झप्पी, आंख मारने, पीएम की मुस्कराहटों, फिसलती जुबानों, शेरो-शायरी और हंसी-ठहाकों के साथ-साथ रफाल सौदे पर राहुल के दावे को फ्रांस सरकार द्वारा खारिज किए जाने की वजह से खास तौर पर याद किया जाएगा। सही मायने में 20 जुलाई 2018 अर्थात शुक्रवार को चार साल दो माह पुरानी राजग सरकार के खिलाफ पहले अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान लोकसभा 2019 चुनाव पूर्व बहस का मंच बन गई। 

युवाओं के साथ अनुभव को तरजीह, कुल 51 सदस्य
कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने एक-एक कर उन सारे मुद्दों पर प्रहार किया जिन्हें सदन के बाहर विपक्ष उठाता रहा हैं। माना जा रहा है कि संख्याबल न होने के बावजूद अविश्वास प्रस्ताव लाने का उद्देश्य विभिन्न मुद्दों पर चुनावपूर्व सरकार को सदन में घेरना था जिन पर सदन के बाहर पीएम नरेन्द्र मोदी सदन के बाहर जवाब देने से बचते रहे थे। सोची समझी रणनीति के तहत कांग्रेस सुप्रीमों राहुल गांधी व अन्य विपक्षी नेताओं ने ऐसा किया भी। यहीं नहीं, राहुल गांधी ने अपने भाषण के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पास जाकर गले लगने की गांधीगिरी दिखाई और देशभर में चर्चा का केन्द्र बन गए। बहरहाल! यह तो तय हो गया कि राहुल गांधी अब लोकसभा चुनाव 2019 का मुकाबला मजबूती से करने के लिए तैयार है। उनके ताजातरीन तेवर तो कुछ ऐसा ही इशारा कर रहे है। लंबे इंतजार के बाद ही सही आखिरकार उनके द्वारा अब 2019 लोकसभा चुनाव लडऩे के लिए अपनी सेना भी तैयार कर ली गई है। दरअसल, राहुल गांधी ने कांग्रेस पार्टी की सर्वोच्च नीति निर्धारण संस्था कांग्रेस कार्यसमिति (सीडब्ल्यूसी) का पुनर्गठन किया है। राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष का पद संभालने के सात महीने बाद कांग्रेस कार्यसमिति का गठन किया है। पिछली कार्यसमिति को मार्च में अधिवेशन से पहले भंग कर दिया गया था। अधिवेशन में पार्टी सुप्रीमो राहुल गांधी को अपनी टीम चुनने के लिए अधिकृत किया गया। राहुल गांधी को समिति का गठन करने में चार महीने का समय लगा। राहुल गांधी की कांग्रेस वर्किंग कमेटी में कुल 51 सदस्य हैं। इनमें 23 सदस्य, 18 स्थायी सदस्य और 10 विशेष आमंत्रित सदस्य बनाए गए हैं। 

महासचिव से हटाए गए किसी भी नेता को जगह नहीं
राहुल गांधी ने पहली बार कांग्रेस के मोर्चा संगठन मसलन यूथ कांग्रेस, एनएसयूआई, महिला कांग्रेस, इंटक और सेवा दल के अध्यक्षों को सीडब्ल्यूसी में विशेष आमंत्रित सदस्य बनाया है। कांग्रेस अध्यक्ष ने अपनी नई टीम में बड़ी संख्या में युवाओं को शामिल कर साफ संकेत दे दिए हैं कि आने वाले दिनों में कांग्रेस अपने इन्हीं नौजवानों के चेहरों के दम पर आगे बढ़ेगी। हालांकि कार्यसमिति में अनुभवी नेताओं को भी पूरी तवज्जो दी गई है। पार्टी के संगठन में विधानसभा चुनाव वाले तीन राज्यों-राजस्थान, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ के सर्वाधिक महत्वपूर्ण नेताओं को खासकर शामिल किया गया है। हालांकि अनुभव को भी तरजीह दी गई है। राहुल की कार्यसमिति में सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, मोती लाल वोहरा, अहमद पटेल, अशोक गहलोत को सदस्य के तौर पर जगह मिली है। वहीं दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित, पी. चिदम्बरम जैसे नेताओं को स्थायी आमंत्रित सदस्य के रूप में चुना गया। कार्यसमिति में पश्चिम बंगाल, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, बिहार जैसे राज्यों का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है। महासचिव से हटाए गए किसी भी नेता को कार्यसमिति में भी जगह नहीं दी गई। इसी वजह से सी पी जोशी, मोहन प्रकाश, बी के हरिप्रसाद को कार्यसमिति से हटा दिया गया है। लाल बहादुर शास्त्री के पुत्र अनिल शास्त्री लंबे समय से विशेष आमंत्रित सदस्य थे, पर इस बार वह भी जगह नहीं पा सके। पंजाब के सीएम कैप्टन अमरिन्दर सिंह को कार्यसमिति में जगह नहीं मिलना चकित करने वाला जरूर है। आमंत्रित सदस्यों को जोड़ लें तो भी महिलाओं की संख्या 51 में से केवल सात ही है। यानि 15 प्रतिशत से भी कम। हाल-फिलहाल दलित आंदोलन की परछाईं इस समिति के चयन में दिखी। दलित चेहरों के रूप में मल्लिकार्जुन खडग़े, कुमारी शैलजा और पीएल पुनिया को शामिल किया गया है। राजनीतिक समीक्षकों की माने तो राहुल गांधी और राजस्थान के कद्दावर नेता अशोक गहलोत के लगातार साथ काम करने का असर राहुल के तेवरों में अब नजर आने लगा है और अब उनमें राजनीतिक परिपक्वता दिखाई देने लगी है। 

