Monday 30 November 2015

विजय लक्ष्मी प्रजापति: जोधपुर की पहली महिला फोटोग्राफर

घनश्याम डी रामावत
भारतीय संस्कृति में महिलाओं का शुरू से ही विशेष सम्मान रहा हैं एवं खास तौर से बेटियों के बारे में अपने देश में सदियों से बहुत कुछ कहा जाता रहा हैं। बेटी जब भी गर्व भरा काम करती हैं, उसकी उपलब्धि पर न केवल उसका अपना परिवार नाज करता हैं बल्कि समूचा देश स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता हैं। और हो भी क्यों नहीं, आखिर बेटियां देश, समाज व हर परिवार की शान जो होती हैं। लेकिन इन सब के बीच.. बेटी जब बहू के रूप में भी कुछ खास कर जाएं, इस शान में चार चांद लगना लाजमी हैं। ऐसी ही एक बेटी और बहू हैं सूर्यनगरी की विजय लक्ष्मी प्रजापति। उम्र की ढ़लान पर एक गृहिणी के रूप में इन दिनों आध्यात्मिक जीवन जी रही विजय लक्ष्मी प्रजापति की पहचान जोधपुर की पहली महिला प्रोफशनल फोटोग्राफर के रूप में रही हैं। राजस्थानी में एम.ए. तक शिक्षा प्राप्त विजय लक्ष्मी ने वर्षो पहले उस समय कैमरा हाथ में पकड़ा, जब महिलाओं के व्यवसायिक तौर पर घर से बाहर निकलने को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता था। प्रोफेशनल फोटोग्राफर के तौर पर करीब तीन दशकों तक राजस्थान व खासकर सूर्यनगरी जोधपुर की सभ्यता व संस्कृति से जुड़ी हर तस्वीर को अपने कैमरे में कैद कर इसकी खूशबू को पूरे देश में फैलाने के साथ ही वर्ष 2013 में प्रदेश की राजधानी जयपुर में ऑल इंडिया वैलफेयर सोसायटी और लिविंग सोल एनजीओ की ओर से आयोजित कार्यक्रम ‘कुरजा-4’ में मशहूर ऑलम्पियन मिल्खा सिंह के हाथों ‘बेटी सृष्टि रत्न’ अवार्ड से सम्मानित विजय लक्ष्मी प्रजापति आज किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। 

बचपन से ही अच्छे संस्कारों के बीच पली-बढ़ी
अस्सी के दशक में जब महिलाओं को व्यवसायिक दृष्टि से घरों से बाहर निकलने की पूरी आजादी नहीं थी, बचपन से ही अच्छे संस्कारों के बीच पली-बढ़ी सरल व संजीदा व्यक्तित्व की धनी विजय लक्ष्मी ने प्रोफेशनल फोटोग्राफर के तौर पर हाथों में कैमरा पकड़ कर सभी को चौका दिया। इसमें इन्हें सबसे बड़ा सहयोग मिला पति जगदीश चंद्र से। शिक्षा विभाग में सेवारत्त पति जगदीश चंद्र नौकरी के साथ फोटोग्राफी भी किया करते थे। यहीं से इन्हें फोटोग्राफी का शौक लगा और अपने पति से इन्होंने कैमरा चलाना सीखा। अपनी उम्र के 65 बसंत पार कर चुकी विजय लक्ष्मी अपने फोटो कला प्रेम और इससे जुड़े शुरूआती संस्मरणों को याद कर आज भी रोमांच से भर जाती हैं। आज अचानक मन किया तो विजय लक्ष्मी से मिलने जा पहुंचा उनके शक्ति नगर स्थित आवास पर। घर पर वे उसी अंदाज में मिली जैसी अपेक्षा थी, उम्र के इस पड़ाव पर भी वहीं जोश-वहीं ताजगी, हाथ में अखबार थामे वे देश-दुनियां के हालचाल जानने में व्यस्त थी। बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ तो वाकई बहुत कुछ जानने व समझने का मिला उनसे.. विजय लक्ष्मी के अनुसार उन्होंने 1980 में फोटोग्राफी क्षेत्र में कदम रखा। ब्लेक एंड व्हाइट से लेकर कलर फोटोग्राफी के बारे में अनुभव साझा करते हुए वे बताती हैं कि उस वक्त के संघर्ष की तुलना में मौजूदा कामयाबियां व अवार्ड बहुत छोटे प्रतीत होते हैं।

शुरूआत में बड़े-बुजुर्गों का विरोध झेलना पड़ा
अपने फोटोग्राफी शौक के चलते विजय लक्ष्मी को संयुक्त परिवार की वजह से शुरूआत में बड़े-बुजुर्गों का काफी विरोध भी झेलना पड़ा। किन्तु पति जगदीश चंद्र का उन्हें हमेशा सहयोग मिला। विजय लक्ष्मी के अनुसार एक समय ऐसा आया जब पति को बीमारी ने आंशिक रूप से जकड़ लिया, नतीजतन घर-परिवार की आर्थिक स्थिति बिगडऩे लगी। ऐसे में उनकी शौकिया फोटोग्राफी ने प्रोफेशनल रूप ले लिया और वे शादी-ब्याह, त्यौहारों व सभा-सम्मेलनों में फोटोग्राफी करने लगी। फोटो खींचने से लेकर डवलपिंग(चूंकि उन दिनों ब्लेक एंड व्हाइट का जमाना था) व प्रिंटिंग करके ग्राहकों को देना..सब कुछ खुद ही कर लेती थी। राजपूत समाज में पर्दा प्रथा का रिवाज होने के चलते विजय लक्ष्मी बतौर फोटोग्राफर हमेशा उनकी पहली पसंद रही। एक बार उदयपुर राजघराने के द्वारा खास तौर से इन्हें फोटो खींचने बुलाए जाने के बाद तो विजय लक्ष्मी राजपूत घरों की पसंदीदा फोटोग्राफर ही बन गई। राजस्थानी में एम ए विजय लक्ष्मी बताती हैं कि उन्होंने पहली बार कैमरा उपयोग में लेते हुए एक बच्चें की फोटो खींची थी। जोधपुर के पब्लिक पार्क में उन्होंने ‘वाइल्ड एनीमल्स’ की फोटोग्राफी प्रतियोगिता में हिस्सा लिया और यहीं से उनका प्रोफेशनल सफर शुरू हो गया। उनके अनुसार उन्हें असली पहचान मरूधरा फोटोग्राफी सोसायटी ने दिलाई।

‘वाइल्ड एनीमल्स’ की फोटो बेस्ट अचीवमेंट
विजय लक्ष्मी ने महानगर में होने वाली हर प्रतियोगिता में हिस्सा लिया व पुरूस्कार जीते। इसके अलावा पर्यटन, कला व संस्कृति विभाग के द्वारा भी इन्हें, वर्ष 1984 में इनके द्वारा बांध के लिए एक छायाचित्र संदर्भ में सम्मानित(द्वितीय पुरूस्कार) किया जा चुका हैं। अपने कैमरे में हजारों दृश्यों को कैद कर चुकी विजय लक्ष्मी प्रजापति जीवन का बेस्ट अचीवमेंट ‘वाइल्ड एनीमल्स’ की फोटो को मानती हैं। महिला साक्षरता को बढ़ावा देने हेतु इससे जुड़े नारे भले ही नब्बे के दशक में परवान चढ़े हो, विजय लक्ष्मी ने ‘पढ़ी लिखी जब होगी माता, घर की बनेगी भाग्य विधाता’, ‘हर महिला को शिक्षित बनाओ, परिवार में खुशहाली लाओ’ एवं ‘एक नारी पढ़ेगी, सात पीढ़ी तरेगी’ जैसे नारों को वर्षो पहले ही आत्मसात करते हुए चरित्रार्थ कर दिया। विजय लक्ष्मी ने शादी के बाद न केवल अपनी मेट्रिक से आगे की पढ़ाई करते हुए राजस्थानी में एम ए किया, अपने परिवार की शिक्षा को लेकर भी सजगता बरती। नतीजतन दोनो संताने सरकारी सेवा में हैं, बेटा इंजीनियर व बेटी अध्यापिका हैं। एक महिला के तौर पर हासिल अचीवमेंट को राज्य सरकार द्वारा गंभीरता से नहीं लिए जाने के सवाल का विजय लक्ष्मी कोई सीधा जवाब तो नहीं दे रही किन्तु यह अवश्य कहती हैं कि महिला सम्मान व प्रोत्साहन को लेकर अब वाकई सरकारों को दिल से संजीदा होने की आवश्यकता हैं। उनकी स्पष्ट मान्यता हैं कि आज की महिला किसी भी मायने में पुरूषों से कम नहीं हैं। भविष्य में गर्वनमेंट द्वारा उन्हें किसी स्तर पर सम्मानित किए जाने के सवाल पर वे बस मुस्कराकर रह जाती हैं।

जोधपुर का मेहरानगढ़ दुर्ग: बारीक नक्काशी और विशाल प्रांगण के लिए दुनियाभर में खास पहचान

घनश्याम डी रामावत
अपनी बेहतरीन संस्कृति व अपणायत के लिए देश ही नहीं विदेश तक में खास पहचान रखने वाला पश्चिमी राजस्थान का प्रमुख शहर जोधपुर अपने दुर्ग को लेकर भी विशेष तौर पर जाना जाता हैं। ‘मेहरानगढ़’ दुर्ग की भव्यता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता हैं कि यह जोधपुर शहर के धरातल से 112 मीटर की ऊंचाई पर हैं। यह दुर्ग चारों ओर से अभेद्य प्राचीरों से घिरा हुआ हैं। यह दुर्ग बारीक नक्काशी और विशाल प्रांगण के लिए दुनियाभर में जाना जाता हैं। इस विशाल दुर्ग के भीतरी परिसर में अनेक महल और मंदिर हैं। एक घुमावदार घाटी और सडक़ से यह दुर्ग जोधपुर शहर से जुड़ता हैं। दुर्ग की प्राचीरों पर अब भी जोधपुर के महाराजा और जयपुर की सेना के बीच हुए युद्धों के प्रतीक तोप के गोलों के निशान के रूप में अंकित हैं। किले के बायीं ओर कीरतसिंह सोढ़ा की छतरी हैं। यह एक योद्धा था जिसने किले की रक्षा के लिए अपनी जान न्योछावर की थी। यहां के राजा मानसिंह ने अपनी विजयों की स्मृति में सात दरवाजे बनवाए थे। जयपुर और बीकानेर के शासकों को हराने के उपलक्ष में जयपोल बनवाया गया। इसके अलावा फतेहपोल द्वारा का निर्माण महाराजा अजीत सिंह ने मुगलों पर फतेह पाने के बाद कराया था। इन द्वारा पर आज भी तब के युद्धों के निशान बाकी हैं, जिन्हें देखना अद्भुत हैं।
मेहरानगढ़ का संग्रहालय देश के सबसे बेहतरीन संग्रहालयों में से एक हैं। इस संग्रहालय में अतीत की महत्वपूर्ण वस्तुओं का संग्रह किया गया हैं। इनमें 1730 में गुजरात के शासक से लड़ाई में जीती विशाल पालकी भी हैं, इसके अलावा हथियार, वेशभूषा, पेंटिंग और ऐतिहासिक विरासतों की लंबी श्रंखला यहां संग्रहित की गई हैं। कामयाब अंग्रेजी फिल्म ’डार्क नाइट’ के कुछ हिस्से भी मेहरानगढ़ में फिल्माए जाने के बाद यह हॉलीवुड के लिए भी एक शानदार डेस्टीनेशन बन गया। यहां ब्रूस वेन को कैद करने, जेल पर हमला करने आदि के दृश्य फिल्माए गए थे।
राव जोधा ने बसाया था जोधपुर
जोधपुर नगर राव जोधा ने बसाया था। उन्होंने यहां 1438 से 1488 तक लंबे समय तक शासन किया। वे रावल के 24 पुत्रों में से एक थे। चारों ओर शत्रुओं से घिरे होने के कारण उन्होंने जोधपुर की राजधानी को किसी सुरक्षित स्थान पर स्थानांतरित करने की योजना बनाई। वे मानते थे कि मंडोर का किला जोधपुर की सुरक्षा करने के लिए पर्याप्त नहीं है। राव सामरा के बाद उनके पुत्र राव नारा ने जोधपुर की कमान संभाली और पूरे मेवाड़ को मंडोर के छत्र के नीचे सुरक्षित किया। राव जोधा ने राव नारा को दीवान का खिताब दिया था। राव नारा की मदद से जोधा ने 12 मई 1459 को मेहरानगढ़ की नींव रखी। यह दुर्ग मंडोर से 9 किमी की दूरी पर दक्षिण में भौरचिरैया पहाड़ी पर बनाया गया। कहा जाता हैं उस पहाड़ी पर पक्षियों के स्वामी चिरैया का राज था। महल की नींव पड़ जाने के बाद चिरैया को यहां से विस्थापित होना पड़ा। इस पर चिरैया ने यहां हमेशा सूखा पडऩे का श्राप दिया। कहा जाता है उसके बाद कई बरसों तक यहां सूखा पड़ा। तब राव ने एक मंदिर बनाकर श्राप से मुक्ति पाई। इस दुर्ग के बारे में यह भी कहा जाता है कि यहां एक व्यक्ति राजाराम मेघवाल की समाधि थी। राव जोधा ने राजाराम के परिजनों से दुर्ग के एक हिस्से पर राजाराम के परिजनों के हक का वादा किया था। यह हक आज भी अदा किया जा रहा है और दुर्ग के एक हिस्से ’राजाराम मेघवाल गार्डन’ में आज भी उसके वंशज निवास करते हैं।

राव जोधा ने रखा था दुर्ग का नाम मिहिरगढ़
मेहरानगढ़ संस्कृत के ’मिहिर’ से बना हैं। जिसका अर्थ होता है सूर्य। राव जोधा सूर्य के उपासक थे इसलिए उन्होंने इस दुर्ग का नाम मिहिरगढ़ रखा। लेकिन राजस्थानी बोली में स्वर मिहिरगढ़ से मेहरानगढ़ हो गया। राठौड़ अपने आप को सूर्य के वंशज भी मानते हैं। किले के मूल भाग का निर्माण जोधपुर के संस्थापक राव जोधा ने 1459 में कराया। इसके बाद 1538 से 1578 तक शासक रहे जसवंत सिंह ने किले का विस्तार किया। किले में प्रवेश के लिए सात विशाल द्वार इसकी शोभा हैं। 1806 में महाराजा मानसिंह ने जयपुर और बीकानेर पर जीत के उपलक्ष में दुर्ग में जयपोल का निर्माण कराया। इससे पूर्व 1707 में मुगलों पर जीत के जश्न में फतेलपोल का निर्माण कराया गया था। दुर्ग परिसर में डेढ कामरापोल, लोहापोल आदि भी दुर्ग की प्रतिष्ठा बढाते हैं। दुर्ग परिसर में सती माता का मंदिर भी हैं। 1843 में महाराजा मानसिंह का निधन होने के बाद उनकी पत्नी ने चिता पर बैठकर जान दे दी थी। यह मंदिर उसी की स्मृति में बनाया गया

