Wednesday 29 November 2017

गुजरात चुनाव : मारवाड़ी अनुभवी राजनेताओं पर भरोसा

घनश्याम डी रामावत
गुजरात चुनाव पर सभी की नजर हैं। स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी इसमें अपनी जान फूंक रहे हैं। इस सियासी रण को जीतने के लिए प्रमुख राजनीतिक दल कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी ने मारवाड़ के अनुभवी राजनेताओं पर भरोसा जताया हैं, ऐसा अब तक के चुनावी घमासान को देखकर प्रतीत हो रहा हैं। गुजरात चुनाव की कमान मोटे तौर पर सीधे मारवाड़ राजस्थान के बड़े अनुभवी राजनेताओं को दी गई हैं। खासकर मारवाड़ की राजधानी कहे जानेे वाले जोधपुर क्षेत्र से कांग्रेस और बीजेपी के अनेक राजनेता गुजरात पहुुंचे हैं।

पिछले लंबे समय से गुजरात में सत्ता से महरूम कांग्रेस पार्टी ने पश्चिमी राजस्थान अर्थात मारवाड़ की धरा के प्रमुख कद्दावर राजनेता पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को गुजरात चुनाव प्रभारी के तौर पर मैदान में उतारा हैं। गहलोत इन दिनों कांग्रेस के सर्वेसर्वा गांधी परिवार के बेहद नजदीक हैं। चुनाव में गहलोत के नजदीकी समझे जाने वाले मारवाड़ के तकरीबन सभी नेता व कार्यकत्र्ता गुजरात चुनाव में सियासी कमान थामे हुए हैं। जोधपुर से पाली के पूर्व सांसद बद्रीराम जाखड़, जोधपुर विकास प्राधिकरण के पूर्व चेयरमैन राजेन्द्रसिंह सोलंकी, पूर्व महापौर रामेश्वर दाधीच, राजस्थान संगीत नाटक अकादमी के पूर्व अध्यक्ष रमेश बोराणा, राजसिको के पूर्व अध्यक्ष सुनील परिहार तथा नगर निगम में प्रतिपक्ष के उप नेता गणपतसिंह चौहान सहित कई राजनेता गुजरात चुनाव में जोर शोर से जुटे हुए हैं।

भाजपा ने इन नेताओं का उतारा मैदान में
भारतीय जनता पार्टी की बात करें तो जोधपुर संभाग के प्रमुख संसदीय क्षेत्र पाली के सांसद व केन्द्रीय राज्यमंत्री पी पी चौधरी के पास गुजरात चुनाव का सह प्रभार हैं। अब तक सभी प्रदेशों में बीजेपी के सर्वाधिक विश्वसीय रहे राज्यसभा सांसद ओमप्रकाश  माथुर भी प्रमुख रणनीतिकार हैं। माथुर पीएम मोदी के गुजरात के सीएम रहते लंबे समय तक प्रमुख रणनीतिकार के तौर पर अपनी भूमिका का निर्वहन करते रहे हैं। इसके अलावा पाली जिले से उप मुख्य सचेतक मदन राठौड़ और जिले के प्रभारी मंत्री राजेन्द्र राठौड़ भी गुजरात चुनाव में पार्टी की जीत सुनिश्चित करने हेतु जी जान से जुटे हुए हैं। सोजत विधायक संजना आगरी को भी प्रथम चरण के होने वाले चुनाव को लेकर महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी गई हैं।

मारवाडी प्रवासी तय करेंगे सियासी भविष्य
गुजरात विधानसभा की 182 सीटों के लिए होने जा रहे चुनाव में प्रवासी मारवाड़ी सियासी भविष्य तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेंगे। अनेक सीटों पर बरसों से वहां बसे प्रवासी मारवाडिय़ों के वोट उम्मीदवारों की जीत हार तय करेंगे। गुजरात की राजधानी अहमदाबाद समेत सूबे के एक दर्जन से अधिक प्रमुख शहरों में बड़ी तादाद में मारवाड़ी प्रवासियों की भारी संख्या हैं। ये प्रवासी मारवाड़ी न केवल वर्षों से कामकाज के सिलसिले में यहां रह रहे हैं, बल्कि अब वे गुजरात के निवासी भी बन चुके हैं। गुजरात के मेहसाणा, पालनपुर, अहमदाबाद, सूरत, डीसा, वलसाढ़, राजकोट व बड़ोदरा समेत एक दर्जन के करीब शहरों में प्रवासी मारवाडिय़ों ने अपना कामकाज संभाल रखा हैं तथा वे इस चुनाव में अपना खासा प्रभाव रखते हैं। चूंकि सभी परिवार सहित रहते हैं लिहाजा मतों की संख्या भी अच्छी खासी हैं।

मत देने का अधिकार हासिल किया
मारवाड़ के जोधपुर, नागौर, पाली व सिरोही जिलों से संबद्ध अनेक परिवार अब न सिर्फ गुजरात के विभिन्न शहरों में अपने आशियाने बना चुके हैं, बल्कि उन्होंने वर्षों से वहां रहते हुए अपने आप को बेहतरीन तरीके से स्थापित करते हुए चुनावों में वोट देने का अधिकार भी हासिल कर लिया हैं। ऐसे में यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं हैं कि चुनाव में मारवाड़ी प्रवासी लोगों की भी अहम भूमिका रहेगी। ज्ञातव्य रहें, पिछले गुजरात विधानसभा चुनाव में प्रदेश की 162 सीटों मे से 120 सीटों पर भाजपा के उम्मीदवार विजयी हुए थे। 43 सीटों पर कांगेस को जीत मिली। वहीं, 2 सीट एनसीपी तथा 1 सीट जेडीए के खाते में गई। अन्य एक सीट पर निर्दलीय उम्मीदवार विजयी रहा।

Sunday 19 November 2017

सैलानियों को लुभाने लगा ‘माचिया पार्क’

घनश्याम डी रामावत
सूर्यनगरी जोधपुर की कायलाना पहाडिय़ों के बीच बना पश्चिमी राजस्थान का पहला बॉयलोजिकल पार्क शहर के बाशिंदों और देशी विदेशी सैलानियों को बहुत ज्यादा पसंद आ रहा हैं। अब तक की बात करे तो यहां कुल 6 लाख 43 हजार दर्शक वन्यजीवों को निहार चुके हैं। इससे राज्य सरकार को दर्शकों से कुल 2 करोड़ 10 लाख रुपए की राजस्व आय हुई हैं। इस प्राकृतिक इन्टरप्रीटिशन सेन्टर में वन्यजीवों का अनूठा संसार हैं।

मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने किया उद्घाटन
माचिया बॉयलोजिकल पार्क का 20 जनवरी 2016 को उद्घाटन हुआ था। खुद सूबे की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने अपने जोधपुर दौरे के दौरान इसका शुभारम्भ किया था। तब से लेकर अब तक इस पार्क को लाखों की संख्या में देशी व विदेशी पर्यटक देख चुके हैं।  इस माचिया बॉयलॉजिकल पार्क की विशेषता की बात करें तो यह पार्क ऐसी जगह पर स्थापित हुआ हैं जो केवल पूर्व में एक पथरीला इलाका हुआ करता था। जहां सिर्फ पहाड़ों के सिवा कुछ देखने को नहीं मिलता। मगर वन्य अधिकारियों के प्रयासों से यहां ब्लास्टिक कर खड्डों के अंदर बाहर से लाकर खाद्य और मिट्टी भर के पेड़-पौधे लगाए गए। वहीं इस पार्क में अब तक 6 लाख 43 हजार से अधिक देशी-विदेशी पर्यटक इस पार्क को देख चुके हैं जिससे लगभग 2 करोड 10 लाख रूपए की आय राजस्थान सरकार को हुई हैं।


रणथम्बोर, सरिस्का, सीता माता एवं अन्य वन विभागों में अपनी सेवाएं देने के बाद हाल ही में जोधपुर वन्यजीव उप वन संरक्षक के रूप में पदस्थापित होने वाले बी एस राठौड़ का कहना हैं कि यह पूर्व में पूरी तरह से पथरीला इलाका हुआ करता था जहां गर्मी भी अधिक पड़ती थी और पेड पौधों का यहां नामो निशान तक नहीं था। ऐसे में काफी कठिन रहा मगर उन सभी को पीछे छोडक़र टीम भावना से मेहनत का ही नतीजा हैं कि मारवाड़ का पहला बॉयलॉजिकल पार्क यहां स्थापित हो सका।

कुल क्षेत्रफल 604 बाई 69 हेक्टेयर 
ज्ञातव्य रहें, इस बायोलॉजिकल पार्क का कुल क्षेत्रफल 604 बाई 69 हेक्टेयर हैं। 32.43 करोड़ की लागत से बने इस पार्क में लोगों को वन्यजीवों के प्रति जागरूक करने के लिए इंटरप्रिटेशन सेंटर का भी निर्माण किया गया हैं। इसमें लोग वन्यजीवों के बारे में अधिकाधिक जानकारी प्राप्त कर सकेंगे। पार्क में आने वाले सैलानियो की अब तक की संख्या को देखने के बाद यह कहा जा सकता हैं कि वे माचिया से खुश हैं।

28 प्रजातियों के पौधे पार्क में मौजूद
वर्तमान में इस उद्यान में 28 प्रजातियों के धौंक, नीम, बबूल, कुमठ, छेकड़ा, कचनार, लसोड़, गूंदी, पीपल, बरगद, गूलर, पाखर, चुरेल, विलायती बबूल, देशी बबूल, आंवला, करंज, कदम्ब, जाळ, फरास, झाड़ी बेर, केर, खेजड़ी, पारस पीपल, गूगल, गांगणी आदि के पौधे हैं।

