Wednesday 23 August 2017

रूणिचा धाम : बाबा के द्वार/श्रद्धा अपार

घनश्याम डी रामावत
भाद्रपद शुक्ल पक्ष की द्वितीया(भादवा री बीज) अर्थात पश्चिमी राजस्थान में श्रद्धा व आस्था का सैलाब। जी हां! यहीं वह महिना हैं जब यहां-वहां, जहां और जिधर देखो समूचे मारवाड़ में चहुंओर सडक़ मार्गों पर पैदल, बसों/रेलगाडिय़ों व अन्य संसाधनों के माध्यम से जातरूओं का रैले ही नजर आते हैं। जातरूओं से मेरा अभिप्राय लोकदेवता बाबा रामदेव में आस्था रखने वाले श्रद्धालुओं से हैं जो इन दिनों अपने श्रद्धा स्थल ‘रूणिचा धाम’ के लिए दर्शनार्थ पूरे विश्वास व आस्था के साथ निकलते हैं। सचमुच श्रद्धालुओं का अप्रत्याशित सैलाब आस्था, श्रद्धा व विश्वास की अदृश्य तस्वीर में अनूठा/अद्भुत रंग भरने का काम करता हैं। निश्चय ही यह लोकदेवता बाबा रामदेव के प्रति उनके भक्तों की/श्रद्धा रखने वालों की आत्मीय/दिली परिणीति हैं।   

संक्षिप्त परिचय/हर जाति/वर्ग व समाज में बाबा के भक्त
हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रतीक बाबा रामदेव ने अपने अल्प जीवन महज 33 वर्षों में वह कार्य कर दिखाया जो 
सैकड़ों वर्षों में भी होना सम्भव नही था। सभी प्रकार के भेद-भाव को मिटाने एवं सभी वर्गों में एकता स्थापित करने की पुनीत प्रेरणा के कारण बाबा रामदेव जहां हिन्दुओं के देव हैं तो मुस्लिम भाईयों के लिए रामसा पीर। मुस्लिम भक्त बाबा को रामसा पीर कह कर पुकारते हैं। वैसे भी राजस्थान के जनमानस में पांच पीरों की प्रतिष्ठा हैं जिनमें बाबा रामसा पीर का विशेष स्थान हैं। ‘पाबू हडू रामदे ए मांगाळिया मेहा। पांचू पीर पधारजौ ए गोगाजी जेहा।।’ बाबा रामदेव ने छुआछूत के खिलाफ कार्य कर सिर्फ दलितों का पक्ष ही नही लिया वरन उन्होंने दलित समाज की सेवा भी की। डाली बाई नामक एक दलित कन्या का उन्होंने अपने घर बहन-बेटी की तरह रख कर पालन-पोषण भी किया। यही कारण हैं आज बाबा के भक्तों में एक बहुत बड़ी संख्या दलित भक्तों की हैं। 

बाबा रामदेव पोकरण के शासक भी रहे लेकिन उन्होंने राजा बनकर नही अपितु जनसेवक बनकर गरीबों, दलितों, असाध्य रोगग्रस्त रोगियों व जरुरत मंदों की सेवा भी की। यही नही उन्होंने पोकरण की जनता को भैरव राक्षक के आतंक से भी मुक्त कराया। प्रसिद्ध इतिहासकार मुंहता नैनसी ने भी अपने ग्रन्थ ‘मारवाड़ रा परगना री विगत’ में इस घटना का जिक्र करते हुए लिखा हैं-भैरव राक्षस ने पोकरण नगर आतंक से सुना कर दिया था लेकिन बाबा रामदेव के अदभूत एवं दिव्य व्यक्तित्व के कारण राक्षस ने उनके आगे आत्म-समर्पण कर दिया था और बाद में उनकी आज्ञा अनुसार वह मारवाड़ छोड़ कर चला गया। बाबा रामदेव ने अपने जीवन काल के दौरान और समाधि लेने के बाद कई चमत्कार दिखाए जिन्हें लोक भाषा में परचा देना कहते हैं। इतिहास व लोक कथाओं में बाबा द्वारा दिए ढ़ेर सारे परचों का जिक्र हैं। 

जनश्रुति के अनुसार मक्का के मौलवियों ने अपने पूज्य पीरों को जब बाबा की ख्याति और उनके अलौकिक चमत्कार के बारे में बताया तो वे पीर बाबा की शक्ति को परखने के लिए मक्का से रुणिचा आए। बाबा के घर जब पांचो पीर खाना खाने बैठे तब उन्होंने बाबा से कहा की वे अपने खाने के बर्तन (सीपियां) मक्का ही छोड़ आए हैं और उनका प्रण हैं कि वे खाना उन सीपियों में खाते हैं तब बाबा रामदेव ने उन्हें विनयपूर्वक कहा कि उनका भी प्रण हैं कि घर आए अतिथि को बिना भोजन कराये नही जाने देते और इसके साथ ही बाबा ने अलौकिक चमत्कार दिखाया जो सीपी जिस पीर कि थी वो उसके सम्मुख रखी मिली।

भाद्रपद शुक्ल पक्ष द्वितीया को खास आयोजन
इस चमत्कार (परचा) से वे पीर इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने बाबा को पीरों का पीर स्वीकार किया। आखिर जन-जन की सेवा के साथ सभी को एकता का पाठ पढाते बाबा रामदेव ने भाद्रपद शुक्ला एकादशी विक्रम संवत् 1442 को जीवित समाधी ले ली। बाबा रामदेव जी की समाधी संवत् 1442 को रामदेव जी ने अपने हाथ से श्रीफल लेकर सब बड़े बुजुर्गों को प्रणाम किया तथा सबने पुष्प अर्पित कर रामदेव जी का हार्दिक तन-मन व श्रद्धा से अन्तिम पूजन किया। रामदेव जी ने समाधी में खड़े होकर सब के प्रति अपने अन्तिम उपदेश देते हुए कहा ‘प्रति माह की शुक्ल पक्ष की दूज’ को पूजा पाठ, भजन कीर्तन करके पर्वोत्सव मनाना, रात्रि जागरण करना। प्रतिवर्ष मेरे जन्मोत्सव के उपलक्ष में तथा अन्तर्ध्यान समाधि होने की स्मृति में मेरे समाधि स्तर पर मेला लगेगा। मेरे समाधी पूजन में भ्रान्ति व भेद भाव मत रखना। मैं सदैव अपने भक्तों के साथ रहूंगा। इस प्रकार श्री रामदेव जी ने समाधि ली। 