पार्टी नेताओं व कार्यकर्ताओं में उत्साह
राहुल गांधी के नये अवतार व तेवरों से कांग्रेस कार्यकर्ताओं में खुशी व उत्साह का माहौल है। हालांकि, राहुल गांधी की नई टीम की असली परीक्षा आने वाले विधानसभा और 2019 लोकसभा चुनाव में होगी।

Friday 20 July 2018

सूखते जल स्रोत चिंता का विषय!

घनश्याम डी रामावत
भारत वाकई खुशनसीब हैं। यह दुनिया के उन कुछ गिने चुने देशों में से है जिसे कुदरत से बारिश का भरपूर तोहफा मिला हुआ है। हमारे यहां जितनी बारिश होती है, यूरोप के करीब 20 देशों में मिलकर भी उतनी बारिश नहीं होती। बावजूद इसके हम धीरे-धीरे जल संकट के दरवाजे पर आ खड़े हुए हैं, तो उसकी हमारी कुछ अपनी वजहें हैं और कुछ पर्यावरण और ग्लोबल वार्मिंग की देन है। मारवाड़ और खासकर पश्चिमी राजस्थान में पिछले कुछ वर्षों से मानसून आगमन को लेकर लेटलतीफी सा ही रहा हैं, इसे अन्य प्रदेशों की तुलना में अपवाद भी कहा जा सकता है/किन्तु यह भी सच है कि बारिश यहां भी जमकर अर्थात बेलगाम होती रही हैं। दरअसल हमारे देश में सालभर में जितनी बारिश होती है, उस बारिश का 80 फीसदी तक हिस्सा महज 90 दिन के अंदर गिर जाता है। भारत में औसतन वार्षिक वर्षा 1,170 मिमी होती है। लेकिन करीब 90 फीसदी बारिश का पानी बहकर समुद्र पहुंच जाता है। ज्ञातव्य रहें, 80 फीसदी बारिश 3 महीने के अंदर होती है और उन 3 महीनों में भी करीब 90 फीसदी बारिश सिर्फ 20 से 30 घंटों के दौरान होती है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि बारिश कितनी तीव्रता और कितनी बेलगाम ढंग से होती हैं?