Saturday 18 November 2017

मारवाड़ में चिकित्सकों की कमी, 318 पद रिक्त

घनश्याम डी रामावत
मारवाड़ के रूप में पहचान रखने वाले पश्चिमी राजस्थान में स्वास्थ्य सेवाएं भगवान भरोसे ही चल रही हैं। इसकी वजह जिला मुख्यालयों से लेकर तहसील मुख्यालयों तक चिकित्सकों की जबरदस्त कमी हैं। जोधपुर संभाग में 318 चिकित्सकों के पद लम्बे समय से रिक्त पड़े हैं, जिस कारण मरीजों का दबाव यहां सेवाएं दे रहे प्रत्येक चिकित्सक पर अधिक हैं एवं उनका वर्कलोड अप्रत्याशित तरीके से बढ़ गया हैं। ऐसी ही हालत नर्सेज की हो रखी हैं। इसके चलते आए दिन अस्पतालों में फसाद भी हो रहे  हैं।

अकेले जोधपुर जिले में ही 127 पद रिक्त
सीधे तरीके से स्थिति को बयां करे तो मुठ्ठी भर चिकित्सकों के सहारे मारवाड़ की चिकित्सा व्यवस्था को सुचारू चलाने का दबाव चिकित्सा के संयुक्त निदेशक जोधपुर जोन पर  हैं। अकेले जोधपुर जिले में ही 127 चिकित्सकों के पद रिक्त हैं। यानि पूरे संभाग की तुलना में अकेले जोधपुर में ही आधे पद रिक्त पड़े  हैं ये पद मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी के अधीन आने वाले अस्पतालों की संख्या वाले  हैं, मेडिकल कॉलेज के पद मिलाएं तो ये संख्या अधिक हो जायेगी। ये हालत संभागीय मुख्यालय जोधपुर जैसे जिले की  हैं। जोधपुर जिले की बात करे तो यहां पर 25 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र स्तर के अस्पताल  हैं। 85 ग्रामी स्वास्थ्य केंद्र  हैं। 30 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हैं। यहां पर 150 प्रसव ग्रामीण क्षेत्र में प्रतिदिन होने का दावा किया जा रहा हैं। जिले के सेटलाइट, जिला अस्पताल व जोधपुर शहरी डिस्पेंसरियों में प्रसव की बात करे तो ये संख्या 175 के आसपास बैठती हैं।

415 पद स्वीकृत, सेवाएं दे रहे 288
मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी कार्यालय के अधीन आने वाले अस्पतालों में कुल 415 पद चिकित्सकों के स्वीकृत हैं, जिसमें से 288 पद पर ही चिकित्सक लगे हैं। उसमें से ही गांवों की जगह चिकित्सक प्रतिनियुक्ति पर जोधपुर शहर के अस्पतालों में टिके  हैं। वही पाली जिले में वर्तमान में 281 चिकित्सक कार्यरत  हैं और 120 पद खाली पड़े है। जालोर में 287 पद सृजित  हैं लेकिन चिकित्सक 127 ही कार्यरत  हैं। सिरोही में 134 चिकित्सकों के ही पद ही स्वीकृत  हैं जिसकी जगह वहां पर 73 चिकित्सक ही कार्यरत हैं। बाड़मेर जिले में 292 की जगह 167 ही कार्यरत हैं। जैसलमेर में 150 पद स्वीकृत  हैं, उसकी जगह 68 चिकित्सक ही कार्यरत  हैं, जैसलमेर में सबसे कम पद सरकार ने दे रखे हैं, उसमें से भी 82 पद रिक्त पड़े  हैं।

सरकार द्वारा गंभीरता से लेने की जरूरत
संभाग में पीएमओ ही जिला स्तर के व सेटलाइट अस्पताल चलाते आए हैं। इसकी हालत यहां बड़ी दयनीय हैं। इनके अधीन भी चिकित्सक पूरे नहीं हैं। पावटा जोधपुर में तो 31 चिकित्सकों के पद की जगह पूरे चिकित्सक कार्यरत हैं तो महिलाबाग में 40 की जगह 15 पद पर ही चिकित्सक कार्यरत हैं। पाली में 57 की जगह 32, सोजत में 36 की जगह 18, जालोर में 45 की जगह 30, सिरोही में 42 की जगह 32, बालोतरा में 36 की जगह 18, जैसलमेर में 59 की जगह 37 चिकित्सक ही कार्यरत हैं। ये वे संभाग के अस्पताल  हैं जहां पर सर्वाधिक मरीजों की कतारे लगती हैं। जहां पर ही पूरे चिकित्सक नही होने के कारण व्यवस्थाएं चरमराई रहती हैं। संपूर्ण स्थिति वाकई चिंताजनक हैं जिसे सरकार द्वारा गंभीरता से लिए जाने की आवश्यकता हैं।

Thursday 16 November 2017

गंगा कुमारी : राजस्थान की पहली किन्नर पुलिस कांस्टेबल

घनश्याम डी रामावत
राजस्थान हाईकोर्ट द्वारा हाल ही में एक किन्नर के पक्ष में सुनाए गए फैसले ने प्रदेश के किन्नरों के लिए सरकारी नौकरी के दरवाजे खोल दिए हैं। प्रदेश के जालोर जिले की जाखड़ी निवासी किन्नर गंगा कुमारी की याचिका पर सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट ने राजस्थान पुलिस विभाग को उसे नियुक्ति देने के आदेश दिए हैं।

किसी किन्नर को सरकारी नौकरी देने का राजस्थान में यह प्रथम और देश में तीसरा मामला हैं। हाईकोर्ट के आदेश के बाद अब पुलिस में कांस्टेबल के पद पर पहली बार किसी किन्नर को नियुक्ति दी जाएगी। जस्टिस दिनेश मेहता की कोर्ट ने गंगा कुमारी की याचिका पर सुनवाई करते हुए 6 सप्ताह में नियुक्ति देने और वर्ष 2015  से ही नोशनल बेनीफिट देने के निर्देश दिए हैं। गंगा कुमारी की ओर से अधिवक्ता रितुराज सिंह ने पैरवी करते हुए कहा कि गंगा कुमारी पुलिस कांस्टेबल के पद के पात्र होने के बावजूद जालोर पुलिस अधीक्षक द्वारा नियुक्ति नहीं दी गई। कांस्टेबल भर्ती परीक्षा में चयनित किन्नर की नियुक्ति को लेकर पुलिस मुख्यालय एवं गृह विभाग असमंजस में थे। काफी समय से इस बारे में निर्णय नहीं हो पा रहा था। इस पर किन्नर गंगा कुमारी ने हाईकोर्ट में याचिका दायर की और इस पर जस्टिस दिनेश मेहता ने 13 नवम्बर 2017 को आदेश दिए। 

वर्ष 2013 में हुआ था चयन
वर्ष 2013 में 12 हजार पदों के लिए पुलिस कांस्टेबल भर्ती परीक्षा हुई थी। इसमें गंगाकुमारी का भी चयन हुआ। सभी अभ्यार्थियों का मेडिकल कराया गया तो गंगा के किन्नर होने की बात सामने आई। इस पर पुलिस अधिकारी नियुक्ति देने को लेकर असमंजस में पड़ गए। गंगादेवी के किन्नर होने की पुष्टि होने के बाद पुलिस अधीक्षक ने पुलिस मुख्यालय में मामला भेजा। पुलिस मुख्यालय निर्णय नहीं कर पा रहा था,इस पर गंगा कुमारी कोर्ट में गई और उसे न्याय मिला।  

सुनवाई नहीं हुई, तब लगाई याचिका 
किन्नर गंगा कुमारी के अनुसार वर्ष 2013 में पुलिस कांस्टेबल में चयन होने के बाद ना तो पुलिस विभाग कोई निर्णय ले पाया और ना ही गृह विभाग। किन्नर होने के कारण उसे नौकरी नहीं दी जा रही थी, जबकि देश में दो ऐसे मामलों में फैसला किन्नर के पक्ष में हो रखा था। ऐसे में राजस्थान में नियुक्ति नहीं दिया जाना इनके लिए अत्यधिक कष्टप्रद था। मजबूरन न्यायालय की शरण लेनी पड़ी जहां अंतत: न्याय मिला और हक में फैसला आया।

Wednesday 15 November 2017

राजस्थान : कर्नल जेम्स टॉड को 'नामकरण' का श्रेय

घनश्याम डी रामावत
आजादी से पूर्व राजस्थान के भू-भाग पर विभिन्न राजपूत राजकुलों का शासन होने के कारण राजपूताना कहलाता था। राजपुताना शब्द मुगलकाल से ही प्रचलित था। इतिहासवेत्ता डॉ. रघुवीरसिंह सीतामऊ ने ‘राजस्थान के प्रमुख इतिहासकार उनका कृतित्व’ में लिखा हैं-भाग्य की यह अनोखी विडम्बना ही हैं कि जिस विधर्मी विजेता अकबर के प्रति राजस्थान में सतत विरोध उभरता रहा, ‘अजमेर सूबे’ का संगठन कर उसी ने इतिहास में प्रथम बार इस समूचे क्षेत्र को प्रादेशिक इकाई का स्वरूप दिया।’ मुगलकाल के बाद अंग्रेजों के शासनकाल में यहां के राजाओं के साथ संधियाँ होने के बाद अजमेर में राजपूताना एजेंसी की स्थापना हुई। इस तरह मेवाड़, मारवाड़, ढूंढाड़, शेखावाटी, हाड़ौती, मत्स्य, जांगल, बागड़, सपालदक्ष, शाकम्बरी आदि रियासतों के नाम वाला यह प्रदेश एक प्रादेशिक इकाई के रूप में राजपूताना के नाम से पहचाना जाने लगा। पर आजादी के बाद देश की सर्वोच्च जनतंत्रीय संसद ने इस प्रदेश को राजस्थान का नाम दिया।