यहीं कारण हैं कि आज भी बाबा रामदेव के भक्त दूर-दूर से रुणिचा उनके दर्शनार्थ और अराधना करने आते है। वे अपने भक्तों के दु:ख दूर करते हैं, मुराद पूरी करते हैं। हर साल लगने मेले में लाखों की तादात में भक्त रूणिचा पहुंचते हैं। उनके भक्तो की भीड़ से उनकी महत्ता व उनके प्रति जन समुदाय की श्रद्धा का आकलन आसानी से किया जा सकता हैं।

रामदेव जी का जन्म भादवा सुदी पंचम को
राजा अजमल जी द्वारकानाथ के परमभक्त होते हुए भी उनको दु:ख था कि इस तंवर कुल की रोशनी के लिये कोई पुत्र नहीं था और वे एक बांझपन थे। दूसरा दु:ख था कि उनके ही राजरू में पडऩे वाले पोकरण से 3 मील उत्तर दिशा में भैरव राक्षस ने परेशान कर रखा था। इस कारण राजा रानी हमेशा उदास ही रहते थे। रामदेव जी का जन्म भादवा सुदी पंचम को विक्रम संवत् 1409 को बाड़मेर जिले की शिव तहसील के उंडू काश्मीर गांव में सोमवार के दिन हुआ जिसका प्रमाण रामदेव जी के श्रीमुख से कहे गये प्रमाणों में हैं जिसमें लिखा हं सम्वत चतुर्दश साल नवम चैत सुदी पंचम आप श्री मुख गायै भणे राजा रामदेव चैत सुदी पंचम को अजमल के घर मैं आयों जो कि तुवंर वंश की बही भाट पर राजा अजमल द्वारा खुद अपने हाथो से लिखवाया गया था जो कि प्रमाणित हैं और गोकुलदास द्वारा कृत श्री रामदेव चौबीस प्रमाण में भी प्रमाणित हैं। 

राजा अजमल जी पुत्र प्राप्ति के लिये दान पुण्य करते, साधू सन्तों को भोजन कराते, यज्ञ कराते, नित्य ही द्वारकानाथ की पूजा करते थे। इस प्रकार राजा अजमल जी भैरव राक्षस को मारने का उपाय सोचते हुए द्वारका जी पहुंचे। जहां अजमल जी को भगवान के साक्षात दर्शन हुए, राजा के आखों में आंसू देखकर भगवान में अपने पिताम्बर से आंसू पोछकर कहा, हे भक्तराज रो मत मैं तुम्हारा सारा दु:ख जानता हूँ। मैं तेरी भक्ती देखकर बहुत प्रसन्न हूं, मांगो क्या चाहिये तुम्हें मैं तेरी हर इच्छायें पूर्ण करूंगा।भगवान की असीम कृपा से प्रसन्न होकर बोले हे प्रभु अगर आप मेरी भक्ति से प्रसन्न हैं तो मुझे आपके समान पुत्र चाहिये याने आपको मेरे घर पुत्र बनकर आना पड़ेगा और राक्षस को मारकर धर्म की स्थापना करनी पड़ेगी। तब भगवान द्वारकानाथ ने कहा-हे भक्त! जाओ मैं तुम्हे वचन देता हूं कि पहले तेरे पुत्र विरमदेव होगा तब अजमल जी बोले हे भगवान एक पुत्र का क्या छोटा और क्या बड़ा तो भगवान ने कहा-दूसरा मैं स्वयं आपके घर आउंगा। 

जन्म पर घंटियां बजी, महल का पानी दूध में बदला
अजमल जी बोले हे प्रभू आप मेरे घर आओगे तो हमें क्या मालूम पड़ेगा कि भगवान मेरे घर पधारे हैं, तो द्वारकानाथ ने कहा कि जिस रात मैं घर पर आउंगा उस रात आपके राज्य के जितने भी मंदिर हैं उसमें अपने आप घंटियां बजने लग जायेगी, महल में जो भी पानी होगा वह दूध में बदल जाएगा तथा मुख्य द्वार से जन्म स्थान तक कुमकुम के पैर नजर आयेंगे वह मेरी आकाशवाणी भी सुनाई देगी और में अवतार के नाम से प्रसिद्ध हो जाऊं गा। रामदेव जी का जन्म संवत् 1409 में भाद्रपद मास की दूज को राजा अजमल जी के घर हुआ। उस समय सभी मंदिरों में घंटियां बजने लगीं, तेज प्रकाश से सारा नगर जगमगाने लगा। महल में जितना भी पानी था वह दूध में बदल गया, महल के मुख्य द्वार से लेकर पालने तक कुमकुम के पैरों के पदचिन्ह बन गए, महल के मंदिर में रखा संख स्वत: बज उठा। उसी समय राजा अजमल जी को भगवान द्वारकानाथ के दिये हुए वचन याद आये और एक बार पुन: द्वारकानाथ की जय बोली। इस प्रकार ने द्वारकानाथ ने राजा अजमल जी के घर अवतार लिया। 

