Monday 25 December 2017

कांग्रेस में राहुल युग की शुरूआत

घनश्याम डी रामावत
राहुल गांधी ने 16 दिसंबर 2017 को औपचारिक रूप से दिल्ली स्थित कांग्रेस मुख्यालय, 24 अकबर रोड़ में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष के रूप में अपना कार्यभार संभाल लिया। राहुल गांधी के एआईसीसी अध्यक्ष बनने से किसी को भी कोई आश्चर्य नहीं हुआ हैं। वर्षों पूर्व ही 125 वर्ष से भी अधिक पुरानी कांग्रेस पार्टी के अगले अध्यक्ष के रूप में राहुल गांधी का चुना जाना तकरीबन तय था। इसलिए 11 दिसंबर 2017 को जब कांग्रेसी नेता मुल्लापल्ली रामचंद्रन ने विधिवत रूप से इसकी घोषणा की तो यह खबर न तो चौंकाने वाली थी और न ही रोमांचित करने वाली। मुल्लापल्ली ने घोषणा की कि नामांकन के 89 प्रस्ताव दाखिल किये गये, जो सभी वैध थे। अब चूंकि मैदान में केवल एक ही उम्मीदवार राहुल गांधी थे इसलिए 19 साल से अध्यक्ष पद पर काबिज सोनिया गांधी के स्वाभाविक उत्तराधिकारी राहुल ही बने। 

राहुल गांधी का निर्विरोध रूप से चुना जाना लोकतंत्र हैं या अघोषित वंशतंत्र का उदाहरण, इस बहस को फिलहाल इसलिए भी यहीं खत्म कर दिया जाना चाहिए क्योंकि देश में कोई भी ऐसी राजनीतिक पार्टी नहीं हैं जिसमें लोकतांत्रिक प्रक्रिया अपनाकर मुखिया चुना जाता हो। ऐसे में इस पर बहस करना पानी में लाठी भांजने जैसा ही हैं। राहुल गांधी के कांग्रेस मुखिया बन जाने के बाद देश में गंभीरता से अगर किसी बात पर विचार होना चाहिए तो इस बात पर ही कि आखिर उनके नाम के आगे कांग्रेस के अध्यक्ष पद के जुट जाने का कांग्रेस के लिए और देश की राजनीति के लिए क्या मायने हैं? यह तकनीकी सच हैं कि कांग्रेस अध्यक्ष बनने से पूर्व राहुल गांधी साल 2013 से कांग्रेस के उपाध्यक्ष पद पर काबिज थे, वह एक किस्म से कांग्रेस के अघोषित मुखिया ही थे, इसलिए वह न तो अपनी पार्टी के लिए और न ही देश के लिए नई बात हैं। देश और खुद उनकी पार्टी उनकी राजनीतिक क्षमताओं से वाकिफ हैं और इस आधार पर उनको लेकर जो स्वाभाविक अनुमान लगाये जा सकते हैं, वे लगाये जा रहे हैं। लेकिन बदलाव चाहे जितना रूटीन का हो वह अपने साथ कुछ न कुछ परिवर्तन तो लेकर आता ही है। भले कांग्रेस में अघोषित रूप से राहुल गांधी की ही सुपरमेसी थी, लेकिन सब कुछ के बावजूद वह वैध नहीं थी, ऐसे में उसके फायदे भी थे और नुकसान भी। अब जबकि राहुल गांधी कांग्रेस के विधिवत मुखिया बन चुके हैं तो यह अनुमान लगाना स्वाभाविक ही नहीं बल्कि हर हालात में लाजमी हैं कि आखिर देश की राजनीति में इसका क्या असर पड़ेगा? 

औपचारिक तौर पर राहुल युग का आगाज
यह वाकई राहुल गांधी की खुद की कार्य शैली पर ही निर्भर करेगा कि औपचारिक तौर पर कांग्रेस अध्यक्ष बन जाने के बाद पार्टी में राहुल युग की शुरूआत हो गई हैं या यह भी महज एक मनोवैज्ञानिक धारणा भर हैं? निश्चित रूप से होने और होने जैसा होने में फर्क होता हैं। राहुल गांधी 16 दिसंबर के पहले तक अध्यक्ष नहीं थे किंतु अध्यक्ष से कम भी नहीं थे। सारे निर्णय उनके अनुसार ही पार्टी में लिए जाते थे किंतु चूंकि वे कांग्रेस के अध्यक्ष नहीं थे, कांग्रेस की तमाम असफलताओं का ठीकरा उनके सिर पर फूटने से रह जाता था, वहीं उनकी तमाम राजनीति धारणाओं को, मूल्यों को, भी कांग्रेस की आधिकारिक नीति या मूल्य नहीं माना जाता था। अब ऐसा नहीं होगा, क्योंकि अब राहुल गांधी जो भी कहेंगे वह औपचारिक रूप से कांग्रेस के अध्यक्ष की बात होगी। सवाल हैं जिस राहुल गांधी को देश पिछले कई सालों से देख रहा हैं, सुन रहा हैं, समझ रहा हैं और जिसके बारे में पक्ष विपक्ष की तमाम धारणाओं को भी जान रहा हैं, क्या इतना सब कुछ के बाद भी राहुल गांधी में कुछ नया जानने को बचा हैं? इस सवाल का जवाब हैं हां, बिल्कुल बचा हैं। जब तक कोई शख्स औपचारिक रूप से उस पद पर नहीं होता, जिस पद की हैसियत का अनौपचारिक रूप से वह लुत्फ ले रहा होता हैं, तब तक उसका प्रभाव या अप्रभाव भी वास्तविक नहीं सिर्फ अनुमानभर होता हैं। राहुल गांधी अभी तक अध्यक्ष जैसे थे किंतु अब वास्तव में अध्यक्ष हैं। इसलिए उनके अब के होने का असर पहले से कहीं ज्यादा प्रभावशाली और निर्णायक होगा। 

राजनीतिक लिहाज से व्यापक अर्थ/मायने
निश्चित रूप से यह देश की मौजूदा राजनीति में हस्तक्षेप करेगा और वही हस्तेक्षप कांग्रेस पार्टी के साथ समग्र राजनीति का राहुल युग होगा। सवाल हैं इस राहुल युग का देश के लिए, राजनीति के लिए, क्या अर्थ हैं? निश्चित रूप से इसके व्यापक अर्थ हैं। सबसे पहले तो राजनीति में औपचारिक रूप से राहुल युग शुरु होने का मतलब यह हैं कि कम से कम राजनीति में भाषाई विन्रमता का आगाज होगा और आक्रमक अलंकारों से मुक्ति मिलेगी। हो सकता हैं अब तक के वर्षो में राहुल गांधी की राजनीतिक गतिविधियां और उनके बयान बहुत परिपक्व राजनेता वाले न रहे हों लेकिन उनकी उपस्थिति ऐसी भी नहीं थी कि उनकी खिल्ली उड़ायी जाती। फिर भी लगातार ऐसा हुआ, लेकिन यह राहुल गांधी का निजी हौसला ही था कि उन्होंने आज तक इस सबके विरूद्ध कोई आाढामक प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की हैं। यहां तक कि हाल ही संपन्न गुजरात विधानसभा चुनावों के प्रचार के दौरान भी जिस तरह से भारतीय जनता पार्टी के तमाम नेता और कई बार खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उन पर टिप्पणियों को लेकर आक्रामक और बेलगाम हो जाते थे, राहुल गांधी ने अपने भाषाई नम्रता का दामन नहीं छोड़ा। वह लगातार जी और सर शब्दों से युक्त संबोधन करते रहे। राहुल गांधी नरेंद्र मोदी को मोदी जी या प्रधानमंत्री सर ही बार-बार कहते हैं। इससे एक बात तय हैं कि अगर राहुल गांधी ज्यादा कुछ भी नहीं कर सके तो भी राजनीति में फिर से एक सहज, सौम्य और विन्रम भाषा की औपचारिक वापसी तो सुनिश्चित करेंगे ही। 

राजनीतिक परिपक्वता के साथ अनगिनत उम्मीदें
राहुल गांधी ने जिस तरह गुजरात चुनाव में कांग्रेस राजनीति के कद्दावर नेता राजस्थान के पूर्व सीएम अशोक गहलोत की रणनीति के अनुरूप तीन-तीन युवा आक्रामक नेताओं के साथ तालमेल का संतुलन पेश किया, वह भी उनके भविष्य के एक सफल राजनेता होने की तरफ इशारा हैं। क्योंकि पिछले आम चुनाव में भले लगा हो कि देश से क्षेत्रीय राजनीति का बोरिया बिस्तर गोल हो रहा हैं, मगर ऐसा हैं नहीं। हकीकत यही हैं और लोकतंत्र की मजबूती के लिए यह किसी हद तक जरूरी भी हैं कि राजनीति में क्षेत्रीय ताकतों की मजबूती बनी रहे यानी भविष्य की राजनीति वास्तविक रूप से गठबंधन की राजनीति होगी और राहुल गांधी ने गुजरात में गठबंधन का जो संतुलन पेश किया हैं, वह उनकी भविष्य की स्वाभाविक ताकत बन सकती हैं। इन चुनावों यानी गुजरात के विधानसभा चुनाव ने राहुल को कई मायनों में गढ़ा हैं और उनकी शाख्सित को नया मोड़ दिया हैं। ये राहुल गांधी ही हैं जिनकी सियासी सूझबूझ के चलते गुजरात के चुनाव विपक्ष की तमाम कोशिशों के बावजूद हिंदू और मुसलमानों के बीच ध्रुवीकृत नहीं हुए और कांग्रेस को गुजरात में भले ही सरकार बनाने मे कामयाबी नहीं मिली किंतु परिणाम सुखदायी रहे। गुजरात में आज पार्टी मजबूत हुई हैं तो इसका श्रेय राहुल गांधी को ही जाता हैं। गुजरात चुनाव के बाद राहुल गांधी को सोमनाथ मंदिर जाकर पूजा अर्चना करना और नेताओं के साथ हार की समीक्षा करना व आज जनता से मुखातिब होना, उनकी राजनीतिक परिपक्वता को ही परिलक्षित करता हैं। निश्चित रूप से राहुल युग न सिर्फ कांग्रेस के लिए बहुत उम्मीदों वाला हैं बल्कि देश की भी नजरें राहुल गांधी के सकारात्मक राजनीतिक हस्तक्षेप पर टिकी हुई हैं।

Sunday 24 December 2017

रिफाइनरी : राजनीति गर्माने के संकेत

घनश्याम डी रामावत
राजस्थान के पचपदरा में प्रस्तावित रिफाइनरी को लेकर एक बार फिर राजनीति गर्माने के आसार प्रबल होते दिखाई पड़ रहे है। साल 2017 खत्म होने को हैं और अगले वर्ष में ही राजस्थान में चुनाव होने हैं। चार साल तक चुप्पी साधे बैठी रही प्रदेश की सत्तारूढ वसुंधरा सरकार ने फिर एक बार शगुफा छोड़ दिया हैं। नया एमओयू के साथ नए ढंग से उदघाटन करवाया जायेगा। ज्ञातव्य रहें, पूर्ववत्र्ती कांग्रेस सरकार भी इस रिफाइनरी का विधिवत रूप से शिलान्यास अपने समय में तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह व उस समय की कांगे्रस अध्यक्षा सोनिया गांधी से करवा चुकी हैं।

चूंकि अगले साल में चुनाव हैं, बाड़मेर के पचपदरा में एक बार फिर गतिविधियां जबरदस्त बढ़ गयी हैं। रिफाइनरी मामले में जहां तक जानकारी मिल रही हैं राजस्थान की सीएम वसुंधरा राजे ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से समय भी ले लिया हैं। इस बात का संकेत पिछले दिनों प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अशोक परनामी अपनी जोधपुर यात्रा के दौरान स्वयं दे चुके हैं। दरअसल पिछले चार वर्षों से रिफाइनरी का मामला पूरी तरह से ठंडे बस्ते में ही था। इसका वापस अब एमओयू हुआ हैं। अगस्त 2017 में पैट्रोलियम कॉरपोरेशन लिमिटेड एचपीसीएल के साथ नया एमओयू किया गया हैं जबकि राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत द्वारा आईओसीएल के साथ एमओयू किया गया था। सूबे की कांग्रेस पार्टी का आरोप हैं कि एमओयू सार्वजनिक नही किया गया। ये प्रोजेक्ट विलंब से शुरू करने के कारण प्रदेश को करोड़ों रूपयों का नुकसान हुआ हैं। कांग्रेस के अनुसार रिफाइनरी युवाओं के लिए रोजगार को सशक्त जरिया था, विलंब से युवा रोजगार से वंचित  रहे। 43 हजार करोड़ की अनुमानित लागत का ये प्रोजेक्ट राजस्थान सरकार और एचपीसीएल के बीच अगस्त में हुए एमओयू के तहत शुरू किया जायेगा। रिफाइनरी की लागत अब 43.129 करोड़ रुपए तक पहुंच चुकी हैं और तय समझौते के मुताबिक इसकी दरें आयेगी। वहीं संयुक्त रूप से कंपनी का नाम एचपीसीएल राजस्थान रिफाइनरी लिमिटेड होगा। जिसमें एचपीसीएल की 74 प्रतिशत और राजस्थान सरकार की 26 प्रतिशत हिस्सेदारी होगी।

स्थानीय युवाओं को रोजगार देने में सहायता मिलेगी
ये रिफाइनरी पर्यावरण  अनुकूल प्रौद्योगिकी के तहत लगायी जा रही हैं। जिसमें भारत मानक 6 दर्जे के पैट्रोलियम उत्पादों को तैयार करने वाली देश की ये पहली रिफाईनरी होगी। दरअसल 2014 में लोकसभा चुनावों के दौरान बीजेपी नेता नरेन्द्र मोदी(वर्तमान पीएम) की ओर से चुनाव प्रचार के दौरान रिफाइनरी लगाने के साथ ही पैट्रोलियम इंस्टीटूयट की स्थापना की बात जोर शोर से कही गई थी। यह वाकई आश्चर्यजनक हैं कि मौजूदा राजस्थान सरकार की ओर से इस मामले में अपेक्षित ठोस/त्वरित कार्यवाही अभी तक नजर नहीं आई हैं। समीक्षकों की माने तो यहां पर रिफाईनरी लगने से आईटीआई और कौशल विकास केंद्रों के माध्यम से स्थानीय युवाओं को रोजगार देने में सहायता मिलेगी। पचपदरा/राजस्थान में रिफाइनरी लगने राजस्थान पैट्रोलियम सहायक उद्योगों के हब बनने से प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से रोजगार के अनेक अवसर पैदा होंगे।

कचरे से बिजली का उत्पादन

घनश्याम डी रामावत
जोधपुर नगर निगम राजस्थान का पहला ऐसा निकाय संस्थान हैं जो कचरे से बिजली का उत्पादन करने जा रहा हैं। स्वच्छ भारत अभियान के तहत वेस्ट टू एनर्जी प्रोजेक्ट के अंतर्गत जोधपुर निगम इस प्रोजेक्ट की शुरूआत करने जा रहा हैं। इस प्रोजेक्ट में करीब 100 करोड़ रूपए की लागत आएगी जिसको लेकर निजी कंपनी को लैंड भी अलोट कर दी गई हैं अब सरकार के स्तर पर एक एमओयू होना बाकी हैं उसके होते ही इस प्रोजेक्ट पर काम होना शुरू हो जाएगा। नगर निगम की माने तो इससे प्रतिदिन 103 मेघावाट की बिजली तैयार होगी। 