किले के अंदर कई शानदार महल और स्मारक बने हुए हैं। इनमें मोती महल, फूल महल, शीशमहल, सिलेहखाना और दौलतखाना उल्लेखनीय हैं। यहां स्थित संग्रहालय में जोधुपर के शासकों और राजपरिवारों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली शाही वस्तुओं के अलावा युद्ध में काम आने वाले औजार, हथियारों को भी संग्रहित किया गया हैं। संग्रहालय को देखना अपने आप में इतिहास की खिडक़ी में झांकने जैसा हैं। यह बहुत आनंद देता हैं। संग्रहित वस्तुओं में शाही पोशाके, युद्ध पोशाके, पालने, लकड़ी की वस्तुएं, चित्र, वाद्य यंत्र, फर्नीचर व पुरानी तोपें आदि उल्लेखनीय हैं।


मोती महल व शीश महल आकर्षण का केन्द्र
मेहरानगढ़ पर 1595 से 1619 के दौरान शासन करने वाले राजा शूरसिंह ने मोती महल का निर्माण कराया था। मोती महल को वर्तमान में संग्रहालय बनाया गया हैं। दुर्ग में स्थित सभी महलों में से यह सबसे बड़ा और खूबसूरत हैं। मोती महल में बने पांच झरोखे विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। कहा जाता हैं जब राजा शूरसिंह दरबार में होते थे तो कार्रवाई देखने के लिए उनकी पांच रानियां इनमें बैठा करती थीं। राजस्थान में वैसे तो कई विशाल दुर्गों में शीशमहल बने हुए हैं किंतु मेहरानगढ़ के शीशमहल को अन्य सभी महलों से सबसे अच्छा माना जाता हैं। जयपुर के शीशमहल से इसकी तुलना की जाती हैं। राजपूत शैली के स्थापत्य का यह सबसे अच्छा उदाहरण  है। शीशमहल में छोटे-छोटे शीशों के टुकड़ों को दीवार पर चिपकाकर एक भव्य आकार दिया जाता हैं। इन शीशों पर एक विशेष प्रकार का पेंट किया जाता था। जिससे शीशों की चमक आंखों में नहीं चुभती थी और ये पर्याप्त रूप से चमक भी देते थे। मेहरानगढ़ का शीश महल वाकई देखने लायक हैं।

खूबसूरत फूलमहल एवं तख्तविलास
फूल महल का निर्माण मेहरानगढ़ पर 1724 से  1749 तक राज करने वाले  महाराजा अभय सिंह ने बनवाया था। यह एक ऐसा महल था जिसमें खुशी के अवसर पर राजपरिवार एकत्र होता था और खुशियां बनाई जाती थी। खुशी जाहिर करने के काम में आने के कारण इस महल की खूबसूरती भी शानदार हैं। कई बार राजा महाराजा यहां नृत्य के कार्यक्रमों का आयोजन भी करते थे और महफिल सजाई जाती थी। महल की छत सोने और चांदी के तरल पेंट से सजाई गई हैं। महल की सुंदरता यहां खंभों और दीवारों में साफ झलकती हैं। ‘तख्तविलास’ यह महल राजा तख्तसिंह की आरामगाह थी। 1843 से 1873 तक शासन करने वाले तख्त सिंह ने इस महल का निर्माण कराया था। तख्तविलास परंपरागत शैली में बना शानदार महल हैं जिसकी को कांच के गोलों से बनाया गया था। अंग्रेज भी इस महल की खूबसूरती को देख अचंभा करते थे।

आराध्य मां चामुंडा देवी का मंदिर
जोधपुर के शासक देवी उपासक थे। इसलिए दुर्ग में देवी मंदिर भी हैं। यहां का सबसे खास देवी मंदिर हैं ‘चामुंडा माता’। राज जोधा चामुंडा देवी के विशेष उपासक थे। 1460 में पुरानी राजधानी मंडोर से यह मूर्ति यहां लाकर स्थापित की गई थी। उल्लेखनीय हैं चामुंडा देवी मंडोर के परिहार शासकों की कुल देवी थी। राव जोधा भी चामुंडा देवी को ही अपना इष्ट मानते थे और रोजाना पूजा अर्चना किया करते थे। आज भी जोधपुर के लोगों की आराध्या देवी चामुंडा माता ही हैं और बड़ी संख्या में उनके दर्शनों के लिए श्रद्धालु यहां आते हैं। गौरतलब हैं कि 2008 में मेहरानगढ के चामुंडा देवी मंदिर में भरने वाले सालाना मेले के दौरान यहां भगदड़ मच गई थी जिसमें 250 श्रद्धालुओं की मौत हो गई थी और चार सौ से अधिक घायल हो गए थे।

Sunday 29 November 2015

जोधपुर का ‘राजरणछोड़ जी मंदिर’: श्रद्धा व आस्था की अनूठी मिसाल

घनश्याम डी रामावत
जोधपुर के प्रमुख श्रीकृष्ण मंदिरों में शुमार राजरणछोड़ जी का मंदिर जोधपुर के महाराजा जसवंतसिंह की द्वितीय रानी एवं जामनगर के राजा वीभा की पुत्री जाड़ेची राजकंवर ने बनवाया। सन् 1905 में बने इस मंदिर पर रानी राजकंवर ने कुल एक लाख रूपये खर्च किए। मात्र नौ वर्ष की उम्र जाड़ेची राजकंवर का विवाह जोधपुर के तत्कालीन राजकुमार जसवंतसिंह के साथ हुआ था। वर्ष 1854 में यह ‘खाण्डा’ विवाह था जिसमें जसवंतसिंह विवाह के लिए जामनगर नहीं गए बल्कि सिर्फ उनकी तलवार को वहां भेजा गया। तलवार के साथ राजकुमारी राजकंवर ने सात फेर लिए थे। विवाह की कुछ रस्में जालोर में पूरी की गई। विवाह के बाद राजकंवर जोधपुर पहुंची लेकिन चंद दिनों बाद जामनगर लौट गई। जब वह तेरह वर्ष की हुई तब पुन: ससुराल जोधपुर आई तो फिर कभी लौटकर अपने पीहर नहीं गई। एक बार मेहरानगढ़ में प्रवेश करने के बाद वह जीवन भर दुर्ग से बाहर नहीं निकली। रानी राजकंवर प्रतिवर्ष सवा लाख तुलसी दल अभिषेक के लिए द्वारिका भेजती थी। तुलसी दल को पुजारी तथा कामदार द्वारिका लेकर जाते थे।
 महाराजा जसवंतसिंह के विक्रम संवत् 1952 में देहावसान के बाद रानी राजकंवर ने वृद्धावस्था में जोधपुर में भगवान श्रीकृष्ण का भव्य मंदिर बनवाया। उस समय यह मंदिर जोधपुर परकोटे के बाहर बाई जी का तालाब के पास एक ऊंचे रेतीले टीले पर बनवाया गया। जोधपुर रेलवे स्टेशन के ठीक सामने स्थित मंदिर की जमीन को तीस फीट ऊंचा बनाया गया ताकि रानी राजकंवर मेहरानगढ़ की प्राचीर से भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन कर सकें। रानी ने अपने संपूर्ण जीवन में कभी दुर्ग की प्राचीर नहीं लांघी। मंदिर के निर्माण के बाद रानी किले की प्राचीर से ही संध्या के समय खड़ी होकर दर्शन करती थी। मंदिर का पुजारी आरती की ज्योत को मंदिर के चौक के दरवाजे के बाहर लेकर खड़ा होता था। किले की प्राचीर से रानी राजकंवर उसी ज्योत के दर्शन करती थी। स्वयं रानी राजकंवर कभी मंदिर में दर्शनार्थ नहीं पहुुंची।

यूं पड़ा मंदिर का नाम ‘राजरणछोड़’
रानी राजकंवर के आराध्य भगवान श्रीकृष्ण को रणछोड़ भी कहा जाता हैं। रानी ने अपने नाम राज के साथ अपने आराध्य भगवान श्रीकृष्ण अर्थात रणछोड़ का नाम जोडक़र मंदिर का नाम ‘राजरणछोड़ जी मंदिर’ रखा। रानी राजकंवर के पुत्र महाराजा सरदारसिंह की मौजूदगी में 12 जून 1905 के दिन मंदिर को भक्तों के दर्शनार्थ खोला गया। मंदिर के नीचे वाले भाग में कई कोटडिय़ां बनाई गई जो अब दूकानों की शक्ल अख्तियार कर चुकी हैं। बाहर से आने वाले श्रद्धालुओं को आवासीय सुविधा उपलब्ध कराने के उद्देश्य से एक सराय का निर्माण करवाया गया जो आज भी विद्यमान हैं। इस सराय को जसवंत सराय के नाम से जाना जाता हैं, यह सराय ‘राजरणछोड़ जी मंदिर’ के ठीक सामने रेलवे स्टेशन जाने वाले मुख्य मार्ग पर बायी ओर गली में स्थित हैं।

लाल पत्थर से निर्मित कलात्मक तोरण द्वार
‘राजरणछोड़ जी मंदिर’ का मुख्य द्वार कलात्मक हैं। लाल पत्थर से निर्मित दो विशाल स्तंभ से सुसज्जित स्तंभों पर बेल बूटों तथा सुंदर फूल पत्तियों की खुदाई सहित शीष से दोनों स्तंभों को जोडऩे वाले मेहराब का आकर्षण देखते ही बनता हैं। मंदिर के अग्र भाग के दोनों सिरों पर कलात्मक छतरियां और मुख्य द्वार से लगभग तीस सीढिय़ां पूरी होने के बाद एक तोरण द्वार निर्मित हैं। सीढिय़ों के दोनों ओर खुले स्थल पर बारादरियां हैं। मंदिर के गर्भ गृह में काले मकराना पत्थर को तराश कर बनाई गई भगवान श्री रणछोड़ जी की प्रतिमा स्थापित हैं।

चांदी के झूले में श्रावणोत्सव
वर्तमान में देव स्थान प्रबंधित राजकीय प्रत्यक्ष प्रभार मंदिर में जन्माष्टमी, अन्नकूट तथा श्रावण मास में झूलों का आयोजन होता हैं। श्रावण मास में विशाल चांदी से निर्मित झूले में ठाकुर जी का विराजित कर दर्शनार्थ रखा जाता हैं। मंदिर के पुजारी हरिलाल शिवलाल ठाकर के अनुसार उनके परदादा रानी राजकंवर के साथ दहेज में आए थे। मंदिर में पहले वर्ष भर में कुल 21 ठाकुर जी के उत्सव होते थे, किन्तु समय के साथ इनमें कमी आई हैं। ‘राजरणछोड़ जी मंदिर’ में भगवान श्रीकृष्ण के दर्शनार्थ मारवाड़ भर से तो श्रद्धालु पहुंचते ही हैं, देश के विभिन्न प्रदेशों के अलावा विदेश से भी भारी तादाद में लोग पहुंचते हैं। 

Friday 27 November 2015

श्री गुरू नानक देव: एक अलौकिक अवतार पुरूष

घनश्याम डी रामावत
भारत की पावन भूमि पर कई संत-महात्मा अवतरित हुए हैं, जिन्होंने धर्म से विमुख सामान्य मनुष्य में अध्यात्म की चेतना जागृत कर उसका नाता ईश्वरीय मार्ग से जोड़ा हैं। ऐसे ही एक अलौकिक अवतार गुरू श्री नानक देव हैं। कहा जाता हैं कि श्री गुरू नानक देव का आगमन ऐसे युग में हुआ, जो इस देश के इतिहास के सबसे अंधेरे युगों में था। उनका जन्म 1449 में लाहौर से 30 मील दूर दक्षिण-पश्चिम में तलवंडी रायभोय नामक स्थान पर हुआ जो इस समय पाकिस्तान में हैं। आगे जाकर गुरूदेव के सम्मान में इस स्थान का नाम ‘ननकाना साहिब’ रखा गया। श्री गुरू नानक देव संत, कवि व समाज सुधारक थे। धर्म काफी समय से थोथी रस्मों और रीति-रिवाजों का नाम बनकर रह गया था। उत्तरी भारत के लिए यह कुशासन और अफरा-तफरी का समय था। सामाजिक जीवन में भारी भ्रष्टाचार था और धार्मिक क्षेत्र में द्वेष और कशमकश का दौर था। न केवल हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच में ही, बल्कि दोनों बड़े धर्मों के भिन्न-भिन्न संप्रदायों के बीच भी। इन कारणो से भिन्न-भिन्न संप्रदायों में और भी कट्टरता व बैर-विरोध की भावना पैदा हो चुकी थी। उस वक्त समाज की हालत वाकई बदत्तर थी।

ब्राह्मणवाद ने अपना एकाधिकार बना रखा था। उसका परिणाम यह था कि गैर- ब्राह्मण को वेद शास्त्राध्ययन से हतोत्साहित किया जाने लगा। निम्न जाति के लोगों को इन्हें पढऩा बिल्कुल वर्जित था। इस ऊंच-नीच का गुरू श्री नानक देव अपनी मुखवाणी जपुजी साहिब में कहते हैं कि ‘नानक उत्तम-नीच न कोई..’ जिसका भावार्थ हैं कि ईश्वर की निगाह में छोटा-बड़ा कोई नहीं फिर भी अगर कोई व्यक्ति अपने आपकों उस प्रभु की निगाह में छोटा समझे तो ईश्वर उस व्यक्ति के हर समय साथ हैं। यह तभी हो सकता हैं जब व्यक्ति ईश्वर के नाम द्वारा अपना अहंकार दूर कर लेता हैं। तब व्यक्ति ईश्वर की निगाह में सबसे बड़ा हैं और उसके समान कोई नहीं। गुरू श्री नानक देव की वाणी में-नीचा अंदर नीच जात, नीची हूं अति नीच। नानक तिन के संगी साथ, वडियां सिऊ कियां रीस? समाज में समानता का नारा देने के लिए उन्होंने कहा कि ईश्वर हमारा पिता हैं और हम सब उसके बच्चे हैं। पिता की निगाह में कोई छोटा अथवा बड़ा नहीं होता। वहीं हमें पैदा करता हैं और हमारे पेट भरने के लिए खाना भेजता हैं। नानक जंत उपाइके, संभालै सभनाह। जिन करते करना कीआ, चिंताभिकरणी ताहर? जब हम एक पिता एकस के वारिस बन जाते हैं तो पिता की निगाह में जात-पात का सवाल ही नहीं पैदा होता।

श्री गुरू नानक देव जात-पात का विरोध करते थे। उन्होंंने समाज को बताया कि मानव जाति तो एक ही हैं फिर यह जाति के कारण ऊंच-नीच क्यों? श्री गुरू नानक देव ने कहा कि मनुष्य की जाति न पूछो, जब व्यक्ति ईश्वर की दरगाह में जाएगा तो वहां जाति नहीं पूछी जाएगी। सिर्फ आपके कर्म ही देखे जाएंगे। श्री गुरू नानक देव ने पित्तर-पूजा, तंत्र-मंत्र और छुआ-छूत की भी आलोचना की। इस प्रकार हम देखते हैं कि श्री गुरू नानक साहिब हिन्दू और मुसलमानों में एक सेतु के समान हैं। हिन्दू उन्हें गुरू एवं मुसलमान पीर के रूप में मानते हैं। उन्होंने हमेशा ऊंच-नीच और जाति-पांति का विरोध करने वाले श्री गुरू नानक देव ने सबको समान समझकर गुरू का लंगर शुरू किया, जो एक ही पंक्ति में बैठकर भोजन करने की प्रथा हैं। श्री गुरू नानक देव महत्वपूर्ण व गंभीर संदेश आमजन को बेहद साधारण तरीके से दे देते थे। उन्होंने एक बार महज एक सुई के माध्यम से एक रईस इंसान को अपनी गलती का अहसास करा दिया। श्री गुरू नानक देव बहुत दयालु और हिम्मती होने के साथ ही हमेशा मुस्कराते रहने वाले महापुरूष थे।