इतिहासकारों के अनुसार श्रेय कर्नल टॉड को
सदियों से प्रचलित रहे राजपूताना शब्द की जगह इस प्रदेश के लिए ‘राजस्थान’ शब्द सबसे पहले किसने प्रयुक्त किया, सवाल उठना लाजमी हैं। इसके लिए इतिहास पर नजर डाली जाये तो आजादी के बाद के सभी इतिहासग्रंथों में राजस्थान प्रदेश के नामकरण का श्रेय कर्नल जेम्स टॉड को प्रदान किया हैं। इतिहासवेत्ता डॉ. रघुवीरसिंह सीतामऊ ‘राजस्थान के प्रमुख इतिहासकार उनका कृतित्व’ में लिखते हैं-‘अनेकों समन्दर पार कर विदेशी गोरी सत्ता का अधिपत्य करवाने में प्रमुख अभिकर्ता, कर्नल जेम्स टॉड उस प्रदेश के वर्तमान नाम ‘राजस्थान’ का सुझाव ही नहीं दिया, परन्तु अपने अनुपम ग्रन्थ ‘टॉड राजस्थान’ के द्वारा उसकी कीर्ति-गाथा को जगत विख्यात भी किया। जिससे वह सदैव आशंकित रहा, अंतत: उसी दिल्ली ने भारतीय स्वाधीनता प्राप्ति के बाद इसी राजस्थान को राजनैतिक और शासकीय इकाई के रूप में पूर्णतया सुसंगठित ही नहीं किया अपितु उसे जनतंत्रीय स्वायत्तता भी प्रदान की।’ 

डॉ. रघुवीरसिंह के समान ही अनेक इतिहासकारों ने राजस्थान नामकरण का श्रेय कर्नल टॉड को दिया हैं। क्योंकि कर्नल टॉड द्वारा लिखे गये राजस्थान के इतिहास ‘एनल्स एण्ड एंटीक्विटीज ऑफ राजस्थान’ जो विश्व में प्रसिद्ध हुआ, के शीर्षक में ही राजस्थान नामकरण के इतिहास से सम्बधित गूढ़ तथ्य समाहित हैं। इसी पुस्तक के प्रसिद्ध होने के बाद राजस्थान शब्द आम प्रचलन में आया। हालांकि ऐसा नहीं कि राजस्थान शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम कर्नल टॉड ने ही किया था। इससे पहले भी यह शब्द राजस्थानी भाषा में स्थान विशेष को लेकर रायथान या रायथाण के रूप में प्रयोग होता आया हैं। कर्नल टॉड कृत ‘राजस्थान का पुरातन एवं इतिहास’ पुस्तक की प्रस्तावना में इतिहासकार जहूर खां मेहर लिखते हैं- ‘यदि हम गहराई से राजस्थान शब्द की विभिन्न कालों में यात्रा की खोज करें तो ज्ञात होगा कि राजस्थान शब्द का अबतक का ज्ञात प्राचीनतम उल्लेख वि.सं. 682 का हैं जो पिण्डवाड़ा से तीन कोस की दूरी पर स्थित बसंतगढ़ में खीमल माता के मंदिर के पास शिलालेख पर उत्कीर्ण हैं। 

बांकीदास ग्रंथावली में ‘राजस्थान’ शब्द वाले वाक्य 
मुंहणोत नैणसी, जोधपुर के घड़ोई गांव के निवासी तथा महाराजा अभयसिंह (1724-1749 ई.) के आश्रित कवि वीरभांण रतनू ने अपने ग्रन्थ राजरूपक में भी राजस्थान शब्द का उल्लेख किया हैं, इसी प्रकार जोधपुर के महाराजा भीमसिंह ने 1793 ई. में जयपुर के महाराजा जगतसिंह को जो पत्र लिखा था, जिसमें मराठों के विरुद्ध राजपूत राज्यों की एकता का आव्हान किया गया था, राजस्थान शब्द का उल्लेख हैं। अनेक अन्य टॉड पूर्व के साधनों में राजस्थान शब्द विद्धमान हैं।’ इसी पुस्तक की प्रस्तावना में इतिहासवेत्ता जहूर खां मेहर ने नैणसी, जखड़ा मुखड़ा भाटी री बात, दयालदास सिंढायच री ख्यात, कहवाट सरवहिये री वात, वीरभाण रतनू का राजरूपक, बांकीदास द्वारा लिखित बांकीदास ग्रंथावली में प्रयुक्त ‘राजस्थान’ शब्द वाले कई वाक्य लिखें हैं। जैसे-इतरै गोहिलां पिण आलोच कियौ-जो राठोड़ जोरावर सिरांणै आय राजस्थान मांडियौ(नैणसी)। विणजारै रै सदाई हुवै छै, इसौ वहानौ करि चालतौ चालतौ गिरनार री तळहटी पाबासर माहै राजथांन छै, तठै आय पडिय़ौ।(कहवाट सरवहिये री वात)। सूम मिळै अन सहर में, सहर उजाड़ समान। जो जेहो-वन में मिळै, बन ही राजसथांन(बांकीदास ग्रंथावली) एवं थिर ते राजस्थान महि इक छत्र मोम सांमथ। अेके आंण अखंड, खंडण मांण प्राण नव खंडं(वीरभाण रतनू/राजरूपक)।

14 जनवरी 1949 को राजस्थान नाम दिया गया
उपरोक्त तथ्यों को पढने के बाद जाहिर हैं टॉड की कृति ‘एनल्स एण्ड एंटीक्विटीज ऑफ राजस्थान’ के पहले भी राजस्थानी साहित्य, शिलालेख व पत्र में राजस्थान शब्द का प्रयोग किया गया हैं। टॉड पूर्व राजस्थानी शब्द का प्रयोग दो अर्थों राजधानी अर्थात् राजा का स्थान के रूप में प्रयोग किया जाता रहा हैं। शायद टॉड ने उनमें से दूसरे अर्थ यानी राजा का स्थान को ग्रहण कर अपने ग्रन्थ का नामकरण किया हो। पर इतना तय है कि इस शब्द का प्रयोग सीमित था। टॉड द्वारा अपनी पुस्तक के शीर्षक में राजस्थान शब्द के प्रयोग और टॉड की इतिहास पुस्तक के विश्व प्रसिद्ध होने के बाद राजस्थान शब्द भी प्रसिद्धि में आया। आजादी के बाद जब देश के प्रथम गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल की अध्यक्षता में 14 जनवरी 1949 को आयोजित बैठक में 22 रियासतों के विलय के बाद बने राज्य राजपुताना के स्थान पर ‘राजस्थान’ नाम दिया गया, यह नाम बैंक ऑफ राजस्थान से लिया गया। आजादी के बाद देश की जनतांत्रिक सरकार ने इस प्रदेश के नामकरण के लिए इसी नाम ‘राजस्थान’ को स्वीकार किया।

Tuesday 14 November 2017

पीरा की मजार : मुगल-राजपूत स्थापत्य कला का अद्भुत मिश्रण

घनश्याम डी रामावत
राजस्थान के जोधपुर स्थित चांदपोल विद्याशाला मार्ग पर ‘पीरा की मजार’ मुगल-राजपूत स्थापत्य कला का लाजवाब मिश्रण हैं। मारवाड़ के दो बार दीवान मेड़ता के हाकिम और मुसाहिब रहे खोजा फरासात खां की याद में मकबरे का निर्माण महाराजा जसवंतसिंह(1638-1678) के कार्यकाल में करवाया गया। स्थापत्य की दृष्टि से यह इमारत मुगल राजपूत स्थापत्य कला का सम्मिश्रण हैं। इस स्मारक निर्माण में जोधपुर के लाल घाटू पत्थर प्रयुक्त किए गए हैं। छोटे से आकार की बनी यह मजार जोधपुर में अपनी तरह की एक अलग ही होने के कारण विशेष आकर्षण रखती हैं। मान्यता हैं कि जहां मकबरा बना हैं वहां खोजा फरासात ने जीवित रहते एक सुंदर बाग व बावड़ी का निर्माण करवाया था।

मारवाड़ का दीवान था फरासात खां
महाराजा जसवंतसिंह(1638-1678) के कार्यकाल में सबसे विश्वासपात्र और विशिष्ट अधिकारी फरासात ने मारवाड़ के कई परगनों की हाकमी करने के अलावा मारवाड़ के दीवान, मेड़ता का हाकिम तथा मुसाहिब का पद भी संभाला था। किरयावर की बही से मालूम होता हैं कि विशिष्ट घरेलू अवसरों पर जो दस्तूर बड़े से बड़े उमरावों व मुत्सदियों का होता था वह खोजा फरासात को भी दिया गया। जोधपुर की ख्यात के अनुसार खोजा फरासात 1645 से 1648 तक और 1650 से 1658 तक जोधपुर के दीवान रहे। ख्यात से ज्ञात होता हैं कि उनकी मृत्यु के बाद 1690 में उनके घर से खूब दौलत मिली थी जिसे नवाब सुजाइता खां के नाईव काजमबेग ने ले ली थी। फरासात ने जीवन काल में मेहरानगढ़ के नीचे एक नाडी बनवाई जिसे फरासात सागर कहा जाता हैं जो अब गोल नाडी कहलाती हैं। फरासात महाराज कुमार पृथ्वीसिंह के अभिभावक भी रह चुके थे। विक्रम संवत् 1746 ई. में चैत्र सुदी दूज रविवार तदनुसार 2 मार्च 1690 में फरासात की मृत्यु के बाद चांदपोल क्षेत्र के बाग में दफनाया गया तथा उनकी स्मृति में एक मकबरा बनवाया गया। ऐसा जोधपुर राज्य की ख्यात से ज्ञात होता हैं।

विभिन्न धर्मो के लोग आते हैं मजार पर
चांदपोल क्षेत्र में विद्याशाला के सामने की ओर रिहायसी इलाके में यह मजार स्थित हैं। क्षेत्र के प्रतिष्ठित नागरिक भीमसिंह सांखला के अनुसार मजार पर श्रद्धालुओं की प्रत्येक बुधवार व गुरूवार को जबरदस्त भीड़ रहती हैं। अपनी मन्नत पूरी होने पर श्रद्धालु यहां चादर व प्रसाद चढ़ाते हैं। मजार के प्रति विभिन्न धर्मों के लोगों की आस्था हैं। मजार से संबंधित क्षेत्र के लोग अपने परिवारों में होने वाली शादियों के दौरान वर-वधुओं को अन्य धार्मिक स्थलों की तरह ही यहां भी धोक लगवाते हैं। रोचक बात यह कि मजार पर आज तक कोई ताला नहीं लगा हैं। हां! मौजूदा दौर को गंभीरता से लेते हुए सतर्कतावश अब यहां सीसी टीवी कैमरे अवश्य लगवा दिए गए हैं। मजार की देखरेख व सफाई क्षेत्रवासी ही करते हैं। इस मजार की पहचान ‘पहलवान साहब की दरगाह’ के रूप में भी हैं।

Sunday 12 November 2017

माचिया जैविक उद्यान : सफेद टाइगर का इंतजार...

