Wednesday 21 October 2015

रावण का प्रतीक एक मनोवैज्ञानिक सत्य(Rawan's Symbol Is A Psychological Truth)!

घनश्याम डी रामावत
हर वर्ष दशहरा आता हैं और हम रावण व उसके परिजनों के पुतलों को जलाते हैं। यह रावण वास्तव में क्या हैं और उसे जलाकर हम क्या साबित करते हैं? इसका पौराणिक संदर्भ हटा दे तो रावण का प्रतीक एक मनोवैज्ञानिक सत्य हैं। पश्चिम में मनोविज्ञान ने कई मनोरोगों की खोज की हैं, जिनमें एक हैं स्किजोफ्रेनिया। इसका मतलब हैं खंडित व्यक्तित्व। जब व्यक्तित्व अत्यधिक जटिल हो तो उसके दो नहीं, अनेक टुकड़े हो जाते हैं। हमारा सामाजिक जीवन एक दिखावा होता हैं। हम जैसे हैं, वैसे बाहर दिखा नहीं सकते, इसलिए हमें नकली चेहरे ओढऩे पड़ते हैं। ओशो ने रावण की अवस्था का विश्लेषण करते हुए कहा हैं-‘पाखण्ड का अर्थ हैं जो हम नहीं हैं, वैसा स्वयं को दिखाना। जो हमारा वास्तविक चेहरा नहीं हैं, उस चेहरे को प्रकट करना। हम सबके मुखौटे हैं, जरूरत होने पर हम इन्हें बदल लेते हैं। सुबह से सांझ तक बहुत बार हमे नये-नये चेहरों का उपयोग करना पड़ता हैं। जैसी जरूरत होती हैं, वैसा चेहरा हम लगा लेते हैं। धीरे-धीरे यह भी हो सकता हैं कि इस पाखण्ड में चलते-चलते हम यह भी भूल जाएं कि वास्तव में हम हैं कौन?’ यह परीलक्षित भी होने लगा हैं।

आज जब इंसान स्वयं से पूछता हैं कि वह कौन हैं तो सचमुच कोई उत्तर नहीं आता, क्योंकि इंसान इतने चेहरे प्रकट कर चुका हैं, इतने रूप धर लिए हैं और स्वयं को इतनी सारी भ्रांतियों के साथ प्रचारित कर दिया हैं कि वह अब खुद ही भ्रम में पड़ गया हैं कि वह कौन हैं? क्या हैं उसका सच! कोई सच्चाई हैं भी या बस सब धोखा ही धोखा हैं! सुबह से सांझ तक, हम जो नहीं हैं, वह हम अपने को प्रचारित कर रहे हैं। हम रावण की कथा पढ़ते हैं, लेकिन शायद हमें उसका अर्थ पकड़ में नहीं आ रहा हैं या फिर हम उसके अर्थ को समझना ही नहीं चाहते कि रावण दशानन हैं और उसके दस चेहरे हैं। राम ‘ऑथेंटिक’ हैं, प्रामाणिक हैं। उन्हें हम पहचान सकते हैं, क्योंकि कोई धोखा अथवा फरेब नहीं हैं। रावण को पहचानना मुश्किल हैं। उसके अनेक चेहरे हैं। दस का मतलब, बहुत सारे। चूंकि दस आखिरी संख्या हैं। दस से बड़ी कोई संख्या हैं भी नहीं, दस के ऊपर सब संख्याएं जोड़ हैं। दस चेहरे का तात्पर्य हैं, बस आखिरी। उसका असली चेहरा कौनसा हैं, पहचानना वाकई मुश्किल हैं।

रावण असुर हैं और हमारे चित्त की दशा जब तक आसुरी रहती हैं, तब तक हमारे भी बहुत सारे चेहरे होते हैं। हम भी दशानन होते हैं। इससे हम दूसरों को धोखा देते हैं वह तो ठीक हैं, किन्तु तकलीफ की बात यह कि इससे हम खुद भी धोखा खाते हैं। क्योंकि हम खुद ही भूल जाते हैं कि हमारा स्वरूप क्या हैं? अब यक्ष प्रश्र यह कि हमारे अंदर विराजमान दशानन को हम कैसे जलाएं? हम उसके प्रति बिल्कुल भी जागरूक नहीं हैं। इसे यूं भी कह सकते हैं कि बेहोश हैं। लेकिन कोई हर्ज नहीं, बेहोशी टूट भी सकती हैं। जब जागो, तभी सवेरा! हमारे यह दस चेहरे दशानन और उसके परिजनों के पुतले जलाकर तो हर्गिज नहीं जल सकते। इन चेहरों को ध्यान व आत्मचिंतन से ही समझा जा सकता हैं। ध्यान अर्थात सजगता। सजगता व पूरी ईमानदारी से स्वयं के एक-एक चेहरे को देखना होगा। जब हम मुखौटा अर्थात आवरण धारण करते हैं तो सबसे पहले हमें ही पता चलता हैं। यहीं वो वक्त हैं जहां हमें सजग होने के साथ स्वयं से सवाल करने की आवश्यकता हैं, ‘यह फिर ओढ़ लिया झूठ? क्या आवश्यकता थी इसकी? यदि हम इस मुखौटे को पहचानने में कामयाब हो जाते हैं तो उसे रोकना व हटाना मुश्किल नहीं।

आखिर यह हमारा अपना खेल हैं जो हम स्वयं अपने ही साथ खेलते हैं। हम ही इसे बंद कर सकते हैं। इन सभी चेहरों के पीछे हमारा अपना असली चेहरा हैं, जो हमेशा अनबदला रहता हैं। यहीं चेहरा मूल चेहरा हैं। थोड़ा रूख बदलने की आवश्यकता हैं। एक बार रूख बदल लिया तो फिर अपने आप नकाब उतरने लगेंगे, वक्त हैं आगे बढक़र अंदर सोये श्रीराम का जगाने का। आइए! हम सभी एक सुनहरे संकल्प के साथ कदम बढ़े और दृढ़ता से दस चेहरों का हनन करें। सही मायने में इसके बाद ही हम वास्तविक दशहरा मना पाएंगे.. या यूं कहे, यही हमारे लिए असली दशहरा होगा।