बाल लीला अंतर्गत पहला परचा माता को दिया
भगवान ने जन्म लेकर अपनी बाल लीला शुरू की। एक दिन भगवान रामदेव व विरमदेव अपनी माता की गोद में खेल रहे थे, माता मैणादे उन दोनों बालकों का रूप निहार रहीं थीं। प्रात:काल का मनोहरी दृश्य और भी सुन्दरता बढ़ा रहा था। उधर दासी गाय का दूध निकाल कर लायी तथा माता मैणादे के हाथों में बर्तन देते हुए इन्हीं बालकों के क्रीड़ा क्रिया में रम गई। माता बालकों को दूध पिलाने के लिये दूध को चूल्हे पर चढ़ाने के लिये जाती हैं। माता ज्यों ही दूध को बर्तन में डालकर चूल्हे पर चढ़ाती हैं। उधर रामदेव जी अपनी माता को चमत्कार दिखाने के लिये विरमदेव जी के गाल पर चुमटी भरते हैं इससे विरमदेव को क्रोध आ जाता है तथा विरमदेव बदले की भावना से रामदेव जी को धक्का मार देते हैं। जिससे रामदेव जी गिर जाते हैं और रोने लगते हैं।  रामदेव जी के रोने की आवाज सुनकर माता मैणादे दूध को चुल्हे पर ही छोडक़र आती हैं और रामदेव जी को गोद में लेकर बैठ जाती हैं। 

उधर दूध गर्म होन के कारण गिरने लगता है, माता मैणादे ज्यांही दूध गिरता देखती हैं वह रामदेवजी को गोदी से नीचे उतारना चाहती हैं उतने में ही रामदेवजी अपना हाथ दूध की ओर करके अपनी देव शक्ति से उस बर्तन को चूल्हे से नीचे धर देते हैं। यह चमत्कार देखकर माता मैणादे व वहीं बैठे अजमल जी व दासी सभी द्वारकानाथ की जय जयकार करते हैं।

कपड़े वाला घोड़ा बाबा रामदेव का खास चढ़ावा 
एक बार बालक रामदेव ने खिलोने वाले घोड़े की जिद करने पर राजा अजमल उसे खिलोने वाले के पास् लेकर गये एवं खिलोने बनाने को कहा। राजा अजमल ने चन्दन और मखमली कपडे का घोड़ा बनाने को कहा। यह सब देखकर खिलौने वाला लालच में आ गय़ा और उसने बहुत सारा कपड़ा अपनी पत्नी के लिये रख लिया और उस में से कुछ ही कपडा काम में लिया। जब बालक रामदेव घोड़े पर बैठे तो घोड़ा उन्हें लेकर आकाश में चला गया। राजा खिलोने वाले पर गुस्सा हुए तथा उसे जेल में डालने के आदेश दे दिये। कुछ समय पश्चात, बालक रामदेव वापस घोड़े के साथ आये। खिलोने वाले ने अपनी गलती स्वीकारी तथा बचने के लिये रामदेव से गुहार की। बाबा रामदेव ने दया दिखाते हुए उसे माफ  किया। अभी भी, कपडे वाला घोड़ा बाबा रामदेव का खास चढ़ावा माना जाता है।

संवत् 1425 में रूणिचा धाम की स्थापना
संवत् 1425 में रामदेव जी महाराज ने पोकरण से 12 किमी उत्तर दिशा में एक गांव की स्थापना की जिसका नाम रूणिचा रखा। लोग आकर रूणिचा में बसने लगे। रूणिचा गांव बड़ा सुन्दर और रमणीय बन गया। भगवान रामदेव जी अतिथियों की सेवा में ही अपना धर्म समझते थे। अंधे, लूले-लंगड़े, कोढ़ी व दुखियों को हमेशा हृदय से लगाकर रखते थे। एक समय रामदेव जी ने दरबार बैठाया और निजीया धर्म का झण्डा गाडक़र ऊंच नीच, छुआ छूत को जड़ से उखाडक़र फैंकने का संकल्प किया तब उसी दरबार में एक सेठ बोहिताराज वहां बैठा दरबार में प्रभू के गुणगान गाता तब भगवान रामदेव जी अपने पास बुलाया और हे सेठ तुम प्रदेश जाओ और माया लेकर आओ। प्रभू के वचन सुनकर बोहिताराज घबराने लगा तो भगवान रामदेव जी बोले हे भक्त जब भी तेरे पर संकट आवे तब मैं तेरे हर संकट में मदद करूंगा। तब सेठ रूणिचा से रवाना हुए और प्रदेश पहुंचे और प्रभू की कृपा से बहुत धन कमाया। एक वर्ष में सेठ हीरो का बहुत बड़ा जौहरी बन गया। कुछ समय बाद सेठ को अपने बच्चों की याद आयी और वह अपने गांव रूणिचा आने की तैयारी करने लगा। सेठजी ने सोचा रूणिचा जाउंगा तो रामदेवजी पूछेंगे कि मेरे लिये प्रदेश से क्या लाये तब सेठ जी ने प्रभू के लिये हीरों का हार खरीदा और नौकरों को आदेश दिया कि सारे हीरा पन्ना जेवरात सब कुछ नाव में भर दो, मैं अपने देश जाउंगा और सेठ सारा सामान लेकर रवाना हुआ। सेठ जी ने सोचा कि यह हार बड़ा कीमती है भगवान रामदेव जी इस हार का क्या करेंगे, उसके मन में लालच आया और विचार करने लगा कि रूणिचा एक छोटा गांव हैं वहां रहकर क्या करूंगा, किसी बड़े शहर में रहुंगा और एक बड़ा सा महल बनाउंगा। इतने में ही समुद्र में जोर का तुफान आने लगा, नाव चलाने वाला बोला सेठ जी तुफान बहुत भयंकर है नाव का परदा भी फट गया है। अब नाव चल नहीं सकती नाव तो डूबेगी ही। यह माया आपके किस काम की हम दोनों मरेंगे।