घनश्याम डी रामावत
सूर्यनगरी जोधपुर के माचिया जैविक उद्यान आने वाले देशी-विदेशी पर्यटकों को सफेद टाइगर की दहाड़ सुनने सहित उसकी अठखेलियों से दो चार होने के लिए कुछ समय और इंतजार करना पड़ेगा। सफेद टाइगर को यहां लाने की योजना पर फिर से एक बार पानी फिर गया हैं। योजना की विफलता के लिए वन अधिकारियों द्वारा सफेद टाइगर के लिए सही तरीके से पैरवी नहीं करने एवं स्थानीय जनप्रतिनिधियों द्वारा मामले में रूचि नहीं लिए जाने को जिम्मेदार माना जा रहा हैं।
छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जंतुआलय ने एनिमल एक्सचेंज योजना के तहत करीब एक वर्ष पूर्व ही सफेद टाइगर जोधपुर माचिया जैविक उद्यान को देने पर सैद्धांतिक सहमति व्यक्त कर दी थी, किन्तु केन्द्रीय चिडिय़ाघर प्राधिकरण के अधिकारियों ने मात्र सफेद टाइगर होने के कारण इसे हरी झण्डी नहीं दी। सफेद टाइगर को लेकर विफलता के बीच अच्छी खबर यह हैं कि जैविक उद्यान में जल्दी ही दो रॉयल बंगाल टाइगर दस्तक देने वाले हैं। कानपुर जंतुआलय ने जोधपुर के लिए दो रॉयल बंगाल टाइगर सहित 2 सेही के जोड़े देने पर सहमति जता दी हैं। कानपुर जूूूलोजिकल पार्क ने वन्यजीव आदान-प्रदान योजना अंतर्गत उप वन संरक्षक (वन्य जीव) जोधपुर को रॉयल बंगाल टाइगर देने पर लिखित में सहमति प्रदान कर दी हैं। दो टाइगर के बदले जोधपुर वन विभाग को एक भेडि़ए का जोड़ा तथा दो नर, चार मादा सहित कुल 6 चिंकारे देने होंगे।

जोधपुर का वातावरण सफेद टाइगर के उपयुक्त
माचिया जैविक उद्यान में करोड़ों की लागत से तैयार किए गए एन्क्लोजर्स रॉयल बंगाल टाइगर के लिए उपयुक्त होने के बावजूद सीजेडए की ओर से सफेद टाइगर के लिए मना करना समझ से परे हैं। राजस्थान में जयपुर और उदयपुर के जैविक उद्यान में सफेद शेर मौजूद हैं। जयपुर, उदयपुर और जोधपुर की भौगोलिक स्थिति तथा जलवायु में विशेष अंतर नहीं हैं। यहीं कारण हैं छत्तीसगढ़ जंतुआलय प्रशासन द्वारा सफेद टाइगर देने की सहमति जताने के बाद भी केंद्रीय चिडिय़ाघर प्राधिकरण की ओर से मंजूरी नहीं दिए जाने को अधिकारियों की मनमानी करार दिया जा रहा हैं। वन्य जीव विशेषज्ञों का मानना हैं कि इसके लिए जोधपुर की ओर से सफेद टाइगर लाने के मामले में वन अधिकारियों द्वारा सहीं ढ़ंग से पैरवी नहीं की गई।

सफेद और पीले टाइगर में खास अंतर नहीं
तकनीकी तौर पर सफेद और पीले टाइगर में कोई विशेष अंतर नहीं हैं। छत्तीसगढ़ जंतुआलय से सहमति मिलने के बावजूद महज अधिकारियों की तथाकथित ढि़लाई की वजह से माचिया जैविक उद्यान आने वाले पश्चिमी राजस्थान सहित देशी-विदेशी पर्यटकों को सफेद टाइगर की अठखेलियों को देखने के लिए कुछ समय और इंतजार करना पड़ेगा। जैविक उद्यान में सफेद टाइगर आ जाने के बाद पर्यटन दृष्टि से लोगों का इस पार्क के प्रति रूझान बढ़ेगा, यह तय हैं। बहरहाल! पर्यटकों को यहां आने वाले रॉयल बंगाल टाइगर से संतोष करना पड़ेगा। 

जन-जन के आराध्य : लोक देवता गोगाजी महाराज

घनश्याम डी रामावत
भारत देश अपनी रंग बिरंगी मनभावन संस्कृति के साथ विशेष रूप से अपनी धार्मिक विशिष्टताओं के लिए दुनियां भर में सम्मानजनक स्थान रखता हैं। जन-जन के आराध्य लोक देवता ‘गोगाजी‘ महाराज संपूर्ण भारत में प्रसिद्ध हैं। चौहान वंश में ‘धंधरान धंगजी’ नामक शासक हुए जिन्होंने धांधू (चुरू/राजस्थान) नगर बसाया था। 
राणा धंग के दो रानियां थी। पहली रानी से दो पुत्र हर्ष और हरकरण तथा एक पुत्री जीण हुए। सीकर से 10 किमी दूर दक्षिण पूर्व में हर्ष एवं जीण की पहाडिय़ां इनकी तपोभूमि रही हैं। यह स्थान जीणमाता के रूप में पूजनीय हैं। दूसरी रानी से तीन पुत्र हुए कन्ह, चन्द और इन्द। धंग की मृत्यु के पश्चात् कन्ह और कन्ह के बाद उसका पुत्र अमरा उत्तराधिकारी हुआ। अमरा के पुत्र झेवर (जेवर) हुआ। अमरा ने अपने युवा पुत्र की सहायता से ‘ददरेवा’ को अपनी नई राजधानी बनाया। महाकवि बांकीदास ने गोगाजी को झेवर का पुत्र बताया हैं। डॉ. तेस्सीतोरी ने भी जोधपुर में एक प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथ को देखकर उदाहरण दिया हैं कि चवांण जेवर तिणारी राणा खेताब थी गढ ददरवै राजधानी थी।

गोरखनाथ जी के आशीर्वाद से गोगाजी का जन्म
गोगाजी की माता का नाम बाछल था। बाछल के कई वर्षों तक संतान नहीं हुई। उन्हें गुरू गोरखनाथ ने आशीर्वाद दिया और फलस्वरूप बाछल की कोख से गोगाजी का जन्म हुआ। एक बार गोगाजी पालने में झूल रहे थे तब एक सर्प उन पर फन फैला कर बैठ गया। माँ व पिता ने जब उसे दूर करने का प्रयास किया तो गोगाजी ने कहा कि यह तो मेरा साथी है। इसे मेरे साथ खेलने दो। झेवर की मृत्यु के पश्चात् गोगाजी वहां के शासक हुए। गोगाजी के समय राज्य की सम्पूर्ण जनता सुखी थी जिससे इनके जीवनकाल में ही उनकी यशगाथा फैल गयी लोक मान्यता है कि पाबूजी राठौड़ की भतीजी केलम का विवाह गोगाजी के साथ हुआ था। 

गोगाजी के शासक बनने पर धंध के वंशजों में गृह युद्ध हुआ। गोगाजी के मौसेरे भाई अर्जन सर्जन ‘ददरेवा’ प्राप्त करने के लिए गोगाजी से युद्ध करने आ पहुंचे। अर्जन सर्जन सगे भाई थे और इन्हें ‘जोड़ा’ कहा जाता हैं। इन्हीं के नाम पर जोड़ी गांव (चुरू) आबाद हुआ। ददरेवा से उत्तर की ओर खुड़ी नामक गाँव के पास एक ‘जोड’ (तालाब के पास छोड़ी हुई भूमि) पर गोगाजी और अर्जन-सर्जन के बीच युद्ध हुआ और वहीं ये वीर गति को प्राप्त हुए। इस स्थान पर पत्थर की दो मूर्तियां प्रमाण स्वरूप आज भी विद्यमान हैं और भोमिया के रूप में इनकी पूजा होती हैं। उस वक्त के समाज में सम्पूर्ण भारत की राजनैतिक दशा शोचनीय थी। लुटेरे महमूद गजनवी के आक्रमण बार बार हो रहे थे। 

‘गोगामेड़ी’ नामक स्थान पर गजनवी से युद्ध हुआ
1025 ई. में महमूद सोमनाथ का मंदिर लूट कर वर्तमान राजस्थान के उत्तरी भाग से गुजर रहा था गोगाजी जैसा वीर पुरुष यह कैसे सहन कर सकता था? जन धन एवं असहाय जनता की रक्षा के लिए गोगाजी प्राणापण से तैयार रहते थे। गोगाजी ने अपने पुत्र पौत्रों सहित आक्रमणकारी का पीछा करते हुए उसे युद्ध के लिए ललकारा। वर्तमान ‘गोगामेड़ी’ नामक स्थान पर महमूद गजनवी एवं गोगाजी की सेना के बीच भयंकर युद्ध हुआ। विदेशी आक्रांता को नकलची इतिहासकारों ने साहसी सैनिक तक की उपमा दे दी हैं। अपने चंद साथियों और पुत्र पौत्रों के साथ गोगाजी ने उस विदेशी आक्रांता को धूल चटा दी। कुछ समय तक तो महमूद भी निर्णय नहीं कर सका कि यह कोई सांसारिक योद्धा हैं या यमराज ।

कर्नल टॉड ने लिखा हैं कि ‘गोगा जी’ ने महमूद का आक्रमण रोकने को सतलज के किनारे अपने सौंतालीस लडक़ों समेत जीवन को न्यौछावर किया था। गोगाजी के वीरगति प्राप्त हो जाने पर उनके भाई बैरसी का पुत्र उदयराज ददरेवा का राजा बना। उदयराज के बाद जसराज, केसोराई, विजयराज, पदमसी, पृथ्वीराज, लालचन्द, अजयचन्द, गोपाल, जैतसी, पुनपाल, रूपरावन, तिहुपाल और मोटेराव ‘ददरेवा’ के राणा बने। मोटेराव के समय ददरेवा पर फिरोज तुगलक का आक्रमण हुआ तथा मोटेराव के तीन पुत्रों को मुसलमान बना दिया गया परन्तु चौथा पुत्र जगमाल हिन्दू रहा। बड़ा पुत्र करमचन्द था जिसका नाम कयाम खां रखा गया। करमचन्द एवं उसके भाइयों के वंशज कयामखानी कहलाए। 