धार्मिक दृष्टि से दशहरे का महत्व
आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को दशहरा मनाया जाता हैं। सम्पूर्ण भारत में यह त्यौहार उत्साह और धार्मिक निष्ठा के साथ मनाया जाता हैं। भगवान विष्णु के अवतार भगवान श्रीराम के द्वारा अधर्मी रावण को मारे जाने की घटना को याद करते हुए हर साल यह त्यौहार मनाया जाता हैं। इस वर्ष दशहरा 22 अक्टूबर गुरूवार को मनाया जा रहा हैं एवं विजयदशमी विजय मुहूर्त दोपहर एक बजकर 57 मिनट से लेकर दो बजकर 42 मिनट तक का हैं। मान्यता हैं कि विजय मुहूर्त के दौरान शुरु किए गए कार्य का फल सदैव शुभ होता हैं। मान्यता हैं कि इस दिन भगवान श्रीराम ने लंकाधिपति रावण को मारकर असत्य पर सत्य की जीत प्राप्त की थी, तभी से यह दिन विजयदशमी अर्थात दशहरे के रूप में प्रसिद्ध हो गया। दशहरे के दिन जगह-जगह रावण-कुंभकर्ण और मेघनाथ के पुतले जलाए जाते हैं। देवी भागवत के अनुसार इस दिन मां दुर्गा ने महिषासुर नामक राक्षस को परास्त कर देवताओं को मुक्ति दिलाई थी इसलिए दशमी के दिन जगह-जगह देवी दुर्गा की मूर्तियों की विशेष पूजा की जाती हैं। पुराणों और शास्त्रों में दशहरे से जुड़ी कई अन्य कथाओं का वर्णन भी मिलता हैं। लेकिन सबका सार यही हैं कि यह त्यौहार असत्य पर सत्य की जीत का प्रतीक हैं।

कई जगह किया जाता हैं अस्त्र पूजन
दशहरे के दिन कई जगह अस्त्र पूजन किया जाता हैं। वैदिक हिन्दू रीति के अनुसार इस दिन भगवान श्रीराम के साथ ही लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न की भी पूजा करनी चाहिए। इस दिन सुबह घर के आंगन में गोबर के चार पिण्ड मण्डलाकर(गोल बर्तन जैसे) बनाएं। इन्हें श्रीराम समेत उनके अनुजों की छवि मानना चाहिए। गोबर से बने हुए चार बर्तनों में भीगा हुआ धान और चांदी रखकर उसे वस्त्र से ढक दें। फिर उनकी गंध, पुष्प और द्रव्य आदि से पूजा करनी चाहिए। पूजा के पश्चात ब्राह्मणों को भोजन कराकर स्वयं भोजन करना चाहिए। धारणा हैं कि ऐसा करने से मनुष्य वर्ष भर सुखी रहता हैं।

मातृ-शक्ति और नारी-सशक्तिकरण का प्रतीक ‘नवरात्र’(Maternal & Female Empowerment Symbol 'Nav-Ratra')...

घनश्याम डी रामावत
नवरात्र के नौ दिनों में माता के नौ रूपों की पूजा करने का विशेष विधि विधान हैं। साथ ही इन दिनों में जप-पाठ, व्रत- अनुष्ठान, यज्ञ-दानादि शुभ कार्य करने से व्यक्ति को पुण्य फलों की प्राप्ति होती हैं। देवी दुर्गा को संसार की शक्ति का आधार माना गया हैं। वेदों और पुराणों में देवी दुर्गा का वर्णन देवी भगवती, आदि शक्ति, महागौरी आदि नामों से किया गया हैं। देवी भागवत में वर्णन किया गया हैं कि आश्विन मास में मां भगवती की पूजा करने से मनुष्य का कल्याण होता हैं। नवरात्र के पहले दिन मां शैलपुत्री की पूजा की जाती हैं तथा इसी दिन शुभ घटस्थापना की भी परम्परा हैं। नवरात्र के दूसरे दिन देवी ब्रह्मचारिणी की पूजा और नवरात्र के तीसरे दिन देवी दुर्गा के चन्द्रघंटा रूप की आराधना की जाती हैं। इसी प्रकार नवरात्र पर्व के चौथे दिन मां भगवती के देवी कूष्मांडा स्वरूप की उपासना के साथ पांचवे दिन भगवान कार्तिकेय की माता स्कंदमाता तथा आश्विन शुक्ल षष्ठी यानि शारदीय नवरात्र के छठे दिन मां कात्यायनी की पूजा(नारदपुराण के अनुसार) का प्रावधान हैं। नवरात्र के सातवें दिन मां कालरात्रि की व आठवें दिन मां महागौरी की पूजा की जाती हैं। इस दिन कई लोग कन्या पूजन भी करते हैं। अंतिम दिन अर्थात नौवें दिन भगवती के देवी सिद्धदात्री स्वरूप का पूजन किया जाता हैं। इस सिद्धिदात्री पूजा के साथ ही नवरात्र में नवदुर्गा पूजा का अनुष्ठान पूर्ण हो जाता हैं।

मां दुर्गा की आराधना का यह पर्व अर्थात नवरात्र हर वर्ष आता हैं। धार्मिक दृष्टि से अत्यधिक पावन इस पर्व के जरिये हमारे सामाजिक जीवन में हर बार अनेक नवीन घटनाओं व परिकल्पनाओं का जन्म होता हैं। हम अंतर्मन से बेहतरीन संकल्पों के साथ नौ दिन लगातार मातृ शक्ति की आराधना करते हैं। पौराणिक दृष्टि से नवरात्र मातृ-शक्ति और नारी-सशक्तिकरण का प्रतीक हैं। आदिशक्ति को पूजने वाले भारत में नारी को शक्तिपुंज के रूप में जाना जाता हैं। यहीं नहीं, नारी सृजन की प्रतीक हैं और हमारे यहां साहित्य और कला में नारी के ‘कोमल’ रूप की कल्पना की गई हैं। कभी उसे ‘कनक-कामिनी’ तो कभी ‘अबला’ कहकर उसके रूपों को प्रकट किया गया हैं। पर आज की नारी इससे आगे हैं.. वह न तो सिर्फ ‘कनक-कामिनी’ हैं और न ही ‘अबला’, इससे परे वह दुष्टों की संहारिणी भी बनकर उभरी हैं। यह अलग बात हैं कि समाज उसके इस रूप को नहीं पचा पाता। आज के दौर में रोजाना जिस प्रकार की बुरी घटनाएं सामने आ रही हैं उसके अनुसार वह उसे घर की चारदीवारी में ही सिमटा हुआ देखना चाहता हैं। बेटियां कितनी भी प्रगति कर लें, तथाकथित पुरुषवादी समाज को संतोष नहीं होता। उसकी हर सफलता और ख़ुशी बेटों की सफलता और सम्मान पर ही टिकी नजर आती हैं। तभी तो आज भी गर्भवती स्त्रियों को ‘पुत्रवती भव:’ का ही आशीर्वाद दिया जाता हैं।