परचा बावड़ी का जल गंगा समान पवित्र
सेठ बोहिताराज भी धीरज खो बैठा। अनेक देवी देवताओं को याद करने लगा लेकिन सब बेकार, किसी भी देवता ने उसकी मदद नहीं की तब सेठजी को रामदेव जी का वचन का ध्यान आया और सेठ प्रभू को करूणा भरी आवाज से पुकारने लगा। हे भगवान मुझसे कोई गलती हुयी हो जो मुझे माफ कर दीजिये। इस प्रकार सेठ दरिया में रामदेव जी को पुकार रहे थे। उधर रामदेव जी रूणिचा में अपने भाई विरमदेव जी के साथ बैठे थे और उन्होंने बोहिताराज की पुकार सुनी। रामदेव जी ने अपनी भुजा पसारी और बोहिताराज सेठ की जो नाव डूब रही थी उसको किनारे ले लिया। यह काम इतनी शीघ्रता से हुआ कि पास में बैठे भई वीरमदेव को भी पता तक नहीं पडऩे दिया। रामदेव जी के हाथ समुद्र के पानी से भीग गए थे। बोहिताराज सेठ ने सोचा कि नाव अचानक किनारे कैसे लग गई। इतने भयंकर तुफान सेठ से बचकर सेठ के खुशी की सीमा नहीं रही। मल्लाह भी सोच में पड़ गया कि नाव इतनी जल्दी तुफान से कैसे निकल गई, ये सब किसी देवता की कृपा से हुआ है। 

सेठ बोहिताराज ने कहा कि जिसकी रक्षा करने वाले रामदेव जी है उसका कोई बाल बांका नहीं कर सकता। तब मल्लाहों ने भी रामदेव जी को अपना इष्ट देव माना। गांव पहुंचकर सेठ ने सारी बात गांव वालों को बतायी। सेठ दरबार में जाकर रामदेव जी से मिला और कहने लगा कि मैं माया देखकर आपको भूल गया था मेरे मन में लालच आ गया था। मुझे क्षमा करें और आदेश करें कि मैं इस माया को कहां खर्च करूं। तब रामदेव जी ने कहा कि तुम रूणिचा में एक बावड़ी खुदवा दो और उस बावड़ी का पानी मीठा होगा तथा लोग इसे परचा बावड़ी के नाम से पुकारेंगे व इसका जल गंगा के समान पवित्र होगा। इस प्रकार रामदेवरा (रूणिचा) मे आज भी यह परचा बावड़ी बनी हुयी है।

पांच पीरों से मिलन व परचे के बाद रामापीर कहलाए
चमत्कार होने से लोग गांव-गांव से रूणिचा आने लगे। यह बात मौलवियों और पीरों को भी पता चली। रामदेव जी घर घर जाते और लोगों को उपदेश देते कि ऊं च-नीच, जात-पात कुछ नहीं है, हर जाति को बराबर अधिकार मिलना चाहिये। पीरों ने रामदेव जी को परखने का विचार किया कि अपने से बड़े पीर जो मक्का में रहते हैं उनको खबर दी कि हिन्दुओं में एक महान पीर पैदा हुए हैं जो मरे हुए प्राणी को जिन्दा कर देते हैं, अन्धे को आंखे देते हैं, अतिथियों की सेवा करना ही अपना धर्म समझते हैं, उनकी परीक्षा ली जाए। यह खबर जब मक्का पहुंची तो पांच पीर मक्का से रवाना हुए। कुछ दिनों में वे पीर रूणिचा की ओर पहुंचे। पांचों पीरों ने रामदेव जी से पूछा कि हे भाई रूणिचा यहां से कितनी दूर है, तब रामदेवजी ने कहा कि यह जो गांव सामने दिखाई दे रहा हैं वही रूणिचा हैं, क्या मैं आपके रूणिचा आने का कारण पूछ सकता हूं? 

तब उन पांचों में से एक पीर बोले हमें यहां रामदेव जी से मिलना हैं। तब रामदेव जी बोले हे पीरजी मैं ही रामदेव हूं आपके समाने खड़ा हूं कहिये मेरे योग्य क्या सेवा हैं। रामदेव जी के वचन सुनकर पांचों पीर उनके साथ हो लिए। रामदेवजी ने पीरों का बहुत सेवा सत्कार किया। पांचों पीरों को लेकर महल गए, वहां पर गद्दी, तकिया और जाजम बिछाई गई और पीरजी गद्दी तकियों पर विराजे मगर रामदेव जी जाजम पर बैठ गए और बोले हे पीरजी आप हमारे मेहमान हैं, हमारे घर पधारे हैं आप हमारे यहां भोजन करके ही पधारना। इतना सुनकर पीरों ने कहा कि हे रामदेव भोजन करने वाले कटोरे हम मक्का में ही भूलकर आ गए हैं। हम उसी कटोरे में ही भोजन करते हैं दूसरा बर्तन वर्जित है। आपको भोजन कराना है तो वो ही कटोरा जो हम मक्का में भूलकर आये हैं मंगवा दीजिये तो हम भोजन कर सकते हैं वरना हम भोजन नहीं करेंगे। तब रामदेव जी ने कहा कि हे पीर जी अगर ऐसा हैं तो मैं आपके कटोरे मंगा देता हूं। 

ऐसा कहकर रामदेव जी ने अपना हाथ लम्बा किया और एक ही पल में पांचों कटोरे पीरों के सामने रख दिये और कहा पीर जी अब आप इस कटोरे को पहचान लो और भोजन करो। जब पीरों ने पांचों कटोरे मक्का वाले देखे तो पांचों पीरों को रामदेव जी पर विश्वास हुआ और उनके विचारों और आचरण से बहुत प्रभावित हुए और कहने लगे हम पीर हैं मगर आप महान पीर हैं। आज से आपको दुनिया रामापीर के नाम से जानेगी। इस तरह से पीरों ने भोजन किया और रामदेवजी को पीर की पदवी मिली और रामापीर कहलाए।