जोधपुर नगर निगम की ओर से कचरे से बिजली बनाने की कवायद अंतर्गत 100 करोड़ के टेंडर कर दिए गए हैं और इस पर काम शुरू होना हैं। कचरे से बिजली निर्माण की पहल के तहत संबंधित लागत का प्रोजेक्ट बनाने के साथ ही भूमि का आवंटन कर दिया गया हैं। प्रोजेक्ट शुरू होने के बाद 103 मेगावाट बिजली प्रतिदिन तैयार होगी। इस प्रोजेक्ट को लेकर सरकार स्तर पर एमओयू होना बाकी रहा हैं जिसके बाद इसका कार्य विधिवत रूप से शुरू हो जाएगा। ज्ञातव्य रहें, जोधपुर महानगर में प्रतिदिन 600 टन कचरा एकत्रित होता हैं, इसी कचरे से 103 मेघावाट बिजली तैयार किए जाने की योजना नगर निगम द्वारा प्लान की गई हैं। महापौर घनश्याम ओझा लगातार इसके लिए मॉनिटरिंग कर रहे हैं। ओझा की माने तो वेस्ट टू एनर्जी प्रोजेक्ट के तहत जो 600 टन कचरा निकलता हैं उससे करीब 103 मेघावाट बिजली बनेगी जिसके तहत 100 करोड़ रूपए का प्रोजेक्ट हैं और पार्टी को लेंड अलोट कर दिया गया हैं और पार्टी की ओर से 5 करोड़ की बैंक आरटी भी जमा करा दी गई हैं। अब सरकारी स्तर पर जो एमओयू अटका हुआ हैं उसके होने के बाद इसका काम शुरू कर दिया जाएगा।

बिजली के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने का प्रयास 
नगर निगम के अनुसार राजस्थान सरकार जिस तरह पूरे प्रदेश को बिजली के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने के प्रयास कर रही है उन्हीं प्रयासों को अमली जामा पहनाने के लिए जोधपुर नगर निगम की ओर से यह सारी कवायद हैं। नगर निगम द्वारा इस योजना को लेकर पिछले कई सालों से कार्य किया जा रहा हैं और स्वच्छ भारत मिशन के तहत कचरे से बिजली उत्पादन की योजना लागू करने वाला जोधपुर निगम प्रदेश का पहला शहर हैं। इससे कचरा नियमित उठेगा, निस्तारण होगा और बिजली भी बनेगी।

Wednesday 20 December 2017

मौली (कलावा) : धार्मिक आस्था का प्रतीक/वैदिक रक्षा सूत्र

घनश्याम डी रामावत
मौली बांधना वैदिक परंपरा का हिस्सा हैं। यज्ञ के दौरान इसे बांधे जाने की परंपरा तो पहले से ही रही हैं लेकिन इसको संकल्प सूत्र के साथ ही रक्षा-सूत्र के रूप में तब से बांधा जाने लगा, जबसे असुरों के दानवीर राजा बलि की अमरता के लिए भगवान वामन ने उनकी कलाई पर रक्षा-सूत्र बांधा था। इसे रक्षाबंधन का भी प्रतीक माना जाता हैं, जबकि देवी लक्ष्मी ने राजा बलि के हाथों में अपने पति की रक्षा के लिए यह बंधन बांधा था। मौली को हर हिन्दू बांधता हैं। इसे मूलत: रक्षा सूत्र कहते हैं।

मौली का शाब्दिक अर्थ व बांधने के स्थान
पश्चिमी राजस्थान के आदिवासी अंचल से संबद्ध नाणा (पाली) क्षेत्र के जाने माने ज्योतिषविद् पण्डित दिलीप 
महाराज के अनुसार ‘मौली’ का शाब्दिक अर्थ हैं ‘सबसे ऊपर’। मौली का तात्पर्य सिर से भी हैं। मौली को कलाई में बांधने के कारण इसे कलावा भी कहते हैं। इसका वैदिक नाम उप मणिबंध भी हैं। मौली के भी प्रकार हैं। शंकर भगवान के सिर पर चन्द्रमा विराजमान हैं इसीलिए उन्हें चंद्रमौली भी कहा जाता हैं। मौली कच्चे धागे (सूत) से बनाई जाती हैं जिसमें मूलत: तीन रंग के धागे होते हैं-लाल, पीला और हरा, लेकिन कभी-कभी यह पांच धागों की भी बनती हैं जिसमें नीला और सफेद भी होता हैं। तीन और पांच का अर्थ कभी त्रिदेव के नाम की, तो कभी पंचदेव। मौली को हाथ की कलाई, गले और कमर में बांधा जाता हैं। इसके अलावा मन्नत के लिए किसी देवी-देवता के स्थान पर भी बांधा जाता है और जब मन्नत पूरी हो जाती हैं तो इसे खोल दिया जाता हैं। इसे घर में लाई गई नई वस्तु को भी बांधा जाता और इसे पशुओं को भी बांधा जाता हैं। 

आध्यात्मिक दृष्टि से कुछ सावधानियां जरूरी
शास्त्रों के अनुसार पुरुषों एवं अविवाहित कन्याओं को दाएं हाथ में कलावा बांधना चाहिए। विवाहित स्त्रियों के लिए बाएं हाथ में कलावा बांधने का नियम है। ज्योतिषविद् पण्डित दिलीप महाराज के अनुसार कलावा बंधवाते समय जिस हाथ में कलावा बंधवा रहे हों, उसकी मुट्ठी बंधी होनी चाहिए और दूसरा हाथ सिर पर होना चाहिए। मौली कहीं पर भी बांधें, एक बात का हमेशा ध्यान रहे कि इस सूत्र को केवल तीन बार ही लपेटना चाहिए व इसके बांधने में वैदिक विधि का प्रयोग करना चाहिए। दिलीप महाराज के अनुसार पर्व-त्योहार के अलावा किसी अन्य दिन कलावा बांधने के लिए मंगलवार और शनिवार का दिन शुभ माना जाता हैं। हर मंगलवार और शनिवार को पुरानी मौली को उतारकर नई मौली बांधना उचित माना गया हैं। उतारी हुई पुरानी मौली को पीपल के वृक्ष के पास रख दें या किसी बहते हुए जल में बहा दें। प्रतिवर्ष की संक्रांति के दिन, यज्ञ की शुरुआत में, कोई इच्छित कार्य के प्रारंभ में, मांगलिक कार्य, विवाह आदि हिन्दू संस्कारों के दौरान मौली बांधी जाती हैं।

धार्मिक आस्था का प्रतीक हैं ‘मौली’
मौली को धार्मिक आस्था का प्रतीक माना जाता है। किसी अच्छे कार्य की शुरुआत में संकल्प के लिए भी बांधते हैं। किसी देवी या देवता के मंदिर में मन्नत के लिए भी बांधते हैं। मौली बांधने के तीन कारण हैं-पहला आध्यात्मिक, दूसरा चिकित्सीय और तीसरा मनोवैज्ञानिक। किसी भी शुभ कार्य की शुरुआत करते समय या नई वस्तु खरीदने पर हम उसे मौली बांधते हैं ताकि वह हमारे जीवन में शुभता प्रदान करे। हिन्दू धर्म में प्रत्येक धार्मिक कर्म यानी पूजा-पाठ, उद्घाटन, यज्ञ, हवन, संस्कार आदि के पूर्व पुरोहितों द्वारा यजमान के दाएं हाथ में मौली बांधी जाती है। इसके अलावा पालतू पशुओं में हमारे गाय, बैल और भैंस को भी पड़वा, गोवर्धन और होली के दिन मौली बांधी जाती है। मौली को कलाई में बांधने पर कलावा या उप मणिबंध करते हैं। हाथ के मूल में तीन रेखाएं होती हैं जिनको मणिबंध कहते हैं। भाग्य व जीवनरेखा का उद्गम स्थल भी मणिबंध ही है। इन तीनों रेखाओं में दैहिक, दैविक व भौतिक जैसे त्रिविध तापों को देने व मुक्त करने की शक्ति रहती है।

‘मौली’ बंधन पश्चात आसुरी शक्तियां बेअसर
मणिबंधों के नाम शिव, विष्णु व ब्रह्मा हैं। इसी तरह शक्ति, लक्ष्मी व सरस्वती का भी यहां साक्षात वास रहता है। जब हम कलावा का मंत्र रक्षा हेतु पढक़र कलाई में बांधते हैं तो यह तीन धागों का सूत्र त्रिदेवों व त्रिशक्तियों को समर्पित हो जाता है जिससे रक्षा-सूत्र धारण करने वाले प्राणी की सब प्रकार से रक्षा होती है। इस रक्षा-सूत्र को संकल्पपूर्वक बांधने से व्यक्ति पर मारण, मोहन, विद्वेषण, उच्चाटन, भूत-प्रेत और जादू-टोने का असर नहीं होता। आध्यात्मिक लिहाज से अर्थात शास्त्रों का ऐसा मत हैं कि मौली बांधने से त्रिदेव- ब्रह्मा, विष्णु व महेश तथा तीनों देवियों-लक्ष्मी, पार्वती व सरस्वती की कृपा प्राप्त होती हैं। ब्रह्मा की कृपा से कीर्ति, विष्णु की कृपा से रक्षा तथा शिव की कृपा से दुर्गुणों का नाश होता हैं। इसी प्रकार लक्ष्मी से धन, दुर्गा से शक्ति एवं सरस्वती की कृपा से बुद्धि प्राप्त होती हैं। यह मौली किसी देवी या देवता के नाम पर भी बांधी जाती हैं जिससे संकटों और विपत्तियों से व्यक्ति की रक्षा होती हैं। यह मंदिरों में मन्नत के लिए भी बांधी जाती हैं।

धार्मिक/चिकित्सकीय दृष्टि से खास महत्व
इसमें संकल्प निहित होता है। मौली बांधकर किए गए संकल्प का उल्लंघन करना अनुचित और संकट में डालने वाला सिद्ध हो सकता हैं। यदि आपने किसी देवी या देवता के नाम की यह मौली बांधी हैं तो उसकी पवित्रता का ध्यान रखना भी जरूरी हो जाता हैं। कमर पर बांधी गई मौली के संबंध में विद्वान लोग कहते हैं कि इससे सूक्ष्म शरीर स्थिर रहता हैं। बच्चों को अक्सर कमर में मौली बांधी जाती हैं। यह काला धागा भी होता हैं। इससे पेट में किसी भी प्रकार के रोग नहीं होते। प्राचीनकाल से ही कलाई, पैर, कमर और गले में भी मौली बांधे जाने की परंपरा के चिकित्सीय लाभ भी हैं। शरीर विज्ञान के अनुसार इससे त्रिदोष अर्थात वात, पित्त और कफ का संतुलन बना रहता है। पुराने वैद्य और घर-परिवार के बुजुर्ग लोग हाथ, कमर, गले व पैर के अंगूठे में मौली का उपयोग करते थे, जो शरीर के लिए लाभकारी था। ब्लड प्रेशर, हार्टअटैक, डायबिटीज और लकवा जैसे रोगों से बचाव के लिए मौली बांधना हितकर बताया गया है।

‘मौली’ बांधने के मनोवैज्ञानिक लाभ
शरीर की संरचना का प्रमुख नियंत्रण हाथ की कलाई में होता हैं अत: यहां मौली बांधने से व्यक्ति स्वस्थ रहता हैं। उसकी ऊर्जा का ज्यादा क्षय नहीं होता हैं। शरीर विज्ञान के अनुसार शरीर के कई प्रमुख अंगों तक पहुंचने वाली नसें कलाई से होकर गुजरती हैं। कलाई पर कलावा बांधने से इन नसों की क्रिया नियंत्रित रहती हैं। कमर पर बांधी गई मौली के संबंध में विद्वान लोग कहते हैं कि इससे सूक्ष्म शरीर स्थिर रहता है और कोई दूसरी बुरी आत्मा आपके शरीर में प्रवेश नहीं कर सकती हैं। बच्चों को अक्सर कमर में मौली बांधी जाती हैं। यह काला धागा भी होता हैं। इससे पेट में किसी भी प्रकार के रोग नहीं होते। मौली बांधने से उसके पवित्र और शक्तिशाली बंधन होने का अहसास होता रहता हैं और इससे मन में शांति और पवित्रता बनी रहती हैं। व्यक्ति के मन और मस्तिष्क में बुरे विचार नहीं आते और वह गलत रास्तों पर नहीं भटकता हैं। कई मौकों पर इससे व्यक्ति गलत कार्य करने से बच जाता हैं।

Tuesday 19 December 2017

2017 अलविदा कह देने को सज्ज, बेरोजगारी यथावत

घनश्याम डी रामावत
वर्ष 2017 खत्म होते-होते भी सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार की झोली में ढ़ेरों खुशियां डाल गया। गुजरात व हिमाचल प्रदेश में भाजपा की जीत से न केवल इन दोनों प्रदेशों में पार्टी की सरकार बनेगी, राजग भी पहले से अधिक मजबूत हुआ हैं। राजग इस विजय को अपनी सरकार द्वारा लिए गए विभिन्न फैसलों पर जनता का निर्णय मान रही हैं। इन सबके बीच कोई नाखुश हैं तो वह हैं देश का युवा वर्ग। सही मायने में युवा वर्ग के लिए वर्ष 2017 अच्छा नहीं रहा। पूरा वर्ष बेराजगारी मुंह चिढ़ाती रही और युवा सरकार की ओर से रोजगार के विकल्पों का इंतजार करता रहा। यह इन्तजार बस इन्तजार ही रह गया। साल 2017 बीतने में महज चंद दिन शेष हैं और वह पूरी तैयारी के साथ अलविदा कह देने को सज्ज हैं।

मौजूदा राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन(राजग) सरकार के साढ़े तीन साल बाद भी तरक्की के उपलब्ध आंकड़ों में सबसे खराब प्रदर्शन रोजगार और नौकरियों के क्षेत्र में ही हैं। नोटबंदी और जीएसटी के बाद नौकरियां गंवाने वालों के आंकड़े ने इस धधकती आग में घी डालने का काम किया, तो कई निजी क्षेत्रों में छंटनी भी हुई और आईटी सेक्टर से लेकर कारखानों तक पर आटोमेशन और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंसी का नकारात्मक असर पड़ा। अमेरिकी क्रेडिट रेटिंग एजेंसी मूडीज ने जीडीपी, नोटबंदी, बैंक के फंसे कर्ज को लेकर उठाए गए कदमों, आधार कार्ड और डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर को भले ही उल्लेखनीय कदम बताया हो, लेकिन रोजगार सृजन करने और युवाओं को नौकरियां देने के मामले में पिछड़ेपन पर बना सवाल दिन-प्रतिदिन गहराता ही जा रहा हैं। कुल मिलाकर इसे यूं भी कह सकते हैं कि विकास और आर्थिक प्रगति के तमाम दावों के बावजूद रोजगार का परिदृश्य और भविष्य धुंधला बना हुआ हैं। 