गोगाजी महाराज को पीर कहा जाने लगा
ददरेवा का शासक जगमाल बना तथा कयाम खां ने शेखावाटी पर अपना अधिकार कर लिया। इन्हीं के वंशजों द्वारा गोगाजी को पीर कहा जाने लगा। यह नाम तत्कालीन समय में लोकप्रिय हुआ जो वर्तमान में जाहरपीर (जहांपीर) के नाम से सुप्रसिद्ध हैं। गोगामेडी उत्तर रेलवे की हनुमानगढ सादुलपुर लाईन पर मुख्य स्टेशन तथा हनुमानगढ जिले की पंचायत समिति नोहर का प्रमुख गांव हैं। गोगा नवमी का त्यौहार मारवाड़ के प्रत्येक गांव में बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता हैं। भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की अष्टमी व नवमी को गोगामेड़ी में बड़ा भारी मेला भरता हैं, जहां भारी तादाद में श्रद्धालु दर्शनार्थ पहुंचते हैं।

मारवाड़ में एक कहावत हैं ‘गांव-गांव गोगो अर गांव-गांव खेजड़ी’। गोगाजी को नाग देवता के रूप में पूजते हैं तो कहीं केसरिया कंवरजी के रूप में, हर गांव में एक थान (चबूतरा) मिल जायेगा जिस पर मूर्ति स्वरूप एक पत्थर पर सर्प की आकृति अंकित होती हैं। यही गोगाजी का थान माना जाता हैं। यहां नारियल, चूरमा, कच्चा दूध, खीर का प्रसाद बोला जाता हैं। बचाव के लिए घर के चारों ओर कच्चे दूध की ‘कार निकाल दी जाती हैं।जनमानस में ऐसा विश्वास हैं कि ऐसा करने पर घर में सर्प प्रवेश नहीं करता। सर्प को केसरिया कंवरजी की सौगन्ध भी दी जाती हैं। ‘हलोतिये’ के दिन नौ गांठों वाली राखड़ी ‘हाळी’ और ‘हळ दोनों के बांधी जाती हैं जिसे शुभकारी माना जाता हैं।

Friday 10 November 2017

भीम भडक़ : पाण्डवों की तपोभूमि, 150 फुट लंबी गुफा

घनश्याम डी रामावत
सूर्यनगरी जोधपुर महानगर से महज 8 किलोमीटर दूर कायलाना झील की ऊपरी पहाडिय़ों में स्थित महाभारत कालीन प्राचीन आध्यात्मिक विरासत भीम भडक़ ऐसा शांत व दर्शनीय स्थल हैं, जिसे दूर से देखने पर ऐसा लगता हैं, मानो एक विशाल शिलाखंड अधर झूल रहा हो। यह धार्मिक स्थल एक सैन्य रडार क्षेत्र से सटा हुआ हैं अर्थात यहां तक पहुंचने के लिए सेना की सुरक्षा जांच से गुजरना व अनुमति आवश्यक हैं। 
ऐसी लोक मान्यता हैं कि द्यूत क्रीड़ा में हार जाने के बाद 12 वर्ष के वनवास तथा एक वर्ष के अज्ञातवास काल में पांडव भीम भडक़ आए और इसी स्थान पर गुफा में ठहरे थे। भीम भडक़ में 150 फुट लंबी गुफा हैं, ऐसी मान्यता हैं कि इसका ऊपरी सिरा ढक़ने के लिए भीम ने एक विशाल चट्टान को ऊपर रख दिया था। हजारों वर्षो से यह चट्टान आज भी उसी स्थिति में होने से हर आम के लिए यह कौतूहल का विषय हैं। विशाल गुफा में भीमसेन ने आद्यशक्ति की प्रतिमा स्थापित कर आराधना की थी। गुफा और प्रतिमा आज भी उसी स्थिति में हैं। भीम भडक़ के मुख्य महंत भास्करानंद के अनुसार जन-जन की आस्था के प्रतीक भीम भडक़ धार्मिक स्थल पर सूर्योदय से पूर्व और सूर्यास्त के बाद जाना प्रतिबंधित हैं। ऐसी धारणा हैं कि तत्कालीन महाराजा मानसिंह ने गुरू आयस देवनाथ की हत्या होने के बाद भीम भडक़ में रहकर एकांतवास में तपस्या की थी। हंस निर्वाण सम्प्रदाय के स्वरूपानंद ने पांच दशक तक यहां रहकर तपस्या की। इनके द्वारा वर्ष 1991 में गोशाला की स्थापना की गई जो आज भी मौजूद हैं। भीम भडक़ आश्रम में स्वरूपानंद सहित हीरानाथ, श्रीनाथ व लीलानाथ की समाधियां मौजूद हैं। 

महात्मा स्वरूपानंद स्मृति संस्थान की ओर से मंदिर में 3200 किलोग्राम काले ग्रेनाइट का विशाल शिवलिंग व नंदी भी स्थापित हैं, जहां नियमित पूजन होता हैं। शिवलिंग भीमकाय चट्टान के नीचे स्थापित हैं। यहां भगवान भोलेनाथ के दर्शनार्थ आने वाले श्रद्धालुओं का तांता भी प्रतिदिन लगा रहता हैं। यहीं कारण हैं कि श्रद्धालुओं में इस धार्मिक स्थल की पहचान भीम भडक़ महादेव मंदिर के रूप में भी हैं। जोधपुर के लोगों के लिए प्रमुख आस्था स्थलों मेें से एक भीम भडक़ में गुरू पूर्णिमा को भरने वाला मेला, श्रद्धालुओं पर लागू नवीनतम नियमों की वजह से अब बंद हो चुका हैं। आस्था स्थल पर पहुंचने के लिए मार्ग में पडऩे वाली सेना की सुरक्षा चौकी पर परिचय पत्र दिखाए जाने, विधिवत सुरक्षा जांच, रजिस्टर में ठोस खानापूर्ति व अनुमति के बाद ही पहुंचा जा सकता हैं।

सूर्योदय और सूर्यास्त का दुर्लभ नजारा
भीम भडक़ की 300 फीट लंबी और 70 फीट चौड़ी विशाल चट्टान से जोधपुर में सूर्योदय व सूर्यास्त का अनूठा नजारा दिखता हैं, जो शहर के अन्यत्र किसी भी हिस्से से संभव नहीं हैं। भीम भडक़ की व्यवस्था देखने वाले स्वरूपानंद स्मृति संस्थान के अनुसार संस्थान के प्रयासों से राजस्थान हाईकोर्ट ने 31 मई 2013 को आदेश कर सूर्योदय से सूर्यास्त तक दर्शनार्थियों को भीम भडक़ में दर्शन की अनुमति दी हैं। धार्मिक स्थल पर पहुंचने के लिए वर्तमान में सेना चौकी की जांच से श्रद्धालुओं को गुजरना पड़ता हैं, ऐसे में धार्मिक स्थल तक पहुंचने के लिए भविष्य में अलग से मार्ग बन जाता हैं तो काफी सुविधा हो जाएगी तथा पर्यटन की दृष्टि से भी भीम भडक़ के लिए नए द्वार खुल सकते हैं।

धार्मिक स्थल पर दुर्लभ शैल चित्र विद्यमान
महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाश शोध केन्द्र के अनुसार भीम भडक़ में आठ हजार वर्ष पुराने शैलश्रय एवं शैल चित्र खोज गए हैं। यहां की पहाडिय़ों ग्रेनाइट पत्थर से बनी हैं। भीम भडक़ से उत्तर की ओर स्थित एक शैलाश्रय में करीब साढें पांच फुट की ऊंचाई पर लाल रंग की आकृति दिखाई देती हैं। शैलाश्रय के निकट ही चर्ट और अमेट से निर्मित ब्लंटेड ब्लेड एवं बाणों के नुकीले अग्र भाग प्राप्त हुए हैं। जोधपुर और इसके आसपास के क्षेत्र में मानव सभ्यता के अब तक प्राप्त प्राचीनतम प्रमाणों में भीम भडक़ के शैल चित्र एवं प्रस्तर उपकरणों को रखा जा सकता हैं।

Wednesday 8 November 2017

बेरोजगारी की समस्या : सरकार के लिए गंभीर चिंतन का विषय

घनश्याम डी रामावत
प्राचीन काल में भारत आर्थिक दृष्टि से पूर्णत: सम्पन्न था। तभी तो यह ‘सोने की चिडिय़ा‘ कहलाता था। कहने को तो भारत आज आर्थिक दृष्टि से विकासशील देशों की श्रेणी में हैं। किंतु यहां कुपोषण और बेरोजगारी की क्या स्थिति हैं, सभी अच्छी तरह से जानते हैं। आज हमारे देश में जो अव्यवस्था व्याप्त  हैं, उसकी जड़ में बेरोजगारी की समस्या विकराल हैं। लूट-खसोट, छीना-झपटी, चोरी-डकैती, हड़ताल आदि कुव्यवस्थाएं इसी समस्या के दुष्परिणाम हैं। बेरोजगारी का अभिप्राय हैं, काम करने योग्य इच्छुक व्यक्ति को कोई काम न मिलना। 