सचमुच! मां दुर्गा के पावन पर्व नवरात्र पर नारी शक्ति के सम्मान व पूजा का दंभ भरने वाले समाज की स्त्री-शक्ति को लेकर परिलक्षित हो रही इस सोच को क्या नाम दिया जाना चाहिए? विचारणीय हैं। नवरात्र पर देवियों की पूजा करने वाले समाज में अनेक बार यह सुनने को मिलता हैं कि बेटा न होने पर बहू को प्रताडऩा किया गया। कभी लड़कियों के जल्दी ब्याह की बात तो कभी उनके पहनावे को लेकर तरह-तरह की सलाह, कभी रात्रि में बाहर न निकलने की हिदायत, कभी सह-शिक्षा को दोष तो कभी मोबाईल या फेसबुक से दूर रहने क़ी सलाह। समाज को अधिकांशत: दोष महिलाओं की जीवन-शैली में दिखता हैं, वह यह स्वीकारने को तैयार ही नहीं हैं कि दोष समाज की मानसिकता में हैं और आवश्यकता सोच को बदलने की हैं। ‘नवरात्र’ के दौरान अष्टमी के दिन नौ कन्याओं को भोजन कराने की परंपरा रही हैं। लोग कन्याओं को ढूढऩे के लिए गलियों की खाक छानते हैं, पर यह कोई नहीं सोचता कि अन्य दिनों में लड़कियों के प्रति समाज का क्या व्यवहार होता हैं।

अंतर्मन से आत्मचिंतन व सकारात्मक सोच विकसित करने की जरूरत
ताज्जुब होता हैं कि यह वही समाज हैं जहां भ्रूण-हत्या, दहेज हत्या व बलात्कार जैसे मामले रोज सुनने को मिलते हैं पर नवरात्र की बेला पर समाज नौ कन्याओं को भोजन कराकर, उनके चरण स्पर्श कर अपनी इतिश्री कर लेना चाहता हैं। आखिर यह दोहरापन क्यों? इसे समाज की संवेदनहीनता माना जाएं या कुछ और.. आज बेटियां जमीं से आसमां तक परचम फहरा रही हैं, पर उनके जन्म के नाम पर ही समाज में विचारधारा ठीक नहीं हैं। इनमें महिलाएं भी शामिल होती हैं। वे स्वयं भूल जाती हैं कि वे स्वयं एक महिला हैं। समाज बदल रहा हैं। अभी तक बेटियों द्वारा पिता की चिता को मुखाग्नि देने के वाकये सुनाई देते थे, हाल के दिनों में पत्नी द्वारा पति की चिता को मुखाग्नि देने और बेटी द्वारा पितृ पक्ष में श्राद्ध कर पिता का पिण्डदान करने जैसे मामले भी प्रकाश में आये हैं। फिर पुरूषों को यह चिन्ता क्यों हैं कि उनकी मौत के बाद मुखाग्नि कौन देगा। अब तो ऐसा कोई बिन्दु बचता भी नहीं, जहां महिलाएं पुरूषों से पीछे हैं। फिर भी समाज उनकी शक्ति को क्यों नहीं पहचानता?

समाज इस शक्ति की आराधना तो करता हैं पर वास्तविक जीवन में उसे वह दर्जा नहीं देना चाहता। नवरात्र पर नौ कन्याओं को भोजन कराने मात्र से ही क्या कर्तव्यों की इतिश्री हो जाती हैं? वाकई! नवरात्र के पावन अवसर पर मां दुर्गा स्वरूप मातृ-शक्ति और नारी-सशक्तिकरण को लेकर समाज को अंतर्मन से आत्मचिंतन करने के साथ ही सकारात्मक सोच विकसित करने की आवश्यकता हैं।

Sunday 18 October 2015

जोधपुर में मनाया जाता हैं रावण का श्राद्ध(Jodhpuriats Perform Rituals to Pay Homage to Rawan; AKA)...

घनश्याम डी रामावत
देश भर में जहां प्रतिवर्ष दशहरे पर लंकाधिपति रावण को बुराई का प्रतीक मानकर ‘बुरे आचरण पर अच्छे आचरण की जीत’ के प्रतीक के तौर पर जश्र मनाया जाता हैं वहीं राजस्थान के जोधपुर में रावण के वंशज आज भी रावण को अपने परिवार का सदस्य मानकर न केवल उसकी पूजा करते हैं अपितु रावण का श्राद्ध भी मनाते हैं। इसके तहत बकायदा विधिवत रूप से तर्पण तो किया ही जाता हैं, रावण की कुलदेवी मां खरानना को प्रसाद का भोग भी लगाया जाता हैं। संभवत पूरे विश्व में रावण ही एकमात्र ऐसे जंवाई होगा जिसका श्राद्ध उसके ससुराल में मनाया जाता हैं। प्राचीन काल में जोधपुर की राजधानी रहे मण्डोर को रावण की ससुराल के रूप में जाना जाता हैं।