Thursday 26 November 2015

महाभारत काल का साक्षी ‘भाद्राजून’

घनश्याम डी रामावत
राजस्थान के अनेक प्राचीन/अति-प्राचीन दुर्ग, महल व स्मारक, वक्त के थपेड़ों को सहते-सहते.. या तो काल कवलित हो चुके हैं अथवा आज अपने अस्तित्व को बचाये रखने की जद्दोजहद में जुटे हुए हैं। इन सब के बीच कुछ ऐसे दुर्ग एवं महल भी हैं जिनके शासकों द्वारा समय-समय पर संरक्षण व सुरक्षा के साथ जीर्णोद्वार के प्रयास किए जाने से वे आज भी अपने मूल स्वरूप के लगभग अक्षुण बनाये हुए हैं। राजस्थान के ऐसे ही ऐतिहासिक तथा प्राचीन स्थलों में से एक हैं ‘भाद्राजून’। भाद्राजून एक छोटा सा गांव हैं, जो यहां के इतिहास, दुर्ग व महल के कारण अपनी एक अलग पहचान रखता हैं। पश्चिमी राजस्थान के जालोर जिले में यह प्राचीन स्थल लूणी नदी के बेसिन पर स्थित हैं। भाद्राजून पिछली शताब्दियों में हुए अनेक युद्धों व ऐतिहासिक घटनाओं का साक्षी रहा हैं। मारवाड़ राजवंश तथा मुगल साम्राज्य के शासकों के बीच यहां अनेक बाद युद्ध तथ आक्रमण हुए। यहां के शासकों की एक लम्बी फेहरिस्त हैं जिन्होंने मारवाड़ के जोधपुर राजघराने के अधीन रहकर शासन चलाया और क्षेत्र की समृद्धि के लिए व प्रजा की रक्षा के लिए काम किया।
‘भाद्राजून’ का सीधा संबंध महाभारत काल से हैं। इस लिहाज से इसकी उत्पति पांच हजार वर्ष पुरानी मानी जाती हैं। ‘भाद्राजून’.. दो शब्दों-सुभद्रा व अर्जुन को मिलाकर बना हैं। सुभद्रा भगवान श्रीकृष्ण की बहन थी तथा अर्जुन पाण्डु पुत्र थे। प्रारम्भ में यह स्थान ‘सुभद्रा-अर्जुन’ के नाम से जाना जाता था, लेकिन कालान्तर में इसमें धीरे-धीरे परिवर्तन हो गया और बोलचाल की भाषा में इसे ‘भाद्राजून’ के नाम से पुकारा जाने लगा। ‘सुभद्रा-अर्जुन’ अर्थात आज का ‘भाद्राजून’ ग्राम की बसावट पांच हजार वर्ष पुरानी मानी जाती हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार द्वापर युग में महाभारत का युद्ध हुआ था, अत: इसका सीधा ताल्लुक महाभारत काल से हैं। उस समय का महान योद्धा पाण्डु पुत्र धनुर्धर ‘अर्जुन’ भगवान श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा के प्रेम में आबद्ध हो गया था। उन दिनों पाण्डव वनवास पर थे, इस दौरान पांचों पाण्डु पुत्रों को बारह वर्षों तक जंगलों में व एक वर्ष अज्ञातवास में रहना था। ‘सुभद्रा-अर्जुन’ का प्रसंग भी उस वक्त का ही हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन व अपनी बहन सुभद्रा को गुजरात के प्रसिद्ध तीर्थ स्थल ‘द्वारिका’ जाने का परामर्श दिया। दोनों ने प्रस्थान किया तथा लगातार तीन दिन और रात चलने के बाद वे लूणी नदी के बेसिन पर बनी इस घाटी पर पहुंचे, जहां आज ‘भाद्राजून’ गांव स्थित हैं।

उस स्थान का नाम शंखबाली पड़ गया
उन दिनों यहां किसी तरह की कोई बसावट नहीं थी अर्थात कोई नहीं रहता था। यहीं कारण था कि यह स्थान सुभद्रा और अर्जुन के लिए विश्राम करने हेतु एकांत व सुरक्षित था। यहीं पर उन्होंने एक मंदिर के पुजारी की मदद से विवाह किया। कहते हैं उसके बाद ही धीरे-धीरे इस घाटी में अन्य लोगों ने भी बसना शुरू किया और इस स्थान का नाम ‘सुभद्रा-अर्जुन’ हो गया जिसे बाद में ‘भाद्राजून’ के नाम से जाना जाने लगा। सुभद्रा-अर्जुन के विवाह की रस्म पुरी करने वाले पुजारी(पुरोहित) को अर्जुन ने एक शंख तथा सुभद्रा ने अपने नाक की बाली खोलकर भेंट स्वरूप प्रदान की। इसके पश्चात् पुरोहित द्वारा जिस स्थान पर विवाह की रस्म अदा कराई गई उस स्थान/गांव का नाम शंखबाली पड़ गया जो आज भी विद्यमान हैं। यहां पहाड़ी के पीछे सुभद्रा देवी का प्राचीन मंदिर भी हैं जिसे ‘धुमदामाता मंदिर’ के नाम से जाना जाता हैं।

ऐतिहासिक दृष्टि से ‘भाद्राजून’ का महत्व
 ‘भाद्राजून’ दुर्ग महल पर वर्तमान में भाद्राजून के शासकों की 17वीं पीढ़ी का स्वामित्व हैं। इनके पूर्वज ठाकुर रतनसिंह जो जोधपुर के महाराज राव मालदेव के चौथे पुत्र थे, सन् 1549 में यहां आये थे। अंतत: भाद्राजून रियासत सन् 1652 में महाराजा जोधपुर के अधीन आई। ‘भाद्राजून’ उस समय जोधपुर राज्य के दस बड़े ठिकानों में गिना जाता था। जोधपुर महाराजा और नागरिकों द्वारा यहां के ठिकाने व शासकों को पूरा आदर-सम्मान दिया जाता था। ऐसा ही आदर-सम्मान इस रियासत के राज परिवार से संबद्ध महिलाओं को भी मिलता था। अन्य रियासतों की तरह इस रियासत को भी न्यायिक शक्तियां मिली हुई थी। ये किसी भी अपराधी को अधिकतम छ: माह के लिए जेल में रहने की सजा सुना सकते थे। इनकी अपनी पुलिस व्यवस्था और जेल खाने भी थे। जोधपुर के राठौड़ों के अधीन आने से पूर्व ‘भाद्राजून’ परिहार राजपूतों, भाटी, सोनगरा, सिंहल राठौड़ तथा मण्डावर राठौड़ राजपूतों के अधीन भी रहा था। यहां के शासकों ने सामाजिक उत्थान व विकास से संबंधित अनेक कल्याणकारी गतिविधियां अपने समय में संचालित की। यहां के शासक परिवार में से स्वर्गीय राजा गोपालसिंह राजस्थान विधानसभा के अध्यक्ष रह चुके हैं।

‘भाद्राजून’ के भव्य दुर्ग एवं महल
‘भाद्राजून’ दुर्ग का निर्माण सोलहवीं शताब्दी में एक पहाड़ पर किया गया जो छोटा हैं किन्तु सामरिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण, मजबूत व सुरक्षित हैं। यह दुर्ग घोड़े के पैर(खुर) के आकार की घाटी से जुड़ा हुआ हैं जिसमें एक ही तरफ पूर्व दिशा से प्रवेश किया जा सकता हैं। दुर्ग की दीवार लगभग 20-30 फीट ऊंची तथा उसकी एक समान चौड़ाई दस फीट की हैं। दुर्ग की प्राचीर में अनेक बुर्जे बनी हुई हैं जिनका उपयोग युद्धकाल में तोप, बन्दूक व तीर चलाने में किया जाता था। चारों ओर पहाडिय़ां व घाटियां होने से दुर्ग को अत्यधिक प्राकृतिक सुरक्षा मिली हुई थी। सामरिक दृष्टि से सुरक्षित इस दुर्ग की अकबर के सेनापतियों द्वारा प्रशंसा की गई थी(ऐसा इतिहासकार बताते हैं)। अकबर की सेना जोधपुर के राव चंद्रसेन के समय यहां से गुजरी थी। दुर्ग पर अनेक प्राचीन अवशेष आज भी दिखाई पड़ते हैं। यहां तत्कालीन ठाकुर बख्तावरसिंह ने एक पक्का जलाशय बनवाया था जिसे आज ‘बख्तावर सागर’ के नाम से जाना जाता हैं।

समुद्र तट से इस दुर्ग की औसत ऊंचाई दो हजार फीट हैं। जिस उबड़-खाबड़ पथरीली पहाड़ी पर यह दुर्ग बना हुआ हैं उस पर अनेक पेड़, पौधे, वनस्पति, झाडिय़ां व चट्टानें हैं। दुर्ग के चारो ओर के जंगल में अनेक जंगली जीव विचरण करते देखे जा सकते हैं। राज परिवार का निवास स्थल, जिसे यहां की भाषा में रावला कहते हैं.. हेरीटेज होटल में परिवर्तित किया जा चुका हैं। यहां वर्ष भर देशी-विदेशी पयर्टक आते हैं जिन्हें जीप सफारी द्वारा ‘भाद्राजून’ के ग्रामीण परिवेश का अवलोकन कराया जाता हैं तथा जंगल की सैर भी कराई जाती हैं। ‘भाद्राजून’ महल में चौदह सुसज्जित कक्ष हैं जिनमें प्रमुख हैं शीष महल, गोपाल महल, हवा महल और गुमटा महल। अनेक कक्षों की दीवारों पर सुन्दर चित्रकारी एवं कांच का काम किया हुआ हैं। आकर्षक झाली-झरोखों युक्त महल का स्थापत्य देखते ही बनता हैं। इसमें ऐतिहासिक व प्राचीन साजो-सामान भी संग्रहित हैं। महल की एक खासियत यह भी हैं कि सूर्योदय की पहली किरण सभी कक्षों में सीधी पहुंचती हैं। ‘भाद्राजून’ ग्राम के बाहरी भाग में राजा-महाराजाओं की कलात्मक छतरियां बनी हुई हैं जिन्हें ‘देवल’ कहते हैं।

जालोर जिला मुख्यालय से 54 किलोमीटर
राजस्थान में जालोर जिला मुख्यालय से ‘भाद्राजून’ 54 किलोमीटर दूर, जालोर-जोधपुर मार्ग पर स्थित हैं। यह जोधपुर से 97 किमी, उदयपुर से 200 किमी, जयपुर से 356 किमी एवं दिल्ली से 618 किमी हैं। निकटतम रेलवे स्टेशन जालोर तथा पाली हैं जो यहां से लगभग पचास किमी की समान दूरी पर हैं। निकटतम हवाई अड्डा जोधपुर में हैं।

Wednesday 25 November 2015

जोधपुर स्थित उम्मेद उद्यान शिवालय: मौनी बाबा का साधना केन्द्र

घनश्याम डी रामावत
मौनी बाबा की अपनी पचास वर्षों की मौन साधना का केन्द्र एवं तपोस्थली रहा ‘उम्मेद उद्यान स्थित शिवालय’, जोधपुर के प्रमुख शिवालयों में से एक माना जाता हैं। वर्ष 1946 में पहाड़ीनुमा छोटे चबूतरे पर बने शिवालय के पास मौनी बाबा ने अपनी आराधना की शुरूआत की। सूर्यनगरी(जोधपुर) के कुछ श्रद्धालुओं ने बारिश व धूप में साधना करते देख मौनी बाबा के लिए एक छोटी-सी कुटियां का निर्माण करवाया। धीरे-धीरे लोगों की आस्था बढ़ती गई और यह छोटा सा शिवालय श्रद्धालुओं के लिए प्रमुख आस्था स्थल बन गया। वर्ष 1989 में भारत मन्दिर हरिद्वार के संस्थापक व निवृत शंकराचार्य स्वामी सत्यमित्रानंद के सानिध्य में शिव विग्रहों की प्राण प्रतिष्ठा की गई। मन्दिर के सत्संग सभागार में मां अम्बे, गिर्राजधरण, बालाजी मंदिर तथा राम दरबार भी जन-जन की आस्था के प्रमुख केन्द्र हैं।

शिवालय में मौनी कृपा देव दर्शन सभागार
जोधपुर स्थित उम्मेद उद्यान के शिवालय में मौनी कृपा दर्शन सभागार भी हैं। इसमें भगवान सत्यनारायण, राधाकृष्ण, मां सरस्वती, मां संतोषी, विष्णु लक्ष्मी, लोक देवता बाबा रामदेव, साई बाबा, भगवान झूलेलाल, भक्त शिरोमणि मीरा बांई और दत्तात्रेय की प्रतिमाएं प्रमुख हैं। मन्दिर से सटे सत्संग भवन सभागार में कपिल मुनि, सती अनसूया, मानस रचयिता गोस्वामी तुलसीदास, ऋषि विश्वामित्र, देवर्षि नारद, सांदीपनी, पितामह भीष्म, सूतजी, अंगिराजी, ऋषि वशिष्ठ एवं वेदव्यास जैसे प्रमुख ऋषि मुनियों की प्रतिमाएं भी विद्यमान हैं। वर्ष 1966 में ज्येष्ठ माह के शुक्ल पक्ष की षष्ठी, संवत् 2053/23 मई 1996 को मौनी कृपा देव दर्शन सभागार का शुभारम्भ खेड़ापा रामस्नेही पीठ के पीठाचार्य पुरूषोत्तमदास द्वारा किया गया। सभागार के शुभारम्भ के कुछ माह पूर्व ही 4 फरवरी 1996 को मौनी बाबा ब्रह्मलीन हो गए। ब्रह्मलीन होने के बाद श्रद्धालु भक्तों की ओर से सभागार में मौनी बाबा की प्रतिमा स्थापित की गई। वर्ष 2007 में तपोस्थली को संत कुटीर में तब्दील कर दिया गया।

विरक्त मौनी बाबा का संक्षिप्त परिचय
जन-जन की श्रद्धा व आस्था के केन्द्र विरक्त मौनी बाबा का सांसारिक नाम ‘रामसेवक दास’ था। शिव मन्दिर भूमि पर दशकों तक तपस्या के दौरान मौनी बाबा ‘मौन’ ही रहे। मौनी बाबा कहां से आए, यह आज भी किसी को ज्ञात नहीं हैं। मन्दिर से ताल्लुक रखने वाले कुछ बुजुर्ग श्रद्धालुओं की मानें तो मौनी बाबा उत्तर प्रदेश में राजकीय सेवा में थे एवं उन्हें सेवा में रहते ही वैराग्य की अनुभूति होने पर सब कुछ छोड़ कर निकल गए। जोधपुर उम्मेद उद्यान स्थित शिव मंदिर में रात्रि विश्राम के बाद सवेरे रवाना होते वक्त अचानक काले सर्प के दर्शन के बाद(कथित रूप से उनका मार्ग रोके जाने के पश्चात्) उसी स्थान पर उन्होंने मौन साधना शुरू की जो अनवरत पचास वर्षों तक जारी रही(इससे पूर्व जैसा कि उनके भक्त व जानने वाले बताते हैं मौनी बाबा कहीं भी एक स्थान पर नहीं ठहरते थे अर्थात रात्रि विश्राम के बाद अगले दिन सवेरे अन्य गंतव्य की ओर प्रस्थान करना ही उनकी जीवन शैली थी)।