भारत में बेरोजगारी के अनेक रूप हैं । बेरोजगारी में एक वर्ग तो उन लोगों का है, जो अशिक्षित या अर्द्धशिक्षित हैं और रोजी-रोटी की तलाश में भटक रहे हैं। दूसरा वर्ग उन बेरोजगारों का है जो शिक्षित हैं, जिसके पास काम तो  हैं, पर उस काम से उसे जो कुछ प्राप्त होता  हैं, वह उसकी आजीविका के लिए पर्याप्त नहीं हैं। बेरोजगारी की इस समस्या से शहर और गांव दोनों आक्रांत हैं। देश के विकास और कल्याण के लिए वर्ष 1951-52 में पंचवर्षीय योजनाओं को आरंभ किया गया था। योजना आरंभ करने के अवसर पर आचार्य विनोबा भावे ने कहा था किसी भी राष्ट्रीय योजना की पहली शर्त सबको रोजगार देना हैं। यदि योजना से सबको रोजगार नहीं मिलता, तो यह एकपक्षीय होगा, राष्ट्रीय नहीं। आचार्य भावे की आशंका सत्य सिद्ध हुई। प्रथम पंचवर्षीय योजनाकाल से ही बेरोजगारी घटने के स्थान पर निरंतर बढ़ती चली गयी। आज बेरोजगारी की समस्या एक विकराल रूप धारण कर चुकी  हैं।

समस्या निवारण के लिए गंभीर प्रयास जरूरी
हमारे देश में बेरोजगारी की इस भीषण समस्या के अनेक कारण हैं। उन कारणों में लॉर्ड मैकॉले की दोषपूर्ण शिक्षा पद्धति, जनसंख्या की अतिशय वृद्धि, बड़े-बड़े उद्योगों की स्थापना के कारण कुटीर उद्योगों का ह्रास आदि प्रमुख हैं। आधुनिक शिक्षा प्रणाली में रोजगारोन्मुख शिक्षा व्यवस्था का सर्वथा अभाव हैं। इस कारण आधुनिक शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों के सम्मुख भटकाव के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं रह गया हैं। बेरोजगारी की विकराल समस्या के समाधान के लिए कुछ राहें तो खोजनी ही पड़ेगी। इस समस्या के समाधान के लिए गंभीर प्रयास किए जाने चाहिए। सही मायने में यह वो वक्त हैं जहां देश में सत्तारूढ़ केन्द्र की सरकार के साथ प्रदेशों की सरकारों को इस विषय पर गंभीर चिंतन करने की आवश्यकता हैं। दूसरे शब्दों में यह समस्या सही मायने में सरकार के लिए चिंता का विषय हैं।

व्यावहारिक दृष्टिकोण भी एक मार्ग
भारत में बेरोजगारी की समस्या का हल आसान नहीं है, फिर भी प्रत्येक समस्या का समाधान तो हैं ही। इस समस्या के समाधान के लिए मनोभावना में परिवर्तन लाना आवश्यक हैं। मनोभावना में परिवर्तन का तात्पर्य  हैं किसी कार्य को छोटा नहीं समझना। इसके लिए सरकारी अथवा नौकरियों की ललक छोडक़र उन धंधों को अपनाना चाहिए, जिनमें श्रम की आवश्यकता होती  हैं। इस अर्थ में घरेलू उद्योग धंधों को पुनर्जीवित करना तथा उन्हें विकसित करना आवश्यक हैं। शिक्षा नीति में परिवर्तन लाकर इसे रोजगारोम्मुखी बनाने की भी आवश्यकता  हैं। केवल डिग्री ले लेना ही महत्त्वपूर्ण नहीं, अधिक महत्त्वपूर्ण  हैं योग्यता और कार्य कुशलता प्राप्त करना।

युवा वर्ग की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति होनी चाहिए कि वह शिक्षा प्राप्त कर स्वावलंबी बनने का प्रयास करें। सरकार को भी चाहिए कि योजनाओं में रोजगार को विशेष प्रश्रय दिया जाए। भारत सरकार इस दिशा में विशेष प्रयत्नशील  हैं। परन्तु सरकार की तमाम नीतियां एवं कार्यान्वयण नाकाफी ही साबित हुए हैं। मतलब साफ  हैं कि सरकार की नीतियों में कहीं न कहीं कोई व्यावहारिक कठिनाई अवश्य  हैं। अत: सरकार को चाहिए कि वह इसके निराकरण हेतु एक व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाए और समस्या को और अधिक बढऩे न दें।

लकड़ी के हस्तशिल्प उत्पाद : लागू होगा यूनिक बारकोड सिस्टम

घनश्याम डी रामावत
भारत सरकार के केन्द्रीय वस्त्र मंत्रालय ने विदेशी ग्राहकों में विश्वसनीयता व भरोसा बढ़ाने की दिशा में एक कदम और बढ़ाते हुए भारतीय लकड़ी के हस्तशिल्प उत्पादों के निर्माण व स्त्रोत की वैधानिक जानकारी देने के लिए पहल की हैं। मंत्रालय ने उत्पाद की वैधानिक जानकारी यूूनिक बारकोड सिस्टम के माध्यम से जारी करने का प्रयास किया हैं। इस वजह से भारत से निर्यात होने वाले लकड़ी के हस्तशिल्प उत्पादों पर अब जल्द ही यूनिक बारकोड सिस्टम लागू किया जाएगा, जिससे ग्राहक उस उत्पाद में काम में ली गई लकड़ी के बारे में ऑनलाइन पूरी जानकारी देख सकेंगे। जोधपुर(राजस्थान) लकड़ी के हस्तशिल्प के क्षेत्र में देश का सबसे बड़ा निर्यातक हैं और जोधपुर को विदेशों में इंडिया का हाई पॉइंट व क्राफ्ट सिटी के नाम से भी जाना जाता हैं। ऐसे में विदेशी ग्राहकों के साथ जोधपुर के हस्तशिल्प निर्यातक भी इस सिस्टम को लेकर बेहद उत्साहित हैं।

उत्पाद की संपूर्ण जानकारी ऑनलाइन
यूनिक बारकाड सिस्टम प्रणाली लागू होने के बाद अगर कोई विदेशी ग्राहक भारत में निर्मित लकड़ी के उत्पाद खरीदता हैं, तो उस उत्पाद में काम में ली गई लकड़ी, कटाई तथा लकड़ी की उपलब्धता का स्थान, लकड़ी की किस्म, निर्माण व फिनिशिंग आदि अन्य स्त्रोतों के बारे में पूरी जानकारी ऑनलाइन बारकोड की सहायता से देख सकेगा। इससे विदेशी ग्राहकों को लीगल वुड क्रिटिकल मेन्टर व वुड डिस्क्रिप्शन की पूरी जानकारी बहुत ही कम समय में मिल जाएगी। यूनिक बारकोड सिस्टम वृक्ष सर्टिफिकेट सिस्टम में एक अतिरिक्त सिस्टम होगा, जो हस्तशिल्प उत्पादों का निर्यात करने के लिए वैधानिक लकड़ी को प्रमाणित करेगा।

विदेशी ग्राहकों का विश्वास बढ़ेगा
लकड़ी के उत्पादों के निर्यात पर यूनिक बारकोड सिस्टम लागू हो जाता हैं, तो इससे विदेशी ग्राहकों को भारत के हस्तशिल्प बाजार के प्रति और विश्वास बढ़ेगा। विश्व में अभी तक आस्ट्रेलिया ऐसा पहला देश हैं, जहां यह सिस्टम लागू हैं। यह सिस्टम जल्द ही भारत में लागू होगा तो भारत इस सिस्टम को लागू करने वाला दुनियां का दूसरा देश होगा।

जोधपुर हैण्डीक्राफ्ट्स एक्सपोर्टर्स का व्यू 
जोधपुर हैण्डीक्राफ्ट्स एक्सपोर्टर्स के अनुसार यह अच्छी पहल हैं किन्तु आधारभूत ढ़ांचा तैयार नहीं हैं। देश में वैध लकड़ी का ही निर्यात किया जाता हैं। सरकार इस सिस्टम को लागू करने से पहले यहां के निर्यातकों के साथ प्लान कर के और सरलीकरण के साथ इसे लागू करे तो यहां के निर्यातकों को और बेहतर सहयोग मिलेगा तथा निर्यात में दिक्कतें नहीं आएगी।

गुजरात चुनाव : राजस्थान की कांग्रेस राजनीति पर पड़ेगा असर

घनश्याम डी रामावत
अगले महिने की 9 व 18 दिसम्बर को गुजरात विधानसभा चुनाव को लेकर मतदान होना हैं। भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह इस बार 150 से ज्यादा सीटें जिताकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को तोहफा देने की बात कह रहे हैं। सूत्रों की मानें तो राज्यसभा में अहमद पटेल की जीत के बाद अमित शाह ने मिशन-150 को निजी प्रतिष्ठा से जोड़ लिया हैं। लिहाजा भाजपा का गुजरात प्रदेश संगठन चुनाव को बेहद गंभीरता से लेते हुए जीत की जुगत में जी-जान से जुट गया हैं। इस बीच, दबे स्वर में ही सही लेकिन कुछ राजनैतिक हलकों में इस बार भाजपा के हाथ से गुजरात फिसलने की भी संभावनाएं जताई जा रही हैं। बहरहाल, गुजरात में ऊंट किस करवट बैठेगा यह तो वक्त ही बताएगा लेकिन यह तय माना जा रहा हैं कि गुजरात विधानसभा चुनाव का असर राजस्थान की कांग्रेस राजनीति पर अवश्य पड़ेगा।

असल में गुजरात विधानसभा चुनाव से कई राजनैतिक दिग्गजों का भविष्य जुड़ा हुआ हैं। राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव अशोक गहलोत इसी फेहरिस्त में शामिल एक प्रमुख नाम हैं। कांग्रेस आलाकमान ने गुजरात में अपने प्रभारी गुरुदास कामत से इस्तीफा लेकर यह महत्वपूर्ण जिम्मेदारी अशोक गहलोत को सौंपी हैं। पार्टी के इस फैसले को राजनैतिक जानकार दो अलग-अलग नजरिए से देख रहे हैं। पिछले कई महीनों से भाजपा का सूर्य मध्यान्ह में हैं। भाजपा उन राज्यों में भी सरकार बनाने में सफल रही हैं जहां अब तक ऐसा सोचना भी उसके लिए दूर की कौड़ी था। ऐसे में गुजरात जैसे राज्य में सेंध लगा पाना कांग्रेस के लिए बहुत मुश्किल माना जा रहा हैं जहां भाजपा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लगातार तीन चुनाव जीत चुकी हैं और पिछले 15 सालों से सत्ता पर काबिज हैं। जानकारों का एक वर्ग कहता हैं कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अशोक गहलोत को गुजरात की जिम्मेदारी सौंपकर पार्टी ने उन्हें डूबते जहाज पर बिठा दिया हैं।