बढ़ती ही जा रही हैं बेरोजगारी दर
बेरोजगारी दर बढ़ती ही जा रही हैं। एक आंकलन के अनुसार रोजाना सैंकड़ों की संख्या में नौकरियां गायब हो रही हैं या फिर इनका चोला तेजी से बदल रहा हैं। इस बावत केन्द्र में सत्तारूढ़ राजग सरकार के ही सालाना सर्वेक्षण के अध्ययन अच्छी तस्वीर नहीं पेश कर रहे हैं। केंद्र में सत्ता संभालने के बाद रोजगार को लेकर अपनी तरह का पहला सर्वेक्षण 2016 में करवाया गया था। उस क्रम में पाया गया कि देश के 68 प्रतिशत घरों की मासिक आय 10 हजार रुपये हैं। इस सर्वेक्षण से यह भी पता चला कि शहरी क्षेत्रों की तुलना में ग्रामीण इलाकों में बेरोगारी अधिक हैं। 42 फीसदी कामगारों को 12 महीने काम नहीं मिलता हैं। महिलाओं की बेरोजगारी दर 8.7 प्रतिशत पर पहुंच गई हैं। चतुर्थ श्रेणी की नौकरियों के लिए लाखों में मिलने वाले शिक्षित बेरोजगारों के आवेदन नौकरी की कमी को स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं। यह स्पष्ट हैं कि सरकार के तमाम दावों, चाहे फिर वो मेक इन इंडिया हो या फिर स्टार्ट अप इंडिया अथवा स्वरोजगार के लिए मुद्रा बैंक की योजनाओं के जरिए रोजगार के नए अवसर पैदा करने के दावे, इस सबके बाद भी हालात जस के तस हैं। 

रोजगार वाले वादे पूरे हो पाएंगे संशय
सरकार की कोई भी ऐसी योजना नहीं हैं जिसने नौकरियां पैदा करने के अपने लक्ष्य को पूरा किया हो। हर दावा फेल हो चुका है। इसे देखते हुए अब कोई यह नहीं कह सकता कि लोकसभा चुनाव में हर साल दो करोड़ रोजगार वाले भाजपा के वादे पूरे हो पाएंगे। इसकी कई वजहों में पहली वजह हर किसी में सरकारी नौकरी की ख्वाहिश भी हैं। दूसरा कारण निजी नौकरियों में असुरक्षा, पारिवारिक-सामाजिक दायरे में अस्तित्व को लेकर कायम सवाल और कम वेतन की समस्या का भी हं। तीसरी वजह वैसे बेरोजगारों के संदर्भ में हैं, जिन्होंने महंगी और लंबे समय तक पढ़ाई कर प्रोफेशनल डिग्रियां हासिल की हैं। बीसीए, एमसीए, बीटेक, एमटेक या अन्य कोर्स करने वालों के पास डिग्रियां हैं, लेकिन उन्हें मनमाफिक नौकरियां नहीं मिल रही हैं। वैसे यह भी सच हैं कि अधिकतर डिग्रीधारियों में काबिलियत की कमी पाई गई हैं। एक रिसर्च के अनुसार देश के 80 फीसदी इंजीनियर नौकरी के काबिल नहीं पाए गए हैं। दूसरी तरफ आज के उद्योग जगत को इंजीनियर और मैनेजर से अधिक टेक्नीशियन, मैकेनिक और कुशल कारीगरों की जरूरत होती हैं। 

नौकरियां सृजन के लिए पारदर्शिता में कमी
मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया और स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट के लिए बड़ी संख्या में स्किल्ड लोगों की जरूरत हैं, जो आईटीआई जैसे संस्थानों से मिलते हैं। उनमें जरूरत के अनुरूप कुशलता की कमी होने के कारण दो-तीन साल की पढ़ाई के बाद भी उन्हें वैसी नौकरी नहीं मिल पा रही हैं, डिग्री के हिसाब से वे जिसके हकदार हैं। इस संबंध में यह विरोधाभास भी हैं कि एक ओर उद्योग को कुशल कामगार नहीं मिल रहे हैं, दूसरी तरफ अनेक सेक्टर ऐसे भी हैं, जहां कुशल कारीगर तेजी से नौकरियां खो रहे हैं। ऐसा कार्यक्षेत्र में आए बदलाव और आधुनिकता के अनुरूप कामगारों के प्रशिक्षण में कमी का नतीजा हैं। रोजगार की कमी की इनसे अलग एक और महत्वपूर्ण वजह कंपनियों व सरकारों द्वारा नए क्षेत्रों में नौकरियां सृजन के लिए वैश्विक जगह बनाने और पारदर्शिता लाने में कमी की भी हैं। इसके लिए बहुपयोगी डिजीटल इंडिया को गति देने वाले मुख्य आधार इंटरनेट की गति और उसकी अत्यधिक पहुंच बनाने में भी काफी मशक्कत करनी पड़ रही हैं। आज जबकि चीन के पास 70 करोड़ इंटरनेट उपयोगकर्ता हैं और वह अमेरिका, यूरोपीय संघ और जापान तीनों के सम्मिलित आंकड़ों से भी ऊपर हैं, तो उसने डिजिटल और ई-कॉमर्स कारोबार मॉडल को बाखूबी अपना लिया हैं। 

‘इंटरनेट ऑफ थिंग्स’ को समझना जरूरी
ई-कॉमर्स और डिजिटल कंपनियों ने चीन में लाखों रोजगार उत्पन्न किए हैं। उसने पारंपरिक रोजगार के नुकसान की भरपाई इन्हीं से की हैं। पुराने रोजगार कम होने की अपेक्षा नए रोजगार बढ़े हैं। डिजिटल महशक्तियों में अमेरिका के साथ चीन का नाम आता हैं। इनसे बनने वाले रोजगार के अवसरों और ‘इंटरनेट ऑफ थिंग्स’ की उपयोगिता को न तो सरकार सही तरह से समझ पा रही हैं और न ही हमारे राजनेता। अर्थशास्त्र के जानकार भी इसे लेकर किसी खास नतीजे पर नहीं पहुंच रहे हैं। इस संदर्भ में यह सवाल सभी से पूछा जाना लाजमी हैं कि हमने अपने इंटरनेट के क्षेत्र में ऐसा क्यों नहीं किया? यहां गूगल और फेसबुक कारोबार कर रहा हैं और हमारी सरकार इसके समकक्ष तकनीक विकसित करने और रोजगार मुहैया करवाने में क्यों पिछड़ रही हैं? हमारा देसी कारोबार विदेशी फंडिंग पर क्यों निर्भर हैं? रोजगार में कमी आने का एक और कारण आईटी कंपनियों के उन्नत तकनीक में निवेश की अनिच्छा हैं। भारत की ऐसी कंपनियां आर्टिफिशियल इंटेलिजेंसी या डाटा एनालिटिक्स में अहम भूमिका नहीं निभा पर रही हैं। इनके पास ऐसी प्रतिभाओं और पूंजी की कमी हैं, जिस कारण नयी डिजिटल अर्थव्यवस्था में हम बहुत तेजी से पिछड़ रहे हैं। 

गंभीरता से चिंतन मनन की जरूरत
साल 2017 ने हमें ये तमाम चीजें बहुत स्पष्टता से बतायी हैं। बहरहाल! अब भी कुछ नहीं हुआ हैं, सत्तारूढ़ सरकार को युवाओं के भविष्य के बारे में गंभीरता से चिंतन मनन की आवश्यकता हैं। रोजगार सृजन आज की पहली प्राथमिकता हैं जिसे सरकार की ओर से विकसित किया जाना अत्यंत जरूरी हैं। युवाओं के चेहरों पर खुशी लाने का यहीं एक मात्र उपाय हैं। सरकार यदि अब भी इस मामले में सजग नहीं होती हैं तो आने वाले समय में फिर उसे इसके दुष्परिणाम भुगतने के लिए भी तैयार रहना होगा। 

Tuesday 12 December 2017

गुजरात चुनाव 2017 : युवाओं की अपनी सोच

घनश्याम डी रामावत
देश में अब तक अनेक विधानसभा चुनाव हुए हैं और सरकारे अस्तित्व में आती जाती रही हैं किन्तु इस बार हो रहे गुजरात विधानसभा सभी अपने आप में खास हैं । गुजरात में हो रहे चुनाव पर देश ही नहीं विदेश तक की नजर हैं। प्रधानमंत्री द्वारा अभी दो दिन पूर्व एक चुनावी रैली में पाकिस्तान के नाम का जिक्र करने के बाद इस चुनाव की टीआरपी और भी बढ़ गई हैं अर्थात यहां की चुनावी गर्मी अपने चरम पर हैं। बीजेपी की ओर से स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अनेक रैलियां कर चुके हैं सही-सही कहे तो इस चुनाव में भाजपा की जीत पीएम की प्रतिष्ठा का सवाल होकर रह गई हैंं। उधर, निर्विरोध चुने गए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी अपने नेताओं व कार्यकर्ताओं के साथ जीत का परचम लहराने हेतु पूरी ताकत झौंक दी हैं। राहुल गांधी गुजरात के करीब 2 दर्जन धार्मिक स्थलों में अब तक मत्था टेक चुके हैं। उनकी मंदिर यात्राएं खास तौर से इस बार चर्चा में हैं। अत्यधिक रस्सा कस्सी वाले इस बार के चुनाव में विभिन्न सर्वेक्षणों से कांगे्रस का उत्साह बढ़ा हैं और कांग्रेस को प्रदेश की सत्ता अपने पाले में आती नजर आने लगी हैं यही कारण हैं कि वह कोई कसर चुनाव प्रचार मामले में छोडऩा नहीं चाहती। 

कांग्रेस से राहुल और बीजेपी से मोदी स्टार प्रचारक
राहुल गांधी अपने रणनीतिकार राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री व गुजरात चुनाव के प्रभारी अशोक गहलोत के साथ मतदाताओं से संपर्क साध रहे हैं। गुजरात में पिछले 22 वर्षों से सत्तारूढ़ भाजपा अपने स्टार प्रचारक पीएम नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में पुन: जीत को आश्वस्त हैं। वह चाहती हैं कि पार्टी हर हाल में सत्ता में पुन: आए और उनका सफर 22 वर्षो से आगे बढ़ता हुआ निरन्तरता बरकरार रखें। इस समय जबकि मैं यह ब्लॉग लिख रहा हूं, गुजरात में चुनाव प्रचार का अंतिम दिन हैं। पीएम मोदी सीप्लेन से अहमदाबाद के साबरमती रिवर फ्रंट से रवाना होकर अंबाजी मंदिर पहुंचे हैं। भारत में सीप्लेन की यह पहली उड़ान हैं तथा मोदी भारत के पहले प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने इस प्लेन में उड़ान भरी हैं। राजनीतिक समीक्षक मोदी की सीप्लेन उड़ान को एक खास तरीके का पाटी प्रचार मान रहें हैं। कांग्रेस के नवनिर्वाचित अध्यक्ष राहुल गांधी भी जगन्नाथ मंदिर पहुंचे हैं। भगवान जगन्नाथ के दर्शन पश्चात् वे 14 दिसम्बर को होने वाली विधानसभा सीटों से संबंद्ध मतदाताओं से रूबरू होंगे। ज्ञातव्य रहें, राहुल गांधी जगन्नाथ मंदिर के अलावा अब तक श्री रणछोडज़ी मंदिर, मोगलधाम-बावला मंदिर, द्वारकाधीश, कागवड में खोडलधाम, नाडियाड के संतराम मंदिर, पावागढ़ महाकाली, नवसारी में ऊनाई मां के मंदिर, अक्षरधाम मंदिर, बहुचराजी के मंदिर, कबीर मंदिर, चोटिला देवी मंदिर, दासी जीवन मंदिर, राजकोट के जलाराम मंदिर, वलसाड के कृष्णा मंदिर, शंंकेश्वर जैन मंदिर, वीर मेघमाया, बादीनाथ मंदिर और सोमनाथ मंदिर के दर्शन कर चुके हैं। 

मेहसाणा में कई लोगों से मिला, मिली जुली प्रतिक्रिया
गुजरात विधानसभा चुनाव 2017 सही अर्थों में मेरे लिए भी खास हैं चूंकि बतौर जर्नलिस्ट पहली बार मुझे गुजरात चुनाव से संबधित दायित्व संभालने का अवसर प्राप्त हुआ। अपने खास टास्क के तहत 10 दिसम्बर को मेहसाणा पहुंचा जहां मैं 11 दिसम्बर देर शाम तक रहा। इस दौरान मुझे अनेक लोगों से, कांग्रेस व बीजेपी दोनों ही प्रमुख दलों के छोटे-बड़े प्रमुख कार्यकर्ताओं से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ। मेहसाणा विधानसभा क्षेत्र को नजदीक से देखा, जाना व उसकी मौजूदा राजनीतिक तस्वीर को सही से महसूस करते हुए सही आंकलन का प्रयास किया। अनेक मतदाताओं के साथ खास तौर से युवाओं ने अपनी बात खुलकर रखी। पाटीदार आंदोलन का केंद्र मेहसाणा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृहनगर वडऩगर से 35 किमी दूर हैं। मेहसाणा से वडऩगर जा रही गुजरात राज्य परिवहन निगम की बस में बड़ी संख्या में छात्र सवार थे जिनमें से ज्यादातर मेहसाणा कॉलेज में बीएससी के छात्र थे और गुजरात विधानसभा चुनाव के 14 दिसंबर को होने वाले दूसरे चरण के मतदान में अपना पहला मत डालेंगे। मेहसाणा और वडऩगर मेहसाणा जिले में आते हैं। वडऩगर उन्झा निर्वाचन क्षेत्र में आता हैं जबकि मेहसाणा शहर एक अलग निर्वाचन क्षेत्र हैं। इन 12 लाख नए मतदाताओं के जेहन में राजनीति के अलावा भी कई मुद्दे हैं। इन्हीं में शामिल हैं आशीष पटेल और जशवंत सिंह। दोनों करीबी दोस्त हैं लेकिन उनके राजनीतिक विचार एकदम अलग-अलग हैं। 

आशीष पाटीदार अनामत आंदोलन समिति के प्रमुख हार्दिक पटेल के कट्टर समर्थक हैं जबकि जशवंत का रुझान भाजपा की ओर हैं। आशीष का कहना था कि यह मानना गलत हैं कि पटेल समुदाय के सभी लोग अमीर होते हैं। हममें से किसी के पास सरकारी नौकरी नहीं है। जमीन इतनी ज्यादा नहीं हैं कि पूरे परिवार का पेट भर सके। इसलिए हमें आरक्षण की जरूरत हैं।

पटेल वोट इफेक्ट के साथ युवाओं की अपनी सोच
मतदाताओं में पटेल 12 फीसदी हैं।उनमें से उपजाति हैं कड़वा और लेउवा। हार्दिक और आशीष कड़वा उपजाति से हैं जिनकी संख्या कम हैं। विश्लेषकों का मानना हैं कि राज्य में 182 सीटों में से करीब 60 सीटों के नतीजों को वे प्रभावित कर सकते हैं। संख्या बल के मामले में लेउवा अधिक हैं। पूर्व मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल इसी उपजाति से आती हैं। जशवंत का मानना हैं कि भाजपा पांचवी बार जोरदार जीत दर्ज करेगी। इस बस में सवार अन्य छात्र निखिल चौधरी, विनोद चौधरी, विकास चौधरी और अविनाश देसाई सभी ओबीसी वर्ग से हैं। इसमें से एक विनोद ने कहा कि वडऩगर का रिश्ता मोदी से हैं, मोदी खुद भी ओबीसी हैं। कोई भी अन्य पार्टी वहां उपस्थिति दर्ज नहीं करवाए पाएगी। हमारे आसपास विकास हो रहा है। इन चुनावों के जरिए भाजपा जहां पांचवी बार सत्ता के गलियारों में वापसी की उम्मीद लगाए है, वहीं कांग्रेस इस चुनाव को अपना खोया आधार वापस पाने के मौके के तौर पर देख रही हैं। पहली बार मतदान करने जा रहे युवाओं के लिए विकास और नौकरियां का मुद्दा महत्वपूर्ण हैं। एक अन्य छात्र हितेश सोलंकी मानते हैं कि राहुल गांधी को एक मौका दिया जाना चाहिए। 

कांग्रेस आंशिक मजबूत, भाजपाई इतेफाक नहीं रखते
मेरी स्वयं की दोनों प्रमुख पार्टी कार्यकर्ताओं के अलावा करीब 78 लोगों से बात हुई। मिली जुली जो राय मिली उससे कही न कही सर्वेक्षण सही प्रतीत होते दिखाई पड़ रहे हैं। ज्यादातर लोग परिर्वतन के मूड में ही दिखाई पड़ रहे हैं। हालांकि मेरे द्वारा इस बात का जिक्र वरिष्ठ भाजपा नेता जितेन्द्र एन चौधरी, रमेशचंद्र वी पटेल, विजय भाई तथा पोपट भाई चौधरी(मानव आश्रम चौकड़ी के निकट एक बूथ पर) से करने पर उन्होंने कांगे्रस के पक्ष में दिखाई पड़ रहीं आंशिक बढ़त को सिरे से खारिज कर दिया। उन्होंने कहा कि मेहसाणा में पाटीदारों की कोई नाराजगी नहीं हैं तथा मोदी जी यहां जीत का ब्रांड हैं, उनके अनुसार जीत बीजेपी की ही होगी। यहां से बीजेपी की ओर से नितीन भाई पटेल और कांग्रेस के जीवा भाई पटेल के बीच मुख्य मुकाबला हैं। बहरहाल, गुजरात में पहले चरण का मतदान 9 दिसंबर को हो चुका हैं, दूसरे चरण का 14 दिसंबर को होना हैं। परिणाम 18 दिसंबर को आएंगे।

Tuesday 5 December 2017

वास्तु शास्त्र की दृष्टि से ‘जल’ का महत्व...