साधना के दौरान उन्हें यदि कुछ आवश्यक वस्तु की जरूरत होती तो वे स्लेट पर लिखकर अपने भक्तों से संवाद करते थे। उम्र के साथ उनके स्वास्थ्य में गिरावट के चलते एक अगस्त 1992 को परिव्राजकाचार्य स्वामी ईश्वरानंदगिरी(संत सरोवर-आबू पर्वत) उम्मेद उद्यान मन्दिर पहुंचे और मौनी बाबा से उनके मौनी व्रत का पारणा करवाया। मौनी बाबा ने मन्दिर के विकास के लिए वर्ष 1985 में शिवजी महाराज ट्रस्ट की स्थापना की, जिसमें कानसिंह परिहार, सतीशचंद्र गोयल, ओ पी पुरी, शरद मूंदड़ा व धर्मीचंद पंवार क्रमश: अध्यक्ष रहे। वर्तमान में सम्पतराज परिहार श्री शिवजी मंदिर ट्रस्ट मंडल/पब्लिक पार्क(शिवालय) के अध्यक्ष हैं। स्वरूपसिंह भाटी सचिव, रामचंद्र बोराणा व्यवस्थापक तथा अनिल टेवानी कोषाध्यक्ष हैं।

प्रतिवर्ष श्रावण मास में मेले का आयोजन
जोधपुर उम्मेद उद्यान स्थित शिव मन्दिर प्रांगण में प्रतिवर्ष श्रावण सोमवार को मेले का आयोजन किया जाता हैं। मेले में बड़ी संख्या में श्रद्धालु शामिल होते हैं। मन्दिर संचालन समिति(श्री शिवजी मंदिर ट्रस्ट मंडल/पब्लिक पार्क) के अनुसार शिवरात्रि, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, नवरात्रा, मौनी महाराज वर्षी उत्सव व माघ पूर्णिमा के अवसरों पर विशेष झांकियों के साथ सत्संग का आयोजन किया जाता हैं। शिव मन्दिर ट्रस्ट की ओर से प्रत्येक गुरू पूर्णिमा को आम भण्डारे का आयोजन भी होता हैं। मन्दिर परिसर में पक्षियों के लिए विशाल चुग्गा देने की व्यवस्था भी हैं।

Monday 23 November 2015

जैसलमेर: थार मरूस्थल का सुनहरा मुकुट/एक स्वर्णिम कल्पना

घनश्याम डी रामावत
जैसलमेर भारत के राजस्थान राज्य का एक शहर है। भारत के सुदूर पश्चिम में स्थित धार के मरुस्थल में जैसलमेर की स्थापना भारतीय इतिहास के मध्यकाल के प्रारंभ में 1156 ई. के लगभग यदुवंशी भाटी के वंशज रावल-जैसल द्वारा की गई थी। रावल जैसल के वंशजों ने यहां भारत के गणतंत्र में परिवर्तन होने तक बिना वंश क्रम को भंग किए हुए 770 वर्ष सतत् शासन किया, जो अपने आप में एक महत्वपूर्ण घटना हैं। जैसलमेर राज्य ने भारत के इतिहास के कई कालों को देखा व सहा हैं। सल्तनत काल के लगभग 300 वर्ष के इतिहास में गुजरता हुआ यह राज्य मुगल साम्राज्य में भी लगभग 300 वर्षों तक अपने अस्तित्व को बनाए रखने में सक्षम रहा। भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना से लेकर समाप्ति तक भी इस राज्य ने अपने वंश गौरव व महत्व को यथावत रखा। भारत की स्वतंत्रता के पश्चात यह भारतीय गणतंत्र में विलीन हो गया। भारतीय गणतंत्र के विलीनकरण के समय इसका भौगोलिक क्षेत्रफल 16,062 वर्ग मील के विस्तृत भू-भाग पर फैला हुआ था। रेगिस्तान की विषम परिस्थितियों में स्थित होने के कारण यहाँ की जनसंख्या बींसवीं सदी के प्रारंभ में मात्र 76,255 थी। जैसलमेर जिले का भू-भाग प्राचीन काल में ’माडधरा’ अथवा ’वल्लभमण्डल’ के नाम से प्रसिद्ध था। महाभारत के युद्ध के बाद बड़ी संख्या में यादव इस ओर अग्रसर हुए व यहां आ कर बस गये।
यहां अनेक सुंदर हवेलियां और जैन मंदिरों के समूह हैं जो 12वीं से 15वीं शताब्दी के बीच बनाए गए थे। सही मायने में जैसलमेर राजस्थान का सबसे ख़ूबसूरत शहर हैं और यहीं कारण हैं कि इसे पर्यटन के लिहाज से सबसे आकर्षक स्थल माना जाता हैं। जैसलमेर का गौरवशाली दुर्ग ‘सोनार किला’ त्रिभुजाकार पहाड़ी पर स्थित हैं। इसकी सुरक्षा के लिए इसके चारों ओर परकोटे पर तीस-तीस फीट ऊंची 99 बुर्जियां बनी हैं। चूंकि यह किला और इसमें स्थित सैंकड आवासीय भवन पीले पत्थरों से बने हुए हैं, सूर्य की रोशनी में स्वर्णिम आभा बिखेरते हैं .. इसी वजह से इसे सोनार किला/गोल्डन फोर्ट के नाम से पुकारा जाता हैं।  जैसलमेर का यह किला दुनिया के सर्वश्रेष्ठ रेगिस्तानी किलों में से एक हैं। सुबह जब सूर्य की अरुण चमकीली किरणें जब इस दुर्ग पर पड़ती हैं तो बालू मिट्टी के रंग-परावर्तन से यह किला पीले रंग से दमक उठता हैं। शहर के हर कोण से दिखाई देने वाला यह किला रेत में आ गिरे किसी स्वर्ण मुकुट सा लगता हैं। पीले सेन्ड स्टोन से बने इस किले में चार विशाल दरवाजों से होकर प्रवेश किया जाता हैं जिन्हें पोल कहा जाता हैं।

गोपा चौक स्थित किले का प्रथम प्रवेश द्वार
जैसलमेर के किले का मुख्य आकर्षण तो गोपा चौक स्थित किले का प्रथम प्रवेश द्वार ही हैं। यह विशाल और भव्य द्वार पत्थर पर की गई नक्काशी का शानदार नमूना है। अपने स्थापत्य से यह द्वार आने वालों को कुछ देर के लिए ठिठका देता हैं। दूसरा आकर्षण दुर्ग के अंतिम द्वार हावड़पोल के पास स्थित दशहरा चौक हैं जो इस दुर्ग का खास दर्शनीय स्थल है। यहां पर्यटक खरीददारी का आनंद ले सकते हैं और थोड़ विश्राम कर सकते हैं। दशहरा चौक में स्थानीय शिल्प और हस्तकला की बेहद खूबसूरत वस्तुओं की छोटी छोटी दुकानें हैं जिनपर कांच जड़े वस्त्र, चादरें, फ्रेम और कई अन्य कलात्मक वस्तुएं खरीदी जा सकती हैं। हावड़पोल के बाहर की ओर भी कई दुकानें स्थित हैं।

अंदरूनी हिस्से में बना राजमहल आकर्षण का केन्द्र
जैसलमेर किले में एक अन्य पर्यटन आकर्षण है राजमहल। यह महल किले के अंदरूनी हिस्से में बना हुआ हैं। किसी समय यह महल जैसलमेर के राजा महाराजाओं के निवास का मुख्य स्थल हुआ करता था। इस वजह से यह दुर्ग का सबसे खूबसूरत हिस्सा भी हैं। वर्तमान में इस महल के एक हिस्से को म्यूजियम और हैरिटेज सेंटर के रूप में तब्दील कर दिया गया हैं। म्यूजियम में प्रवेश शुल्क हैं। यह म्यूजियम अप्रैल से अक्टूबर तक सुबह 8 बजे से शाम 6 बजे तक पर्यटकों के देखने के लिए खोला जाता हैं। इसके अलावा नवंबर से मार्च तक इसे सुबह 9 से शाम 6 बजे तक के लिए रोजाना खोला जाता हैं। इस रेतीले शहर में एक झील भी है घडीसर लेक। किले से बाहर अमरसागर गेट के पास एक सुंदर महल स्थित हैं बादल विलास मंदिर, यह स्थापत्य कला का अनूठा उपहार हैं। जैसलमेर चाहे एक छोटा शहर सही लेकिन अपने आस-पास कई सुन्दर पर्यटक की रूचि के स्थान सहेजे हैं। जैसलमेर से 17 कि.मी. दूर अकाल में स्थित वुड फॉसिल पार्क में अठारह करोड़ वर्ष पुराने जीवाश्म देखे जा सकते हैं जो कि इस क्षैत्र के भूगर्भीय अतीत के गवाह हैं।

पीले पत्थर पर बारीक कारीगरी से युक्त जैन मंदिर
दुर्ग के आकर्षणों में सात जैन मंदिर भी शामिल हैं जो दुर्ग में यत्र-तत्र बने हुए हैं। पीले पत्थर पर बारीक कारीगरी से युक्त इन मंदिरों का स्थापत्य देखते ही बनता हैं। ये सभी मंदिर लगभग 15 वीं से 16 वीं सदी के बीच बनाए गए थे। इन मंदिरों में सबसे भव्य मंदिर जैन धर्म के 22 वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ को समर्पित है। पार्श्वनाथ मंदिर के अलावा चंद्रप्रभु मंदिर, रिषभदेव मंदिर, संभवनाथ मंदिर आदि भी दुर्ग परिसर में बने अन्य भव्य मंदिरों में शुमार किये जाते हैं।  पर्यटकों को यहां ज्ञान भंडार के दर्शन करने की भी सलाह दी जाती है। जहां एक भव्य ऐतिहासिक लाइब्रेरी बनी हुई है। इस लाइब्रेरी का निर्माण सोलहवीं सदी में किया गया था। लाइब्रेरी में कई हस्तलिखित पांडुलिपियां भी आकर्षण का बड़ा केंद्र हैं। ये सभी मंदिर दशहरा चौक के दक्षिण पश्चिम में 150 मीटर के दायरे में बने हुए हैं। पर्यटकों से प्रत्येक मंदिर में दर्शन करने का चार्ज अलग से लिया जाता है। यह शुल्क बहुत मामूली सा है। पर्यटकों के लिए ये मंदिर रोजाना सुबह 8 से दोपहर 12 बजे तक खुलते हैं।

सम के रेतीले टीले (सेन्ड डयून्स)
हवा की दिशा के साथ अपनी जगह और दिशा बदलते ये रेतीले टीले(सेन्ड डयून्स) पूरी दुनिया के पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र हैं। यहां का सूर्यास्त बेहद मनमोहक और एकदम अलग किस्म का होता हैं। कहावत हैं सूर्य से बडा कोई चित्रकार नहीं, तो यहां सम में सूर्य ने अलग ही कोई तूलिका और अलग ही कोई कैनवास लिया हैं। मीलों तक फैले इस रेतीले विस्तार को सजीले ऊंटों पर बैठ कर नापा जा सकता हंै। चांदनी रात में सम में ही ढाणियों(छोटी-छोटी झोंपडिय़ों का समूह) में ठहर कर चांदनी रात, कालबेलिया नृत्य, राजस्थानी लोक गीतों तथा राजस्थानी भोजन दाल-बाटी-चूरमा का आनंद लिया जा सकता हंै। सम की ढ़ाणी नामक यह स्थान जैसलमेर से 42 कि.मी. दूर हैं।

कैमल सफारी के लिये डेर्जट नेशनल पार्क
कैमल सफारी के लिये वाकई यह एक उत्तम जगह हैं। इस पार्क का बीस प्रतिशत हिस्सा रेतीला हैं। उबड़-खाबड़ जमीन के परिदृश्य में अपनी जगह बदलते रेतीले टीलों और छोटी छोटी झाडिय़ों से भरी पहाडिय़ों वाला यह डेर्जट नेशनल पार्क रेगिस्तानी पारिस्थितकीय तन्त्र(इको सिस्टम) के मनमोहक रूप को दर्शाता हैं। इन सबके बीच खारे पानी की छोटी-छोटी झीलें चिंकारा और ब्लैक बक के रहने के लिए आरामदेह पारिस्थिति बनाती हैं। यहां डेर्जट फॉक्स, बंगाल फॉक्स, भेडिये(वुल्फ) और डेर्जट कैट भी देखने को मिल जाती हैं। रेगिस्तानी वन्य जीवन को करीब से जानने के लिये यह एक उपयुक्त स्थान हैं। इस नेशनल पार्क में विविध प्रकार के पक्षी अपनी अलग ही छटा बिखेरते हुए यदा-कदा दिखाई दे जाते हैं, जिनमें मुख्य हैं-सेन्ड ग्राउज, पॉट्रिज(तीतर), लार्क, श्राइक और बी इटर आदि।

सर्दियों में यहां डेमॉइजल क्रेन डेरा डालते हैं, जिन्हें यहां की लोक-भाषा में ‘कुरज’ कहते हैं तथा यहां के लोकगीतों में ‘कुरज’ को बड़े स्नेह से शामिल किया गया हैं। सबसे महत्वपूर्ण जीव जो अपनी भव्यता के साथ इस डेर्जट नेशनल पार्क का स्थाई निवासी हैंवह हैं गोडावण(ग्रेट इन्डियन बर्स्टड) यह एक बड़ा और लम्बा पक्षी हैं, यह राजस्थान का राज्य पक्षी भी हैं। यह नेशनल पार्क सरिसृपों से भी भरा हैं। यहां स्पाइनी टेल्ड लिर्जड़, मॉनिटर लिर्जड़, सॉ स्केल्ड वाइपर, रसल वाइपर तथा करैत आदि सरिसृप मिलते हैं।

समृद्ध संस्कृति से ओत-प्रोत मेले और उत्सव
मेले और उत्सव राजस्थान की समृद्ध संस्कृति के जीवंत उदाहरण हैं। सर्दियों में त्यौहार और मेलों के साथ यह क्षेत्र सचमुच जीवंत हो उठता हैं। प्रमुख आकर्षण का केन्द्र हैं यहां का मरू-मेला(डेर्जट फेस्टीवल), इस मेले के लिए विश्व भर के पर्यटक इस स्वर्ण-नगरी में चले आते हैं। उस समय यहां के गेस्टहाउस और होटल ही नहीं लोगों के घर भी जाने-अनजाने अतिथियों से भर जाते हैं। सचमुच उस वक्त ‘अतिथि देवो भव:’ की परंपरा इस गीत में साकार हो उठती हैं-‘पधारो म्हारे देश...’। तब जैसलमेर थिरक उठता हैं..घूमर, गणगौर, गैर, धाप, मोरिया, चारी और तेराताल जैसे नृत्यों के साथ। इन नृत्यों को ताल देते हैं यहां के लोक वाद्य कामयाचा, सारंगी, अलगोजा, मटका, जलतरंग, नाद, खड़ताल और सतारा।