यह भी एक इत्तेफाक ही हैं कि जोधपुर में ही रावण के वंशज भी रहते हैं। जोधपुर में रहने वाले दवे-गोधा श्रीमाली ब्राह्मण समाज के लोग स्वयं को रावण का वंशज मानते हैं। जोधपुर में निवास कर रहे दशानन के ये रिश्तेदार वर्षो से रावण का श्राद्ध विधिवत रूप से मनाते हैं। इस बार भी कृष्ण पक्ष की दशमीं को शिव भक्त और विद्धान रावण का श्राद्ध जोधपुर में मनाया गया। रिश्तेदारों द्वारा प्रतिवर्ष तर्पण व पिण्डदान के साथ विशेष पूजा अर्चना तो कराई ही जाती हैं, ब्राह्मणों को भोजन भी कराया जाता हैं। जोधपुर के श्री अमरनाथ मंदिर में रावण की विधिवत रूप से प्रतिमा स्थापित हैं जहां रावण के वंशज नियमित रूप से उसकी पूजा अर्चना करते हैं। देश में भगवान शिव की पूजा करते रावण की यह एक मात्र प्रतिमा हैं। ऐसा माना जाता हैं कि रावण को भोजन में खीर व पूड़ी अत्यधिक पसंद थी लिहाजा तर्पण व पिण्डदान के वक्त इस बात का विशेष ख्याल रखा जाता हैं।

विजयादशमीं को रावण दहन कर जहां भगवान श्रीराम को मानने वाले खुशियां मनाते हैं वहीं, रावण के वंशज इस दिन सूतक स्नान कर शोक मनाते हैं। इस दिन को अपशुगन मानते हुए रावण के वंशज बकायदा पीड़ा महसूस करते हैं एवं इस दिन को शोक दिवस के तौर पर मनाते हैं। यह परम्परा सदियों से चली आ रही हैं। रावण के श्राद्ध में दवे-गोधा श्रीमाली ब्राह्मण समाज के लोग उसी परम्परा से जुड़ते हैं जैसे आम तौर पर सभी परिवारों में निकटतम किसी व्यक्ति का श्राद्ध मनाया जाता हैं। इसके पीछे उनकी मान्यता हैं कि वे अपने धार्मिक व सामाजिक दायित्वों का निर्वहन कर रहे हैं। उनकी यह भी मान्यता हैं कि विश्व में भले ही रावण को अन्याय अथवा बुराई के प्रतीक के तौर पर जाना जाता हैं किन्तु सत्य यह भी हैं कि रावण अत्यधिक बुद्धिमान और श्रेष्ठ ज्योतिषाचार्य भी था, लिहाजा ये गुण भी उसे पूजनीय बनाते हैं।
मंदोदरी व कुलदेवी मां खरानना का मंदिर भी विद्यमान
श्री अमरनाथ मंदिर में रावण के मंदिर के ठीक सामने धर्मपत्नि मंदोदरी का मंदिर भी बना हुआ हैं। 4 गुणा 6 आकार वाले इस मंदिर में मंदोदरी की शिव भक्ति को उद्धत करते हुए हाथों में शिवलिंग लिए प्रतिमा विराजित हैं। वर्ष 2007 में रावण के मंदिर के निर्माण के ठीक एक वर्ष बाद रावण के वंशजों ने मंदोदरी का मंदिर बनाया। उनकी मान्यता हैं कि मंदोदरी मंडोर(जोधपुर) की पुत्री थी एवं पौराणिक दृष्टि से उन्हें तारा व अहिल्या के समकक्ष महासती का दर्जा प्राप्त था लिहाजा वे उनके लिए लंकाधिपति रावण की तरह ही पूजनीय हैं। रावण व मंदोदरी के मंदिर के ठीक मध्य बकायदा 30 गुणा 90 भू-भाग पर शिव वाटिका भी हैं। श्री अमरनाथ मंदिर परिसर में ही रावण की कुलदेवी मां खरानना का मंदिर भी हैं। मां खरानना का राजस्थान में फिलहाल यह एक मात्र मंदिर हैं।
रावण की चंवरी की वर्तमान दशा अच्छी नहीं 
मंडोर(जोधपुर) रेलवे स्टेशन के पास ही ऐतिहासिक रावण की चंवरी बनी हुई हैं। ऐसी किंवदती हैं कि यहां रावण व मंदोदरी का विवाह हुआ था, इसलिए इसे रावण की चंवरी नाम दिया गया हैं। मान्यताओं के अनुसार मंडोर नागाद्रि(नागादड़ी) नामक एक छोटी पहाड़ी पर नदी किनारे बसा हुआ हैं। इसे मंडोर के राजा मंदोदर ने बसाया था और अपनी पुत्री मंदोदरी का विवाह इसी नगर में रावण के साथ किया था। रेलवे स्टेशन के निकट पहाड़ी अर्थात रावण की चंवरी वाले स्थान पर गणपति तथा अष्ट मातृकाओं की उत्कीर्ण मूर्तियां हैं। गणपति के बाएं हाथ की ओर सभी मातृकाएं उत्कीर्ण हैं, शिशु विहीन मातृकाओं की मुद्रा व उनके हाथों की संख्या विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। प्रत्येक मातृका की ऊंचाई लगभग एक फुट हैं।

कला की दृष्टि से ये मूर्तियां भारतीय कला व इतिहास में अद्वितीय हैं, क्योंकि एक साथ स्थानक मुद्रा में तथा 2, 4, 2, 4,2, 4, 2 और 8 हाथों वाली मातृकाओं का तक्षण कम ही दृष्टिकोचर होता हैं। ऐतिहासिक महत्व रखने वाली रावण की इस चंवरी की वर्तमान दशा अच्छी नहीं हैं। रावण की चंवरी में स्थापित मातृकाओं की मूर्तियों के शीश व हाथों के अधिकांश भाग खंडित हो चुके हैं। सीढिय़ां व रावण की चंवरी का ज्यादातर हिस्सा जीर्ण-शीर्ण हो गया हैं। वर्तमान में ऐतिहासिक महत्व का यह स्थान पुरातत्व विभाग के अधीन हैं। विभाग की ओर से इसकी मरम्मत व रख-रखाव कर संरक्षित किया जाए तो यह स्थान एक पर्यटन के रूप में विकसित किया जा सकता हैं।