नैतलदे के साथ रामदेव जी का विवाह
बाबा रामदेव जी ने संवत् 1425 में रूणिचा बसाकर अपने माता पिता की सेवा में जुट गए इधर रामदेव जी की माता मैणादे एक दिन अपने पति राजा अजमल जी से कहने लगी कि अपना राजकुमार बड़ा हो गया है अब इसकी सगाई कर दीजिये ताकि हम भी पुत्रवधु देख सकें। जब बाबा रामदेव जी (द्वारकानाथ) ने जन्म (अवतार) लिया था उस समय रूक्मणी को वचन देकर आये थे कि मैं तेरे साथ विवाह रचाउंगा। संवत् 1426 में अमर कोट के ठाकुर दल जी सोढ़ा की पुत्री नैतलदे के साथ रामदेव जी का विवाह हुआ।

Monday 21 August 2017

सुख, शांति और समृद्धि की स्वामिनी ‘नारी’

घनश्याम डी रामावत
सामाजिक ताने बाने में समाज व परिवार की सार्थकता सुख, शांति व समृद्धि से ही तय होती हैं अर्थात जहां इन चीजों का वास हैं वहां सब कुछ आनन्दमय होना तय हैं। लेकिन यह सब कुछ आसानी से नहीं हो सकता, परिवार के मुखिया के साथ प्रत्येक सदस्य को इसके लिए अपने-अपने हिसाब से दायित्व का निर्वहन करना पड़ता हैं। खासतौर से गृहिणी अर्थात परिवार की स्वामिनी की इन सभी चीजों को सुनिश्चित करने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती हैं। आम धारणा जो सदियों से चली आ रही हैं, इंसान को बनाने और बर्बाद करने में नारी का हाथ होता हैं/नारी चाहें तो किसी को बर्बाद कर सकती है और वो चाहें तो आबाद। भारतीय संस्कृति व पौराणिक नजरिए से नारी को घर की लक्ष्मी माना जाता हैं। इस दृष्टि से नारी के लिए उसका घर स्वर्ग के समान हैं। शास्त्रों में स्पष्ट रूप से उद्धत किया हुआ हैं कि जहां जहां नारियों की पूजा होती हैं वहां देवताओं का वास होता हैं। लेकिन सुख शांति और समृद्धि केवल नारी के सद्विचारों मात्र से ही संभव नहीं उसे अनेक अन्य कारकों का भी ध्यान रखना होता हैं जिसमें सबसे प्रमुुख हैं ‘वास्तु’।

वास्तु के लिहाज से ‘नारी’ घर की ऊर्जा का मूल स्त्रोत
‘वास्तु’ के लिहाज से भी नारी को घर की ऊर्जा का मूल स्त्रोत माना गया हैं। नारी अपने मौजूदा दौर की अति व्यस्ततम जीवन शैली के बीच एक गृहिणी के रूप में निभाए जाने वाले दायित्व निर्वहन की दृष्टि से अगर अपने स्वभाव और कुछ वास्तु शास्त्र के नियमों का पालन करें तो घर में सुख शांति और समृद्धि की वर्षा होना तय हैं। हर आम घर/परिवार मेंं सुख शांति और समृद्धि किस प्रकार से सुनिश्चित हो, जोधपुर की जानी मानी युवा रैकी हीलर व वास्तु पिरामिड विशेषज्ञ अर्चना प्रजापति से बातचीत के बाद जो खास चीजे/उपाय निकलकर सामने आए हैं/मैं आज इस आलेख के माध्यम से आप सभी के साथ साझा कर रहा हूं। प्रजापति की माने तो घर की महिलाएं इन उपायों को अपनाकर अपने घर में सुख शांति और समृद्धि ला सकती हैं। वास्तु की दृष्टि से घर की स्वच्छता का ख़ास ख्याल रखना चाहिए इससे पर्स हमेशा नोटों से भरा रहेगा। वैसे तो सभी अपने घरों को साफ रखना पसंद करते हैं, लेकिन कभी-कभी एक खास अभियान के तहत इसे लेना चाहिए। घर की स्वच्छता, घर में सकारात्मक ऊर्जा का प्रमुख स्रोत माना गया हैं। स्वच्छता से घर कीटाणुओं रहित तो होगा ही, चमकदार नजर आने के साथ खुशहाल/सुकूनभरा भी प्रतीत होगा। 

वास्तु नियमों की पालना से श्रेष्ठ परिणाम संभव
वास्तु के लिहाज से सफाई करने के तुरंत बाद स्नान करना चाहिए, समृद्धि का वास होना तय हैं। आम तौर पर नहाना-धोना तो सभी करते हैं, क्योकि स्नान करने से तन और मन स्वच्छ हो जाते है और दिनभर ताजा महसूस होता हैं। लेकिन ज्यादातर महिलाएं अक्सर घर की सफाई करने से पहले स्नान करना पसंद करती हैं जो कि गलत हैं। वास्तु के अनुसार महिलाओं को सफाई करने के तुरंत बाद नहाना चाहिए। ऐसी मान्यता हैं कि इससे नया काम करने के लिए सकारात्मक ऊर्जा शरीर में आ जाती हैं।  खाना बनाने से पहले नहाना चाहिए। अगर जीवन में दुर्घटना सहित आर्थिक परेशानियों का सामना लगातार तरीके से करना पड़ रहा हैं तो ये अद्भुत/आसान उपाय अवश्य करें। शरीर को सबसे ज्यादा एनर्जी भोजन से ही मिलती हैं और वास्तु की भी ऐसी ही मान्यता हैं। वास्तु के अनुसार ये अत्यंत आवश्यक हैं कि खाना बनाने से पहले अवश्य नहाना चाहिए। नहाने के बाद खाना बनाने पर खाना ज़्यादा स्वास्थ्यवर्धक और सकारात्मक ऊर्जा से भरपूर हो जाता हैं और यह खाना परिवार के लिए ज्यादा पोषक भरा रहेगा। खाने से पहले भोग अवश्य लगाना चाहिए। पौराणिक मान्यताओं की ही तरह वास्तु की भी यही मान्यता हैं कि खाना खाने से पहले पहला भोजन भगवान, गाय और कुत्ते को कराना चाहिए, इससे घर में समृद्धि और खुशहाली बनी रहती हैं। महिलाएं किसी पार्टी या शादी में जाने से पहले सज-धज कर जाना पसंद करती है और वैसे भी पार्टी और शादियां या फिर कोई भी कार्यक्रम हमेशा शाम को या रात को ही होते हैं, ऐसे में महिलाएं सबसे ज्यादा अपने बालों पर ध्यान देती है। जबकि, वास्तु के अनुसार सूर्यास्त के बाद स्त्रियों का कंघा करना सही नही माना जाता है। शाम के समय कंघा करने से देवी लक्ष्मी नाराज हो जाती हैं। 