लंगा और मंगनियार गवैयों की टोली लोकगीतों का अद्भुत/मनमोहक समां बांध देती हैं। यहां मरू उत्सव फरवरी माह में पूर्णिमा के दो दिन पहले शुरू होता हैं। इस दौरान यहां कई प्रकार की प्रतियोगिताएं  आयोजित की जाती हैं जैसे ऊंट रेस, पगडी बांधो, मरूसुंदरी, नृत्य, और ऊंट पोलो इत्यादि। इस दौरान यहां की कारीगरी के उत्कृष्ट नमूनों का प्रदर्शन तथा बिक्री भी की जाती हैं। जैसे खेजड़े की लकड़ी का नक्काशीदार फर्नीचर, ऊंट की काठी के स्टूल व कठपुतलियां आदि। इस मेले का चरमबिन्दु होता हैं ‘सम सेन्ड ड्यून्स’ जाकर वहां फिर पूरे चांद की रात में नृत्य-संगीत की मनोरम प्रस्तुति।

जोधपुर से 280 किमी की दूरी पर
राजस्थान के सुदूर पश्चिमी कोने में बसा यह रेगिस्तानी शहर जैसलमेर जोधपुर से 280 किमी की दूरी पर है। सोनार किला जैसलमेर रेल्वे स्टेशन से मात्र तीन किमी और बस स्टैंड से 2 किमी की दूरी पर है। रेल्वे स्टेशन या फिर बस स्टैंड से सोनार किले तक जाने के लिए ऑटो की सुविधा मौजूद  हैं। किले और जैसलमेर के अन्य पर्यटन स्थलों के लिए एक टैक्सी भी किराए पर ली जा सकती हैं। खास बात यह कि जब भी सोनार किला देखने का मन करे.. अपना कैमरा साथ रखना न भूलें।

Sunday 22 November 2015

सुख-समृद्धि के साथ मंगल कामना की प्रतीक ‘रंगोली’

घनश्याम डी रामावत
प्राय: उत्सवों/त्यौहारों के समय किसी के घर के बाहर विभिन्न रंगों से बनी डिजाइन देखकर हम विचार में पड़ जाते हैं कि यह आखिर क्यों बनाई गई हैं? त्यौहारों के समय में और खासकर दीपावली के समय में घर का लीपने-पोतने का, सजाने-संवारने का कार्य किया जाता हैं। आधुनिक समय में दीवारों को सजाने का कार्य पेंटिग्स, पोट्रेट ने ले लिया हैं, वहीं घर के बाहर बनी-बनाई रंगोली के स्टीकर भी अब बाजार में मिलने लगे हैं। कई स्थानों पर तो रंगोली बनाने के लिए विभिन्न डिजाइन के साधन भी मिलने लगे हैं। जिसमें चावल का आटा भर कर जमीन पर चलाना मात्र होता हैं। ग्रामीण परिवेश अभी भी आधुनिकता से अछूता हैं। वहां, घर के बाहर की दीवारों पर, आंगन में व मुख्य द्वार के बाहर अनेक रंगों की अद्भुत रंगोली देखने को मिल जाती हैं। अन्याय पर न्याय की जीत के पर्व दीपावली पर रंगोली सजाकर स्त्रियां संपूर्ण वातावरण को वाकई रंग-बिरंगा बना देती हैं। यह रंगोली प्रसन्नता का विषय हैं कि आधुनिक और पढ़ी-लिखी स्त्रियों में भी के प्रति गहरा आकर्षण दिखाई देता हैं।
रंगोली सामाजिक जीवन का एक बहुत ही अभिन्न अंग हैं। देश के अनेक हिस्सों में रंगोली सजाने का अपना अलग-अलग अंदाज हैं और अपना-अपना अलग महत्व भी। दक्षिण भारत में स्त्रियां प्रात:काल जल्दी उठते ही अपने-अपने घरों के मुख्य द्वारों को विभिन्न रंगों की रंगोली से सजाती हैं। उत्तर भारत में रंगोली को अल्पना या चौक पूरना भी कहा जाता हैं। त्यौहार/उत्सव तो जैसे रंगोली के बिना अधूरे ही लगते हैं। प्रतीकोपासना हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग हैं। यही कारण हैं कि प्राचीन काल से अब तक इष्ट प्राप्ति और अनिष्ट परिहार के लिए विविध प्रतीकों के पूजन की प्रथा अनवरत रूप से प्रचलित हैं। मौजूदा पाश्चात्य प्रभाव की पर्याप्त पैठ शहरों में होने के कारण हमारे लोक संस्कृति के प्रतीक शहरी इलाकों की अपेक्षा गांवों में अधिक लोकप्रिय हैं, जिन्हें हम रंगोली, अल्पना, चौक पूरना, मांडणे मांडना, कोलम व साथिया आदि नामों से पुकारते हैं। इन प्रतीकों में असीम आस्था, श्रद्धा तथा कल्याण की कामना समाई हुई हैं। तभी तो पर्व/त्यौहारों, सांस्कृतिक समारोहों व मांगलिक अवसरों पर उक्त प्रतीक बनाए जाने की लोक परम्परा और प्रचलन हैं।

रंगोली/अल्पना के बारे में पौराणिक कथा

रंगोली के बारे में एक पौराणिक कथा भी प्रचलित हैं। एक बार भगवान शिव ने हिमालय की ओर प्रस्थान करते हुए माता पार्वती से कहा कि जब मैं लौटू, तुम्हारा घर-आंगन जगमगाता हुआ मिलना चाहिए.. अन्यथा मैं पुन: हिमालय लौट जाऊंगा। भगवान शिव तो चले गए, पर माता पार्वती चिंता में पड़ गई। उन्होंने घर को झाड़ा-बुहारा फिर गाय के गोबर से लीपा। घर सूख भी न पाया था कि भगवान शिव ने अपनी वापसी की सूचना की आवाज लगा दी। पार्वती जी हड़बड़ा कर दौड़ी और उनका पांव गीले आंगन में फिसल गया। भगवान शिव ने देखा तो चकित रह गए। पार्वती के पांवों की कलात्मक छाप, पांवों में लगे हुए महावार के लाल रंग का अंकन तथा उस पर गिरे हुए फूल.. सब एक मनोरम दृश्य उत्पन्न कर रहे थे। इस रंगीन आकृति पर प्रसन्न होकर भगवान शिव ने वरदान दिया कि आज से जिन घरों में यह रंगोली सजाई जाएगी, वहां शिव का वास होगा। घर-आंगन, धन-धान्य से भरा रहेगा और तभी से घरों में रंगोली बनाने की प्रथा चल पड़ी।

मांगलिक प्रतीक कल्याण की कामना के द्योतक
अल्पना-अलंकरण अत्यधिक पुराना प्रतीत होता हैं, क्योंकि पुरातत्वीय खोजों से जो सामग्री प्राप्त हुई हैं उसमें अद्भुत रेखांकन देखने को मिले हैं। विशेषज्ञों का इस विषय में मत हैं कि ये रेखांकन, जो प्राय: अल्पना में पाए जाते हैं.. वे भगवान शिव के प्रतीक हैं तथा अद्र्धवृत का प्रयोग आदि शक्ति के प्रतीक हैं। इस प्रकार शिव-शक्ति के प्रतीक रूप में अल्पना/रंगोली का अंकन हमारे देश के एक छोर से दूसरे छोर तक मांगलिक अवसरों पर अवश्य किया जाता हैं। विशेष अवसरों पर उकेरे जाने वाले ये मांगलिक प्रतीक कल्याण की कामना के द्योतक हैं। प्रत्येक घर में इनके बनाने, उकेरने का दायित्व प्राय: महिलाओं पर रहता हैं। इसकी महत्ता के बारे में मान्यता है कि बिना इन अलंकरणों के घर कल्याणकारी/मंगलकारी नहीं प्रतीत होता। मांगलिक अवसरों पर घर में बनाए जाने वाले चित्रांकन प्राय: कुंवारी कन्याओं अथवा स्त्रियों द्वारा किए जाते हैं, जिसमें रंगोली/मांडने/अल्पना.. अपने-अपने क्षेत्रों के अनुसार उकेरे जाते हैं। शुरूआत में गाय के गोबर से उस स्थान को लीपा जाता हैं, फिर सींक, सलाई, रूई, ब्रश अथवा उंगली की मदद से रंगोली/अल्पना/लोक चित्रकारी बनाने का कार्य किया जाता हैं।

भगवान शिव और शक्ति के समन्वय की कल्पना
अधिकांशत: लक्ष्मी, कमल का फूल, स्वास्तिक, चिडिय़ां, हाथी, शेर, मोर व फूल बड़ी श्रद्धा के साथ बनाए जाते हैं। यहीं नहीं, गांवों में तो जो लोक गीत इस अवसर पर गाए जाते हैं, उन्हें सुनकर श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। इन चित्रांकनों एवं गीतों में लोकमंगल के इतने भाव भर दिये जाते हैं कि भारतीय संस्कृति मानो स्तोत्रवाहिनी के रूप में प्रवाहित होने लगती हैं। इनमें जो विविध आकृतियां उकेरी जाती हैं, उनके प्रति असीम भक्ति-भावना का भाव उड़ेला जाता हैं जिसे विशेष नजरों से ही परखा जा सकता हैं। अल्पना आलेखन में नारी हृदय की कोमल भावनाओं का जो भाव उड़ेला जाता हैं उसकी उत्कृष्टता को आंकना आसान नहीं हैं। भगवान शिव और शक्ति के समन्वय की कल्पना को अल्पना में आड़ी-तिरछी रेखाओं और अद्र्धवृतों में साकार करने की परम्परा भी हैं। उत्तर भारत के ग्रामीण इलाकों में जहां पाश्चात्य प्रभाव नहीं पड़ा हैं, वहां चौक पूरने की प्रथा हैं जो रंगोली/अल्पना आदि का ही रूप हैं। अनुष्ठान किए जाने वाले स्थान को पहले गाय के गोबर से लीपते हैं, उसके बाद सूप में गेहूं, जौ अथवा चावल(जो सुलभ हो) का आटा लेकर बड़ी आकर्षक आकृति का चौक पूरा जाता हैं, जिसमें उंगलियों के सहारे आड़ी-तिरछी रेखाओं से मांगलिक प्रतीक बनाए जाते हैं।

लोक संस्कृति की अमूल्य धरोहर
रंगोली बनाने की शुरूआत प्राय: वर्षा ऋतु खत्म होते ही होने लगती हैं। आसमान के साफ होते ही लोग कीड़े-मकोड़ों को नष्ट करने के लिए घरों की सफाई शुरू कर देते हैं। घरों की सफाई के बाद घर-आंगन रंगोली/अल्पना के लिए तैयार हो जाता हैं। स्त्रियां रोली, कुमकुम, फल, पीसे हुए चावल, रंग, लकड़ी का बुरादा, भूसी, चोकर व आटा इत्यादि वस्तुओं से जमीन पर रंगोली बनाती हैं। भगवान की पूजा के समय सबसे पहले चौक पूरने की प्रथा भी रंगोली का ही रूप हैं। स्त्रियां स्वास्तिक के चिन्ह को अंकित करना शुभ मानती हैं। स्वास्तिक चार भुजाओं का प्रतीक हैं। ये चार रेखाएं आश्रम, वर्ग, वेद और पुरूषार्थ का प्रतीक हैं। स्वास्तिक के अलावा कलश, कतल, पुष्प, मछली, पक्षी, हाथी व शंख तारा इत्यादि का अंकन करने के पीछे सुख, समृद्धि तथा ऐश्वर्य की कामना परिलक्षित होती हैं। लक्ष्मी तथा श्रीगणेश का अंकन भी इसी भावना का प्रतीक हैं। रंगोली हमारी लोक संस्कृति की एक अमूल्य धरोहर हैं।

रामचरित मानस में खास तरीके से उल्लेख

आज यह सिर्फ हमारे पूजाघरों तक सीमित नहीं हैं। पारिवारिक उत्सवों में स्त्रियां बड़े उत्साह से सुस्वागतम् की शुरूआत करके हर कमरे तथा कोने में रंगोली/अल्पना सजाती हैं। दीपावली के पर्व पर भी दीप और कलश को अलंकृत करके तथा घरों व पूजा के थाल में रंगोली सजाकर स्त्रियां संपूर्ण वातावरण को रंग-बिरंगा बना देती हैं। रामचरित मानस में इसका उल्लेख कुछ इस रूप में किया गया हैं-‘चौकें चारू सुमित्रां पूरी। मनिमय विविध भांति अति रूरी।।’ तथा लोक गीत में भी कहा गया हैं-‘घर बीच चउक पुराइला, देव बइठाइला हो।’ अर्थात घर में चौक पूर कर मांगलिक कार्य के शुभारम्भ हेतु देव-स्थापना कर सर्वांगीण विकास की कामना की जाती हैं। वास्तव में ग्रामीण जीवन का भोला-भाला, सरल-सीधा निष्कलुष स्वरूप इन सबसे झलकता हैं कि कितनी निश्छल निर्मल भावनाएं इन विविध उपास्य प्रतीकों में उभारी जाती हैं, उकेरी जाती हैं, उड़ेली जाती हैं, जिनका गुणगान करते-करते मन नहीं अघाता और देखते जी नहीं भरता।


आज के फैलते दूषित व वातावरण से ग्रामीण जीवन की ये निर्मल भावनाएं झुलस न जाएं, मलिन न हो जाएं, अत: इस ओर अत्यधिक सतर्कता एवं सावधानी बरतने की आवश्यकता हैं। लेकिन फिर भी यह प्रसन्नता की बात हैं कि आधुनिक और पढ़ी-लिखी स्त्रियों का रंगोली के प्रति आज भी गहरा आकर्षण दिखाई पड़ता हैं।

Saturday 21 November 2015

राजस्थान कांग्रेस: गहलोत-पायलट में अघोषित ‘पॉवर वार’!