जोधपुर में रावण के वंशजों के 100 घर
ऐसी मान्यता हैं कि रावण दईजर की पहाडिय़ों से होता हुआ मंडोर आया था एवं मंदोदरी से शादी के बाद पुष्पक विमान में बैठकर पुन: लंका प्रस्थान कर गया। जोधपुर में मौजूद रावण के वंशजों की माने तो वे रावण के साथ बाराती के तौर पर यहां आए थे, रावण शादी के बाद लंका चले गए किंतु वे यही रहने लग गए। दवे-गोधा श्रीमाली ब्राह्मण समाज के कमलेश दवे की माने तो पुरातन काल में उनका कार्य युद्ध के वक्त उद्घोष करने का होता था एवं उनकी जाति का उल्लेख द्रविड़ के रूप में किया गया हैं। इसी का परिष्कृत रूप दवे-गोदा(श्रीमाली ब्राह्मण समाज) हैं। रावण के वंशज परिवारों के अनेक लोग अपने नाम के आगे घोष शब्द का भी उपयोग करते हैं। वर्तमान में जोधपुर में रावण के वंशज परिवारों की संख्या 100 हैं। फलौदी में 60 तथा गुजरात प्रांत में इनकी संख्या करीब 500 के लगभग हैं।

Friday 16 October 2015

बिहार चुनाव: मतदाताओं व देश के विकास की अग्रि परीक्षा(Bihar Elections: Agni Test of Voters & The Country's Development)...

घनश्याम डी रामावत
जिस समय यह ब्लॉग लिखा जा रहा हैं बिहार में दूसरे चरण को लेकर मतदान खत्म होने को हैं। अत्यधिक प्रतिष्ठात्मक इस चुनाव में सभी राजनीतिक दलों के नेता अपने-अपने गठबंधन दलों के साथ प्रचार-प्रसार में लगे हुए हैं एवं उनकी नजरे पूरी तरह शेष बचे चुनावी चरणों पर हैं। समीक्षात्मक दृष्टि से देखा जाएं तो इस बार के बिहार चुनाव परिणामों के बाद देश के राजनीतिक परिदृश्य में व्यापक फेरबदल आना निश्चित हैं। हकीकत में इस बार के चुनाव को बिहार के मतदाताओं तथा देश की विकास की अग्रि परीक्षा के तौर पर भी देखा जा रहा हैं। देश ही नहीं विदेशों में भी बिहार चुनाव के परिणामों को लेकर बेहद जिज्ञासा हैं।

राजनीतिक विश£ेषक बड़े स्तर पर ऐसी सोच रखते हैं कि यदि चुनाव में जीत को सेहरा भारतीय जनता पार्टी के सिर बंधता हैं तो फिर इसे सीधे तौर पर मोदी सरकार के कामकाज और उनके विकास के दावों पर मुहर के रूप में देखा जाएगा। अगर ऐसा नहीं हो पाता हैं तो यह माना जाएगा कि बिहार अभी भी जातिवाद की संकीर्णता से उबर नहीं सका हैं और बिहार के चारा घोटाले के आरोपी नेता लालू यादव अपना जाति कार्ड खेलने में सफल रहे हैं। हालांकि एक बड़ा वर्ग ऐसा भी हैं जो भाजपा की हार को नीतीश कुमार की सुशासन बाबू की छवि से जोडक़र भी देखेगा। बिहार में भाजपा की पराजय से नकारात्मक राजनीति कर रहे कांग्रेसी युवराज राहुल गांधी को मजबूती मिलेगी, भले ही सीटे कांग्रेस को महज चार ही क्यों न मिले।

बिहार के चुनाव केन्द्र सरकार की मजबूती का आधार बिंदु हैं क्योंकि बिहार में भाजपा का बहुमत आ जाने से राज्यसभा में भी एनडीए का बहुमत आ जाएगा और फिर अगला उपराष्ट्रपति व राष्ट्रपति भी भाजपा का आसानी से आ सकेगा। यही कारण हैं कि सभी दलों ने अपना राजनीतिक भविष्य सुनिश्चित करने के लिए पूरी ताकत झौंक दी हैं। जेडीए नेता नीतीश कुमार व राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव के महागठबंधन ने अपने सभी उम्मीदवारों का चयन जातिगतत तथा परिवारवाद के आधार पर किया हैं। यही काम एनडीए की ओर से भी किया गया हैं। बिहार के चुनावों में भाजपा सहित सभी दलों ने मतदाताओं को रिझाने के लिए कुछ न कुछ खास घोषणाएं की हैं। स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बिहार को पहले ही विशेष पैकेज देने का ऐलान किया हैं जिसे लालू प्रसाद यादव व नीतीश कुमार यादव झूठ का पुलिंदा बता रहे हैं।

बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री व राजद प्रमुख लालू प्रसाद अपने दोनों पुत्रों का राजनीतिक पुनर्वास सुनिश्चित करने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। यही कारण हैं कि वह विकास को छोडक़र जातिवाद का जहर पूरी ताकत के साथ बिहार की जनता में घोल रहे हैं और उसमें सांप्रदायिकता का तडक़ा लगाने की भी कोशिश कर रहे हैं। अभी पहले चरण के मतदान से ठीक पहले लालूप्रसाद गौमांस मुद्दे पर कुछ ऐसा बोल गए कि अब सोनिया गांधी व राहुल गांधी को उनके साथ मंच साझा करने में परेशानी हो रही हैं। बिहार चुनावों में सबसे बड़ी परीक्षा सेकुलर जमात की भी होने जा रही हैं। लालू यादव ने इस बार शब्दावली की सारी की सारी मर्यादाओं को ध्वस्त करने का जैसे रिकॉर्ड कायम करने की ठान ली हैं। वे बेखौफ होकर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के लिए अपशब्दों का प्रयोग कर रहे हैं।