वहीं इस बारे में दूसरा नजरिया यह भी हैं कि कांग्रेस हाईकमान को राजनीति के जादूगर कहे जाने वाले अशोक गहलोत की बाजीगरी पर अब भी विश्वास हैं। जानकार कहते हैं कि गुजरात में भाजपा को पटेल आंदोलन और उना कांड के अलावा पहले नोटबंदी और फिर जीएसटी के बाद छोटे व्यापारियों में नाराजगी जैसी घटनाओं का खामियाजा भुगतना पड़ सकता हैं। उनके मुताबिक गुजरात में कांग्रेस भले ही चुनाव न जीत पाए लेकिन यदि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के गृह राज्य में पार्टी औसत से ऊपर प्रदर्शन करने में भी सफल रही तो संगठन में अशोक गहलोत का कद बढऩा लगभग तय हैं। राज्यसभा सीट पर अहमद पटेल की जीत को इसकी बानगी के तौर पर देखा जा रहा हैं।

राजस्थान से जुड़े हैं गुजरात चुनाव के तार
गुजरात चुनावों के ठीक बाद अगले साल के आखिर तक राजस्थान में भी विधानसभा चुनाव होने हैं। राजस्थान की राजनीति पर नजर रखने वाले लोग बताते हैं कि अन्य राज्यों की तरह यहां भी कांग्रेस भाजपा के खिलाफ एकजुट होने के बजाय अंतर्कलह में उलझी हैं। स्वीकर भले ही कोई नहीं रहा किन्तु यह सत्य हैं कि पिछले तीन वर्षो से राजस्थान कांग्रेस दो प्रमुख धड़ों में बंटी हुई हैं जिनमें से एक की अगुवाई पार्टी प्रदेशाध्यक्ष सचिन पायलट कर रहे हैं और दूसरे की अशोक गहलोत स्वयं। सचिन पायलट युवा चेहरे और ऊर्जावान व्यक्तित्व के साथ प्रदेश में कांग्रेस के पारंपरिक वोटर माने जाने वाले गुर्जर समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं, वहीं अशोक गहलोत राजस्थान में दो बार मुख्यमंत्री रहने के साथ प्रदेश संगठन के पुराने दिग्गज हैं जिन्होंने कांग्रेस में रहकर पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से लेकर पार्टी के मौजूदा उपाध्यक्ष राहुल गांधी तक तीन पीढिय़ों का दौर देखा हैं। 

गुजरात की हालिया राजनैतिक घटनाओं पर गौर करें तो उत्तर प्रदेश चुनावों में दोनों ही नेताओं को अलग-अलग जिम्मेदारी सौंपी गयी थी। जहां सचिन पायलट चुनाव प्रचार में लगे थे वहीं अशोक गहलोत के पास सीट बंटवारे की रणनीति बनाने का काम था। लेकिन टिकट स्क्रीनिंग के तुरंत बाद गहलोत पार्टी प्रचार के लिए पंजाब चले गए। जहां उत्तरप्रदेश में भाजपा की आंधी के आगे कांग्रेस-सपा गठबंधन ताश के महल की तरह ढह गया वहीं पंजाब में कांग्रेस सरकार बनाने में सफल रही। इस जीत को राजनैतिक जानकारों ने पार्टी के मनोबल के लिए बहुत अहम माना। हालांकि कांग्रेस की पंजाब फतह के पीछे कई महत्वपूर्ण कारण थे। लेकिन सिर्फ राजस्थान के नजरिए से देखें तो इस जीत के बाद अशोक गहलोत का कद सचिन पायलट से ऊपर माना गया। एक सर्वे के मुताबिक राजस्थान में करीब 65 से 70 प्रतिशत कांग्रेस कार्यकर्ता अशोक गहलोत को ही अपना मुख्यमंत्री देखना चाहते हैं। पिछले महिने स्वयं अशोक गहलोत ने भी इस बात का इशारा देते हुए कहा था कि चाहे उन्हें कहीं की भी जिम्मेदारी सौंपी जाए लेकिन राजस्थान उनका अपना प्रदेश हैं ऐसे में उनका पूरा ध्यान लगातार राजस्थान पर बना हुआ हैं।

सचिन की तुलना में गहलोत परिपक्व व अनुभवी
अशोक गहलोत को नजदीक से जानने वाले लोग अच्छी तरह से जानते हैं कि वे एक मजे हुए गेम चेंजर हैं जो आखिर समय में बाजी अपने पक्ष में कर सकते हैं। सूत्र यह भी बताते हैं कि कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व अपनी उन नीतियों में बदलाव करने का मन बना चुका हैं जिनके मुताबिक पार्टी कुछ राज्यों में नए चेहरों के सहारे अपनी नैया पार लगाने की सोच रही थी। बताया जा रहा हैं कि अब पार्टी का प्रमुख लक्ष्य ज्यादा से ज्यादा चुनाव जीतना रह गया हैं, फिर भले ही उसके लिए कोई पुराना नाम ही आगे क्यों न बढ़ाना पड़े। कांग्रेस के कई नेताओं की माने तो सचिन पायलट नि:संदेह प्रदेश में पार्टी को मजबूती देने के साथ वोटर को खींचने में सफल रहेंगे लेकिन अभी मुख्यमंत्री पद के लिए उन्हें थोड़ा और इंतजार करना पड़ सकता हैं। कड़वा सच यह भी हैं कि अशोक गहलोत हमेशा पार्टी प्रदेशाध्यक्षों पर हावी रहे हैं। चाहे वे डॉ. चंद्रभान हों या उनके प्रबल विरोधी सी पी जोशी, गेंद हमेशा गहलोत के ही पाले में रही हैं। ऐसा संभवत: गहलोत के राजनीतिक कद की वजह से हैं जो उन्होंने राजनीति में वर्षो की तपस्या व मेहनत से बनाया हैं।

गुजरात में अहमद पटेल की जीत से कांग्रेस का आम कार्यकर्ता जबरदस्त आत्मविश्वास से लबरेज हैं। ऐसे में यदि गुजरात चुनाव में कांग्रेस अपेक्षित प्रदर्शन के आस-पास पहुंचने में सफल रहती हैं तो राजस्थान में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस एक बार फिर अशोक गहलोत के ही नेतृत्व में मैदान में उतर सकती हैं।  लेकिन अशोक गहलोत की डगर इतनी आसान भी नहीं। जानकार कहते हैं कि एक छोटे अंतराल में सचिन पायलट राजस्थान में कांग्रेस का बड़ा चेहरा बनकर उभरे हैं और जनमानस में पैठ बनाने में सफल रहे हैं। कांग्रेस की तरफ से मुख्यमंत्री पद पर अशोक गहलोत समर्थकों के दावे के विरोध में पायलट को चाहने वाले कार्यकर्ता इस बात का हवाला देते हैं कि गहलोत सरकार की नाकामियां ही थीं, जो उनके कार्यकाल के तुरंत बाद हुए (2013 में) विधानसभा चुनावों में पार्टी को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। इन चुनावों में पार्टी पहली बार 199 में से महज 21 सीटों पर सिमट गयी थी। इसके अलावा 2003 विधानसभा चुनावों में भी गहलोत की ही सरपरस्ती में मिली इसी तरह की एक और हार का जिक्र भी किया जाता रहा हैं।

सचिन पायलट को अपना नेता मानने वाले कार्यकर्ताओं का कहना हैं पायलट ने पार्टी में नयी जान फूंकी और फिर से खड़ा किया। उसी का नतीजा था कि पिछले साल हुए निकाय उपचुनावों में कांग्रेस भाजपा पर बढ़त पाने में सफल रही। ऐसे में राजनीतिकारों का मानन हैं कि यदि गुजरात में कांग्रेस का प्रदर्शन संतोषजनक रहे या फिर बिल्कुल बुरा, तो दोनों ही स्थितियों में आलाकमान को यह निर्णय लेने में आसानी रहेगी कि राजस्थान के विधानसभा चुनाव में किसे आगे किया जाए. लेकिन यदि ऐसा न हो पाया तो निश्चित ही पार्टी का अंतर्द्वंद सुलझने की बजाय उलझने वाला हैं।

राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाए जा सकते हैं गहलोत
बहरहाल, राहुल गांधी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर ताजपोशी की अब महज रस्म अदायगी बची हैं। गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव परिणाम बाद राहुल गांधी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनना तय हैं। राहुल के साथ एआईसीसी की नई टीम का भी गठन होगा। सूत्रों के मुताबिक कांग्रेस इस बार पांच राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाने के फार्मूले को अपना सकती है, जिसमें राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाए जाने की चर्चाएं जोरों पर हैं। अगर ऐसा होता हैं तो पार्टी में अशोक गहलोत का कद औऱ बढ जाएगा। गुजरात चुनाव प्रभारी के तौर पर काम करते हुए गहलोत के राहुल से अब रिश्ते पहले से कई अधिक मधुर व बेहतर हो गए हैं, जिसके चलते उन्हें यह नई जिम्मेदारी दी जा सकती हैं। अशोक गहलोत को उनके अनुभव और हमेशा पार्टी के हित में काम करने के चलते उन्हें इस पद के लिए योग्य माना जा रहा हैं। गहलोत के साथ गुलाम नबी आजाद, अहमद पटेल और पी चिदंबरम को भी उपाध्यक्ष बनाए जाने की संभावनाएं जताई जा रही हैं। अभी पार्टी में सिर्फ एक राष्ट्रीय उपाध्यक्ष खुद राहुल गांधी ही हैं।