घनश्याम डी रामावत
‘जल’ ही जीवन हैं अर्थात जल का हमारे जीवन में अत्यधिक महत्व हैं। वास्तु शास्त्र एवं फेंग शुई में भी जल को काफी महत्व दिया गया हैं। फेंग शुई में ‘शुई’ का अर्थ ही जल होता हैं। वास्तु शास्त्र में घर, मौहल्लें व शहर इत्यादि स्थानों पर जल स्त्रोत मसलन कुआं, तालाब व ट्यूबवेल इत्यादि कहां होने चाहिए, विस्तार से वर्णन किया गया हैं। मशहूर वास्तु पिरामिड विशेषज्ञ व रैकी हीलर अर्चना प्रजापति के अनुसार जल संग्रहण के लिए किसी भी भवन में वास्तु अनुकूल भूमिगत जल स्त्रोत बनाकर जल संग्रह किया जाए तो बहुत शुभ परिणाम प्राप्त होते हैं। गलत स्थान पर जल स्त्रोत का होना अनेक विपदाओं का कारण बनता हैं तथा दुष्परिणामों का सामना करना पड़ता हैं। अर्चना की माने तो पूर्व ईशान में जल स्त्रोत का होना सुख समृद्धि, वंश वृद्धि तथा गृह स्वामी के यशस्वी होने की गारण्टी हैं। 

इस तरीके से होने चाहिए जल स्त्रोत
पूर्व दिशा ऐश्वर्य प्राप्ति के साथ संतान की तरक्की की सूचक हैं। वहीं, पूर्व आग्रेय दिशा में जल स्त्रोत होने से पुत्र को कष्ट, अर्थ नाश सहित अग्रि भय से दो चार होना पड़ता हैं। दक्षिण आग्रेय दिशा में जल स्त्रोत की वजह से गृहिणी बीमार तथा भय की शिकार रहती हैं। इसी प्रकार दक्षिण दिशा में जल स्त्रोत स्त्रियों को मानसिक बीमारियां, आर्थिक व शारीरिक कष्ट का कारण बनता हैं। यही कारण हैं जल स्त्रोतों के लिए गड्ढों का चयन पूरी तरह वास्तु शास्त्र में सुझाएं गए नियमों के अनुसार करना चाहिए इससे जीवन सुखमय रहेगा, जल संकट से बचा जा सकता हैं तथा अनजाने कष्टों, संकटों, पीड़ाओं व अशुभ परिणामों से भी बचाव होगा अर्थात आनन्दमय जीवन जिया जा सकता हैं।

जल को वास्तु शास्त्र में सर्वाधिक महत्व
मौजूदा दौर में हर इंसान अपने जीवन में दु:ख/तकलीफ से बचकर खुशी से रहना चाहता हैं, उसे चाहत होती हैं कि वो अपना जीवन आनंदपूर्ण तरीके से व्यतीत करें। इसी चाहत को पूरा करने के लिए कई बार हम ऐसे तरीके अपनाते हैं जिसके कारण बड़ी रकम खर्च होती चली जाती हैं, फिर भी किसी प्रकार की सफलता नहीं मिलती हंै। अर्चना प्रजापति के अनुसार वास्तु शास्त्र एवं ज्योतिष शास्त्र में अनेक ऐसे उपाय हैं जिसके जरिए बिना किसी अधिक मेहनत और खर्चे के इंसान अपनी परेशानियों को दूर कर आर्थिक स्थिति को ठीक कर सकता हैं। उनके अनुसार जल को वास्तु शास्त्र में सर्वाधिक महत्व दिया गया हैं। जल एक ऐसा तत्व हैं जो जीवन के लिए तो जरूरी हैं ही, वास्तु के अनुसार जीवन को आनंदमय बनाने व अनेक कष्टों से बचाने का सशक्त माध्यम भी हैं। 

पूजा घर के शंख में जल भरकर रखना चाहिए
मशहूर वास्तु पिरामिड विशेषज्ञ अर्चना प्रजापति के अनुसार परिवार में माता के साथ संबंध मधुर नहीं रहते हैं और साथ ही वाहन रोजाना किसी तरह का नुकसान करवाता हैं तो इसका अर्थ होता हैं कि कुंडली के चतुर्थ भाव में दोष हैं। इस दोष से बचने के लिए सोमवार के दिन चावल बनाकर उसका सेवन करना चाहिए। इस दिन घर पर अतिथि का आगमन शुभ संकेत हैं। यदि संपत्ति का झगड़ा चल रहा हैं तो इससे बचने के लिए एक कटोरी में जल सूर्य की कटोरी में रख दें और शाम के समय उस जल को अशोक या आम के पत्तों में डूबोकर पूरे घर में छिडक़ाव करें। इससे घर की सारी नकारात्मकता खत्म हो जाएगी।  वास्तु शास्त्र के अनुसार जल में नमक डालकर उसका पोछा लगाने पर घर में वैभव और सुख का आगमन होता हैं। मां लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए पूजा घर के शंख में जल भरकर रखना चाहिए। वास्तु शास्त्र की दृष्टि से घर के नल से लगातार पानी बहना/टपकना ठीक नहीं हैं, ऐसा होने पर धन की हानि होना निश्चित हैं।

गुजरात में दिलचस्प हुआ सियासी मुकाबला

घनश्याम डी रामावत
गुजरात विधानसभा चुनाव 2017 को लेकर जैसे-जैसे मतदान की तारीखें नजदीक आती जा रही हैं, सियासी मुकाबला दिलचस्प होता जा रहा हैं। गुजरात में 9 दिसम्बर व 14 दिसम्बर को मतदान होना हैं। वोटो की गणना 18 दिसम्बर को होगी। एबीपी न्यूज-सीएसडीएस के ताजे ऑपिनियन पोल के मुताबिक कांग्रेस और बीजेपी के बीच कांटे की टक्कर देखने को मिल रही हैं। पोल में दोनों दलों को 43-43 प्रतिशत वोट मिलता दिख रहा हैं। वहीं, चौदह प्रतिशत वोट अन्य के हिस्से में जा सकता हैं। 

ऑपिनियन पोल में दिखाई जा रही कांटे की टक्कर के बीच 182 सदस्यीय गुजरात विधानसभा में बीजेपी को 95 सीटें मिलती हुई दिखाई पड़ रही हैं। कांग्रेस को 82 सीटें मिलने की संभावना हैं जबकि 5 सीटें अन्य को मिल सकती हैं। पोल में जो रूझान सामने आए हैं उसमें सबसे बड़ा झटका हार्दिक को लगा हैं। आरक्षण की मांग को लेकर राज्य में एक नए चेहरे के रूप में उभरे हार्दिक पटेल के कांग्रेस को समर्थन देने के बाद माना जा रहा था कि बीजेपी के वोट बैंक में सेंध लग सकती हैं। हाल ही में हार्दिक की विवादित सीडी सामने आने के बाद एक बार फिर गुजरात में राजनीतिक समीकरण रोमांचक बनते नजर आ रहे हैं। पोल के हिसाब से पटेल समुदाय के अंदर ही हार्दिक की लोकप्रियता में 6 प्रतिशत कमी आई हैं। इसका नुकसान अगर हार्दिक को होता हैं तो इसका खामियाजा सीधे-सीधे कांग्रेस को ही होगा। पोल में बीजेपी को शहरी क्षेत्रों से जबकि कांग्रेस को ग्रामीण क्षेत्रों से अधिक समर्थन मिलने की संभावना जताई गई हैं। ज्ञातव्य रहें, पिछले महीने एबीपी-सीएसडीएस के पोल में बीजेपी को लगभग 113-121 सीटें जबकि कांग्रेस को 58-64 सीटें मिलने की संभावना जताई गई थी। पोल में गुजरात के वर्तमान मुख्यमंत्री विजय रूपाणी को ही अगले सीएम के रूप में देखा जा रहा था। 

सर्वे के अनुसार व्यापारी जीएसटी से खुश नहीं 
जीएसटी के चलते बीजेपी से नाखुश व्यापारी इस बार कांग्रेस की तरफ ज्यादा झुके हुए नजर आ रहे हैं। पोल के हिसाब से कांग्रेस को जहां 43 प्रतिशत वोट मिल सकते हैं वहीं 40 प्रतिशत व्यापारी बीजेपी के लिए वोट कर सकते हैं । पोल में यह भी सामने आया हैं कि केवल 37 प्रतिशत व्यापारी जीएसटी से खुश हैं जबकि 44 प्रतिशत व्यापारी इससे नाखुश दिखाई पड़ रहे हैं। पाटीदार समाज भी कांग्रेस की ओर रूख कर सकता हैं। पोल के मुताबिक बीजेपी से 2 प्रतिशत अधिक पाटीदार कांग्रेस के लिए वोट कर सकते हैं। हालांकि, कोली समाज अभी भी बीजेपी के साथ नजर आ रहा हैं। कोली समाज में से बीजेपी को कांग्रेस की तुलना में 26 प्रतिशत वोट अधिक मिल सकते हैं। सौराष्ट्र के इलाके में जहां बीजेपी को 45 प्रतिशत वोट मिलने की संभावना हैं वहीं कांग्रेस की गाड़ी 39 प्रतिशत वोटों पर अटक सकती हैं। एबीपी-सीएसडीएस के पिछले महीने के पोल में दोनों पार्टियों के खाते में 42 प्रतिशत वोट जाते दिखाई दे रहे थे। हालांकि, सौराष्ट्र और कच्छ के ग्रामीण इलाकों में बीजेपी को 43 प्रतिशत और कांग्रेस को 49 प्रतिशत वोट मिलने की संभावना पोल में जताई गई हैं। शहरी इलाकों में बीजेपी (46 प्रतिशत) कांग्रेस (30 प्रतिशत) से लगभग 16 प्रतिशत अधिक वोट अधिक हासिल कर सकती हैं। 

कांग्रेस की स्थिति में और सुधार की संभावना
उत्तर गुजरात में कांग्रेस बीजेपी से आगे निकलती हुई दिखाई दे रही है। वहां बीजेपी को 45 प्रतिशत और कांग्रेस को 49 प्रतिशत वोट मिल सकते हैं। यहां ग्रामीण इलाकों में 56 प्रतिशत वोटों के साथ कांग्रेस बीजेपी (41 प्रतिशत) से आगे हैं जबकि शहरी इलाकों में बीजेपी (50 प्रतिशत) कांग्रेस (41 प्रतिशत) से आगे हैं। दक्षिण गुजरात में कांग्रेस को बढ़त हैं और उसे 42 प्रतिशत वोट मिल सकते हैं। बीजेपी को यहां 40 प्रतिशत वोट से संतोष करना पड़ सकता हैं। यहां के ग्रामीण इलाकों में बीजेपी 44 प्रतिशत के साथ कांग्रेस (42 प्रतिशत) से आगे हैं जबकि शहरी इलाकों में कांग्रेस 43 प्रतिशत वोटों के साथ बीजेपी (36 प्रतिशत) से आगे हैं। ऑपिनियन पोल के अनुसार मध्य गुजरात में बीजेपी 41 प्रतिशत के साथ कांग्रेस (40 प्रतिशत) पर मामूली बढ़त हासिल करती दिखलाई पड़ रही हैं। 

बहरहाल! अभी दो चरणों में होने वाले मतदान में क्रमश: चार एवं नौ दिन शेष हैं। पीएम नरेन्द मोदी से लेकर राहुल गांधी के दौरे चुनाव क्षेत्रों में होने हैं, बड़े पैमाने पर बदलाव की संभावना हैं। एबीपी न्यूज-सीएसडीएस के सर्वे में जिस तरह से लगातार कांग्रेस के वोट प्रतिशत में सुधार हुआ हैं और आज मुकाबला बीजेपी-कांग्रेस में कांटे का दिखलाई पड़ रहा हैं, आगे जाकर गुजरात विधानसभा के चुनाव परिणाम चौकाने वाले भी हो सकते हैं। हार्दिक पटेल की लोकप्रियता में कमी के बावजूद उसकी रैलियों में जिस तरह से भीड़ उमड़ रही हैं, कांग्रेस का आत्मविश्वास और अधिक मजबूत हुआ हैं।

Sunday 3 December 2017

भक्ति व आस्था की पर्याय कृष्ण भक्त ‘मीरा बाई’

घनश्याम डी रामावत
विश्व की महान कवित्रियों में कृष्ण भक्ति शाखा की कवियित्री राजस्थान की मीरा बाई का जीवन समाज को अलग ही संदेश देता हैं। मीरा बाई के जीवन चरित्र को आधुनिक युग की कई फिल्मों, साहित्य और कॉमिक्स का विषय बनाया गया हैं। मीरा बाई का जीवन प्रारंभ से ही कृष्ण भक्ति से प्रेरित रहा और वे जीवन भर बावजूद विषम परिस्थितियों के कृष्ण भक्ति में लीन रहीं। कोई भी बाधा उनका मन कृष्ण भक्ति से विमुख नहीं कर सकी। 

मीरा बाई कृष्ण भक्ति में रत रहकर वह अमर हो गईं और आज भी उनका नाम पूरी श्रद्धा, आदर और सम्मान के साथ स्मरण किया जाता हैं। उन्होंने न केवल पावन भावना से कृष्ण भक्ति की बल्कि अपनी भावना को कृष्ण के भजनों में पिरोकर उन्हें नृत्य संगीत के साथ अभिव्यक्ति भी प्रदान की। यही नहीं वह जहां भी गईं भक्त जैसा नहीं बल्कि देवियों जैसा सम्मान प्राप्त किया। मीरा बाई ने ‘वरसी का मायरा’, ‘गीत गोविन्द टीका’, ‘राग गोविन्द’ एवं ‘राग सोरठा के पद’ नामक ग्रन्थों की भी रचना की। मीरा बाई के भजनों व गीतों का संकलन ‘मीरा बाई की पदावली’ में किया गया। 