नारी शक्ति का स्वस्थ व प्रसन्न रहना जरूरी
घर की शांति के लिए सबसे ज्यादा जरूरी माना जाता हैं कि घर/परिवार का प्रत्येक सदस्य शांत और खुश मिजाज रहे। इसमें सबसे ज्यादा जरूरी हैं घर की लक्ष्मी अर्थात महिलाओं का शांत और खुश रहना श्रेष्ठकर/आवश्यक माना गया हैं। गुस्सा करना और चिड़चिड़ाना घर में नकारात्मक ऊर्जा भर देता हैं। पानी के किसी भी स्त्रोत का दक्षिण पश्चिमी हिस्सों में नही होना चाहिए क्योकि वास्तुशास्त्र के अनुसार दक्षिण पश्चिमी कोने में पानी का स्त्रोत होने से धनहानि की संभावना बढ़ जाती हैं। पानी का स्त्रोत उत्तर-पूर्वी कोने में होने अच्छा माना गया हैं। इसलिए यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि पानी का स्त्रोत हमेशा उत्तर-पूर्वी कोने में ही हो। घर की तिजोरी का दरवाजा उत्तर दिशा में खुलना चाहिए। तिजोरी में कुबेर देवता की फोटो रखने से धन लाभ होता हैं। इसके साथ ही ध्यान जाना चाहिए कि तिजोरी तेज रोशनी के ठीक सामने न हो। तिजोरी के सामने एक दर्पण लगाने से धन में दो गुना ज़्यादा वृद्धि होगी ऐसी वास्तु की मान्यता हैं। महिलाओं को घर के उत्तर-पूर्वी भाग का ख़ास ख्याल रखना चाहिए। ऐसा करके यदि वे अपना घर खरीदने का सपना पूरा नहीं कर पा रही हैं तो वे इसे जल्द कर सकती हैं। गृहिणी चूंकि परिवार को संभालती हैं उसके लिए परिवार का सदस्य और अपना घर दोनों ही काफी महत्वपूर्ण होते हैं और वह दोनों का ख्याल रखती हैं। घर का उत्तर-पूर्वी इलाका वास्तु के अनुसार बहुत पवित्र हैं। इस स्थान को हमेशा साफ़-सुथरा और रोशनी युक्त रखना चाहिए, इस क्षेत्र में सीढिय़ों का निर्माण कतई न करें। घर के बीच का हिस्सा घर के बीच का हिस्सा बहुत पवित्र होता हैं। यहां पर सिर्फ मंदिर बनवा सकते हैं, अगर ऐसा संभव न हो पाता हैं तो इसे सिर्फ स्वच्छ रखा जाना चाहिए। 

घर के बीच के हिस्से में एक ऊंचाई का स्थान बनवाकर तुलसी का पौधा भी रखा जा सकता हैं। इन सभी उपायों को परिवार की समृद्धि और खुशहाली का प्रतीक माना गया हैं। नारी इन उपायों को जीवन में आत्मसात करते हुए व्यवहारिक तरीके से परिणीत कर परिवार की सुख शांति और समृद्धि में अपनी भूमिका का सार्थक/सुदृढ तरीके से निर्वहन कर श्रेष्ठकर परिणाम प्राप्त कर सकती हैं।

Sunday 13 August 2017

महेन्द्रा गुणसार लोक संगीत संस्थान : कार्यशाला के माध्यम से पारंपरिक कलाओं के संरक्षण का अभिनव प्रयास

घनश्याम डी रामावत
देश विदेश में राजस्थानी लोक संगीत और लोकवाद्यों के रिदम से श्रोताओं को दीवाना बनाते हुए झूमने को मजबूर करने वाली पारंपरिक लोक कलाओं को बचाये रखने के लिए नए अनूठे प्रयास शुरू किये गए हैं। वीरता के साथ अपनी अनूठी परम्पराओं व अनूठी संस्कृति के रूप में देश ही नहीं विदेश तक में अपनी खास पहचान रखने वाले राजस्थान के जैसलमेर में लंगा मांगणियार से जुड़ी गुणसार लोक संगीत संस्थान ने क्लब महेन्द्रा के सहयोग से लंगा मंगणियार जाति के 40 बच्चों के लिए एक कार्यशाला की शुरूआत की हैं। 

गाने व वाद्यों को बजाने का विधिवत प्रशिक्षण
रोजाना चलने वाले महेन्द्रा गुणसार लोक संगीत स्कूल में चल रहे इस प्रशिक्षिण शिविर में लुप्त हो रहे पारंपरिक लोक वाद्यों को बजाने और लोक गीतों को गाने का प्रशिक्षण दिया जा रहा हैं। इसमें खासकर ऐसे
गीत गवाये जा रहे हैं जिनका प्रचलन धीमे-धीमे कम होता जा रहा हैं। जैसलमेर के लोक संगीत की गूंज सात समंदर पार तक पहुंच चुकी हैं। हर साल लाखों की संख्या में देशी विदेशी सैलानी पारम्परिक लोक कलाओं को देखने संगीत को सुनने यहाँ आते हैं। जैसलमेर के लोक संगीत को बचा कर रखने वाली जातियां लंगा और मांगनियार इस संगीत को बचा कर रख बैठी हैं लेकिन आज की पीढिय़ों में इस लोक संगीत का मोह धीरे धीरे ख़त्म हो रहा हैं। इस संगीत को संरक्षण देने और आने वाली पीढिय़ों में इसे जागृत रखने के लिए जैसलमेर के एक संस्थान गुणसार लोक संगीत संस्थान द्वारा क्लब महेन्द्रा के सहयोग से यह अनूठा प्रयास शुरू किया गया हैं, जिसमें बच्चों को अपनी लोक कला को सिखाया जा रहा हैं। उन्हें रूबरू करवाया जा रहा है ताकि इस लोक संगीत का संरक्षण हो सके। 