लालू यादव ने एक प्रकार से जाति युद्ध छेड़ते हुए सभी पिछड़ी जातियों को एक साथ आने की अपील की हैं। उन्होंने यह ऐलान भी किया हैं कि यह चुनाव अगड़ी और पिछड़ी जातियों का वर्चस्व का चुनाव बन गया हैं। यदि सभी पिछड़ी जातियां एक नहीं हुई तो सवर्ण फिर सरकार पर कब्जा कर लेंगे। हालांकि लालू यादव के इस बयान को चुनाव आयोग ने गंभीरता से लिया हैं और चेताया हैं कि वे आगे से इस प्रकार के जातिवादी जहर घोलने वाले शब्दों का प्रयोग चुनाव प्रचार के दौरान नहीं करे। यहीं हाल कमोबेश समाजवादी गठबंधन और बसपा का हैं। समाजवादियों व बसपाइयों का बिहार में जनाधार वैसे नहीं के बराबर हैं। इन दलों का चुनाव लडऩे का एकमात्र अंध भाजपा विरोध तथा खोखली सेकुलर मानसिकता हैं। बिहार में बसपा ने अपने जनाधार को बनाने के लिए आरक्षण को बचाने का बहाना बनाया हैं और वह अपने बयानों के जरिये यह साबित करने का प्रयास कर रही हैं कि यदि आरक्षण को बचाना हैं तो बसपा को वोट दो।

बहुजन समाजवादी पार्टी द्वारा अपने संपर्क अभियान में संघ प्रमुख मोहन भागवत के बयानों को आधार बनाया जा रहा हैं। किसी न किसी कारणवश प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व उनकी कार्यशैली से नाराज लोग बिहार में उनके खिलाफ जमकर अपनी भड़ास निकाल रहे हैं। इसमें भाजपा के धुर विरोधी व कभी पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई के खिलाफ चुनाव लड़ चुके वरिष्ठ वकील राम जेठमलानी भी पीएम मोदी से अपनी नाराजगी का इजहार बिहार के मतदाताओं से नीतीश कुमार को वोट देने की अपील से कर रहे हैं।

Thursday 15 October 2015

आरक्षण की उपयोगिता और पात्रता पर सवाल उठना लाजमी(Questioning the usefulness of reservations and entitlement up really necessary)...

घनश्याम डी रामावत
समाजसेवी अन्ना हजारे ने हाल ही में आरक्षण की उपयोगिता पर सवाल उठाया हैं। इसके पहले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने भी इस विषय पर अपनी चिंता व्यक्त की थी। भागवत के पहले कांग्रेस के पूर्व केन्द्रीय मंत्री जितिन प्रसाद ने भी इस मुद्दे पर विचार की आवश्यकता बताई थी। किन्तु सवाल यह हैं कि इतने गंभीर विषय पर लालू यादव जैसे नेताओं द्वारा बेवजह हो-हल्ला मचाने के बाद वास्तविक बहस होने की संभावना ही नहीं बन पाती।

संघ प्रमुख मोहन भागवत ने यह नहीं कहा था कि आरक्षण समाप्त होना चाहिए। उन्होंने सिर्फ दो बात कही थी, पहला यह कि आरक्षण पर विचार होना चाहिए कि इसकी वास्तव में जरूरत किसे हैं? दूसरा यह कि आरक्षण कब तक जारी रखा जाना चाहिए? समाजसेवी अन्ना हजारे ने भी यही कहा हैं कि इसका लाभ हकीकत में उन लोगों तक नहीं पहुंच पा रहा हैं जो वाकई इसके हकदार हैं। निश्चित रूप से यह अफसोसजनक हैं कि आरक्षण की ठेकेदारी करने वाले लालू यादव जैसे नेताओं को बिहार चुनाव के वक्त यह अवसर मिल गया हैं कि वे इतने गंभीर मुद्दे को इतनी हल्की प्रतिक्रिया के साथ मजाक उड़ा रहे हैं, मानों आरक्षण की उपयोगिता एवं पात्रता के औचित्य पर सवाल उठाना अपराध हैं।
सच तो यह हैं कि यह सवाल उठाते वक्त संघ प्रमुख मोहन भागवत और समाजसेवी अन्ना हजारे का अपना कोई स्वार्थ नही था, अर्थात उन्हें वोटों की परवाह नहीं थी किन्तु लालू यादव और नीतीश कुमार को इन लोगों द्वारा दिए गए बयानों की निन्दा में एक अवसर नजर आ रहा हैं। वे इन बयानों की आलोचना अपने-अपने तरीके से करके अपने मतदाताओं को अपने विरोधी भाजपा से सजग रहने के लिए चेतावनी दे रहे हैं क्योंकि वे जानते हैं कि यही चेतावनी उनके लिए वोट बटौरू साबित हो सकती हैं।

बहरहाल आरक्षण किन्हें मिलना चाहिए और आरक्षण कब तक लागू रहना चाहिए ये दोनों मुद्दे इतने ज्वलंत हैं कि गुजरात पाटीदार समुदाय का आंदोलन भी इसी के केन्द्र बिन्दु में हैं। आज भले ही इन मुद्दों का मजाक उड़ाया जाए किन्तु सच तो यह हैं कि आरक्षण से जुड़ इन दो बिन्दुओं पर गंभीरता से विचार की अत्यधिक आवश्यकता हैं क्योंकि पिछले 65 वर्षो में आरक्षण का लाभ समाज के उन वंचित वर्गों तक नहीं पहुंचा हैं जिन्हें इसकी जरूरत थी। आश्चर्य की बात तो यह हैं कि आरक्षण सुविधा के बारे में डॉ. भीमराव अंबेडकर ने स्वयं यह कहा था कि यह हमेशा के लिए नहीं हो सकती। अर्थात.. संविधान में तो आरक्षण की सुविधा महज अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के लिए ही थी और बाबा साहेब की टिप्पणी भी इन्हीं दो जातियों के आरक्षण के बारे में थी। फिर भी 1980 तक किसी ने भी एससी अथवा एसटी के आरक्षण के खिलाफ आवाज नहीं उठाई थी। आज भी इन जातियों के लिए आरक्षण पर कोई सवाल नहीं उठ रहा हैं। सवाल सिर्फ पिछड़े वर्ग के आरक्षण पर ही उठ रहा हैं। इसका कारण यह हैं कि इस वर्ग को मिलने वाली आरक्षण की सुविधा सिर्फ कुछ जातियों में ही सिमट कर रह गई हैं। वह अति-पिछड़ों तक नहीं पहुंच पाई हैं।