श्रीकृष्ण को समर्पित भजन आज भी लोकप्रिय
मीरा बाई ने अपने पदों की रचना मिश्रित राजस्थानी भाषा के साथ−साथ विशुद्ध बृज भाषा साहित्य में भी की। उन्होंने भक्ति की भावना में कवियित्री के रूप में ख्याति प्राप्त की। उनके विरह गीतों में समकालीन कवियों की तुलना में अधिक स्वाभाविकता देखने को मिलती है। उन्होंने पदों में श्रृंगार और शान्त रस का विशेष रूप से प्रयोग किया। माधुरिय भाव उनकी भक्ति में प्रधान रूप से मिलता है। वह अपने इष्ट देव कृष्ण की भावना प्रियतम अथवा पति के रूप में करती थीं। वे कृष्ण की दीवानी थीं और रैदास को अपना गुरू मानती थीं। मीरा बाई मंदिरों में जाकर कृष्ण की प्रतिमा के समक्ष कृष्ण भक्तों के साथ भाव भक्ति में लीन होकर नृत्य करती थीं। मध्यकालीन हिन्दू आध्यात्मिक कवियित्री और कृष्ण भक्त मीरा बाई समकालीन भक्ति आंदोलन के सर्वाधिक लोकप्रिय भक्ति−संतों में से थीं। श्री कृष्ण को समर्पित उनके भजन आज भी लोकप्रिय हैं और विशेष रूप से उत्तर भारत में पूरी श्रद्धा के साथ गाये जाते हैं। 

दादा की देखरेख में हुआ लालन−पालन
मीरा बाई का जन्म राजस्थान में मेड़ता के राजघराने में राजा रतनसिंह राठौड़ के घर 1498 में हुआ। वे अपनी माता−पिता की इकलौती संतान थीं और बचपन में ही उनकी माता का निधन हो गया। उन्हें संगीत, धर्म, राजनीति और प्रशासन विषयों में शिक्षा प्रदान की गई। उनका लालन−पालन उनके दादा की देखरेख में हुआ जो भगवान विष्णु के उपासक थे तथा एक योद्धा होने के साथ−साथ भक्तहृदय भी थे जिनके यहां साधुओं का आना जाना रहता था। इस प्रकार बचपन से ही मीरा साधु−संतों और धार्मिक लोगों के सम्पर्क में आती रहीं। मीरा का विवाह वर्ष 1516 में मैवाड़ के राजकुमार और राणासांगा के पुत्र भोजराज के साथ सम्पन्न हुआ। उनके पति भोजराज वर्ष 1518 में दिल्ली सल्तनत के शासकों से युद्ध करते हुए घायल हो गये और इस कारण वर्ष 1521 में उनकी मृत्यु हो गई। इसके कुछ दिनों के उपरान्त उनके पिता और श्वसुर भी बाबर के साथ युद्ध करते हुए मारे गये। 

जहर देकर मारने का प्रयास किया गया
ऐसी धारणा हैं कि पति की मृत्यु के बाद मीरा को भी उनके पति के साथ सती करने का प्रयास किया गया परन्तु वे इसके लिए तैयार नहीं हुईं और धीरे-धीरे उनका मन संसार से विरक्त हो गया और वे साधु−संतों की संगति में भजन कीर्तन करते हुए अपना समय बिताने लगीं। पति की मृत्यु के बाद उनकी भक्ति की भावना और भी प्रबल होती गई। वे अक्सर मंदिरों में जाकर कृष्ण मूर्ति के सामने नृत्य करती थीं। मीरा बाई की कृष्ण भक्ति और उनका मंदिरों में नाचना गाना उनके पति के परिवार को अच्छा नहीं लगा और कई बार उन्हें विष देकर मारने का प्रयास भी किया गया। माना जाता हैं कि वर्ष 1533 के आस−पास राव बीरमदेव ने मीरा को मैड़ता बुला लिया और मीरा के चित्तौड़ त्याग के अगले साल ही गुजरात के बहादुरशाह ने चित्तौड़ पर कब्जा कर लिया। 

इस युद्ध में चित्तौड़ के शासक विक्रमादित्य मारे गये तथा सैकड़ों महिलाओं ने जौहर कर लिया। इसके पश्चात वर्ष 1538 में जोधपुर के शासक राव मालदेव ने मेड़ता पर कब्जा कर लिया और बीरमदेव ने भागकर अजमेर में शरण ली और मीरा बाई बृज की तीर्थ यात्रा पर निकल गईं। मीरा बाई वृंदावन में रूप गोस्वामी से मिलीं तथा कुछ वर्ष निवास करने के बाद वे वर्ष 1546 के आस−पास द्वारिका चली गईं। वे अपना अधिकांश समय कृष्ण के मंदिर और साधु−संतों तथा तीर्थ यात्रियों से मिलने में तथा भक्तिपदों की रचना करने में व्यतीत करती थीं। मान्यता हैं कि द्वारिका में ही कृष्णभक्त मीरा बाई की वर्ष 1560 में मृत्यु हो गई और वे कृष्ण मूर्ति में समा गईं। राजस्थान में चित्तौड़ के किले एवं मेड़ता में मीरा बाई की स्मृति में मंदिर तथा मेड़ता में एक संग्रहालय बनाया गया हैं।

श्रद्धा और विश्वास का पर्व ‘भाई दूज’

घनश्याम डी रामावत
भाई दूज का पर्व भाईयों के प्रति बहनों की श्रद्धा और विश्वास का पर्व हैं। इस पर्व को प्रति वर्ष कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि के दिन मनाया जाता हैं। सही मायने में भाई-बहन के स्नेह का प्रतीक यह पर्व दीपावली के दो दिन बाद मनाया जाता हैं। इसे यम द्वितीया भी कहते हैं। यहीं कारण हैं कि इस पर्व पर यम देव की पूजा की जाती हैं। मान्यता के अनुसार जो यम देव की उपासना करता हैं, उसे अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता हैं। हिंदुओं के बाकी त्योहारों कि तरह यह पर्व भी परंपराओं से जुड़ा हुआ हैं। इस दिन बहनें अपने भाई को तिलक लगाकर और उपहार देकर उसकी लंबी आयु की कामना करती हैं। बदले में भाई अपनी बहन कि रक्षा का वचन देता हैं। इस दिन भाई का अपनी बहन के घर भोजन करना विशेष रूप से शुभ होता हैं।

यम द्वितीया के नाम से भी जाना जाता हैं
मिथिला नगरी में इस पर्व को आज भी यम द्वितीया के नाम से जाना जाता हैं। इस दिन चावलों को पीसकर एक लेप भाईयों के दोनों हाथों में लगाया जाता हैं। साथ ही कुछ स्थानों में भाई के हाथों में सिंदूर लगाने की भी परंपरा देखी जाती हैं। भाई के हाथों में सिंदूर और चावल का लेप लगाने के बाद उस पर पान के पांच पत्ते, सुपारी और चांदी का सिक्का रखा जाता हैं, उस पर जल उड़ेलते हुए भाई की दीर्घायु के लिये मंत्र बोला जाता हैं। भाई अपनी बहन को उपहार देते हैं। ऐसे हुई भाई दूज की शुरूआत भाई दूज के विषय में मान्यता एक पौराणिक मान्यता के अनुसार यमुना ने इसी दिन अपने भाई यमराज की लंबी आयु के लिये व्रत किया था, और उन्हें अन्नकूट का भोजन खिलाया था। कथा के अनुसार यम देवता ने अपनी बहन को इसी दिन दर्शन दिये थे। 

भाई-बहन के बीच स्नेह बंधन को मजबूती
यम की बहन यमुना अपनी बहन से मिलने के लिये अत्यधिक व्याकुल थी। अपने भाई के दर्शन कर यमुना बेहद प्रसन्न हुई। यमुना ने प्रसन्न होकर अपने भाई की बहुत आवभगत की। यम ने प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया कि इस दिन अगर भाई-बहन दोनों एक साथ यमुना नदी में स्नान करेगें, तो उन्हें मुक्ति प्राप्त होगी। इसी कारण से इस इन यमुना नदी में भाई-बहन के साथ स्नान करने का बड़ा महत्व हैं। इसके अलावा यम ने यमुना ने अपने भाई से वचन लिया कि आज के दिन हर भाई को अपनी बहन के घर जाना चाहिए। तभी से भाई दूज मनाने की प्रथा चली आ रही हैं। भाई दूज का महत्व यह पर्व भाई-बहन के बीच स्नेह के बंधन को और भी मजबूत करता हैं। 

भारतीय परंपरा के अनुसार विवाह के बाद कन्या का अपने घर, मायके में कभी-कभार ही आना होता हैं। मायके की ओर से भी परिवार के सदस्य कभी-कभार ही उससे मिलने जा पाते हैं। ऐसे में भाई अपनी बहन के प्रति उदासीन न हों, उससे सदा स्नेह बना रहें, बहन के सुख-दु:ख का पता चलता रहें। भाई अपनी बहनों की उपेक्षा न करें, और दोनों के संबंध मधुर बने रहें. इसी भावनाओं के साथ भाई दूज का पर्व मनाया जाता हैं। 

इस तरह मनाया जाता हैं भाई दूज का पर्व 
भाई दूज पर्व पर बहनें सवेरे जल्दी स्नान कर, अपने ईष्ट देव का पूजन करती हैं। चावल के आटे से चौक तैयार करती हैं। इस चौक पर भाई को बैठाया जाता हैं और उनके हाथों की पूजा की जाती हैं। भाई की हथेली पर बहनें चावल का घोल लगाती हैं। उसके ऊपर सिन्दूर लगाकर कद्दु के फूल, सुपारी, मुद्रा आदि हाथों पर रख कर धीरे धीरे हाथों पर पानी छोड़ा जाता हैं। अनेक जगहों पर इस दिन बहनें अपने भाइयों के माथे पर तिलक लगाकर उनकी आरती उतारती हैं और फिर हथेली में कलावा बांधती हैं। भाई का मुंह मीठा करने के लिये भाईयों को माखन-मिश्री खिलाती हैं। संध्या के समय बहनें यमराज के नाम से चौमुख दीया जलाकर घर के बाहर दीये का मुख दक्षिण दिशा की ओर करके रख देती हैं। 

Friday 1 December 2017

जोधपुर की जल संस्कृति का प्रतीक ‘झालरा’

घनश्याम डी रामावत
जोधपुर के शासक रहे तत्कालीन नरेश अजीतसिंह के जमाने में विद्याशाला से मेहरानगढ़ किला मार्ग पर स्थित सुखदेव तिवाड़ी की ओर से जनहितार्थ बनवाया गया कलात्मक झालरा जोधपुर की जल संस्कृति का प्रतीक हैं। वर्ष 1828 में 50 गुणा 50 क्षेत्रफल में निर्मित झालरे के चारो तरफ कलात्मक पत्थर लगे हैं। तीन तरफ से नीचे उतरने के लिए कलात्मक सीढिय़ां भी हैं। एक तरफ पानी ऊपर खींचने के लिए बरामदा हैं, जिसकी गहराई 50 फुट हैं। इस झालरे की खुदाई का कार्य 1718 में माघ सुदी एकम को शुरू हुआ था तथा प्रतिष्ठा माघ शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को पुष्य नक्षत्र के दिन 1828 में की गई। झालने के निकट ही एक कीर्ति स्तम्भ लगा हैं। इस पर एक शिलालेख पर चारो दिशाओं में मूर्तियां बनी हैं। 

सारा ही विप्रो सिरे, एक भयो सुखदेव...
स्तम्भ के पूर्व में सूर्य, दक्षिण में सिंह वाहिनी चतुर्भुज दुर्गा, पश्चिम भाग में वृषभवाही गंगाधारी शिव और उत्तर भाग में परशु, कमल, माला मोदकधारी गणेश विराजमान हैं। तत्कालीन शासक जसवन्त सिंह और अजीतसिंह के समय शालीहोत्र के जानकार सुखदेव के संबंध में स्वयं अजीतसिंह ने कहा था कि ‘सारा ही विप्रो सिरे, एक भयो सुखदेव। सुर बुध हैं सामरी, झाली सबमें सेव।।’ जोधपुर में मृत्यपरांत राजा महाराजाओं के देवल का उल्लेख मिलता हैं लेकिन सुखदेव अकेले ऐसे ब्राह्मण हैं, जिनका झालरे के पास ही देवल बना हुआ हैं। वर्तमान में यह कलात्मक झालरा गंदगी, मलबों और अतिक्रमण से घिर चुका हैं, जिसकी सुध लेने की अत्यधिक जरूरत हैं। 

विद्याशाला और किले के बीच मुख्य सडक़ पर होने से कलात्मक झालरा देशी-विदेशी पर्यटकों के लिए दर्शनीय हो सकता हैं और पर्यटकों को जोधपुर के प्राचीन जल संस्कृति से भी रूबरू होने का लाभ मिल सकता हैं।

Wednesday 29 November 2017

गुजरात चुनाव : मारवाड़ी अनुभवी राजनेताओं पर भरोसा

घनश्याम डी रामावत
गुजरात चुनाव पर सभी की नजर हैं। स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी इसमें अपनी जान फूंक रहे हैं। इस सियासी रण को जीतने के लिए प्रमुख राजनीतिक दल कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी ने मारवाड़ के अनुभवी राजनेताओं पर भरोसा जताया हैं, ऐसा अब तक के चुनावी घमासान को देखकर प्रतीत हो रहा हैं। गुजरात चुनाव की कमान मोटे तौर पर सीधे मारवाड़ राजस्थान के बड़े अनुभवी राजनेताओं को दी गई हैं। खासकर मारवाड़ की राजधानी कहे जानेे वाले जोधपुर क्षेत्र से कांग्रेस और बीजेपी के अनेक राजनेता गुजरात पहुुंचे हैं।

पिछले लंबे समय से गुजरात में सत्ता से महरूम कांग्रेस पार्टी ने पश्चिमी राजस्थान अर्थात मारवाड़ की धरा के प्रमुख कद्दावर राजनेता पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को गुजरात चुनाव प्रभारी के तौर पर मैदान में उतारा हैं। गहलोत इन दिनों कांग्रेस के सर्वेसर्वा गांधी परिवार के बेहद नजदीक हैं। चुनाव में गहलोत के नजदीकी समझे जाने वाले मारवाड़ के तकरीबन सभी नेता व कार्यकत्र्ता गुजरात चुनाव में सियासी कमान थामे हुए हैं। जोधपुर से पाली के पूर्व सांसद बद्रीराम जाखड़, जोधपुर विकास प्राधिकरण के पूर्व चेयरमैन राजेन्द्रसिंह सोलंकी, पूर्व महापौर रामेश्वर दाधीच, राजस्थान संगीत नाटक अकादमी के पूर्व अध्यक्ष रमेश बोराणा, राजसिको के पूर्व अध्यक्ष सुनील परिहार तथा नगर निगम में प्रतिपक्ष के उप नेता गणपतसिंह चौहान सहित कई राजनेता गुजरात चुनाव में जोर शोर से जुटे हुए हैं।