पारंगत लोगों द्वारा तराशा जा रहा हैं बच्चों को
असल में जैसलमेर सहित पश्चिमी राजस्थान में कई क्षेत्रो में बजाये जाने वाले लोक वाद्य जिसमें सारंगी, कमायचा, शहनाई आदि प्रमुख हैं का उपयोग धीमे-धीमे काफी कम होता जा रहा हैं। इसके बजाने वाले कलाकार भी काफी गिने चुने रह गए हैं। अब केवल हारमोनियम व ढोलक आदि वाद्ययंत्र कलाकारों द्वारा बजाया जा रहा हैं। इसी तरह कई प्राचीन लोक गीत लुप्त होने के कगार पर हैं। स्थिति यहां तक पहुंच गई हैं कि इनके लिरिक्स भी वर्तमान की नई पीढ़ी को याद नही हैं, इसको देखते हुए लोक गीतों व लोक वाद्यों को बचाने के लिए महेन्द्रा गुड़सार संगीत स्कूल शुरू किया हैं जिसमें लंगा मंगणियार व अन्य जातियों के छोटे-छोटे बच्चों को इन लोकगीतों व वाद्य यंत्रों में पारंगत किया जा रहा हैं। इसमें फिरोज खान द्वारा मोरचंद व खड़ताल बजाने, रफीक द्वारा ढोलक, खेते खान द्वारा खड़ताल व चंग, सतार खान द्वारा सारंगी, सच्चू खां द्वारा कमायचा, अमीन खांन द्वारा हारमोनियम, डालूदास द्वारा मंजीड़ा व वीणा, रसूल खां द्वारा गायन व अली खान द्वारा गायन व बाकी वाद्य यंत्रो को बजाने की ट्रेनिंग दी जा रही हैं।

लोक कलाओं को पोषित/संरक्षित करने का काम
गुणसार लोक संगीत संस्थान के बख्स खान के अनुसार कार्यशाला में सभी प्रकार के वाद्ययंत्र जिसमें तबला, नगाड़ा, चंग, ढोल, ढोलक हारमोनियम तबला, सिंधी सारंगी, खंजरी, मुरली, तासा, मदिरा, भपंग, अलगोजा, शहनाई, मोरचंग, वीणा आदि वाद्य यंत्रो को क्लब महेन्द्रा के सहयोग से खरीदा गया हैं। इन वाद्ययंत्रो को बच्चे बजाना सीख रहे हैं व इनके साथ गायन भी कर रहे हैं। इसके अलावा ऐसे कई प्राचीन गीतों के गायन की ट्रेनिंग दी जा रही हैं जो लुप्त हो रहे हैं। गुणसार लोक संगीत संस्थान का यह प्रयास निश्चित रूप से अपने आप में अभिनव हैं जिसकी जितनी भी सराहना की जाए कम हैं। ऐसे समय में जबकि पाश्चात्य संस्कृति व पश्चिमी गीत संगीत लगातार तरीके से लोगों पर अपना प्रभाव बनाता जा रहा हैं, गुणसार लोक संगीत संस्थान की यह अनूठी मशक्कत/भूमिका पारंपरिक गीत संगीत से युवाओं का रूबरू कराने के साथ उन्हें पारंगत तो बनाएगी ही, पारंपरिक लोक कलाओं को पोषित व मजबूती से संरक्षित करने का काम भी करेगी।

Friday 11 August 2017

कजली तीज : पति की दीर्घायु का पर्व

घनश्याम डी रामावत
कर्म के साथ धर्म व मान्यताओं को अत्यधित तवज्जों देने वाले भारत देश में हिन्दू कैलेंडर के हिसाब से पांचवें माह अर्थात भाद्रपद में कृष्ण पक्ष की तृतीया को ‘कजली तीज’ के रूप में मनाया जाता हैं। यह पर्व रक्षाबंधन के तीसरे दिन और जन्माष्टमी के पांच दिन पहले मनाया जाता हैं। इस बार अर्थात वर्ष 2017 में यह पर्व राजस्थान सहित देश भर में 10 अगस्त/गुरूवार को विधि विधान से मनाया गया। ‘कजली तीज’ का धार्मिक लिहाज से खास महत्व  हैं। पति-पत्नी के रिश्ते को मजबूत बनाने के लिए महिलाएं इस व्रत को रखती हैं। मान्यता के अनुसार यह प्रत्येक सुहागन के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण  हैं। इस दिन पत्नी अपने पति की लम्बी उम्र के लिए व्रत रखती हैं, वहीं कुंआरी लडक़ी अच्छा वर पाने के लिए यह व्रत रखती हैं।

पूरे दिन निर्जला व्रत रखती हैं महिलाएं
महिलाएं ‘कजली तीज’ धूमधाम से मनाती हैं। उत्साह और उमंग से भरी महिलाएं पूरे दिन निर्जला व्रत रखती हैं और पति की दीर्घायु की कामना करती हैं। सुबह से ही उत्साह में डूबी महिलाएं सूर्योदय के साथ भक्ति के रंग में डूब जाती हैं। मन ईश्वर की आराधना में लीन हो जाता है। शाम होते ही चंद्रमा के उगने की प्रतीक्षा शुरू हो जाती हैं। घरों में नीम की डाली लाकर उसे एक वृक्ष का रूप दिया जाता  हैं। उसके समक्ष चने का सत्तू, खीरा, नींबू रखा जाता  हैं और दीपक जलाया जाता  हैं। तीज माता की कथा सुनाई जाती  हैं। कजरी तीज के लोक गीतों से वातावरण गूंज उठता हैं। चंद्रमा के उदय होने पर अर्ध्य दिया जाता हैं। सभी के कल्याण की कामना की जाती  हैं। बुजुर्गो के चरण स्पर्श करके उनका आशीर्वाद लिया जाता  हैं। उसके बाद उपवासी महिलाएं सत्तू का सेवन करती हैं। अविवाहित युवतियां भी अपने उत्तम पति की कामना से इस व्रत, पूजन को करती हैं।