पहले होते थे जल संचयन के सशक्त उपाय
पुराने समय में सिर्फ वर्षा के पानी को रोकने के ही हमने तमाम देशी तरीके विकसित नहीं किये थे बल्कि इन तरीकों के साथ-साथ हम वर्षा जल के प्रबंधन के लिए तमाम प्राकृतिक जल स्रोतों का भरपूर रूप से इस्तेमाल करते थे, जिससे सिर्फ पानी ही इकट्ठा नहीं किया जाता था बल्कि प्राकृतिक रूप से भूमि के अंदर ही उसे एकत्रित किया जाता था। लेकिन धीरे-धीरे विकास के नाम पर हमने इस पारंपरिक प्रबंधन को ही भुला दिया और बड़े-बड़े औद्योगिक सभ्यता वाले जल प्रबंधन पर निर्भर हो गए। लेकिन हम इस बात को भूल गए कि ये बड़े-बड़े बांध हर जगह नहीं बनाए जा सकते जहां बांध बनाये भी गए हैं, वहां सिर्फ 20 फीसदी पानी को ही रोका जा सका है। क्योंकि बारिश का पानी चूंकि अनियंत्रित होता है और साथ ही बहुत कम समय में बहुत ज्यादा बारिश होती है इसलिए एक सीमा से ज्यादा बांधों में पानी रोका नहीं जा सकता। इसके साथ ही एक बड़ी समस्या यह है कि कम समय में हुई ज्यादा बारिश के कारण अकसर बांध टूट भी जाते है अथवा कई किस्म की दुर्घटनाओं का शिकार भी हो जाते हैं। जिस तरह से ग्लोबल वार्मिंग का खतरा बढ़ा है उसको देखते हुए अब पारंपरिक जल प्रबंधन की तरफ देश लौट रहा है। पिछले कुछ वर्षों में राजस्थान सरकार ने भी इस दिशा में विशेष काम किए है और तमाम आधुनिक जल प्रबंधन के विशेषज्ञों को शामिल करते हुए उस पुरानी जल प्रबंधन व्यवस्था/तकनीक को विकसित करने की कोशिश की है, जो सदियों से यहां की प्रचूर जल व्यवस्था का प्रमुख आधार थी। 

'मुख्यमंत्री जल स्वावलम्बन अभियान' की सर्वत्र सराहना
राजस्थान सरकार की जल संचयन अन्तर्गत प्रमुख कवायद 'मुख्यमंत्री जल स्वावलम्बन अभियान' को प्रदेश के साथ अन्य प्रदेशों में भी खासा सराहा गया हैं। 27 जनवरी 2016 से राजस्थान सरकार की ओर से शुरू किए गए इस जन-कल्याणकारी ‘मुख्यमंत्री जल स्वावलम्बन अभियान’ का मूल उद्देश्य बारिश के पानी की एक-एक बूंद को सहेजकर गांवों को जल आत्मनिर्भरता की ओर बढाऩा है। एक जमाने में बड़े पैमाने पर खाल-चाल यानी छोटे-छोटे तालाबनुमा गड्ढे हुआ करते थे। इन गड्ढ़ों में बारिश का पानी सहेजा जाता था जो न सिर्फ कई महीने तक इंसानों और जानवरों के काम आता था बल्कि इस सहेजे गये पानी से धरती रिचार्ज होती थी जिस कारण बारिश के बाद यही रिचार्ज हुआ पानी झरनों और छोटी-छोटी बाबडिय़ों या खड्डों में रिसकर इकट्ठा होने लगता था, जो जानवरों और इंसानों दोनो के काम आता था। दरअसल यही पानी पूरे साल जल की पूर्ति करता था। यही पानी स्थानीय लोगों को पूरे साल हासिल होता था। इससे लोग अपनी प्यास भी बुझाते थे और धरती की प्यास भी इससे बुझती थी। लेकिन पुराने जल प्रबंधन को भुला दिये जाने के कारण आज जल समस्या विकराल रूप ले चुकी है। देश का 90 फीसदी क्षेत्र आज या तो जल की कमी से परेशान है या साल के कुछ महीनों में जल की कटौती से दो चार रहता है। जबकि भारत में जल प्रबंधन की सुदृढ़ व्यवस्था ईसा के लगभग 300 वर्ष पूर्व से मौजूद है। उस समय भी कच्छ और बलूचिस्तान में बांध मौजूद थे, लोग इन्हें स्थानीय संसाधनों से बनाना भी जानते थे और बांध बनाकर रोके गये पानी का उचित उपयोग भी जानते थे। लेकिन धीरे-धीरे हमने ये तमाम चीजें भुला दीं। जबकि भारत के इतिहास में कोई ऐसा समय नहीं रहा, जब पानी को सहजने की हमें व्यवस्थित तरकीब पता न रही हो और उसके जरिये हम पानी के मामले में आत्मनिर्भर न रहे हों। 

सरकारों की गंभीरता प्रसन्नता का विषय
भारत सरकार और राजस्थान सरकार के साथ देश की अन्य कई राज्य सरकारों ने अब फिर से जल प्रबंधन की उन पुरानी तकनीकों की तरफ लौटने का मन बनाया है। उम्मीद है कि अगले 5 से 8 साल के भीतर हम आज के मुकाबले 10 से 15 फीसदी ज्यादा पानी समुद्र में जाने से बचा सकेंगे। इससे हमारी दैनिक जरूरतें पूरी होने में तो आसानी होगी ही, साथ ही धरती के अंदर की सूखती हुई जलधारा भी हरी होगी जिससे देश का भविष्य सुरक्षित रहेगा।