भाजपा ने इन नेताओं का उतारा मैदान में
भारतीय जनता पार्टी की बात करें तो जोधपुर संभाग के प्रमुख संसदीय क्षेत्र पाली के सांसद व केन्द्रीय राज्यमंत्री पी पी चौधरी के पास गुजरात चुनाव का सह प्रभार हैं। अब तक सभी प्रदेशों में बीजेपी के सर्वाधिक विश्वसीय रहे राज्यसभा सांसद ओमप्रकाश  माथुर भी प्रमुख रणनीतिकार हैं। माथुर पीएम मोदी के गुजरात के सीएम रहते लंबे समय तक प्रमुख रणनीतिकार के तौर पर अपनी भूमिका का निर्वहन करते रहे हैं। इसके अलावा पाली जिले से उप मुख्य सचेतक मदन राठौड़ और जिले के प्रभारी मंत्री राजेन्द्र राठौड़ भी गुजरात चुनाव में पार्टी की जीत सुनिश्चित करने हेतु जी जान से जुटे हुए हैं। सोजत विधायक संजना आगरी को भी प्रथम चरण के होने वाले चुनाव को लेकर महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी गई हैं।

मारवाडी प्रवासी तय करेंगे सियासी भविष्य
गुजरात विधानसभा की 182 सीटों के लिए होने जा रहे चुनाव में प्रवासी मारवाड़ी सियासी भविष्य तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेंगे। अनेक सीटों पर बरसों से वहां बसे प्रवासी मारवाडिय़ों के वोट उम्मीदवारों की जीत हार तय करेंगे। गुजरात की राजधानी अहमदाबाद समेत सूबे के एक दर्जन से अधिक प्रमुख शहरों में बड़ी तादाद में मारवाड़ी प्रवासियों की भारी संख्या हैं। ये प्रवासी मारवाड़ी न केवल वर्षों से कामकाज के सिलसिले में यहां रह रहे हैं, बल्कि अब वे गुजरात के निवासी भी बन चुके हैं। गुजरात के मेहसाणा, पालनपुर, अहमदाबाद, सूरत, डीसा, वलसाढ़, राजकोट व बड़ोदरा समेत एक दर्जन के करीब शहरों में प्रवासी मारवाडिय़ों ने अपना कामकाज संभाल रखा हैं तथा वे इस चुनाव में अपना खासा प्रभाव रखते हैं। चूंकि सभी परिवार सहित रहते हैं लिहाजा मतों की संख्या भी अच्छी खासी हैं।

मत देने का अधिकार हासिल किया
मारवाड़ के जोधपुर, नागौर, पाली व सिरोही जिलों से संबद्ध अनेक परिवार अब न सिर्फ गुजरात के विभिन्न शहरों में अपने आशियाने बना चुके हैं, बल्कि उन्होंने वर्षों से वहां रहते हुए अपने आप को बेहतरीन तरीके से स्थापित करते हुए चुनावों में वोट देने का अधिकार भी हासिल कर लिया हैं। ऐसे में यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं हैं कि चुनाव में मारवाड़ी प्रवासी लोगों की भी अहम भूमिका रहेगी। ज्ञातव्य रहें, पिछले गुजरात विधानसभा चुनाव में प्रदेश की 162 सीटों मे से 120 सीटों पर भाजपा के उम्मीदवार विजयी हुए थे। 43 सीटों पर कांगेस को जीत मिली। वहीं, 2 सीट एनसीपी तथा 1 सीट जेडीए के खाते में गई। अन्य एक सीट पर निर्दलीय उम्मीदवार विजयी रहा।

Sunday 19 November 2017

सैलानियों को लुभाने लगा ‘माचिया पार्क’

घनश्याम डी रामावत
सूर्यनगरी जोधपुर की कायलाना पहाडिय़ों के बीच बना पश्चिमी राजस्थान का पहला बॉयलोजिकल पार्क शहर के बाशिंदों और देशी विदेशी सैलानियों को बहुत ज्यादा पसंद आ रहा हैं। अब तक की बात करे तो यहां कुल 6 लाख 43 हजार दर्शक वन्यजीवों को निहार चुके हैं। इससे राज्य सरकार को दर्शकों से कुल 2 करोड़ 10 लाख रुपए की राजस्व आय हुई हैं। इस प्राकृतिक इन्टरप्रीटिशन सेन्टर में वन्यजीवों का अनूठा संसार हैं।

मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने किया उद्घाटन
माचिया बॉयलोजिकल पार्क का 20 जनवरी 2016 को उद्घाटन हुआ था। खुद सूबे की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने अपने जोधपुर दौरे के दौरान इसका शुभारम्भ किया था। तब से लेकर अब तक इस पार्क को लाखों की संख्या में देशी व विदेशी पर्यटक देख चुके हैं।  इस माचिया बॉयलॉजिकल पार्क की विशेषता की बात करें तो यह पार्क ऐसी जगह पर स्थापित हुआ हैं जो केवल पूर्व में एक पथरीला इलाका हुआ करता था। जहां सिर्फ पहाड़ों के सिवा कुछ देखने को नहीं मिलता। मगर वन्य अधिकारियों के प्रयासों से यहां ब्लास्टिक कर खड्डों के अंदर बाहर से लाकर खाद्य और मिट्टी भर के पेड़-पौधे लगाए गए। वहीं इस पार्क में अब तक 6 लाख 43 हजार से अधिक देशी-विदेशी पर्यटक इस पार्क को देख चुके हैं जिससे लगभग 2 करोड 10 लाख रूपए की आय राजस्थान सरकार को हुई हैं।


रणथम्बोर, सरिस्का, सीता माता एवं अन्य वन विभागों में अपनी सेवाएं देने के बाद हाल ही में जोधपुर वन्यजीव उप वन संरक्षक के रूप में पदस्थापित होने वाले बी एस राठौड़ का कहना हैं कि यह पूर्व में पूरी तरह से पथरीला इलाका हुआ करता था जहां गर्मी भी अधिक पड़ती थी और पेड पौधों का यहां नामो निशान तक नहीं था। ऐसे में काफी कठिन रहा मगर उन सभी को पीछे छोडक़र टीम भावना से मेहनत का ही नतीजा हैं कि मारवाड़ का पहला बॉयलॉजिकल पार्क यहां स्थापित हो सका।

कुल क्षेत्रफल 604 बाई 69 हेक्टेयर 
ज्ञातव्य रहें, इस बायोलॉजिकल पार्क का कुल क्षेत्रफल 604 बाई 69 हेक्टेयर हैं। 32.43 करोड़ की लागत से बने इस पार्क में लोगों को वन्यजीवों के प्रति जागरूक करने के लिए इंटरप्रिटेशन सेंटर का भी निर्माण किया गया हैं। इसमें लोग वन्यजीवों के बारे में अधिकाधिक जानकारी प्राप्त कर सकेंगे। पार्क में आने वाले सैलानियो की अब तक की संख्या को देखने के बाद यह कहा जा सकता हैं कि वे माचिया से खुश हैं।

28 प्रजातियों के पौधे पार्क में मौजूद
वर्तमान में इस उद्यान में 28 प्रजातियों के धौंक, नीम, बबूल, कुमठ, छेकड़ा, कचनार, लसोड़, गूंदी, पीपल, बरगद, गूलर, पाखर, चुरेल, विलायती बबूल, देशी बबूल, आंवला, करंज, कदम्ब, जाळ, फरास, झाड़ी बेर, केर, खेजड़ी, पारस पीपल, गूगल, गांगणी आदि के पौधे हैं।

Saturday 18 November 2017

मारवाड़ में चिकित्सकों की कमी, 318 पद रिक्त

घनश्याम डी रामावत
मारवाड़ के रूप में पहचान रखने वाले पश्चिमी राजस्थान में स्वास्थ्य सेवाएं भगवान भरोसे ही चल रही हैं। इसकी वजह जिला मुख्यालयों से लेकर तहसील मुख्यालयों तक चिकित्सकों की जबरदस्त कमी हैं। जोधपुर संभाग में 318 चिकित्सकों के पद लम्बे समय से रिक्त पड़े हैं, जिस कारण मरीजों का दबाव यहां सेवाएं दे रहे प्रत्येक चिकित्सक पर अधिक हैं एवं उनका वर्कलोड अप्रत्याशित तरीके से बढ़ गया हैं। ऐसी ही हालत नर्सेज की हो रखी हैं। इसके चलते आए दिन अस्पतालों में फसाद भी हो रहे  हैं।

अकेले जोधपुर जिले में ही 127 पद रिक्त
सीधे तरीके से स्थिति को बयां करे तो मुठ्ठी भर चिकित्सकों के सहारे मारवाड़ की चिकित्सा व्यवस्था को सुचारू चलाने का दबाव चिकित्सा के संयुक्त निदेशक जोधपुर जोन पर  हैं। अकेले जोधपुर जिले में ही 127 चिकित्सकों के पद रिक्त हैं। यानि पूरे संभाग की तुलना में अकेले जोधपुर में ही आधे पद रिक्त पड़े  हैं ये पद मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी के अधीन आने वाले अस्पतालों की संख्या वाले  हैं, मेडिकल कॉलेज के पद मिलाएं तो ये संख्या अधिक हो जायेगी। ये हालत संभागीय मुख्यालय जोधपुर जैसे जिले की  हैं। जोधपुर जिले की बात करे तो यहां पर 25 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र स्तर के अस्पताल  हैं। 85 ग्रामी स्वास्थ्य केंद्र  हैं। 30 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हैं। यहां पर 150 प्रसव ग्रामीण क्षेत्र में प्रतिदिन होने का दावा किया जा रहा हैं। जिले के सेटलाइट, जिला अस्पताल व जोधपुर शहरी डिस्पेंसरियों में प्रसव की बात करे तो ये संख्या 175 के आसपास बैठती हैं।

415 पद स्वीकृत, सेवाएं दे रहे 288
मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी कार्यालय के अधीन आने वाले अस्पतालों में कुल 415 पद चिकित्सकों के स्वीकृत हैं, जिसमें से 288 पद पर ही चिकित्सक लगे हैं। उसमें से ही गांवों की जगह चिकित्सक प्रतिनियुक्ति पर जोधपुर शहर के अस्पतालों में टिके  हैं। वही पाली जिले में वर्तमान में 281 चिकित्सक कार्यरत  हैं और 120 पद खाली पड़े है। जालोर में 287 पद सृजित  हैं लेकिन चिकित्सक 127 ही कार्यरत  हैं। सिरोही में 134 चिकित्सकों के ही पद ही स्वीकृत  हैं जिसकी जगह वहां पर 73 चिकित्सक ही कार्यरत हैं। बाड़मेर जिले में 292 की जगह 167 ही कार्यरत हैं। जैसलमेर में 150 पद स्वीकृत  हैं, उसकी जगह 68 चिकित्सक ही कार्यरत  हैं, जैसलमेर में सबसे कम पद सरकार ने दे रखे हैं, उसमें से भी 82 पद रिक्त पड़े  हैं।

सरकार द्वारा गंभीरता से लेने की जरूरत
संभाग में पीएमओ ही जिला स्तर के व सेटलाइट अस्पताल चलाते आए हैं। इसकी हालत यहां बड़ी दयनीय हैं। इनके अधीन भी चिकित्सक पूरे नहीं हैं। पावटा जोधपुर में तो 31 चिकित्सकों के पद की जगह पूरे चिकित्सक कार्यरत हैं तो महिलाबाग में 40 की जगह 15 पद पर ही चिकित्सक कार्यरत हैं। पाली में 57 की जगह 32, सोजत में 36 की जगह 18, जालोर में 45 की जगह 30, सिरोही में 42 की जगह 32, बालोतरा में 36 की जगह 18, जैसलमेर में 59 की जगह 37 चिकित्सक ही कार्यरत हैं। ये वे संभाग के अस्पताल  हैं जहां पर सर्वाधिक मरीजों की कतारे लगती हैं। जहां पर ही पूरे चिकित्सक नही होने के कारण व्यवस्थाएं चरमराई रहती हैं। संपूर्ण स्थिति वाकई चिंताजनक हैं जिसे सरकार द्वारा गंभीरता से लिए जाने की आवश्यकता हैं।

Thursday 16 November 2017

गंगा कुमारी : राजस्थान की पहली किन्नर पुलिस कांस्टेबल

घनश्याम डी रामावत
राजस्थान हाईकोर्ट द्वारा हाल ही में एक किन्नर के पक्ष में सुनाए गए फैसले ने प्रदेश के किन्नरों के लिए सरकारी नौकरी के दरवाजे खोल दिए हैं। प्रदेश के जालोर जिले की जाखड़ी निवासी किन्नर गंगा कुमारी की याचिका पर सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट ने राजस्थान पुलिस विभाग को उसे नियुक्ति देने के आदेश दिए हैं।

किसी किन्नर को सरकारी नौकरी देने का राजस्थान में यह प्रथम और देश में तीसरा मामला हैं। हाईकोर्ट के आदेश के बाद अब पुलिस में कांस्टेबल के पद पर पहली बार किसी किन्नर को नियुक्ति दी जाएगी। जस्टिस दिनेश मेहता की कोर्ट ने गंगा कुमारी की याचिका पर सुनवाई करते हुए 6 सप्ताह में नियुक्ति देने और वर्ष 2015  से ही नोशनल बेनीफिट देने के निर्देश दिए हैं। गंगा कुमारी की ओर से अधिवक्ता रितुराज सिंह ने पैरवी करते हुए कहा कि गंगा कुमारी पुलिस कांस्टेबल के पद के पात्र होने के बावजूद जालोर पुलिस अधीक्षक द्वारा नियुक्ति नहीं दी गई। कांस्टेबल भर्ती परीक्षा में चयनित किन्नर की नियुक्ति को लेकर पुलिस मुख्यालय एवं गृह विभाग असमंजस में थे। काफी समय से इस बारे में निर्णय नहीं हो पा रहा था। इस पर किन्नर गंगा कुमारी ने हाईकोर्ट में याचिका दायर की और इस पर जस्टिस दिनेश मेहता ने 13 नवम्बर 2017 को आदेश दिए। 

वर्ष 2013 में हुआ था चयन
वर्ष 2013 में 12 हजार पदों के लिए पुलिस कांस्टेबल भर्ती परीक्षा हुई थी। इसमें गंगाकुमारी का भी चयन हुआ। सभी अभ्यार्थियों का मेडिकल कराया गया तो गंगा के किन्नर होने की बात सामने आई। इस पर पुलिस अधिकारी नियुक्ति देने को लेकर असमंजस में पड़ गए। गंगादेवी के किन्नर होने की पुष्टि होने के बाद पुलिस अधीक्षक ने पुलिस मुख्यालय में मामला भेजा। पुलिस मुख्यालय निर्णय नहीं कर पा रहा था,इस पर गंगा कुमारी कोर्ट में गई और उसे न्याय मिला।  

सुनवाई नहीं हुई, तब लगाई याचिका 
किन्नर गंगा कुमारी के अनुसार वर्ष 2013 में पुलिस कांस्टेबल में चयन होने के बाद ना तो पुलिस विभाग कोई निर्णय ले पाया और ना ही गृह विभाग। किन्नर होने के कारण उसे नौकरी नहीं दी जा रही थी, जबकि देश में दो ऐसे मामलों में फैसला किन्नर के पक्ष में हो रखा था। ऐसे में राजस्थान में नियुक्ति नहीं दिया जाना इनके लिए अत्यधिक कष्टप्रद था। मजबूरन न्यायालय की शरण लेनी पड़ी जहां अंतत: न्याय मिला और हक में फैसला आया।