घनश्याम डी रामावत
ललित मोदी प्रकरण में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का नाम आने के अलावा बिहार चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की करारी हार ने राजस्थान कांग्रेस को सचमुच जीवन दान दे दिया हैं। प्रदेश कांग्रेस के नेताओं ने इसे भाजपा की घटती साख मानते हुए अभी से राजस्थान में अगली सरकार अपनी पार्टी की बनने के मंसूबे पाल लिए हैं। संभवत: इसी उम्मीद में प्रदेश के दो बड़े नेताओं पीसीसी अध्यक्ष सचिन पायलट और पूर्व सीएम अशोक गहलोत के बीच अप्रत्यक्ष रूप से सीएम पद को लेकर अघोषित ‘पावर वॉर’ छिड़ गया हैं। दरअसल दो बार सीएम रह चुके गहलोत अभी भी राजस्थान की सक्रिय राजनीति में ही रहना चाहते हैं, जबकि कांग्रेस आलाकमान सचिन पायलट को फ्री हैंड देने और नई लीडरशिप खड़ी करने के लिए गहलोत को दिल्ली बुलाना चाह रहा हैं। पायलट कैंप ने आलाकमान के सामने दलील दी हैं कि राजस्थान में अति सक्रियता दिखा रहे गहलोत को दिल्ली बुलाकर उनके लंबे अनुभव का कांग्रेस को राष्ट्रीय स्तर पर फायदा उठाना चाहिए।

सूत्रों की मानें तो पंजाब, हरियाणा के बाद अब राजस्थान कांग्रेस में बढ़ती कोल्ड वॉर से चिंतित अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांगे्रस के वरिष्ठ उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने हाल ही में गहलोत को पायलट को पूरा सहयोग देने और केंद्रीय राजनीति में आने का बोला है, लेकिन गहलोत दिल्ली नहीं जाना चाहते। उनके कैंप के नेताओं ने राहुल को यह समझाने की कोशिश की हैं कि गहलोत की राजस्थान में दिनोंदिन बढ़ती लोकप्रियता और जनमानस के बीच साफ छवि का फायदा उठाने के लिए कांग्रेस को उन्हें सदन में नेता प्रतिपक्ष बनाकर भाजपा सरकार के खिलाफ आक्रमण की धार तेज करनी चाहिए। बहरहाल, कांग्रेस संगठन में दबे पांव बढ़ते विवाद के साथ ही गहलोत और पायलट के दिल्ली के दौरे भी बढ़ गए हैं। राजस्थान के गांधी के तौर पर प्रदेश में अपनी खास छवि रखने वाले अशोक गहलोत की अतिसक्रियता के चलते भी पायलट खेमा चिंतित हैं। 

गहलोत खेमे की चिंता, दिल्ली गए तो राजस्थान में होंगे कमजोर
अति-विश्वसनीय तरीके से छन कर आ रही खबरों को माने तो अशोक गहलोत समथकों को चिंता हैं कि अगर वे दिल्ली चले गए तो राजस्थान में कमजोर होते जाएंगे और तीन साल बाद पायलट ही सीएम पद के लिए पार्टी का चेहरा हो जाएंगे। इसी कारण गहलोत पिछले दिनों से राहुल कैंप के नेताओं से लगातार दिल्ली में मुलाकात करके यह समझाने में जुटे हैं कि उनका राजस्थान में सक्रिय रहना पार्टी के लिए ज्यादा फायदेमंद हैं। गहलोत कैंप चाहता हैं कि वसुंधरा सरकार को भ्रष्टाचार समेत विभिन्न मुद्दों पर पटकनी देने के लिए अनुभवी गहलोत को नेता प्रतिपक्ष बनाया जाए, ताकि पीसीसी अध्यक्ष पायलट को भी सहूलियत हो और कांग्रेस संगठन मजबूत हो सके। सियासी चर्चा तो यह भी हैं कि पायलट को दिल्ली में कमजोर करने के लिए इन दिनों पुराने राजनीतिक प्रतिद्वंदी अशोक गहलोत, डॉ. सी पी जोशी और जितेंद्र सिंह के बीच नजदीकियां बढ़ गई हैं।

राजस्थान में कांग्रेस को फिर से सत्ता में लाने के लिए राहुल गांधी बिहार चुनाव से पहले और बाद में प्रदेश के प्रमुख नेताओं के साथ लंबी गोपनीय मीटिंग कर चुके हैं। पूर्व पीडब्ल्यूडी मंत्री और हाड़ौती के दिग्गज नेता प्रमोद जैन भाया, मेवाड़ से पूर्व सांसद रघुवीर मीणा, अजमेर संभाग से पूर्व मुख्य सचेतक एवं वरिष्ठ नेता रघु शर्मा, जयपुर से पूर्व विधायक प्रताप सिंह खाचरियावास और शेखावाटी से कांग्रेस विधायक गोविंद डोटासरा, बीकानेर संभाग से पूर्व शिक्षामंत्री मास्टर भंवरलाल मेघवाल को बुलाकर प्रत्येक से डेढ़-डेढ़ घंटे का इंटरव्यू लिया गया हैं। इनसे दूसरे राज्यों से आए नेताओं के साथ ग्रुप और अकेले में भी चर्चा की गई। कथित गहलोत-पायलट टकराव को लेकर भी राहुल ने बातचीत की।

बातचीत के दौरान एक नेता ने राहुल गांधी को समझाया कि सरकार बनने की जो संभावना दिल्ली में बैठे आपको दिखाई दे रही हैं, ग्राउंड लेवल पर ऐसा नहीं हैं। जबकि पांच में से तीन नेताओं ने कहा कि अशोक गहलोत को राजस्थान से बाहर करके कांग्रेस को दुबारा खड़ा करना संभव नहीं हैं। सूत्रों की मानें तो अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांगे्रस के वरिष्ठ उपाध्यक्ष राहुल गांधी अपनी नई संभावित टीम बनाने के लिए ही शीघ्र ही सभी राज्यों के नेताओं से बुलाकर उनका विचार जानने वाले हैं।

जितेंद्र सिंह बन सकते हैं महासचिव
राजस्थान से अभी कांग्रेस में डॉ. सी पी जोशी और मोहन प्रकाश राष्ट्रीय महासचिव हैं, जबकि बाड़मेर के पूर्व सांसद हरीश चौधरी, आदिवासी नेता ताराचंद भगौरा और अल्पसंख्यक नेता जुबेर खान राष्ट्रीय सचिव हैं। हालांकि मोहन प्रकाश, भगौरा और जुबेर खान को नई टीम में जगह मिलने की संभावना कम नजर रही हैं। सी पी जोशी को भी अपना पद बचाए रखने के लिए भारी मशक्कत करनी पड़ रही हैं, क्योंकि दिल्ली की पूर्व सीएम शीला दीक्षित को महत्वपूर्ण भूमिका में लाने की संभावना हैं। धौलपुर के मोहन प्रकाश की जगह पूर्व केंद्रीय मंत्री और राहुल के करीबी अलवर के पूर्व सांसद जितेंद्र सिंह को महासचिव बनाया जाना तय माना जा रहा हैं।

वैसे तो संभावना न के बराबर हैं फिर भी अगर गहलोत को दबाव बनाकर दिल्ली लाया गया, तो उनको राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष या वे नहीं माने, तो महासचिव का पद भी दिया जा सकता हैं। राष्ट्रीय सचिव हरीश चौधरी के पंजाब में सह प्रभारी रहने के दौरान ठीक से काम करने की वजह से उनको फिर से मौका मिलने की संभावना हैं। राजस्थान के प्रभारी और राष्ट्रीय महासचिव गुरुदास कामत की जगह राजस्थान में नया प्रभारी लगाए जाने की भी संभावना हैं। असल में महाराष्ट्र से सुशील कुमार शिंदे को कामत की जगह पर महासचिव बनाने की चर्चा हैं। ऐसे में कोई अति-श्योक्ति नहीं कि राजस्थान कांग्रेस को जल्दी ही नया प्रभारी मिल जाए।

सोनिया-राहुल के सामने गहलोत जिन्दाबाद के नारे
अभी हाल पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के 98वें जन्मदिन पर युवक कांग्रेस की ओर से नई दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू ऑडिटोरियम में मां तुझे सलाम रखा गया। कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी, वरिष्ठ उपाध्यक्ष राहुल गांधी व पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की मौजूदगी में हुए इस कार्यक्रम में राजस्थान प्रदेश के तीन वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं के अलावा बड़ी तादाद में युवा नेता मौजूद थे। कार्यक्रम में राजस्थान के  नेताओं को पूरी तवज्जों मिली। पूर्व सीएम अशोक गहलोत, राष्ट्रीय महासचिव सी पी जोशी व प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट ने कार्यक्रम में अपना संबोधन दिया। यहां पर वरिष्ठ नेता गहलोत के अपने खास कद व प्रभाव ने आलाकमान को हैरत में डाल दिया। गहलोत जैसे ही उद्बोधन के लिए खड़े हुए सभागार में बैठे युवाओं ने उनके पक्ष में जमकर जिंदाबाद के नारे लगाए तथा गर्मजोशी से अभिनन्दन किया। निश्चित रूप से यह स्थिति गहलोत के समर्थकों के उस दावे की एक तरह से पुष्टि ही करती हैं कि गहलोत के बिना राजस्थान में कांग्रेस का पुन: खड़ा हो पाना शायद संभव नहीं।

Friday 20 November 2015

तुलसी विवाह: शालिग्राम और तुलसी के मिलन का पर्व

घनश्याम डी रामावत
धार्मिक लिहाज से खासकर हिन्दू धर्म में तुलसी के पौधे को पवित्र माना गया हैं। ऐसी मान्यता हैं कि जिस घर में तुलसी का पौधा होता हैं उस घर में हमेशा बरक्कत होती हैं तथा वह घर दु:ख, दरिद्रता और कलह से परे होता हैं। धर्म ग्रंथों में इसे हरिप्रिया कहा गया हैं। पुराणों में भी भगवान विष्णु और तुलसी के विवाह का वर्णन मिलता हैं। तुलसी दैवीय शक्ति के रूप में घर-घर पूजी जाती हैं। आयुर्वेद के अनुसार भी तुलसी का अपना विशेष महत्व हैं और इसे संजीवनी बूटी की संज्ञा दी हुई हैं, क्योंकि तुलसी के पौधे में अनेकों औषधीय गुण विद्यमान हैं। भगवान विष्णु के स्वरूप शालिग्राम और माता तुलसी के मिलन का पर्व ‘तुलसी विवाह’ हिन्दू पंचाग के अनुसार कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाया जाता हैं। इस दिन को देव प्रबोधनी एकादशी के नाम से भी जाना जाता हैं, इस बार यह पर्व 22 नवम्बर रविवार को हैं।
इस मांगलिक पर्व के सुअवसर पर सायंकाल के समय तुलसी चौरा के पास गन्ने का भव्य मण्डप बनाकर उसमें साक्षात् नारायण स्वरूप शालिग्राम की मूर्ति रखी जाती हैं तथा फिर विधि-विधान से उनके विवाह को संपन्न कराया जाता हैं। देवोत्थान एकादशी के दिन मनाया जाने वाला ‘तुलसी विवाह’ मांगलिक और आध्यात्मिक प्रसंग हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भगवान विष्णु को चार मास की योग निद्रा से जगाने के लिए घंटा, शंख और मृदंग जैसे वाद्यों की मांगलिक ध्वनि के साथ ‘उत्तिष्ठोत्तिठ गोविंद त्यजनिद्रांजगत्पते, त्वयिसुप्तेजगन्नाथ जगत् सुप्तमिंदभवेत्। उत्तिष्ठोत्तिठवाराह दंष्ट वेद्वत वसुन्धरे, हिरण्याक्षप्राणघातिन्त्रैलोक्येमंगलम्कुरू..।।’ श्लोक का वाचन कर जगाया जाता हैं। यदि संस्कृत में इस श्लोक को पढऩे में कोई कठिनाई होती हैं तो ‘उठो देवा.. बैठो देवा कहकर श्रीनारायण को उठाया जाता हैं।

‘तुलसी’ के माध्यम से भगवान का आह्वान
तुलसी विवाह का सीधा अर्थ हैं ‘तुलसी’ के माध्यम से भगवान का आह्वान। वैसे तो तुलसी विवाह के लिए कार्तिक शुक्ल पक्ष की नवमीं की तिथि ठीक मानी गई हैं, किन्तु अधिकतर लोग एकादशी से पूर्णिमा तक तुलसी पूजन कर पांचवें दिन ‘तुलसी विवाह’ करते हैं। मण्डप, वरपूजा, कन्यादान, हवन और फिर प्रीतिभोज सब कुछ पारंपरिक हिन्दू रीति-रिवाजों के साथ किया और निभाया जाता हैं। इस विवाह में शालिग्राम वर तथा तुलसी कन्या की भूमिका में होती हैं। तुलसी विवाह में सोलह श्रृंगार के सभी सामान चढ़ाने के लिए रखे जाते हैं। इस दिन तुलसी के पौधे का लाल चुनरी ओढ़ाई जाती हैं। ‘तुलसी विवाह’ के पश्चात् प्रीतिभोज आयोजित किया जाता हैं। कार्तिक मास में स्नान करने वाली स्त्रियां भी कार्तिक शुक्ल एकादशी काके शालिग्राम व तुलसी का विवाह रचाती हैं। विवाह के अवसर पर महिलाएं तुलसी विवाह से संबंधित गीत व भजन भी गाती हैं। 

शालिग्राम-तुलसी विवाह की कथा
‘तुलसी विवाह’ के अवसर पर कथा भी सुनाई जाती हैं। एक धारणा के अनुसार प्राचीन काल में जालन्धर नामक राक्षस ने चारों तरफ बड़ा उत्पात मचा रखा था। वह बड़ा वीर और पराक्रमी था। उसकी वीरता का रहस्य था, उसकी पत्नी वृंदा का पतिव्रता धर्म। उसी के प्रभाव से वह सर्वजयी बना हुआ था। जालंधर के उपद्रवों से भयभीत ऋषि व देवता भगवान् विष्णु के पास गए तथा उनसे रक्षा की गुहार की। उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान विष्णु ने काफी सोच-विचार कर वृंदा का पतिव्रता धर्म भंग करने का निश्चय किया। उन्होंने योगमाया द्वारा एक मृत शरीर वृंदा के घर के आंगन में फिंकवा दिया। माया का पर्दा होने से वृंदा को वह शव अपने पति का नजर आया। अपने पति को मृत देखकर, वह उस मृत शरीर पर गिरकर विलाप करने लगी। उसी समय एक साधु उसके पास आए और कहने लगे.. बेटी! इतना विलाप मत करा। मैं इस मृत शरीर में जान डाल दूंगा। 
साधू ने मृत शरीर में जान डाल दी। भावातिरेक में वृंदा ने उस मृत शरीर का आलिंगन कर लिया। जिसके कारण उसका पतिव्रत धर्म नष्ट हो गया। बाद में वृंदा को भगवान विष्णु का यह छल-कपट मालूम हुआ। उधर.. उसका पति जालंधर जो देवताओं से युद्ध कर रहा था, वृंदा का सतीत्व नष्ट होते ही मारा गया। जब वृंदा को इस बात का पता चला तो क्रोधित होकर उसने भगवान विष्णु का शाप दे दिया कि जिस प्रकार आपने छल से मुझे पति वियोग दिया हैं, उसी प्रकार आप भी अपनी स्त्री का छलपूर्वक हरण होने पर स्त्री वियोग सहने के लिए मृत्यु लोक में जन्म लोगे। यह कहकर वृंदा अपने पति के शव के साथ सती हो गई। भगवान विष्णु अब अपने छल पर बड़े लज्जित हुए। देवताओं और ऋषियों ने उन्हें कई प्रकार से समझाया तथा वृंदा की चिता-भस्म में आंवला, मालती और तुलसी के पौधे लगाए।

तुलसी दल के बिना ‘विष्णु-शिला’ पूजा अधूरी
भगवान विष्णु ने तुलसी को ही वृंदा समझा किन्तु सर्वविदित हैं कालान्तर में रामावतार के समय भगवान श्रीराम को माता सीता का वियोग सहना पड़ा। कहीं-कहीं पर ऐसा भी उल्लेख हैं कि वृंदा ने भगवान विष्णु को यह शाप दिया था कि आपने मेरा सतीत्व भंग किया हैं, अब आप भी पत्थर बनोगे। विष्णु बोले-वृंदा! आप मुझे लक्ष्मी से भी अधिक प्रिय हो। यह तुम्हारे सतीत्व का ही फल हैं कि तुम तुलसी बनकर मेरे साथ रहोगी। जो मनुष्य तुम्हारे साथ मेरा विवाह करेगा, वह परम धाम को प्राप्त होगा। इसी कारण बिना तुलसी दल के शालिग्राम अर्थांत विष्णु-शिला की पूजा अधूरी मानी जाती हैं। इसी धारणा/मान्यता के चलते आज भी तुलसी विवाह बड़ी धूमधाम से संपन्न कराएं जाते हैं। तुलसी को कन्या मानकर व्रत करने वाला व्यक्ति यथाविधि से भगवान विष्णु को कन्यादान करके तुलसी विवाह संपन्न कराता हैं।