हकीकत में आरक्षण की अवधारणा संविधान निर्माताओं ने सामाजिक संरक्षण के उद्देश्य से की थी किन्तु आज विशुद्ध रूप से वोट की राजनीति तक सिमट गया हैं। राजस्थान में सत्तारूढ़ भाजपा सरकार ने भी गुर्जरों और पिछड़े सवर्णों को आरक्षण देने के लिए कोटा 50 प्रतिशत से बढ़ाकर 69 प्रतिशत कर दिया हैं। यद्यपि राज्य सरकार को पता हैं कि अदालत उनकी इस व्यवस्था को निरस्त कर देगी। इसी तरह उत्तर प्रदेश और हरियाणा मेें जाट, महाराष्ट्र में मराठा तथा गुजरात में पटेल आरक्षण की मांग कर रहे हैं।

राजद नेता लालू यादव हमेशा संघ प्रमुख मोहन भागवत, समाजसेवी अन्ना हजारे और भाजपा नेताओं पर आरोप लगाते हैं कि ये लोग डॉ. भीमराव अंबेडकर का अपमान कर रहे हैं। ऐसा वह इसलिए बोलते हैं कि इससे पिछड़े वर्ग की कुछ जातियां तो एकजुट होगी ही, साथ ही दलित वर्ग में भी उनकी धाक जमेगी। किन्तु     उनकी राजनीति गुमराह करने वाली हैं। वे डॉ. अंबेडकर और संविधान निर्मात्री सभा के मानदंडों पर बहस करने के लिए तैयार ही नहीं हो सकते। सच तो यह हैं कि संविधान मेें आरक्षण का एक ही मापदंड निर्धारित किया गया था और वह था अस्पृश्यता का शिकार रही जातियों को ही आरक्षण की सुविधा मिलनी चाहिए। जिस वक्त संविधान निर्माण हो रहा था उस वक्त तो मुश्किल से दस प्रतिशत लोग ही देश में संपन्न थे। शेष नब्बे प्रतिशत की हालत तो विपन्नता से घिरी थी। भूखमरी, अशिक्षा एवं बेराजगारी का तो पूरे देश पर साम्राज्य था। किन्तु बाद में राजनीतिक सुविधा को ध्यान में रखते हुए सामाजिक, आर्थिक तथा शैक्षणिक रूप से अच्छी स्थिति वाली जातियों को भी आरक्षण सुविधा देने की व्यवस्था की गई। जो लोग संघ प्रमुख मोहन भागवत और अन्ना हजारे का मजाक उड़ा रहे हैं उनको इस बात का अहसास नहीं हो रहा हैं कि संपन्न वर्ग के लोग आए दिन जब पिछड़ें वर्ग में शामिल हो रहे हैं तो अति-पिछड़े लोग भी सक्रिय हो रहे हैं और वे खुद को अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति को मिलने वाले कोटे में शामिल कराना चाहते हैं।

वाकई यह गंभीर चिंता का विषय हैं कि वोटों के लिए हमारे राजनेता आरक्षण के संरक्षण और नई जातियों को आरक्षण दिलाने का वादा तो कर लेते हैं किन्तु वे यह महसूस करने के लिए तैयार नहीं हैं कि जो आरक्षण सामाजिक समस्या के समाधान हेतु व्यवस्था के तौर पर बनाई गई थी वहीं अब समस्या का मूल कारण बनती जा रही हैं। यदि एक तरफ नई-नई जातियां पिछड़े वर्ग में शामिल होने के लिए प्रयासरत हैं तो दूसरी ओर यह सवाल उठना लाजमी हैं कि सरकारी नौकरियों में आरक्षण और सरकारी शैक्षणिक संस्थाओं में प्रवेश हेतु आरक्षण किसे मिले और कब मिले? सवाल सिर्फ संघ प्रमुख मोहन भागवत और समाजसेवी अन्ना हजारे की खिल्ली उड़ाने से हल नहीं होगा। चिंता की बात तो यह हैं कि अब धीरे-धीरे आरक्षण की राजनीति करने वालों के फरेब का घड़ा भरता दिख रहा हैं, कहीं समाज में विद्रोह की स्थिति न उत्पन्न हो जाए और आरक्षण समाज को बांटने का अनियंत्रित घातक हथियार बन जाए।

Wednesday 14 October 2015

मारवाड़ के गौरवशाली इतिहास का प्रत्यक्ष गवाह ‘मंडोर’(Mandore: Direct Witness of the Glorious History of Marwar)...

घनश्याम डी रामावत
पश्चिमी राजस्थान के प्रमुख शहर जोधपुर से 7 किमी उत्तर में स्थित हैं ‘मंडोर’। इसका पुराना नाम मंडोदर या मांडव्यपुर हैं और किसी जमाने में इसकी पहचान मारवाड़ राज्य की राजधानी के तौर पर थी।

एक मान्यता के अनुसार यहां मांडव्य ऋ षि का आश्रम था इसी कारण इसे मांडव्यपुर कहा जाता था। अन्य धारणा यह भी हैं कि नगर का नाम रावण की रानी मंदोदरी के नाम से ताल्लुक रखता हैं। लंका के राजा रावण के साथ मंदोदरी का विवाह इस स्थान पर ही हुआ था, इस दृष्टि से मंडोर को रावण का ससुराल भी कहा जाता हैं।

गुर्जर प्रतिहार राजाओं ने सातवीं शताब्दी के आसपास मंडोर को अपनी राजधानी बनाया था। जोधपुर का शिलालेख(836 ई.) तथा घटियाले के शिलालेख(837 ई. व 861 ई.) के अनुसार मंडोर के प्रतिहार पराक्रमी शासक थे। किंतु 12वीं सदी में मंडोर दुर्ग को छोड़ कर शेष भाग पर चौहान राजाओं का अधिकार हो गया तथा प्रतिहार उनके सामंत बन कर रह गए। तब उनसे परेशान होकर प्रतिहार सामंतो ने राठौड़ वीरम के पुत्र राव चूंडा को 1395 में मंडोर का दुर्ग दहेज में दे दिया। यह भी कहा जाता हैं कि राव चूंडा ने इस दुर्ग पर बलपूर्वक अधिकार किया था। इसके बाद जब सन् 1459 में राव जोधा ने मंडोर को असुरक्षित मान कर अपने नाम से पास ही जोधपुर नगर बसा लिया और उसे मारवाड़ की राजधानी बनाया। उन्होंने जोधपुर के चिडिय़ाटूक पर्वत पर विशाल व सुरक्षित मेहरानगढ़ किले का निर्माण करवा कर राजधानी को जोधपुर स्थानांतरित कर दिया। मंडोर में आज भी बौद्ध स्थापत्य शैली के आधार पर बने प्राचीन खजूरनुमा ‘मंडोर दुर्ग’ के भग्नावशेष मारवाड़ के वीरों की गाथा का बयान करते हैं। इस दुर्ग में बड़े-बड़े प्रस्तरों को बिना किसी मसाले की सहायता से जोड़ा गया था।