Wednesday 15 November 2017

राजस्थान : कर्नल जेम्स टॉड को 'नामकरण' का श्रेय

घनश्याम डी रामावत
आजादी से पूर्व राजस्थान के भू-भाग पर विभिन्न राजपूत राजकुलों का शासन होने के कारण राजपूताना कहलाता था। राजपुताना शब्द मुगलकाल से ही प्रचलित था। इतिहासवेत्ता डॉ. रघुवीरसिंह सीतामऊ ने ‘राजस्थान के प्रमुख इतिहासकार उनका कृतित्व’ में लिखा हैं-भाग्य की यह अनोखी विडम्बना ही हैं कि जिस विधर्मी विजेता अकबर के प्रति राजस्थान में सतत विरोध उभरता रहा, ‘अजमेर सूबे’ का संगठन कर उसी ने इतिहास में प्रथम बार इस समूचे क्षेत्र को प्रादेशिक इकाई का स्वरूप दिया।’ मुगलकाल के बाद अंग्रेजों के शासनकाल में यहां के राजाओं के साथ संधियाँ होने के बाद अजमेर में राजपूताना एजेंसी की स्थापना हुई। इस तरह मेवाड़, मारवाड़, ढूंढाड़, शेखावाटी, हाड़ौती, मत्स्य, जांगल, बागड़, सपालदक्ष, शाकम्बरी आदि रियासतों के नाम वाला यह प्रदेश एक प्रादेशिक इकाई के रूप में राजपूताना के नाम से पहचाना जाने लगा। पर आजादी के बाद देश की सर्वोच्च जनतंत्रीय संसद ने इस प्रदेश को राजस्थान का नाम दिया।

इतिहासकारों के अनुसार श्रेय कर्नल टॉड को
सदियों से प्रचलित रहे राजपूताना शब्द की जगह इस प्रदेश के लिए ‘राजस्थान’ शब्द सबसे पहले किसने प्रयुक्त किया, सवाल उठना लाजमी हैं। इसके लिए इतिहास पर नजर डाली जाये तो आजादी के बाद के सभी इतिहासग्रंथों में राजस्थान प्रदेश के नामकरण का श्रेय कर्नल जेम्स टॉड को प्रदान किया हैं। इतिहासवेत्ता डॉ. रघुवीरसिंह सीतामऊ ‘राजस्थान के प्रमुख इतिहासकार उनका कृतित्व’ में लिखते हैं-‘अनेकों समन्दर पार कर विदेशी गोरी सत्ता का अधिपत्य करवाने में प्रमुख अभिकर्ता, कर्नल जेम्स टॉड उस प्रदेश के वर्तमान नाम ‘राजस्थान’ का सुझाव ही नहीं दिया, परन्तु अपने अनुपम ग्रन्थ ‘टॉड राजस्थान’ के द्वारा उसकी कीर्ति-गाथा को जगत विख्यात भी किया। जिससे वह सदैव आशंकित रहा, अंतत: उसी दिल्ली ने भारतीय स्वाधीनता प्राप्ति के बाद इसी राजस्थान को राजनैतिक और शासकीय इकाई के रूप में पूर्णतया सुसंगठित ही नहीं किया अपितु उसे जनतंत्रीय स्वायत्तता भी प्रदान की।’ 

डॉ. रघुवीरसिंह के समान ही अनेक इतिहासकारों ने राजस्थान नामकरण का श्रेय कर्नल टॉड को दिया हैं। क्योंकि कर्नल टॉड द्वारा लिखे गये राजस्थान के इतिहास ‘एनल्स एण्ड एंटीक्विटीज ऑफ राजस्थान’ जो विश्व में प्रसिद्ध हुआ, के शीर्षक में ही राजस्थान नामकरण के इतिहास से सम्बधित गूढ़ तथ्य समाहित हैं। इसी पुस्तक के प्रसिद्ध होने के बाद राजस्थान शब्द आम प्रचलन में आया। हालांकि ऐसा नहीं कि राजस्थान शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम कर्नल टॉड ने ही किया था। इससे पहले भी यह शब्द राजस्थानी भाषा में स्थान विशेष को लेकर रायथान या रायथाण के रूप में प्रयोग होता आया हैं। कर्नल टॉड कृत ‘राजस्थान का पुरातन एवं इतिहास’ पुस्तक की प्रस्तावना में इतिहासकार जहूर खां मेहर लिखते हैं- ‘यदि हम गहराई से राजस्थान शब्द की विभिन्न कालों में यात्रा की खोज करें तो ज्ञात होगा कि राजस्थान शब्द का अबतक का ज्ञात प्राचीनतम उल्लेख वि.सं. 682 का हैं जो पिण्डवाड़ा से तीन कोस की दूरी पर स्थित बसंतगढ़ में खीमल माता के मंदिर के पास शिलालेख पर उत्कीर्ण हैं। 

बांकीदास ग्रंथावली में ‘राजस्थान’ शब्द वाले वाक्य 
मुंहणोत नैणसी, जोधपुर के घड़ोई गांव के निवासी तथा महाराजा अभयसिंह (1724-1749 ई.) के आश्रित कवि वीरभांण रतनू ने अपने ग्रन्थ राजरूपक में भी राजस्थान शब्द का उल्लेख किया हैं, इसी प्रकार जोधपुर के महाराजा भीमसिंह ने 1793 ई. में जयपुर के महाराजा जगतसिंह को जो पत्र लिखा था, जिसमें मराठों के विरुद्ध राजपूत राज्यों की एकता का आव्हान किया गया था, राजस्थान शब्द का उल्लेख हैं। अनेक अन्य टॉड पूर्व के साधनों में राजस्थान शब्द विद्धमान हैं।’ इसी पुस्तक की प्रस्तावना में इतिहासवेत्ता जहूर खां मेहर ने नैणसी, जखड़ा मुखड़ा भाटी री बात, दयालदास सिंढायच री ख्यात, कहवाट सरवहिये री वात, वीरभाण रतनू का राजरूपक, बांकीदास द्वारा लिखित बांकीदास ग्रंथावली में प्रयुक्त ‘राजस्थान’ शब्द वाले कई वाक्य लिखें हैं। जैसे-इतरै गोहिलां पिण आलोच कियौ-जो राठोड़ जोरावर सिरांणै आय राजस्थान मांडियौ(नैणसी)। विणजारै रै सदाई हुवै छै, इसौ वहानौ करि चालतौ चालतौ गिरनार री तळहटी पाबासर माहै राजथांन छै, तठै आय पडिय़ौ।(कहवाट सरवहिये री वात)। सूम मिळै अन सहर में, सहर उजाड़ समान। जो जेहो-वन में मिळै, बन ही राजसथांन(बांकीदास ग्रंथावली) एवं थिर ते राजस्थान महि इक छत्र मोम सांमथ। अेके आंण अखंड, खंडण मांण प्राण नव खंडं(वीरभाण रतनू/राजरूपक)।

14 जनवरी 1949 को राजस्थान नाम दिया गया
उपरोक्त तथ्यों को पढने के बाद जाहिर हैं टॉड की कृति ‘एनल्स एण्ड एंटीक्विटीज ऑफ राजस्थान’ के पहले भी राजस्थानी साहित्य, शिलालेख व पत्र में राजस्थान शब्द का प्रयोग किया गया हैं। टॉड पूर्व राजस्थानी शब्द का प्रयोग दो अर्थों राजधानी अर्थात् राजा का स्थान के रूप में प्रयोग किया जाता रहा हैं। शायद टॉड ने उनमें से दूसरे अर्थ यानी राजा का स्थान को ग्रहण कर अपने ग्रन्थ का नामकरण किया हो। पर इतना तय है कि इस शब्द का प्रयोग सीमित था। टॉड द्वारा अपनी पुस्तक के शीर्षक में राजस्थान शब्द के प्रयोग और टॉड की इतिहास पुस्तक के विश्व प्रसिद्ध होने के बाद राजस्थान शब्द भी प्रसिद्धि में आया। आजादी के बाद जब देश के प्रथम गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल की अध्यक्षता में 14 जनवरी 1949 को आयोजित बैठक में 22 रियासतों के विलय के बाद बने राज्य राजपुताना के स्थान पर ‘राजस्थान’ नाम दिया गया, यह नाम बैंक ऑफ राजस्थान से लिया गया। आजादी के बाद देश की जनतांत्रिक सरकार ने इस प्रदेश के नामकरण के लिए इसी नाम ‘राजस्थान’ को स्वीकार किया।

Tuesday 14 November 2017

पीरा की मजार : मुगल-राजपूत स्थापत्य कला का अद्भुत मिश्रण

घनश्याम डी रामावत
राजस्थान के जोधपुर स्थित चांदपोल विद्याशाला मार्ग पर ‘पीरा की मजार’ मुगल-राजपूत स्थापत्य कला का लाजवाब मिश्रण हैं। मारवाड़ के दो बार दीवान मेड़ता के हाकिम और मुसाहिब रहे खोजा फरासात खां की याद में मकबरे का निर्माण महाराजा जसवंतसिंह(1638-1678) के कार्यकाल में करवाया गया। स्थापत्य की दृष्टि से यह इमारत मुगल राजपूत स्थापत्य कला का सम्मिश्रण हैं। इस स्मारक निर्माण में जोधपुर के लाल घाटू पत्थर प्रयुक्त किए गए हैं। छोटे से आकार की बनी यह मजार जोधपुर में अपनी तरह की एक अलग ही होने के कारण विशेष आकर्षण रखती हैं। मान्यता हैं कि जहां मकबरा बना हैं वहां खोजा फरासात ने जीवित रहते एक सुंदर बाग व बावड़ी का निर्माण करवाया था।

मारवाड़ का दीवान था फरासात खां
महाराजा जसवंतसिंह(1638-1678) के कार्यकाल में सबसे विश्वासपात्र और विशिष्ट अधिकारी फरासात ने मारवाड़ के कई परगनों की हाकमी करने के अलावा मारवाड़ के दीवान, मेड़ता का हाकिम तथा मुसाहिब का पद भी संभाला था। किरयावर की बही से मालूम होता हैं कि विशिष्ट घरेलू अवसरों पर जो दस्तूर बड़े से बड़े उमरावों व मुत्सदियों का होता था वह खोजा फरासात को भी दिया गया। जोधपुर की ख्यात के अनुसार खोजा फरासात 1645 से 1648 तक और 1650 से 1658 तक जोधपुर के दीवान रहे। ख्यात से ज्ञात होता हैं कि उनकी मृत्यु के बाद 1690 में उनके घर से खूब दौलत मिली थी जिसे नवाब सुजाइता खां के नाईव काजमबेग ने ले ली थी। फरासात ने जीवन काल में मेहरानगढ़ के नीचे एक नाडी बनवाई जिसे फरासात सागर कहा जाता हैं जो अब गोल नाडी कहलाती हैं। फरासात महाराज कुमार पृथ्वीसिंह के अभिभावक भी रह चुके थे। विक्रम संवत् 1746 ई. में चैत्र सुदी दूज रविवार तदनुसार 2 मार्च 1690 में फरासात की मृत्यु के बाद चांदपोल क्षेत्र के बाग में दफनाया गया तथा उनकी स्मृति में एक मकबरा बनवाया गया। ऐसा जोधपुर राज्य की ख्यात से ज्ञात होता हैं।

विभिन्न धर्मो के लोग आते हैं मजार पर
चांदपोल क्षेत्र में विद्याशाला के सामने की ओर रिहायसी इलाके में यह मजार स्थित हैं। क्षेत्र के प्रतिष्ठित नागरिक भीमसिंह सांखला के अनुसार मजार पर श्रद्धालुओं की प्रत्येक बुधवार व गुरूवार को जबरदस्त भीड़ रहती हैं। अपनी मन्नत पूरी होने पर श्रद्धालु यहां चादर व प्रसाद चढ़ाते हैं। मजार के प्रति विभिन्न धर्मों के लोगों की आस्था हैं। मजार से संबंधित क्षेत्र के लोग अपने परिवारों में होने वाली शादियों के दौरान वर-वधुओं को अन्य धार्मिक स्थलों की तरह ही यहां भी धोक लगवाते हैं। रोचक बात यह कि मजार पर आज तक कोई ताला नहीं लगा हैं। हां! मौजूदा दौर को गंभीरता से लेते हुए सतर्कतावश अब यहां सीसी टीवी कैमरे अवश्य लगवा दिए गए हैं। मजार की देखरेख व सफाई क्षेत्रवासी ही करते हैं। इस मजार की पहचान ‘पहलवान साहब की दरगाह’ के रूप में भी हैं।

Sunday 12 November 2017

माचिया जैविक उद्यान : सफेद टाइगर का इंतजार...

घनश्याम डी रामावत
सूर्यनगरी जोधपुर के माचिया जैविक उद्यान आने वाले देशी-विदेशी पर्यटकों को सफेद टाइगर की दहाड़ सुनने सहित उसकी अठखेलियों से दो चार होने के लिए कुछ समय और इंतजार करना पड़ेगा। सफेद टाइगर को यहां लाने की योजना पर फिर से एक बार पानी फिर गया हैं। योजना की विफलता के लिए वन अधिकारियों द्वारा सफेद टाइगर के लिए सही तरीके से पैरवी नहीं करने एवं स्थानीय जनप्रतिनिधियों द्वारा मामले में रूचि नहीं लिए जाने को जिम्मेदार माना जा रहा हैं।
छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जंतुआलय ने एनिमल एक्सचेंज योजना के तहत करीब एक वर्ष पूर्व ही सफेद टाइगर जोधपुर माचिया जैविक उद्यान को देने पर सैद्धांतिक सहमति व्यक्त कर दी थी, किन्तु केन्द्रीय चिडिय़ाघर प्राधिकरण के अधिकारियों ने मात्र सफेद टाइगर होने के कारण इसे हरी झण्डी नहीं दी। सफेद टाइगर को लेकर विफलता के बीच अच्छी खबर यह हैं कि जैविक उद्यान में जल्दी ही दो रॉयल बंगाल टाइगर दस्तक देने वाले हैं। कानपुर जंतुआलय ने जोधपुर के लिए दो रॉयल बंगाल टाइगर सहित 2 सेही के जोड़े देने पर सहमति जता दी हैं। कानपुर जूूूलोजिकल पार्क ने वन्यजीव आदान-प्रदान योजना अंतर्गत उप वन संरक्षक (वन्य जीव) जोधपुर को रॉयल बंगाल टाइगर देने पर लिखित में सहमति प्रदान कर दी हैं। दो टाइगर के बदले जोधपुर वन विभाग को एक भेडि़ए का जोड़ा तथा दो नर, चार मादा सहित कुल 6 चिंकारे देने होंगे।

जोधपुर का वातावरण सफेद टाइगर के उपयुक्त
माचिया जैविक उद्यान में करोड़ों की लागत से तैयार किए गए एन्क्लोजर्स रॉयल बंगाल टाइगर के लिए उपयुक्त होने के बावजूद सीजेडए की ओर से सफेद टाइगर के लिए मना करना समझ से परे हैं। राजस्थान में जयपुर और उदयपुर के जैविक उद्यान में सफेद शेर मौजूद हैं। जयपुर, उदयपुर और जोधपुर की भौगोलिक स्थिति तथा जलवायु में विशेष अंतर नहीं हैं। यहीं कारण हैं छत्तीसगढ़ जंतुआलय प्रशासन द्वारा सफेद टाइगर देने की सहमति जताने के बाद भी केंद्रीय चिडिय़ाघर प्राधिकरण की ओर से मंजूरी नहीं दिए जाने को अधिकारियों की मनमानी करार दिया जा रहा हैं। वन्य जीव विशेषज्ञों का मानना हैं कि इसके लिए जोधपुर की ओर से सफेद टाइगर लाने के मामले में वन अधिकारियों द्वारा सहीं ढ़ंग से पैरवी नहीं की गई।