‘तुलसी विवाह’ को लेकर प्रचलित कथाओं में महाभारत युद्ध का भी जिक्र हैं। एक धारणा के अनुसार महाभारत युद्ध समाप्त होने के बाद जिस समय भीष्म पितामह सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा में शरशया पर लेटे हुए थे। उस वक्त भगवान श्रीकृष्ण पाण्डवों को लेकर उनके पास गए थे। उपयुक्त अवसर जानकर युधिष्ठिर को भीष्म पितामह ने पांच दिनों तक राज धर्म, वर्ण धर्म जैसे मोक्ष धर्म जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर उपदेश दिया था। उनका उपदेश सुनकर श्रीकृष्ण संतुष्ट हुए और बोले-पितामह! आपने शुक्ल एकादशी से पूर्णिमा तक पांच दिनों में जो धर्ममय उपदेश दिया हैं उससे मुझे अत्यधिक प्रसन्नता हुई हैं। मैं इसकी स्मृति में आपके नाम पर भीष्म पंचक व्रत स्थापित करता हूं। जो लोग इसे करेंगे वो जीवन भर विविध सुख भोगकर अंत में मोक्ष को प्राप्त करेंगे। पद्य पुराण के उत्तराखंड में वर्णित एकादशी महात्म्य के अनुसार श्री हरि प्रबोधनी अर्थात देवात्थान एकादशी का व्रत करने से एक हजार अश्वमेघ यज्ञ और सौ राजसूर्य यज्ञों का फल मिलता हैं। इस परम पुण्य प्रदा एकादशी के विधिवत व्रत से सब पाप भस्म हो जाते हैं और व्रती मरणोंपरान्त बैकुण्ठ जाता हैं, ऐसी धार्मिक मान्यता हैं।

सर्वतोभावेन प्राण त्रय के आनुपातिक सम्मेलन की शुरूआत
जोधपुर नक्षत्र लोक ज्योतिष विज्ञान शोध संस्थान एवं जोधपुर ज्योतिष परिषद के अध्यक्ष पण्डित अभिषेक जोशी के अनुसार कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी से चन्द्रमा का अनुपातिक भाग रात्रि में अधिक विचरण करने लग जाता हैं। चंद्र प्राण ही देव प्राण होते हैं अत: सर्वतोभावेन प्राण त्रय का आनुपातिक सम्मेलन इसी दिन से प्रारम्भ होता हैं। मांगलिक उत्सवों/मुहूर्तो की शुरुआत इसी दिन से होती हैं। देवोत्थान के तुरन्त बाद मार्गशीर्ष मास आता हैं जो बारह महीनो में श्रेष्ठ हैं और श्रीकृष्ण ने भी इसे अपनी विभूति बताते हुए कहा हैं ‘मासानां मार्गशीर्षोहम्’। इस माह में देव प्राण सक्रिय रहते हैं। हालांकि मार्गशीर्ष माह में हुए विवाह में युगल को प्रारम्भ में संघर्ष घुटन एवं अप्रत्यक्ष नियंत्रण के क्षेत्र से कभी-कभी गुजरना पड़ता हैं लेकिन दाम्पत्य का भविष्य उज्जवल रहता हैं।

विवाहोपरांत निरुत्साही दम्पत्ति अथवा अविवाहित कन्या या पुरुष ‘कार्तिक शुक्ल एकादशी’ का व्रत रखकर केवल पंचामृत का सेवन करे तो उन्हें उत्साहवद्र्धक लाभ एवं दाम्पत्य में प्रसन्नता मिलती हैं। देवोत्थापन में पार्थिव और सौर अर्थात विष्णु शक्ति के प्रतीक कपास, बेर, गन्ना, गुड़, मूली व हरी सब्जी को गोबर के लेप में सजाकर बांस के ढ़ोकले से ढक़कर कांसी की थाली में देवार्चन की सामग्री से पार्थिव अग्निरूप देवों का स्वागत किया जाता हैं। पौराणिक आख्यानों के अनुसार भगवान विष्णु ‘कार्तिक शुक्ल एकादशी’ को ही बली के यहां से मुक्त होकर लक्ष्मी जी के पास आए थे। अत: रौद्र शक्तियां अपनी कल्याणकारी शक्ति को पृथ्वी पर छोडक़र प्रस्थान कर जाती हैं ताकि शुभ मुहूर्त एवं लग्न में होने वाले मांगलिक कार्य शुभ परिणाम दायक हो।

Wednesday 18 November 2015

बाबा जय गुरूदेव की कही हर बात आज भी लोहे की लकीर...

घनश्याम डी रामावत
किसी ने बिल्कुल सही कहा हैं, आस्था व श्रद्धा का कोई निश्चित पैमाना नहीं होता। मन में जब किसी के प्रति अनुराग अथवा अनन्य भक्ति का भाव जागृत हो जाता हैं तो फि र वह उस इंसान के प्रति किसी भी हद तक समर्पित भाव से आगे बढ़ता चला जाता हैं। ऐसे ही इंसान हैं बाबा जय गुरूदेव के अनुयायी जोधपुर के 73 वर्षीय वृद्ध अशोक निम्बावत।

राजस्थान सरकार के रजिस्ट्री विभाग में नौकरी करने सहित उत्तरलाई के जिप्सम माईन्स फ र्टिलाइजर के अलावा मुम्बई में लम्बे समय तक कपड़ा व्यवसाय से जुड़ कर जीवन यापन करने वाले निम्बावत का वर्ष 1983 में दिल्ली के वोट क्लब पर अपने आराध्य बाबा जय गुरूदेव से पहली बार मिलना हुआ। वे अपने अन्य साथियों के साथ गुरूदेव का प्रवचन सुनने पहुंचे थे। पहली बार में ही गुरूदेव की कही बातों का उन पर ऐसा असर हुआ कि वे पूरी तरह बाबा जय गुरूदेव के सिद्धांतों व उनकी कही बातों के ही होकर रह गए। निम्बावत के लिए बाबा जय गुरूदेव की कही हर बात आज भी लोहे की लकीर हैं। 116 वर्ष की उम्र पाकर बाबा जय गुरूदेव भले ही यह संसार छोडक़र चले गए हो किन्तु उनके अनुयायी देश ही नहीं बल्कि विदेश तक में उनके सिद्धांतो पर चलते हुए उनकी याद को मौजूदा दौर में भी ताजा किए हुए हैं।

पिछले 32 वर्षों से वल्कल वस्त्र ही पहनावा
देश के करोड़ों लोगों को सत्य का रास्ता दिखाने वाले बाबा जय गुरूदेव पूरी उम्र गौ हत्या बंद करने, परिवार नियोजन बंद करने सहित मुक्त व्यापार के लिए संघर्ष करते रहे एवं ऐसा ही वे अपने भक्तों से प्रवचन के दौरान कहते रहे। बाबा जय गुरूदेव के अनुयायी अशोक निम्बावत के अुनसार देश की खुशहाली के लिए अपना पूरा जीवन लगा देने वाले बाबा जय गुरूदेव ने वर्ष 1983 में दिल्ली के वोट क्लब पर अपने भक्तों को पहली बार वल्कल वस्त्र धारण करने का आव्हान किया था। हिन्दू संस्कृति(रामायण) में वल्कल अर्थांत टाट के वस्त्र। इस्लाम की भाषा में सुन्नतें रसूल एवं बाइबल में इसे हेसियन क्लोथ(गनी क्लोथ) कहा गया हैं। बाबा द्वारा वल्कल वस्त्र को पवित्र वस्त्र बताते हुए इसे धारण करने के निर्देंश के बाद, पूरे तीस वर्ष हो गए हैं अशोक निम्बावत आज भी इन्हीं वस्त्रों को धारण करते हुए अपना जीवन यापन कर रहे हैं।

वल्कल वस्त्रों को धारण करने में आने वाली कठिनाईयों के बारे में बात करते हुए निम्बावत ने बताया कि शुरू-शुरू में जरूर उन्हें तकलीफे  आई, मसलन.. कपड़े की उपलब्धता, सिलाई व इसका लम्बी अवधि तक नहीं चल पाना। किन्तु अब उन्हें इसे लेकर कहीं कोई परेशानी अथवा अजीबपन नहीं लगता। एक सामाजिक कार्यक्रम के दौरान निम्बावत से हुई मुलाकात के दौरान मालूम हुआ कि कभी जोधपुर में बाबा जय गुरूदेव के एक हजार के लगभग अनुयायी हुआ करते थे किन्तु उनके देवलोक हो जाने के बाद वर्तमान में पांच से सात अनुयायी ही यहां रह गए हैं तथा वल्कल वस्त्र धारण करने के नाम पर 3 से 4 लोग ही हैं। जोधपुर में वल्कल कपड़े की उपलब्धता पर उन्होंने कहा कि यहां यह कपड़ा मात्र दो स्थानों-जालोरी गेट व गांछा बाजार में ही मिलता हैं। सिलाई के बाद पहनने पर यह वल्कल वस्त्र महज दो से तीन महिनें तक ही चलता हैं। अर्थात इन वस्त्रों पर साल भर का खर्च लगभग तीन हजार रूपए आता हैं। गुरूदेव के जीवित रहते निम्बावत उनसें वर्ष में 3 से 4 बार उनके आश्रम सहित जहां भी अवसर मिलता, मिलकर आते थे।

समाज सुधारक के रूप में किया जाता हैं याद
ज्ञातव्य रहें, आध्यात्मिक गुरु बाबा जय गुरूदेव का नाम समाज सुधारक के रूप में लिए जाने के साथ ही उन्हें इसी रूप में याद किया जाता हैं। 116 साल उम्र पाकर देह त्यागने वाले बाबा जय गुरुदेव के ब्रह्मलीन होने के बाद अलीगढ़ का गांव चिरौली अचानक सुर्खियों में आ गया था। ये वहीं गांव था जहां से बाबा जय गुरूदेव गुरूदीक्षा लेकर दुनिया को सत्य का रास्ता दिखाने निकल पड़े थे। यह गांव बाबा जय गुरूदेव के गुरू और संत घूरेलाल महाराज का हैं। दादा गुरू का आश्रम भी यही हैं, यहां तमाम अनुयायी आज भी आते रहते हैं। बरसों तक बाबा जयगुरूदेव ने गांव की एक झोपड़ी में रहकर गुरू की सेवा की। अलीगढ़ से 25 किलोमीटर दूर गांव चिरौली में संत घूरेलाल महाराज(दादा गुरू) रहा करते थे। उनको ईश्वरीय शक्ति प्राप्त बताया जाता हैं। बाबा जय गुरूदेव चिरौली में दीक्षा लेकर और छोटी से झोपड़ी में रहकर, बरसों तक दादा गुरू की सेवा की। उन्होंने आध्यात्मिक ज्ञान हासिल किया। संत महाराज घूरेलाल महाराज के शरीर त्यागने के बाद, गांव में ही उनका अंतिम संस्कार किया गया।

शिष्य बाबा जय गुरूदेव गुरू की अस्थि लेकर मथुरा चले गये और यही गुरू की समाधि बनाई। यहां एक विशाल आश्रम भी बनाया गया। उसके बाद बाबा जयगुरूदेव धर्म कार्य में लगकर लोगों को सत्य का रास्ता दिखाने लगे। बाबा जय गुरूदेव अपने भक्तों को पूरी उम्र सत्य के रास्ते पर चलने, मांस, और नशा से दूर रहने को कहते रहे। उनके अनुयायी उनकी कहीं हर बात और आज्ञा का आज भी बखूबी पालन करते हैं। समाज को सुधारने के संकल्प के तहत बाबा जय गुरूदेव के द्वारा चलाए गई जय गुरु देव धर्म प्रचारक संस्था एवं जय गुरु देव धर्म प्रचारक ट्रस्ट आज भी अपना कार्य विधिवत रूप से कर रहे हैं एवं तमाम लोक कल्याणकारी योजनाएं आज भी चल रही हैं। भूमि जोतक, खेतिहर-काश्तकार संगठन की स्थापना भी बाबा जय गुरूदेव की ही देन हैं।

छठ पूजा महज एक पर्व नहीं..(Chhath Pooja Are Not Only A Festival..)

घनश्याम डी रामावत
छठ पूजा केवल एक पर्व नहीं हैं बल्कि इसे महापर्व का दर्जा प्राप्त हैं। इस पर्व के साथ करोड़ों हिन्दुओं की आस्था जुड़ी हैं और हो भी क्यों न.. भगवान सूर्य की उपासना से जुड़े इस महापर्व की महिमा ही ऐसी हैं। दीपावली के ठीक छह दिन बाद मनाए जाने वाले इस पर्व का भारतीय संस्कृति में व्यापक महत्व हैं। हमारे देश में छठ पर्व मनाने की परम्परा सदियों से चली आ रही हैं। भगवान सूर्य की उपासना का यह पर्व बिहार में घर-घर मनाया जाता हैं। इसके अलावा उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल और पूर्वात्तरी प्रदेशों में भी इस पर्व को लेकर खासा उत्साह रहता हैं। हिन्दुओं द्वारा मनाए जाने वाले इस छठ पर्व को इस्लाम व अन्य धर्मावलंबी भी मनाते देखे गए हैं। हमारे यहां मान्यता हैं कि सूर्य की शक्तियों का मुख्य स्रोत उनकी पत्नियां उषा और प्रत्यूषा हैं। छठ में सूर्य के साथ-साथ उनकी दोनों शक्तियों क संयुक्त आराधना होती हैं। प्रात:काल में सूर्य की पहली किरण(उषा) और संध्याकाल में सूर्य की अंतिम किरण(प्रत्युषा) को अध्र्य देकर दोनों को नमन किया जाता हैं।
पौराणिक और लोक कथाओं के नजरिए से...
ऐसी मान्यता हैं कि चौदह वर्ष की वनवास अवधि पूरी करने के पश्चात् भगवान श्रीराम, माता सीता व लक्ष्मण के साथ कार्तिक अमावस्या के दिन अयोध्या लौटे थे एवं उसी दिन स दीपावली मनाई जाती हैं। अपने प्रिय राजा राम और रानी सीता के आने के उपलक्ष्य में प्रदेश भर में घी के दिये जलाए गए थे। राम के राज्याभिषेक के पश्चात् राम राज्य की कल्पना को ध्यान में रखकर राम और सीता ने कार्तिक शुक्ल षष्ठी को उपवास रखकर प्रत्यक्ष देव भगवान सूर्य की आराधना की तथा सप्तमी को पूर्ण किया। पवित्र सरयू तट पर राम-सीता के अनुष्ठान से प्रसन्न होकर सूर्य देव ने उन्हें आशीर्वाद दिया था। तब से छठ पर्व इस अंचल विशेष में लोकप्रिय हो गया।