‘कजली तीज’ का पुराणों में खास उल्लेख
पुराणों के अनुसार मध्य भारत में कजली नाम का एक वन था। इस जगह का राजा दादुरै था। इस जगह में रहने वाले लोग अपने स्थान कजली के नाम पर गीत गाते थे जिससे उनकी इस जगह का नाम चारों और फैले और
सब इसे जाने। कुछ समय बाद राजा की म्रत्यु हो गई और उनकी रानी नागमती सती हो गई। जिससे वहां के लोग बहुत दु:खी हुए और इसके बाद से कजली गाने पति पत्नी के जन्म जन्म के साथ के लिए गाए जाने लगे। इसके अलावा एक और कथा भी इस पर्व से जुड़ी  हुई हैं। माता पार्वती भगवान शिव से शादी करना चाहती थी लेकिन शिव ने उनके सामने शर्त रख दी और बोला कि अपनी भक्ति और मेरे प्रति अनुराग को सिद्ध कर के दिखाओ। तब पार्वती ने 108 साल तक कठिन तपस्या की और भोलेनाथ को प्रसन्न किया। शिव ने पार्वती से खुश होकर इसी तीज को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकारा था। इसलिए इसे ‘कजली तीज’ कहते  हैं। एक मान्यता के अनुसार बड़ी तीज को सभी देवी देवता शिव पार्वती की पूजा करते हैं। तीज के दिन औरतें अपने आप को अच्छे से सजाती है और पारंपरिक गाने में नाचती हैं।  इस दिन वे हाथों में मेहंदी भी लगाती हैं। ‘कजली तीज’ के दिन घर में बहुत से पकवान बनते हैं जिसमें खीर-पूरी, घेवर, गुजिया, बादाम का हलवा, काजू कतली, बेसन का लड्डू, नारियल का लड्डू, दाल बाटी चूरमा प्रमुख हैं।

बूंदी(राजस्थान) में इस पर्व का विशेष महत्व
हमारे देश में हर प्रान्त में प्रत्येक त्यौहार को अलग-अलग तरह से मनाया जाता हैं। राजस्थान के अलावा उत्तर प्रदेश, बिहार व मध्य प्रदेश सहित अन्य प्रदेशों में यह त्यौहार अलग तरीके से मनाया जाता हैं। उत्तर प्रदेश व 
बिहार में लोग नाव पर चढक़र कजरी गीत गाते हैं। राजस्थान की तरह ही वाराणसी व मिर्जापुर में इसे बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता  हैं। वहां तीज के गानों को वर्षा गीत के साथ गाया जाता हैं। राजस्थान के बूंदी स्थान में इस तीज का बहुत महत्त्व  हैं, बूंदी में ‘कजली तीज’ के दिन बड़ी धूम होती है। भाद्रपद कृष्ण पक्ष की तृतीया को बूंदी में अत्यधिक हर्षोल्लास से मनाया जाता हैं। पारंपरिक नाच होता हैं। ऊंट, हाथी की सवारी की जाती  हैं। इस दिन दूर-दूर से लोग बूंदी की इस तीज देखने जाते  हैं।
‘कजली तीज’ के अवसर पर सुहागिन महिलाएं कजरी खेलने अपने मायके जाती हैं। इसके एक दिन पूर्व यानि भाद्रपद कृष्ण पक्ष द्वितीया को ‘रतजगा’ किया जाता  हैं। महिलाएं रात भर कजरी खेलती तथा गाती हैं। कजरी खेलना और गाना दोनों अलग-अलग बातें हैं। कजरी गीतों में जीवन के विविध पहलुओं का समावेश होता हैं। इसमें प्रेम, मिलन, विरह, सुख-दु:ख, समाज की कुरीतियों, विसंगतियों से लेकर जन जागरण के स्वर गुंजित होते हैं।

‘सतवा’ व ‘सातुड़ी तीज’ भी कहा जाता हैं
‘कजली तीज’ से कुछ दिन पूर्व सुहागिन महिलाएं नदी-तालाब आदि की मिट्टी लाकर उसका पिंड बनाती हैं और उसमें जौ के दाने बोती हैं। रोज इसमें पानी डालने से पौधे निकल आते हैं। इन पौधों को कजरी वाले दिन लड़कियाँ अपने भाई तथा बुजुर्गों के कान पर रखकर उनसे आशीर्वाद प्राप्त करती हैं। इस प्रक्रिया को ‘जरई खोंसना’ कहते हैं। कजरी का यह स्वरूप केवल ग्रामीण इलाकों तक सीमित हैं। यह खेल गायन करते हुए किया जाता हैं, जो देखने और सुनने में अत्यन्त मनोरम लगता हैं। कजरी-गायन की परंपरा बहुत ही प्राचीन हैं। कजरी के मनोहर गीत रचे गए हैं, जो आज भी गाए जाते हैं। ‘कजली तीज’ को ‘सतवा’ व ‘सातुड़ी तीज’ भी कहते हैं। माहेश्वरी समाज का यह विशेष पर्व हैं। जौ, गेहूं, चावल और चने के सत्तू में घी, मीठा और मेवा डाल कर पकवान बनाया जाता हैं और चंद्रोदय होने पर उसी को भोजन के रूप में ग्रहण किया जाता हैं।