सफेद और पीले टाइगर में खास अंतर नहीं
तकनीकी तौर पर सफेद और पीले टाइगर में कोई विशेष अंतर नहीं हैं। छत्तीसगढ़ जंतुआलय से सहमति मिलने के बावजूद महज अधिकारियों की तथाकथित ढि़लाई की वजह से माचिया जैविक उद्यान आने वाले पश्चिमी राजस्थान सहित देशी-विदेशी पर्यटकों को सफेद टाइगर की अठखेलियों को देखने के लिए कुछ समय और इंतजार करना पड़ेगा। जैविक उद्यान में सफेद टाइगर आ जाने के बाद पर्यटन दृष्टि से लोगों का इस पार्क के प्रति रूझान बढ़ेगा, यह तय हैं। बहरहाल! पर्यटकों को यहां आने वाले रॉयल बंगाल टाइगर से संतोष करना पड़ेगा। 

जन-जन के आराध्य : लोक देवता गोगाजी महाराज

घनश्याम डी रामावत
भारत देश अपनी रंग बिरंगी मनभावन संस्कृति के साथ विशेष रूप से अपनी धार्मिक विशिष्टताओं के लिए दुनियां भर में सम्मानजनक स्थान रखता हैं। जन-जन के आराध्य लोक देवता ‘गोगाजी‘ महाराज संपूर्ण भारत में प्रसिद्ध हैं। चौहान वंश में ‘धंधरान धंगजी’ नामक शासक हुए जिन्होंने धांधू (चुरू/राजस्थान) नगर बसाया था। 
राणा धंग के दो रानियां थी। पहली रानी से दो पुत्र हर्ष और हरकरण तथा एक पुत्री जीण हुए। सीकर से 10 किमी दूर दक्षिण पूर्व में हर्ष एवं जीण की पहाडिय़ां इनकी तपोभूमि रही हैं। यह स्थान जीणमाता के रूप में पूजनीय हैं। दूसरी रानी से तीन पुत्र हुए कन्ह, चन्द और इन्द। धंग की मृत्यु के पश्चात् कन्ह और कन्ह के बाद उसका पुत्र अमरा उत्तराधिकारी हुआ। अमरा के पुत्र झेवर (जेवर) हुआ। अमरा ने अपने युवा पुत्र की सहायता से ‘ददरेवा’ को अपनी नई राजधानी बनाया। महाकवि बांकीदास ने गोगाजी को झेवर का पुत्र बताया हैं। डॉ. तेस्सीतोरी ने भी जोधपुर में एक प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथ को देखकर उदाहरण दिया हैं कि चवांण जेवर तिणारी राणा खेताब थी गढ ददरवै राजधानी थी।

गोरखनाथ जी के आशीर्वाद से गोगाजी का जन्म
गोगाजी की माता का नाम बाछल था। बाछल के कई वर्षों तक संतान नहीं हुई। उन्हें गुरू गोरखनाथ ने आशीर्वाद दिया और फलस्वरूप बाछल की कोख से गोगाजी का जन्म हुआ। एक बार गोगाजी पालने में झूल रहे थे तब एक सर्प उन पर फन फैला कर बैठ गया। माँ व पिता ने जब उसे दूर करने का प्रयास किया तो गोगाजी ने कहा कि यह तो मेरा साथी है। इसे मेरे साथ खेलने दो। झेवर की मृत्यु के पश्चात् गोगाजी वहां के शासक हुए। गोगाजी के समय राज्य की सम्पूर्ण जनता सुखी थी जिससे इनके जीवनकाल में ही उनकी यशगाथा फैल गयी लोक मान्यता है कि पाबूजी राठौड़ की भतीजी केलम का विवाह गोगाजी के साथ हुआ था। 

गोगाजी के शासक बनने पर धंध के वंशजों में गृह युद्ध हुआ। गोगाजी के मौसेरे भाई अर्जन सर्जन ‘ददरेवा’ प्राप्त करने के लिए गोगाजी से युद्ध करने आ पहुंचे। अर्जन सर्जन सगे भाई थे और इन्हें ‘जोड़ा’ कहा जाता हैं। इन्हीं के नाम पर जोड़ी गांव (चुरू) आबाद हुआ। ददरेवा से उत्तर की ओर खुड़ी नामक गाँव के पास एक ‘जोड’ (तालाब के पास छोड़ी हुई भूमि) पर गोगाजी और अर्जन-सर्जन के बीच युद्ध हुआ और वहीं ये वीर गति को प्राप्त हुए। इस स्थान पर पत्थर की दो मूर्तियां प्रमाण स्वरूप आज भी विद्यमान हैं और भोमिया के रूप में इनकी पूजा होती हैं। उस वक्त के समाज में सम्पूर्ण भारत की राजनैतिक दशा शोचनीय थी। लुटेरे महमूद गजनवी के आक्रमण बार बार हो रहे थे। 

‘गोगामेड़ी’ नामक स्थान पर गजनवी से युद्ध हुआ
1025 ई. में महमूद सोमनाथ का मंदिर लूट कर वर्तमान राजस्थान के उत्तरी भाग से गुजर रहा था गोगाजी जैसा वीर पुरुष यह कैसे सहन कर सकता था? जन धन एवं असहाय जनता की रक्षा के लिए गोगाजी प्राणापण से तैयार रहते थे। गोगाजी ने अपने पुत्र पौत्रों सहित आक्रमणकारी का पीछा करते हुए उसे युद्ध के लिए ललकारा। वर्तमान ‘गोगामेड़ी’ नामक स्थान पर महमूद गजनवी एवं गोगाजी की सेना के बीच भयंकर युद्ध हुआ। विदेशी आक्रांता को नकलची इतिहासकारों ने साहसी सैनिक तक की उपमा दे दी हैं। अपने चंद साथियों और पुत्र पौत्रों के साथ गोगाजी ने उस विदेशी आक्रांता को धूल चटा दी। कुछ समय तक तो महमूद भी निर्णय नहीं कर सका कि यह कोई सांसारिक योद्धा हैं या यमराज ।

कर्नल टॉड ने लिखा हैं कि ‘गोगा जी’ ने महमूद का आक्रमण रोकने को सतलज के किनारे अपने सौंतालीस लडक़ों समेत जीवन को न्यौछावर किया था। गोगाजी के वीरगति प्राप्त हो जाने पर उनके भाई बैरसी का पुत्र उदयराज ददरेवा का राजा बना। उदयराज के बाद जसराज, केसोराई, विजयराज, पदमसी, पृथ्वीराज, लालचन्द, अजयचन्द, गोपाल, जैतसी, पुनपाल, रूपरावन, तिहुपाल और मोटेराव ‘ददरेवा’ के राणा बने। मोटेराव के समय ददरेवा पर फिरोज तुगलक का आक्रमण हुआ तथा मोटेराव के तीन पुत्रों को मुसलमान बना दिया गया परन्तु चौथा पुत्र जगमाल हिन्दू रहा। बड़ा पुत्र करमचन्द था जिसका नाम कयाम खां रखा गया। करमचन्द एवं उसके भाइयों के वंशज कयामखानी कहलाए। 

गोगाजी महाराज को पीर कहा जाने लगा
ददरेवा का शासक जगमाल बना तथा कयाम खां ने शेखावाटी पर अपना अधिकार कर लिया। इन्हीं के वंशजों द्वारा गोगाजी को पीर कहा जाने लगा। यह नाम तत्कालीन समय में लोकप्रिय हुआ जो वर्तमान में जाहरपीर (जहांपीर) के नाम से सुप्रसिद्ध हैं। गोगामेडी उत्तर रेलवे की हनुमानगढ सादुलपुर लाईन पर मुख्य स्टेशन तथा हनुमानगढ जिले की पंचायत समिति नोहर का प्रमुख गांव हैं। गोगा नवमी का त्यौहार मारवाड़ के प्रत्येक गांव में बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता हैं। भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की अष्टमी व नवमी को गोगामेड़ी में बड़ा भारी मेला भरता हैं, जहां भारी तादाद में श्रद्धालु दर्शनार्थ पहुंचते हैं।

मारवाड़ में एक कहावत हैं ‘गांव-गांव गोगो अर गांव-गांव खेजड़ी’। गोगाजी को नाग देवता के रूप में पूजते हैं तो कहीं केसरिया कंवरजी के रूप में, हर गांव में एक थान (चबूतरा) मिल जायेगा जिस पर मूर्ति स्वरूप एक पत्थर पर सर्प की आकृति अंकित होती हैं। यही गोगाजी का थान माना जाता हैं। यहां नारियल, चूरमा, कच्चा दूध, खीर का प्रसाद बोला जाता हैं। बचाव के लिए घर के चारों ओर कच्चे दूध की ‘कार निकाल दी जाती हैं।जनमानस में ऐसा विश्वास हैं कि ऐसा करने पर घर में सर्प प्रवेश नहीं करता। सर्प को केसरिया कंवरजी की सौगन्ध भी दी जाती हैं। ‘हलोतिये’ के दिन नौ गांठों वाली राखड़ी ‘हाळी’ और ‘हळ दोनों के बांधी जाती हैं जिसे शुभकारी माना जाता हैं।

Friday 10 November 2017

भीम भडक़ : पाण्डवों की तपोभूमि, 150 फुट लंबी गुफा

घनश्याम डी रामावत
सूर्यनगरी जोधपुर महानगर से महज 8 किलोमीटर दूर कायलाना झील की ऊपरी पहाडिय़ों में स्थित महाभारत कालीन प्राचीन आध्यात्मिक विरासत भीम भडक़ ऐसा शांत व दर्शनीय स्थल हैं, जिसे दूर से देखने पर ऐसा लगता हैं, मानो एक विशाल शिलाखंड अधर झूल रहा हो। यह धार्मिक स्थल एक सैन्य रडार क्षेत्र से सटा हुआ हैं अर्थात यहां तक पहुंचने के लिए सेना की सुरक्षा जांच से गुजरना व अनुमति आवश्यक हैं। 
ऐसी लोक मान्यता हैं कि द्यूत क्रीड़ा में हार जाने के बाद 12 वर्ष के वनवास तथा एक वर्ष के अज्ञातवास काल में पांडव भीम भडक़ आए और इसी स्थान पर गुफा में ठहरे थे। भीम भडक़ में 150 फुट लंबी गुफा हैं, ऐसी मान्यता हैं कि इसका ऊपरी सिरा ढक़ने के लिए भीम ने एक विशाल चट्टान को ऊपर रख दिया था। हजारों वर्षो से यह चट्टान आज भी उसी स्थिति में होने से हर आम के लिए यह कौतूहल का विषय हैं। विशाल गुफा में भीमसेन ने आद्यशक्ति की प्रतिमा स्थापित कर आराधना की थी। गुफा और प्रतिमा आज भी उसी स्थिति में हैं। भीम भडक़ के मुख्य महंत भास्करानंद के अनुसार जन-जन की आस्था के प्रतीक भीम भडक़ धार्मिक स्थल पर सूर्योदय से पूर्व और सूर्यास्त के बाद जाना प्रतिबंधित हैं। ऐसी धारणा हैं कि तत्कालीन महाराजा मानसिंह ने गुरू आयस देवनाथ की हत्या होने के बाद भीम भडक़ में रहकर एकांतवास में तपस्या की थी। हंस निर्वाण सम्प्रदाय के स्वरूपानंद ने पांच दशक तक यहां रहकर तपस्या की। इनके द्वारा वर्ष 1991 में गोशाला की स्थापना की गई जो आज भी मौजूद हैं। भीम भडक़ आश्रम में स्वरूपानंद सहित हीरानाथ, श्रीनाथ व लीलानाथ की समाधियां मौजूद हैं। 

महात्मा स्वरूपानंद स्मृति संस्थान की ओर से मंदिर में 3200 किलोग्राम काले ग्रेनाइट का विशाल शिवलिंग व नंदी भी स्थापित हैं, जहां नियमित पूजन होता हैं। शिवलिंग भीमकाय चट्टान के नीचे स्थापित हैं। यहां भगवान भोलेनाथ के दर्शनार्थ आने वाले श्रद्धालुओं का तांता भी प्रतिदिन लगा रहता हैं। यहीं कारण हैं कि श्रद्धालुओं में इस धार्मिक स्थल की पहचान भीम भडक़ महादेव मंदिर के रूप में भी हैं। जोधपुर के लोगों के लिए प्रमुख आस्था स्थलों मेें से एक भीम भडक़ में गुरू पूर्णिमा को भरने वाला मेला, श्रद्धालुओं पर लागू नवीनतम नियमों की वजह से अब बंद हो चुका हैं। आस्था स्थल पर पहुंचने के लिए मार्ग में पडऩे वाली सेना की सुरक्षा चौकी पर परिचय पत्र दिखाए जाने, विधिवत सुरक्षा जांच, रजिस्टर में ठोस खानापूर्ति व अनुमति के बाद ही पहुंचा जा सकता हैं।

सूर्योदय और सूर्यास्त का दुर्लभ नजारा
भीम भडक़ की 300 फीट लंबी और 70 फीट चौड़ी विशाल चट्टान से जोधपुर में सूर्योदय व सूर्यास्त का अनूठा नजारा दिखता हैं, जो शहर के अन्यत्र किसी भी हिस्से से संभव नहीं हैं। भीम भडक़ की व्यवस्था देखने वाले स्वरूपानंद स्मृति संस्थान के अनुसार संस्थान के प्रयासों से राजस्थान हाईकोर्ट ने 31 मई 2013 को आदेश कर सूर्योदय से सूर्यास्त तक दर्शनार्थियों को भीम भडक़ में दर्शन की अनुमति दी हैं। धार्मिक स्थल पर पहुंचने के लिए वर्तमान में सेना चौकी की जांच से श्रद्धालुओं को गुजरना पड़ता हैं, ऐसे में धार्मिक स्थल तक पहुंचने के लिए भविष्य में अलग से मार्ग बन जाता हैं तो काफी सुविधा हो जाएगी तथा पर्यटन की दृष्टि से भी भीम भडक़ के लिए नए द्वार खुल सकते हैं।

धार्मिक स्थल पर दुर्लभ शैल चित्र विद्यमान
महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाश शोध केन्द्र के अनुसार भीम भडक़ में आठ हजार वर्ष पुराने शैलश्रय एवं शैल चित्र खोज गए हैं। यहां की पहाडिय़ों ग्रेनाइट पत्थर से बनी हैं। भीम भडक़ से उत्तर की ओर स्थित एक शैलाश्रय में करीब साढें पांच फुट की ऊंचाई पर लाल रंग की आकृति दिखाई देती हैं। शैलाश्रय के निकट ही चर्ट और अमेट से निर्मित ब्लंटेड ब्लेड एवं बाणों के नुकीले अग्र भाग प्राप्त हुए हैं। जोधपुर और इसके आसपास के क्षेत्र में मानव सभ्यता के अब तक प्राप्त प्राचीनतम प्रमाणों में भीम भडक़ के शैल चित्र एवं प्रस्तर उपकरणों को रखा जा सकता हैं।