एक पौराणिक मान्यता के अनुसार कार्तिक शुक्ल षष्ठी के सूर्यास्त एवं सप्तमी के सर्योदय के मध्य वेदमाता गायत्री का जन्म हुआ था। भगवान सूर्य की आराधना करते हुए विश्वामित्र के मुख से अनायास ही वेदमाता गायत्री प्रकट हुई थी। यह पवित्र मंत्र भगवान सूर्य के पूजन का परिणाम था। तभी से कार्तिक शुक्ल षष्ठी की तिथि आर्यों के लिए परम पूज्य हो गई और छठ पर्व आर्यों का महान धरोहर बन गया। एक अन्य मान्यता हैं कि जुए में पाण्डव अपना राजपाठ धन-दौलत सभी कुछ हार कर जंगल-जंगल घूम रहे थे, उस समय पाण्डवों के बुरे हाल, दुर्दशा और संकट से मुक्ति पाने के लिए द्रौपदी ने स्वयं सूर्यनारायण की आराधना करते हुए छठ व्रत किया। परिणामस्वरूप पाण्डवों को खोया राजपाठ, सम्मान और प्रतिष्ठा सभी कुछ प्राप्त हुआ।

एक कथा के अनुसार राजा प्रियवद की कोई संतान नहीं थी, तब महर्षि कश्यप ने पुत्रेष्टि यज्ञ करवाकर उनकी पत्नी मालिनी को यज्ञाहुति के लिए बनाई गई खीर दी। इसके प्रभाव से उन्हें पुत्र हुआ किंतु वह मरा हुआ था। प्रियवद पुत्र को लेकर श्मशान गए तथा पुत्र वियोग में प्राण त्यागने लगे। उसी वक्त भगवान की मानस कन्या देवसेना प्रकट हुई और कहा कि सृष्टि की मूल प्रवृति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण मैं षष्ठी कहलाती हूं। राजन तुम मेरा पूजन करो तथा लोगों को प्रेरित करो। राजा ने पुत्र इच्छा से देवी षष्ठी का व्रत किया और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। यह पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को हुई थी।

जल में खड़े रहकर सूर्यदेव को अध्र्य
प्रत्यक्ष देव भगवान् श्री सूर्यनारायण की उपासना से व्रतधारी सुख-शांति, भक्ति एवं अत्यंत शुद्धता से पूरे छत्तीस घंटे निर्जला रहते हुए समीप के किसी स्वच्छ जलाशय अथवा नदी के तट पर जाकर, जल में षष्ठी तिथि को नहाकर उसी जल में खड़े होकर, सायंकालीन समय अस्ताचलगामी सूर्यदेव को तथा पुन: सप्तमी तिथि को व्रती प्रात:काल उसी स्थान पर जल में खड़े होकर उदीयमान सूर्यदेव को अध्र्य देकर पूजा करता हैं। छठ पर्व का शुभारम्भ कद्दू-भात या नहाय-खाय से होता हैं। कद्दू-भात अर्थात लौकी की बिना लहसुन-प्याज की सब्जी और अरवा चावल का भोजन एवं नहाय-खाय अर्थात गंगा में स्नान करके भोजन पकाना व खाना। घरों में तो कार्तिक मास के शुरू होते ही मांसाहार, लहसुन और प्याज जैसे तामसिक भोजन बंद हो जाते हैं।

व्रती अर्थात घर की प्रमुख महिला जो छठ का व्रत रखती हैं, के साथ-साथ घर के सभी सदस्यों का उस दिन का खाना कद्दू-भात ही होता हैं। कद्दू-भात के अगले दिन व्रती महिला दिनभर का उपवास रखती हैं और संध्याकाल में देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना करती हैं। भगवान के भोग स्वरूप कहीं खीर-पुड़ी या रोटी, तो कहीं चावल दाल साफ-सफाई कड़े नियमों का पालन करते हुए भोग बनाकर चढ़ाया जाता हैं। पूजा के बाद व्रती महिला भोग सामग्री से ही व्रत तोड़ती हैं, जिसे खरना कहते हैं। घर के सभी सदस्य इस बात का पूरा ख्याल रखते हैं कि व्रती महिला नि:शब्द वातावरण में भरपेट भोजन कर ले, क्योंकि इसे अगला पूरा दिन निर्जल उपवास होता हैं। खरना के उपरांत घर के सभी सदस्य प्रसाद ग्रहण करते हैं। इस प्रसाद को ग्रहण करना काफी महत्वपूर्ण माना जाता हैं।

प्रज्जवलित दीपों से नदी तट रोशन
सूरज के अंगड़ाई लेने से पूर्व ही सभी लोग नहा-धोकर साफ कपड़े पहनकर घाट पर जाने का तैयार हो जाते हैं। सूपों के बीच की सामग्री रात में बदल दी जाती हैं। फिर उसी प्रकार सूपों को घाट पर ले जाकर सजाया जाता हैं। प्रज्जवलित दीपों से सारा नदी तट रोशन हो जाता हैं। बच्चें पटाखें-फुलझडिय़ां चलाते हैं। व्रती नदी में स्नान कर भीगे वस्त्रों में सूपों को अपनी हथेलियों पर रखती हैं तथा सभी श्रद्धा से पूरब में लालिमा बिखेर रहे सूर्य देवता को अध्र्य देते हैं। अगले दिन उगते सूर्य को अध्र्य देने के साथ ही छठ पूजा संपन्न होती हैं और साथ ही पारिवारिक-सामाजिक सौहार्द की सुखद अनुभूतियां शुरू होती हैं। घाट पर ही व्रती महिला से छोटे सभी लोग उनका चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लेते हैं।

धार्मिक पर्व ‘छठ’ का वैज्ञानिक महत्व
छठ पर्व की परम्परा में बहुत ही गहरा विज्ञान छिपा हुआ हैं, षष्ठी तिथि(छठ) एक विशेष खगोलीय अवसर हैं। उस समय सूर्य की पराबैंगनी किरणें पृथ्वी की सतह पर सामान्य से अधिक मात्रा में एकत्र हो जाती हैं। उसके संभावित कुप्रभावों से मानव को यथासंभव रक्षा करने का सामथ्र्य इस परम्परा में हैं। पर्वपालन से सूर्य(तारा) प्रकाश(पराबैंगनी किरण) के हानिकारक प्रभाव जीवों की रक्षा संभव हैं। पृथ्वी के जीवों को इससे बहुत लाभ मिल सकता हैं। सूर्य के प्रकाश के साथ उसकी पराबैंगनी किरण भी चंद्रमा और पृथ्वी पर आती हैं। सूर्य का प्रकाश जब पृथ्वी पर पहुंचता हैं तो पहले उसे वायुमण्डल मिलता हैं। वायुमण्डल में प्रवेश करने पर उसे आयन मण्डल मिलता हैं। पराबैंगनी किरणों का उपयोग कर वायुमण्डल अपने ऑक्सीजन तत्व को संश£ेषित कर उसे उसके एलोट्रोप ओजोन में बदल देता हैं। इस क्रिया द्वारा सूर्य की पराबैंगनी किरणों का अधिकांश भाग पृथ्वी के वायुमण्डल में ही अवशोषित हो जाता हैं। पृथ्वी की सतह पर उसका केवल नगण्य भाग ही पहुंचता हैं। सामान्य अवस्था में पृथ्वी की सतह पर पहुंचने वाली पराबैंगनी किरण की मात्रा मनुष्यों या जीवों के सहन करने की सीमा में होती हैं। अत: सामान्य अवस्था में मनुष्य पर उसका कोई विशेष हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता, बल्कि उस धूप द्वारा हानिकारक कीटाणु मर जाते हैं जिससे मनुष्य या जीवन को लाभ ही होता हैं।

Tuesday 17 November 2015

भाजपा: परम्परा की आड़ में बचने की कवायद..!(BJP: Avoid exercise under guise of tradition..!)

घनश्याम डी रामावत
बिहार में भारतीय जनता पार्टी की हार के बाद जहां पार्टी का शीर्ष नेतृत्व लगातार यह समझाने में व्यस्त था कि चुनाव हारने का प्रमुख कारण प्रदेश में जातीय गणित का भाजपा के विरूद्ध धुवीकरण हैं, वहीं पार्टी के वरिष्ठ तथा मार्गदर्शक मण्डल के नेता लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, शांता कुमार एवं पूर्व केन्द्रीय मंत्री यशवन्त सिन्हा ने साझा बयान जारी करके प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं पार्टी अध्यक्ष अमित शाह से आग्रह किया कि दिल्ली में पराजय के बाद भी पार्टी में कोई सुधार नहीं हुआ इसीलिए बिहार में पराजय के बाद हार की जिम्मेदारी तय होनी चाहिए। इसके बाद पार्टी के तीन पूर्व अध्यक्षों राजनाथसिंह, वैंकया नायडू और नितिन गडगरी ने स्प्ष्टीकरण जारी करते हुए कहा कि हार की जिम्मेदारी सामूहिक होती हैं। उनके अनुसार ऐसी परम्परा वरिष्ठ नेता अटल बिहारी वाजपेयी तथा आडवाणी के समय से चली आ रही हैं।
प्रतीत होता हैं भाजपा में विनम्रता का युग समाप्त हो गया हैं। इनके जवाब से तो यहीं लगता हैं कि भाजपा के ये तीनों अध्यक्ष भले ही परम्परा की बात करें किन्तु परम्पराओं की परवाह अब इस पार्टी को बिल्कुल भी नहीं हैं। आखिर क्या कहा बुजुर्ग नेताओं ने? यहीं तो कि हार की जिम्मेदारी तय होनी चाहिए। इसके जवाब में उन्हें परम्परा की याद दिलाई जाती हैं। परम्परा तो यह रही हैं पार्टी मे कि 1983 में दिल्ली मेट्रोपोलिटन काउंसिल का चुनाव हार जाने के बाद तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी ने अध्यक्ष पद से त्याग पत्र दे दिया था। बाद में उस समय के पार्टी महासचिव लाल कृष्ण आडवाणी ने काफी समझाइश की तभी जाकर वाजपेयी ने त्याग पत्र वापस लिया। पार्टी की परम्परा तो यह भी हैं कि सभी पूर्व अध्यक्ष पार्टी के सर्वोच्च राजनीतिक मामलों की समिति संसदीय दल के सदस्य होते हैं। इस परम्परा को क्यों बदल दिया गया? क्या इसलिए कि पार्टी में आडवाणी और डॉ. जोशी के रहते कथित निरंकुशता पर नियन्त्रण लगने की आशंका थी।

पार्टी 1980 में बनी थी किन्तु उसकी सारी परम्पराएं भारतीय जनसंघ से ग्रहण की गई। परम्परा की बात करने वालों को इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि जनसंघ के पूर्व अध्यक्ष दिवंगत दीनदयाल उपाध्याय उत्तर प्रदेश के एक क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे थे, उनसे कुछ स्थानीय नेताओं ने कहा कि आप संबंधित क्षेत्र के कुछ ब्राह्मण नेताओं से मिल ले तो आपकी विजय निश्चित हैं। इस पर उपाध्याय जी ने कहा कि मैं जाति के आधार पर चुनाव नहीं जीतना चाहता। मुझे यदि जाति का सहारा लेना पड़ेगा तो मैं पराजय को ज्यादा अच्छा मानता हूं। बिहार में विकास से शुरूआत करके जाति के मुद्दे पर आने वाले भाजपा शीर्ष नेतृत्व को क्या यह पता नहीं था कि जिस जातिवादी राजनीति को वे जीत का आधार बना रहे हैं, उसमें लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार को महारत हासिल हैं.. ऐसे में उनसे किस प्रकार पार पाया जा सकेगा? जीत की भूमिका तो तब बनती जब पार्टी के शीर्ष नेता अर्थात चुनाव में पार्टी की ओर से फतेह का ताना-बाना बुन रहे नेता अपने अखाड़े में राजद और जेडीयू को खींचते। जरूरत विकास के परिप्रेक्ष्य में बहस की थी किंतु लालू-नीतीश को पटखनी देने के लिए उन्हीं के जातीय मुद्दे पर उलझे तो उलझकर ही रह गए।

पार्टी में एक वर्ग खुलकर इस बात पर चर्चा कर रहा हैं कि कुछ वरिष्ठ नेता जो मंत्री भी हैं, चाहते थे कि पार्टी बिहार में हारे ताकि पार्टी में लगातार ताकतवर होकर उभर रहे नरेन्द्र मोदी और अमित शाह अनियंत्रित होकर नहीं रह सके। यदि यह सही हैं तो लोग स्पष्टीकरण जारी करके बुजुर्ग पार्टी नेताओं को परम्परा स्मरण याद दिला रहे हैं। उनसे पूछा जाना चाहिए कि क्या पार्टी में यहीं परम्परा रही हैं कि सारी रणनीति खुद ही बैठकर कमरे में तैयार कर ली जाए और कामयाबी मिले तो खुद श्रेय ले लिया जाए और उसमें किसी और को शामिल न किया जाए, लेकिन असफलता मिले तो कह दिया जाए कि यह तो परम्परागत ‘सामूहिक’ हैं। निश्चित रूप से यह ऐसा वक्त हैं जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को हस्तक्षेप करना चाहिए और सिर के बल खड़ी भाजपा को पैर के बल करने का दिल से प्रयास करना चाहिए। भारतीय जनता पार्टी का मतलब केवल दो लोग कदापि नहीं हो सकते। जिन्हें बर्फखाने में रखने के लिए मार्गदर्शक मण्डल में रखा गया हैं उनके अनुभव व क्षमता का उपयोग करने के लिए एक सिस्टम अख्तियार करना जरूरी हैं। वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी तथा डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने केवल दिल्ली के चुनाव में पार्टी के लिए उपयोगी साबित होते अपितु बिहार चुनाव में भी उनकी मदद ली जाती तो शायद ऐसी दुगर्ति नहीं होती।

परम्पराओं की बात करने वालों को इतना याद रखना होगा कि इस पार्टी में कभी अपने बुजुर्गो को चिढ़ाने की परम्परा नहीं रही हैं जैसा कि अब किया जा रहा हैं। बहरहाल परम्पराओं की बात करने से ज्यादा जरूरी हैं परम्पराओं को निभाने की तथा हर स्तर पर परम्पराओं से छुटकारा पाने वालों के मुंह से बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता कि वे परम्पराओं का स्मरण उन्हें कराए जिन्होंने खुद पार्टी के नैतिक मानदंडों का निर्धारण किया था। आडवाणी ने परम्पराओं व इन्हीं नैतिक मानदंडों का सम्मान करते हुए प्रधानमंत्री पद के लिए स्वयं को पीछे कर दिया था और अटल बिहारी वाजपेयी को आगे कर दिया था जबकि उस समय आडवाणी द्वारा किए गए इस व्यवहार से आरएसएस खुद सहमत नहीं था। संघ के उस समय के नेता चाहते थे कि पार्टी जब भी सरकार बनाने की स्थिति में आए तो प्रधानमंत्री का पद लाल कृष्ण आडवाणी को ही संभालना चाहिए। किंतु आडवाणी ने एक आदर्श परम्परा निभाई और जिसके मार्गदर्शन में उन्होंने दशकों तक कार्य किया था उसे ही अपना नेता माना। यह वाकई अजीब विडम्बना हैं.. आडवाणी के साथ कैसी परम्परा निभाई गई एवं निभाई जा रही हैं, इसकी चर्चा करने की आवश्यकता नहीं हैं। बेहतर यहीं होगा परम्पराओं की चर्चा नहीं कर पार्टी का शीर्ष नेतृत्व पूरे मामले में गंभीरता से चिंतन-मनन करें।