Monday 6 November 2017

गुजरात चुनाव : जादू कला को प्रोत्साहन की उम्मीदों को पंख लगे

घनश्याम डी रामावत
जादू कला के सम्मान, समृद्धि व प्रोत्साहन के लिए लंबे समय से देशभर के जादू संगठनों द्वारा आवाज उठाई जाती रही हैं। इस बार होने जा रहे गुजरात चुनाव में जिस तरह से एक राजनीतिक दल द्वारा चुनाव प्रचार में जादूगरों की सहायता लेने का निश्चय किया गया हैं, ऐसा प्रतीत होने लगा हैं कि अब राजनीतिक दल जादू कला व जादूगरों की अहमियत को समझने लगे हैं। सूत्रों की माने तो एक प्रमुख राजनीतिक दल ने चुनाव प्रचार के लिए महाराष्ट्र के करीब 50 जादूगरों को प्रमुख जिम्मेदारी सौंपने का निश्चय किया हैं। इसके लिए बकायदा उनसे संपर्क साधा गया हैं एवं जल्दी ही उन्हें रणनीति के तहत संदर्भित चुनावी इलाकों में दायित्व सौंप दिया जाएगा। ऐसे में अब अन्य राजनीतिक दल भी चुनाव में कुछ ऐसा ही करे तो किसी को कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। जानकारी के अनुसार राजनीतिक दल जादूगरों का सहयोग जादुई करतब दिखाकर सभाओं में भीड़ जुटाने के लिए लेना चाह रहे हैं।

चुनाव प्रचार में जादूगरों की मौजूदगी सम्मान की बात
भारतीय जादू कला अकादमी के राष्ट्रीय अध्यक्ष गोपाल जादूगर राजनीतिक दलों की इस पहल को जादू कला व जादूगरों के सम्मान के तौर पर देखते हैं। उनका मानना हैं कि चुनाव प्रचार में भले ही जादूगरों का उपयोग भीड़ जुटाने के लिए किया जाएगा, किन्तु कड़वा सच यह भी हैं कि जादू सही मायने में स्वस्थ मनोरंजन का परिचायक हैं। ऐसे में राजनीतिक दल यदि ऐसा करते हैं तो वे जादू के माध्यम से आम जनता का स्वस्थ मनोरंजन करने हेतु सेतु का कार्य ही करेंगे।

गौरतलब हैं कि वर्ष 2003 व 2008 में राजस्थान के जोधपुर-सूरसागर क्षेत्र से विधानसभा का चुनाव लडऩे के दौरान अपनी सभाओं में गोपाल जादूगर ने जादू कला व जादूगरों के सम्मान की बात को प्रमुखता से उठाया था। ऐसे में गुजरात चुनाव में राजनीतिक दलों द्वारा जादूगरों का सहयोग लिए जाने की खबर ने यकीनन गोपाल जादूगर की उम्मीदों को पंख लगा दिए हैं। उनका मानना हैं कि देश में शासन करने वाले राजनीतिक दल अब जादूगरों की अहमियत, जादू कला के महत्व व जनता में उनके प्रभाव को समझने लगे हैं। जादूगर गोपाल के अनुसार यह एक सुखद पहल हैं, जिसका स्वागत किया जाना चाहिए।

जादू कला को समृद्ध व प्रोत्साहित किए जाने की उम्मीद
राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के पिता स्वर्गीय बाबू लक्ष्मणसिंह(अपने जमाने के मशहूर जादूगर) के शिष्य एवं कर्नाटक मैजिक फाउण्डेशन के सदस्य गोपाल जादूगर वर्ष 1982 से लगातार जादू कला को ललित कला का दर्जा दिए जाने की मांग कर रहे हैं। इन्हें अब उम्मीद हैं आने वाले समय में केन्द्र में सत्तारूढ़ सरकार व प्रदेशों की सरकारें जादूगरों के कल्याण व विशेष रूप से जादू कला के प्रोत्साहन के लिए जरूरी कदम उठाएगी। जोधपुर में दो मर्तबा अखिल भारतीय जादू सम्मेलन आयोजित कर चुके गोपाल जादूगर का मानना हैं कि जादू कला प्राचीनतम कला हैं जिसको सदियों से सम्मान मिलता आया हैं। मौजूदा दौर आधुनिक तकनीक का हैं, बावजूद इसके जादू व जादूगरों के महत्व को कम करके नहीं आंका जा सकता। स्वस्थ समाज के लिए स्वस्थ मनोरंजन प्राथमिक जरूरत हैं, और जादू कला इस दायित्व का बखूबी निर्वहन करती हैं। ऐसे में इसे और अधिक मजबूत व परिष्कृत करने की आवश्यकता हैं।

वर्ष 2010 में दक्षिण अफ्रीका में आयोजित फुटबॉल विश्व कप में अपने जादुई करतब दिखा चुके गोपाल जादूगर के अनुसार आज जबकि मनोरंजन का प्रमुख माध्यम समझी जाने वाली फिल्मों में फूहड़पन का बोलबाला बढ़ा हैं, जादू लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता हैं। जादू एक ऐसा मनोरंंजनात्मक साधन हैं जिसे पूरा परिवार एक साथ बैठकर एन्जॉय कर सकता हैं।

Saturday 4 November 2017

इंटरनेट में हिन्दी : यूनिकोड ने बनाई राह आसान

घनश्याम डी रामावत
एक समय था जब इंटरनेट पर हिन्दी में लेखन का विचार अथवा कल्पना करना, बिल्कुल वैसा ही था जैसे रेगिस्तान में पानी तलाशना। इंटरनेट पर इसे सुलभ बनाया यूनिकोड ने। यह स्वीकारने में किसी को भी झिझक नहीं होनी चाहिए कि हिंदी की जितनी सेवा किसी हिंदी के महान लेखक ने अथवा विद्वान ने की होगी, उससे कहीं अधिक हिंदी की सेवा यूनीकोड फोंट ने की हैं। वास्तव में तमाम हिंदी भाषी लोगों को अपने मन की बात अपनी जुबान में कहने का सौभाग्य इसी यूनिकोड फोंट कि बदौलत ही मिला हैं। यकीन मानिए अगर यूनिकोड फोंट नहीं होता तो बहुत से लोग, जो धड़ल्ले से आज इंटरनेट में हिंदी में अपनी बात कह रहे हैं, वे मौन होते।

यूनिकोड की महत्ता सरकार के राजभाषा विभाग ने बहुत पहले समझ लिया था,इसीलिये राजभाषा विभाग द्वारा सभी कार्यालयों में यूनिकोड लागू करने का सफल प्रयास किया गया। इससे हिंदी टाइपिंग में सुविधा हुई। इस सूचना प्रौद्योगिकी के दौर में कंप्यूटर की इतनी अहम भूमिका हैं कि एक तरह से बिन कंप्यूटर सब सून वाली स्थिति हैं। देश के तमाम सरकारी विभागों में हिंदी में सहजता से काम संभव हो सका तो इसमें भी यूनिकोड फोंट की ही अहम् भूमिका हैं। क्योंकि राजभाषा विभाग द्वारा सभी कंप्यूटरों पर यूनिकोड की सुविधा को अनिवार्य बनाया गया हैं।

कार्यालयों में हिन्दी में कार्य करना आसान हुआ
इससे अलग-अलग फॉन्ट की फाइलें किसी भी ऑफिस में यूनिकोड की सहायता से खुल सकती हैं तथा यूनिकोड की सुविधा रखने वाले सभी कार्यालयों में एक ही फॉन्ट पर हिन्दी में कार्य करना आसान हुआ हैं। यही वजह हैंकि आज सभी सरकारी विभागों के व समस्त कार्यालयों में कंप्यूटरों पर यूनिकोड की सुविधा है। हिन्दी में लिखना-पढऩा नहीं जानने वाले कार्मिकों को हिन्दी भाषा का प्रशिक्षण राजभाषा विभाग के अधीनस्थ केंद्रीय हिन्दी प्रशिक्षण संस्थान के देशभर में स्थापित 117 केंद्रों पर कक्षाओं तथा पत्राचार के द्वारा दिया जाता हैं। प्राय: हिन्दी अथवा हिन्दी-अंग्रेजी मिश्रित माध्यम से दिया जाता हैं। किन्तु इस तथ्य को ध्यान में रखकर कि किसी भी व्यक्ति के लिए कोई भी प्रशिक्षण अपनी मातृभाषा अथवा शिक्षा की भाषा में दिया जाना अधिक सफल होता हैं, हिंदी नहीं जानने वाले लोगों को ऑनलाइन हिन्दी भाषा का प्रशिक्षण देने के लिए ’लीला‘ नामक एक सॉफ्टवेयर विकसित कराया गया हैं। साल 1991 में अक्टूबर में यूनिकोड अस्तित्व में आया था। 27 सालों पहले इसी अक्टूबर माह में यूनिकोड का पहला संस्करण 1.0.0 जारी हुआ था। इसमें नौ भारतीय लिपियां देवनागरी, बंगाली, तमिल, तेलुगू, कन्नड़, गुजराती, गुरूमुखी, मलयालम तथा ओडिय़ा शामिल की गयी। इसके आने के बाद ही हिन्दी विकिपीडिया आरम्भ हो सका। 

यह यूनिकोड फोंट का ही कमाल है कि आज हर दिन इंटरनेट में 1,0000000 शब्दों की भारतीय भाषाओं की सामग्री शामिल हो रही हैं। आज दुनिया में अंग्रेजी के बाद हिन्दी दूसरी वह भाषा है जो इंटरनेट में सबसे ज्यादा प्रयुक्त होने वाली भाषा हैं। यूनिकोड कि बदौलत आज हर दिन 50 करोड़ भारतीय विभिन्न भारतीय भाषाओं में इंटरैक्ट करते हैं। यूनिकोड न होता तो आज करोड़ो भारतीयों के जीवन में इंटरनेट की वह भूमिका न होती जो आज हैं। यूनिकोड ने हिंदी ही नहीं तमाम भारतीय भाषाओं को दुनिया के कोने कोने तक पहुंचाया हैं। यूनिकोड की बदौलत ही संभव हो सका हैं कि विदेशों में रहने वाले 2.5 करोड़ से ज्यादा भारतीय आज भारत में रह रहे अपने परिजनों व रिश्तेदारों से उन्हीं भाषाओं और जुबानों में बोलते बतियाते हैं जिनमें बचपन में बोलते बतियाते थे। इससे और अधिक भावनात्मक आत्मीयता व अपनापन बढ़ा हैं।