वर्तमान में मंडोर में एक सुन्दर उद्यान बनाया गया हैं जिसमें अजीतपोल, वीरों का दालान(हॉल ऑफ हीरोज), देवताओं की साल, अन्य मंदिर, बावडी, जनाना महल, एक थम्बा महल, नहर, झील व जोधपुर के विभिन्न महाराजाओं के देवल(स्मारक) इत्यादि स्थित हैं जो स्थापत्य कला के बेहद खूबसूरत और अद्वितीय नमूने हैं। ये देशी, विदेशी पर्यटकों को बरबस ही लुभाते हैं। इस उद्यान में स्थित कलात्मक इमारतों का निर्माण जोधपुर के तत्कालीन नरेश अजीत सिंह व उनके पुत्र अभय सिंह के शासनकाल में सन् 1714 से 1749 के बीच हुआ था। उसके पश्चात् जोधपुर के विभिन्न राजाओं ने इस उद्यान की मरम्मत करवाई तथा इसे आधुनिक रूप प्रदान कर विकसित किया।

उद्यान में अजीतपोल से प्रवेश करने पर एक बड़ा बरामदा(दालान) दिखाई देता हैं जिसमें विभिन्न देवी-देवताओं, लोक देवताओं व मारवाड़ के वीरपुरुषों की मूर्तियां एक पहाड़ी चट्टान को काट कर उत्कीर्ण की गयी हैं। इसे देवताओं की साळ व वीरों का दालान(हॉल ऑफ हीरोज) कहते हैं। वीरों का दालान(हॉल ऑफ हीरोज) में जहां 16 वीर योद्धाओं की आकर्षक प्रतिमाएं हैं वहीं, देवताओं की साल में 33 करोड़ देवताओं का सुंदर चित्रण हैं।

इसके साथ ही एक सुंदर बावड़ी बनी हैं और साथ ही स्थित हैं जनाना महल। जनाना महल में वर्तमान समय में राजस्थान के पुरातत्व विभाग ने एक सुन्दर संग्रहालय(मंडोर संग्रहालय) बना रखा हैं। इसमें पाषाण प्रतिमाएं, शिलालेख, चित्र एवं विभिन्न प्रकार की कलात्मक सामग्री प्रदर्शित कर रखी हैं। जनाना महल का निर्माण तत्कालीन महाराजा अजीत सिंह(1707-1724) के शासन काल में हुआ जो स्थापत्य की दृष्टि से एक अद्वितीय धरोहर हैं। जनाना महल के प्रवेश द्वार पर एक कलात्मक द्वार निर्मित हैं जिसमें सुंदर झरोखे हैं। इस भवन का निर्माण राजघराने की महिलाओं को राजस्थान में पडऩे वाली अत्यधिक गर्मी से राहत दिलाने के लिए कराया गया था। इस हेतु प्रांगण में फव्वारे भी लगाए गए हैं। महल प्रांगण में ही एक पानी का कुंड हैं जिसे नाग गंगा के नाम से जाना जाता हैं। इस कुंड में पहाड़ों के बीच से एक पानी की छोटी सी धारा अनवरत प्रवाहित रहती हैं। महल व बाग के बाहर एक तीन मंजिली प्रहरी इमारत बनी हैं। स्थापत्य कला की इस बेजोड़ इमारत को ‘एक-थम्बा महल’ कहते हैं। इसका निर्माण भी तत्कालीन नरेश अजीत सिंह के शासन काल में ही हुआ था।

मंडोर उद्यान के मध्य भाग में दक्षिण से उत्तर की ओर एक ही पंक्ति में जोधपुर के महाराजाओं के देवल(स्मारक) ऊंची प्रस्तर की कुर्सियों पर बने हैं जिनमें हिन्दू तथा मुस्लिम स्थापत्य कला का उत्कृष्ट समन्वय देखा जा सकता हैं। इनमें से महाराजा अजीत सिंह का देवल सबसे विशाल हैं। इनके पास ही एक फव्वारों से सुसज्जित नहर बनी हंै जो नागादडी से शुरू होकर उद्यान के मुख्य दरवाजे तक आती हैं। नागादड़ी झील का निर्माण कार्य मंडोर के नागवंशियों ने कराया था जिस पर उस समय के महाराजा अजीत सिंह व तत्कालीन नरेश अभय सिंह के शासन काल में बांध का निर्माण कराया गया।

मंडोर उद्यान के नागादड़ी झील से आगे सूफी संत तनापीर की दरगाह हैं जो श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र हैं। यहां दूर-दूर से यात्री जियारत के लिए आते हैं। इस दरगाह के दरवाजों व खिड़कियों पर सुन्दर नक्काशी की हुई हैं। दरगाह पर प्रतिवर्ष उर्स के अवसर पर मेला लगता हैं। दरगाह के पास ही फिरोज खां की मस्जिद हैं। मंडोर के प्राचीन और दर्शनीय जैन मंदिर व दादाबाड़ी भी विश्व प्रसिद्ध हैं। दरगाह, मस्जिद तथा हिंदू व जैन मंदिरों का एक ही जगह पर होना कौमी एकता की अनूठी मिसाल हैं।

तनापीर की दरगाह से कुछ आगे पंच कुंड नामक पवित्र तीर्थ स्थल हैं, यहां पांच कुंड बने हैं। साथ ही मंडोर के राजाओं के देवल(स्मारक) बने हैं जिनमें राव चूड़ा, राव रणमल और राव गंगा के देवल का स्थापत्य दर्शनीय हैं। पास ही मारवाड़ की रानियों की 56 छतरियां भी बनी हुई हैं, ये छतरियां भी शिल्प कला का उत्कृष्ट उदाहरण हंै।